शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

कब्र का मुनाफा

‘यार कुछ न कुछ तो नया करना ही पड़ेगा। सारी जिंदगी नौकरी में गँवा चुके हैं। अब और नहीं की जाएगी ये चाकरी’, खलील जैदी का चेहरा सिगरेट के धुएँ के पीछे धुँधला-सा दिखाई दे रहा है। नजम जमाल व्हिस्की का हलका सा घूँट भरते हुए किसी गहरी सोच में डूबा बैठा है। सवाल दोनों के दिमाग में एक ही है - अब आगे क्या करना है। कौन करे अब यह कुत्ता घसीटी।

खलील और नजम ने जीवन के तैंतीस साल अपनी कंपनी की सेवा में होम कर दिए हैं। दोनों की यारी के किस्से बहुत पुराने हैं। खलील शराब नहीं पीता और नजम सिगरेट से परेशान हो जाता है। किंतु दोनों की आदतें दोनों की दोस्ती के कभी आड़े नहीं आती हैं। खलील जैदी एक युवा अफसर बन कर आया था इस कंपनी में, किंतु आज उसने अपनी मेहनत और अक्ल से इस कंपनी को यूरोप की अग्रणी फाइनेन्शियल कंपनियों की कतार में ला खड़ा किया है। लंदन के फाइनेन्शियल सेक्टर में खलील की खासी इज्जत है।

‘वैसे खलील भाई क्या जरूरी है कि कुछ किया ही जाए। इतना कमा लिया अब आराम क्यों न करें... बेटे, बहुएँ और पोते पोतियों के साथ बाकी दिन बिता दिए जाएँ तो क्या बुरा है?’

‘मियाँ, दूसरे के लिए पूरी जिंदगी लगा दी, कंपनी को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। लेकिन... कल को मर जाएँगे तो कोई याद भी नहीं करेगा। अगर इतनी मेहनत अपने लिए की होती तो पूरे फाइनेन्शियल सेक्टर में हमारे नाम की माला जपी जा रही होती।’

‘खलील भाई, मरने पर याद आया, आपने कार्पेंडर्स पार्क के कब्रिस्तान में अपनी और भाभी जान की कब्र बुक करवा ली है या नहीं? देखिए उस कब्रिस्तान की लोकेशन, उसका लुक, और माहौल एकदम यूनीक है... अब जिंदगी भर तो काम, काम और काम से फुर्सत नहीं मिली, कम से कम मर कर तो चैन की जिंदगी जिएँगे।’

‘क्या बात कही है मियाँ, कम से कम मर कर तो चैन की जिंदगी जिएँगे। भाई वाह, वो किसी शायर ने भी क्या बात कही है कि, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे... यार मुझे तो कोई दिक्कत नहीं। तुम्हारी भाभी जान बहुत सोशलिस्ट किस्म की औरत हैं। पता लगते ही बिफर जाएगी। वैसे, तुमने आबिदा से बात कर ली है क्या? ये हव्वा की औलादों ने भी हम जैसे लोगों का जीना मुश्किल कर रखा है। अब देखो ना...’

नजम ने बीच में ही टोक दिया, ‘खलील भाई इनके बिना गुजारा भी तो नहीं। नेसेसरी ईविल हैं हमारे लिए; और फिर इस देश में तो स्टेट्स के लिए भी इनकी जरूरत पड़ती है। इस मामले में जापान बढ़िया है। हर आदमी अपनी बीवी और बच्चे तो शहर के बाहर रखता है, सबर्ब में - और शहर वाले फ्लैट में अपनी वर्किंग पार्टनर। सोच कर कितना अच्छा लगता है।’ साफ पता चल रहा था कि व्हिस्की अपना रंग दिखा रही है।

‘यार ये साला कब्रिस्तान शिया लोगों के लिए एक्सक्लूसिव नहीं हो सकता क्या? ...वर्ना मरने के बाद पता नहीं चलेगा कि पड़ोस में शिया है सुन्नी या फिर वो गुजराती टोपी वाला। यार सोच कर ही झुरझुरी महसूस होती है। मेरा तो बस चले तो एक कब्रिस्तान बना कर उस पर बोर्ड लगा दूँ - शिया मुसलमानों के लिए रिजर्व्ड।’

‘बात तो आपने पते की कही है खलील भाई। लेकिन ये अपना पाकिस्तान तो है नहीं। यहाँ तो शुक्र मनाइए कि गोरी सरकार ने हमारे लिए अलग से कब्रिस्तान बना रखा है। वर्ना हमें भी ईसाइयों के कब्रिस्तान में ही दफन होना पड़ता। आपने कार्पेंडर्स पार्क वालों की नई स्कीम के बारे में सुना क्या? वो खाली दस पाउंड महीने की प्रीमियम पर आपको शान से दफनाने की पूरी जिम्मेदारी अपने पर ले रहे हैं। उनका जो नया पैंफलैट निकला है उसमें पूरी डिटेल्स दे रखी हैं। लाश को नहलाना, नए कपड़े पहनाना, कफन का इंतजाम, रॉल्स रॉयस में लाश की सवारी और कब्र पर संगमरमर का प्लाक - ये सब इस बीमे में शामिल है।’

‘यार ये अच्छा है, कम से कम हमारे बच्चे हमें दफनाते वक्त अपनी जेबों की तरफ नहीं देखेंगे। मैं तो जब इरफान की तरफ देखता हूँ तो बहुत मायूस हो जाता हूँ। देखो पैंतीस का हो गया है मगर मजाल है जरा भी जिम्मेदारी का अहसास हो... कल कह रहा था, डैड कराची में बिजनस करना चाहता हूँ, बस एक लाख पाउंड का इंतजाम करवा दीजिए। अबे पाउंड क्या साले पेड़ों पर उगते हैं। नादिरा ने बिगाड़ रखा है। अपने आपको अपने सोशलिस्ट कामों में लगा रखा है। जब बच्चों को माँ की परवरिश की जरूरत थी, ये मेमसाब कार्ल मार्क्स की समाधि पर फूल चढ़ा रही थीं। साला कार्ल मार्क्स मरा तो अंग्रेजों के घर में और कैपिटेलिज्म के खिलाफ किताबें यहाँ लिखता रहा। इसीलिए दुनिया जहान के मार्क्सवादी दोगले होते हैं। सालों ने हमारा तो घर तबाह कर दिया। मेरा तो बच्चों के साथ कोई कम्यूनिकेशन ही नहीं बन पाया।’ खलील जैदी ने ठंडी साँस भरी।

थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया है। मौत का सा सन्नाटा। हलका-सा सिगरेट का कश, छत की तरफ उठता धुआँ, शराब का एक हलका सा घूँट गले में उतरता, थोड़ी काजू के दाँतों से काटने की आवाज। नजम से रहा नहीं गया, ‘खलील भाई, उनकी एक बात बहुत पसंद आई है। उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और खूबसूरत दिखाई दे। अब लोग तो लाश की आखिरी शक्ल ही याद रखेंगे न। नादिरा भाभी और आबिदा को यही आइडिया बेचते हैं, कि जब वो मरेंगी तो दुल्हन की तरह सजाई जाएँगी।’

‘यार नजम, एक काम करते हैं, बुक करवा देते हैं दो दो कब्रें। हमें नादिरा या आबिदा को अभी बताने की जरूरत क्या है। जब जरूरत पड़ेगी तो बता देंगे।’

‘क्या बात कही है भाई जान, मजा आ गया! लेकिन, अगर उनको जरूरत पड़ गई तो बताएँगे कैसे? बताने के लिए उनको दोबारा जिंदा करवाना पड़ेगा... हा...हा...हाहा...’

‘सुनो, उनकी कोई स्कीम नहीं है जैसे बाई वन गैट वन फ्री या बाई टू गैट वन फ्री? अगर ऐसा हो तो हम अपने अपने बेटों को भी स्कीम में शामिल कर सकते हैं। अल्लाह ने हम दोनों को एक एक ही तो बेटा दिया है।’

‘भाई जान अगर नादिरा भाभी ने सुन लिया तो खट से कहेंगी, ‘क्यों जी हमारी बेटियों ने क्या कुसूर किया है?’

‘यार तुम डरावनी बातें करने से बाज नहीं आओगे। मालूम है, वो तो समीरा की शादी सुन्नियों में करने को तैयार हो गई थी। कमाल की बात ये है कि उसे शिया, सुन्नी, आगाखानी, बोरी सभी एक समान लगते हैं। कहती हैं, सभी मुसलमान हैं और अल्लाह के बंदे हैं। उसकी इंडिया की पढ़ाई अभी तक उसके दिमाग से निकली नहीं है।’

‘भाई जान अब इंडिया की पढ़ाई इतनी खराब भी नहीं होती। पढ़े तो मैं और आबिदा भी वहीं से हैं। दरअसल मैं तो गोआ में कुछ काम करने के बारे में भी सोच रहा हूँ। वहाँ अगर कोई टूरिस्ट रिजॉर्ट खोल लूँ तो मजा आ जाएगा...! भाई, सच कहूँ, मुझे अब भी अपना घर मेरठ ही लगता है। चालीस साल हो गए हिंदुस्तान छोड़े, लेकिन लाहौर अभी तक अपना नहीं लगता... यह जो मुहाजिर का ठप्पा चेहरे पर लगा है, उससे लगता है कि हम लाहौर में ठीक वैसे ही हैं, जैसे हिंदुस्तान में... अछूत।’

‘मियाँ चढ़ गई है तुम्हें। पागलों की सी बातें करने लगे हो। याद रखो, हमारा वतन पाकिस्तान है। बस। यह हिंदू धर्म एक डीजेनेरेट, वल्गर और कर्रप्ट कल्चर है। हिंदुओं या हिंदुस्तान की बढ़ाई पूरी तरहे से एंटी-इस्लामिक है। फिल्में देखी हैं इनकी, वल्गैरिटी परसॉनीफाईड। मेरा तो बस चले तो सारे हिंदुओं को एक कतार में खड़ा करके गोली से उड़ा दूँ।’

नजम के खर्राटे बता रहे थे कि उसे खलील जैदी की बातों में कोई रुचि नहीं है। वो शायद सपनों के उड़नखटोले पर बैठ कर मेरठ पहुँच गया था। मेरठ से दिल्ली तक की बस का सफर, रेलगाड़ी की यात्रा और आबिदा से पहली मुलाकात, पहली मुहब्बत, फिर शादी। पूरी जिंदगी जैसे किसी रेल की पटरी पर चलती हुई महसूस हो रही थी।

महसूस आबिदा भी कर रही थी और नादिरा भी। दोनों महसूस करती थीं कि उनके पतियों के पास उनके लिए कोई समय नहीं है। उनके पति बस पैसा देते हैं घर का खर्चा चलाने के लिए, लेकिन उसका भी हिसाब किताब ऐसे रखा जाता है जैसे कंपनी के किसी क्लर्क से खर्चे का हिसाब पूछा जा रहा हो। दोनों को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि वे अपने अपने घर की मालकिनें हैं। उन्हें समय समय पर यह याद दिला दिया जाता था कि घर के मालिक के हुक्म के बिना वे एक कदम भी नहीं चल सकतीं। आबिदा तो अपनी नादिरा आपा के सामने अपना रोना रो लेती थी लेकिन नादिरा हर बात केवल अपने सीने में दबाए रखतीं।

नादिरा ने बहुत मेहनत से अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन पैदा किया था। उसने एक स्थायी हँसी का भाव अपने चेहरे पर चढ़ा लिया था। पति की डाँट फटकार, गाली गलौच यहाँ तक कि कभी कभार की मार पीट का भी उस पर कोई असर दिखाई नहीं देता था। कभी कभी तो खलील जैदी उसकी मुस्कराहट से परेशान हो जाते, ‘आखिर आप हर वक्त मुस्कराती क्यों रहती हैं? यह हर वक्त का दाँत निकालना सीखा कहाँ से है आपने। हमारी बात का कोई असर ही नहीं होता आप पर।’

नादिरा सोचती रह जाती है कि अगर वो गमगीन चेहरा बनाए रखे तो भी उसके पति को परेशानी हो जाती है। अगर वो मुस्कराए तो उन्हें लगता है कि जरूर कहीं कोई गड़बड़ है अन्यथा जो व्यवहार वे उसे दे रहे हैं, उसके बाद तो मुस्कराहट जीवन से गायब ही हो जानी चाहिए।

नादिरा ने एक बार नौकरी करने की पेशकश भी की थी। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. पास है वह। लेकिन खलील जैदी को नादिरा की नौकरी का विचार इतना घटिया लगा कि बात, बहस में बदली और नादिरा के चेहरे पर उँगलियों के निशान बनाने के बाद ही रुकी। इसका नतीजा यह हुआ कि नादिरा ने पाकिस्तान से आई उन लड़कियों के लिए लड़ने का बीड़ा उठा लिया है जो अपने पतियों एवं सास ससुर के व्यवहार से पीड़ित हैं।

खलील को इसमें भी शिकायत रहती है, ‘आपका तो हर खेल ही निराला है! मैडम कभी कोई ऐसा काम भी किया कीजिए जिससे घर में कुछ आए। आपको भला क्या लेना कमाई धमाई से। आपको तो बस एक मजदूर मिला हुआ है, वो करेगा मेहनत, कमाएगा और आप उड़ाइए मजे।’ अब नादिरा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। जैसे ही खलील शुरू होता है, वो कमरा छोड़ कर बाहर निकल जाती है। वह समझ गई है कि खलील को बीमारी है - कंट्रोल करने की बीमारी। वह हर चीज, हर स्थिति, हर व्यक्ति को कंट्रोल कर लेना चाहता है - कंट्रोल फ्रीक । यही दफ्तर में भी करता है और यही घर में।

अपने अपने घरों में आबिदा और नादिरा बैठी हैं। आबिदा टी.वी. पर फिल्म देख रही है - लगान । वह आमिर खान की पक्की फैन है। उसकी हर फिल्म देखती है और घंटों उस पर बातचीत भी कर सकती है। पाकिस्तानी फिल्में उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। बहुत लाउड लगती हैं। लाउड तो उसे अपना पति भी मालूम होता है लेकिन इसका कोई इलाज नहीं है उसके पास। उसे विश्वास है कि नादिरा आपा कभी गलत हो ही नहीं सकती हैं। वह उनकी हर बात पत्थर की लकीर मानती है।

लकीर तो नादिरा ने भी लगा ली है अपने और खलील के बीच। अब वह खलील के किसी काम मे दखल नहीं देती। लेकिन खलील की समस्या यह है कि नादिरा दिन प्रतिदिन खुदमुख्तार होती जा रही है। जब से खलील जैदी ने घर का सारा खर्चा अपने हाथ में लिया है, तब से वो घर का सौदा सुलुफ भी नहीं लाती। खलील कुढ़ता रहता है लेकिन समझ नहीं पाता कि नादिरा के अहम को कैसे तोड़े।

नादिरा खलील के एजेंडे से पूरी तरह वाकिफ है, जानती है कि जमींदार खून बरदाश्त नहीं कर सकता कि उसकी रियाया उसके सामने सिर उठा कर बात कर सके। परवेज अहमद के घर हुए बार-बे-क्यू में तो बदतमीजी की हद कर दी थी खलील ने। बात चल निकली थी प्रजातंत्र पर, कि पाकिस्तान में तो छद्म डेमोक्रेसी है। परवेज स्वयं इसी विचारधारा के व्यक्ति हैं। उस पर नादिरा ने कहीं भारत को विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र कह दिया। खलील का पारा चढ़ गया। ‘रहने दीजिए, भला आप क्या समझेंगी’ बस यही कह कर एकदम चुप हो गया। नादिरा ने स्थिति को समझने में गलती कर दी और कहती गई, ‘परवेज भाई मैं क्या गलत कह रही हूँ। भारत का प्रधानमंत्री सिख, वहाँ का राष्ट्रपति मुसलमान और कांग्रेस की मुखिया ईसाई। क्या दुनिया के किसी भी और देश में ऐसा हो सकता है?’

फट पड़ा था खलील, ‘आप तो बस हिंदू हो गई हैं। आप सिंदूर लगा लीजिए, बिंदी माथे पर चढ़ा लीजिए और आर्य समाज में जा कर शुद्धि करवा लीजिए... लेकिन याद रखिएगा, हम आपको तलाक दे देंगे।’ सन्नाटा छा गया था पूरी महफिल में। नादिरा भी सन्न रह गई। उसने जिस निगाह से खलील को देखा अपने इस जीवन में खलील उसकी परिभाषा के लिए शब्द नहीं खोज पाएगा। फिर नादिरा ने एक झटका दिया अपने सिर को और चिपका ली वही मुस्कराहट अपने चेहरे पर। खलील तिलमिलाया, परेशान हुआ और अंततः चकरा कर कुर्सी पर बैठ गया। महफिल की मुर्दनी खत्म नहीं हो पाई। परवेज शर्मिंदा सा नादिरा भाभी को देख रहा था। उसे अफसोस था कि उसने बात शुरू ही क्यों की। महफिल में कब्रिस्तान की सी चुप्पी छा गई थी।

घर में भी कब्रिस्तान पहुँच गया। नादिरा आम तौर पर खलील के पत्र नहीं खोलती। एक बार खोलने का खमियाजा भुगत चुकी है। लेकिन इस पत्र पर पता लिखा था श्री एवं श्रीमती खलील जैदी। उसे लगा जरूर कोई निमंत्रण पत्र ही होगा। पत्र खोला तो हैरान रह गई। अपने घर से इतनी दूर किसी कब्रिस्तान में इतनी पहले अपने लिए कब्र आरक्षित करवाने का औचित्य समझ नहीं पाई। क्या उसका घर एक जिंदा कब्रिस्तान नहीं? इस घर में खलील क्या नर्क का जल्लाद नहीं। घबरा भी गई कि मरने के बाद भी खलील की बगल में ही रहना होगा। क्या मरने के बाद भी चैन नहीं मिलेगा?

चैन तो उसे दिन भर भी नहीं मिला। पाकिस्तान से आई अनीसा ने आत्महत्या का प्रयास किया था। रॉयल जनरल हस्पताल में दाखल थी। उसे देखने जाना था, पुलिस से बातचीत करनी थी। अनीसा को कब्र में जाने से रोकना था। अनीसा को दिलासा देती, पुलिस से बातचीत करती, सब-वे से सैंडविच लेकर चलती कार में खाती वह घर वापिस पहुँची।

घर की रसोई में खटपट की आवाजें सुनाई दे रही थीं। यानी कि अब्दुल खाना बनाने आ चुका था। रात का भोजन अब्दुल ही बनाता है। खलील के लिए आज खास तौर पर कबाब और मटन चॉप बन रहीं थीं। नादिरा ने जब से योग शुरू किया है, शाकाहारी हो गई है। उपर कमरे में जा कर कपड़े बदल कर नादिरा अब्दुल के पास रसोई में आ गई है। अब्दुल की खासियत है कि जब तक उससे कुछ पूछा ना जाए चुपचाप काम करता रहता है। बस हल्की सी मुस्कराहट उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। आज भी काम किए जा रहा है। नादिरा ने पूछ ही लिया, ‘अब्दुल तुम्हारी बीवी की तबीयत अब कैसी है। और बेटी ठीक है न।’

‘अल्लाह का शुक्र है बाजी। माँ बेटी दोनो ठीक हैं।’ फिर चुप्पी। नादिरा को कई बार हैरानी भी होती है कि अब्दुल के पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं होता। अच्छा भी है। दो घरों में काम करता है। कभी इधर की बात उधर नहीं करता।

खलील घर आ गया है। अब शरीर थक जाता है। उसे इस बात का गर्व है कि उसने अपने परिवार को जमाने भर की सुविधाएँ मुहैय्या करवाई हैं। नादिरा के लिए बी.एम.डब्ल्यू. कार है तो बेटे इरफान के लिए टोयोटा स्पोर्ट्स। हैंपस्टेड जैसे पॉश इलाके में महलनुमा घर है। घर के बाहर दूर तक फैली हरियाली और पहाड़ी। बिल्कुल पिक्चर पोस्टकार्ड जैसा घर दिया है नादिरा को। वह चाहता है कि नादिरा इसके लिए उसकी कृतज्ञ रहे। नादिरा तो एक बेडरूम के फ्लैट में भी खुश रह सकती है। खुशी को रहने के लिए महलनुमा घर की जरूरत नहीं पड़ती। सात बेडरूम का घर अगर एक मकबरे का आभास दे तो खुशी तो घर के भीतर घुसने का साहस भी नहीं कर पाएगी। दरवाजे के बाहर ही खड़ी रह जाएगी।

‘खलील ये आपने अभी से कब्रें क्यों बुक करवा ली हैं? और फिर घर से इतनी दूर क्यों? कार्पेंडर्स पार्क तक तो हमारी लाश को ले जाने में भी खासी मुश्किल होगी।’

‘भई, एक बार लाश रॉल्स राईस में रखी गई तो हैंपस्टैड क्या और कार्पेंडर्स पार्क क्या। यह कब्रिस्तान जरा पॉश किस्म का है। फाइनेंशियल सेक्टर के हमारे ज्यादातर लोगों ने वहीं दफन होने का फैसला लिया है। कम से कम मरने के बाद अपने स्टेट्स के लोगों के साथ रहेंगे।’

‘खलील, आप जिंदगी भर तो इनसान को पैसों से तौलते रहे। क्या मरने के बाद भी आप नहीं बदलेंगे। मरने के बाद तो शरीर मिट्टी ही है, फिर उस मिट्टी का नाम चाहे अब्दुल हो नादिरा या फिर खलील।’

‘देखो नादिरा अब शुरू मत हो जाना। तुम अपना समाजवाद अपने पास रखो। मैं उसमें दखल नहीं देता तुम इसमें दखल मत दो। मैं इंतजाम कर रहा हूँ कि हम दोनों के मरने के बाद हमारे बच्चों पर हमें दफनाने का कोई बोझ न पड़े। सब काम बाहर बाहर से ही हो जाए।’

‘आप बेशक करिए इंतजाम लेकिन उसमें भी बुर्जुआ सोच क्यों? हमारे इलाके में भी तो कब्रिस्तान है, हम हो जाएँगे वहाँ दफन। मरने के बाद क्या फर्क पड़ता है कि हम कहाँ हैं।’

‘देखो मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद हम किसी खानसामा, मोची, या प्लंबर के साथ पड़े रहें। नजम ने भी वहीं कब्रें बुक करवाई हैं। दरअसल मुझे तो बताया ही उसी ने। मैं चाहता हूँ कि तु्म्हारी जिंदगी में तो तुमको बैस्ट चीजें मुहैय्या करवाऊँ ही, मरने के बाद भी बेहतरीन जिंदगी दूँ। भई अपने जैसे लोगों के बीच दफन होने का सुख और ही है।’

‘खलील अपने जैसे क्यों? अपने क्यों नहीं? आप पाकिस्तान में क्यों नहीं दफन होना चाहते? वहाँ आप अपनों के करीब रहेंगे। क्या ज्यादा खुशी नहीं हासिल होगी?’

‘आप हमें यह उल्टा पाठ न पढ़ाएँ। इस तरह तो आप हमसे कहेंगी कि मैं पाकिस्तान में दफन हो जाऊँ अपने लोगों के पास और आप मरने के बाद पहुँच जाएँ भारत अपने लोगों के कब्रिस्तान में। यह चाल मेरे साथ नहीं चल सकती हैं आप। हम आपकी सोच से अच्छी तरह वाकिफ है बेगम।’

‘खलील हम कहे देते हैं, हम किसी फाइव स्टार कब्रिस्तान में न तो खुद को दफन करवाएँगे और न ही आपको होने देंगे। आप इस तरह की सोच से बाहर निकलिए।’

‘बेगम कुरान-ए-पाक भी इस तरह का कोई फतवा नहीं देती कि कब्रिस्तान किस तरह का हो। वहाँ भी सिर्फ दफन करने की बात है।’

‘दिक्कत तो यही है खलील, यह जो तीनों आसमानी किताबों वाले मजहब हैं वो पूरी जमीन को कब्रिस्तान बनाने पर आमादा हैं। एक दिन पूरी जमीन कम पड़ जाएगी इन तीनों मजहबों के मरने वालों के लिए।’

‘नादिरा जी, अब आप हिंदुओं की तरह मुतासिब बातें करने लगी हैं। समझती तो आप कुछ हैं नहीं आप तो यह भी कह देंगी की हम मुसलमानों को भी हिंदुओं की तरह चिता में जलाना चाहिए।’ खलील जब गुस्सा रोकने का प्रयास करता है, तो नादिरा के नाम के साथ जी लगा देता है।

‘हर्ज ही क्या है इसमें? कितना साफ सुथरा सिस्टम है। जमीन भी बची रहती है, खाक मिट्टी में भी मिल जाती है।’

‘देखिए हमें भूख लगी है। बाकी बात कल कर लेंगे।’

कल कभी आता भी तो नहीं है। फिर आज हो जाता है। किंतु नादिरा ने तय कर लिया है कि इस बात को कब्र में नहीं दफन होने देगी। आबिदा को फोन करती है, ‘आबिदा, कैसी हो? ‘

‘अरे नादिरा आपा कैसी हैं आप? आपको पता है आमिर खान ने दूसरी शादी कर ली है। और सैफ अली खान ने भी अपनी पहली बीवी को तलाक दे दिया है। इन दिनों बॉलीवुड में मजेदार खबरें मिल रही हैं। आपने शाहरूख की नई फिल्म देखी क्या? देवदास क्या फिल्म है!’

‘आबिदा, तुम फिल्मों की दुनिया से बाहर आकर हकीकत को भी कभी देखा करो। तुम्हें पता है कि खलील और नजम कार्पेंडर्स पार्क के कब्रिस्तान में कब्रें बुक करवा रहे हैं।’

‘आपा हमें क्या फर्क पड़ता है? एक के बदले चार चार बुक करें और मरने के बाद चारों में रहें। आपा जब जिंदा होते हुए इनको सात सात बेडरूम के घर चाहिए तो मरने के बाद क्या खाली दो गज जमीन काफी होगी इनके लिए। मैं तो इनके मामलों में दखल ही नहीं देती। हमारा ध्यान रखें बस...। आप क्या समझती हैं कि मैं नहीं जानती कि नजम पिछले चार साल से बुशरा के साथ वक्त बिताते हैं। आप क्या समझती हैं कि बंद कमरे में दोनों कुरान शरीफ की आयतें पढ़ रहे होते हैं? पिछले दो सालों से हम दोनों भाई बहन की तरह जी रहे हैं। अगर हिंदू होती तो अब तक नजम को राखी बाँध चुकी होती।’

धक्क सी रह गई नादिरा। उसने तो कभी सोचा ही नहीं कि पिछले पाँच वर्षों से एक ही बिस्तर पर सोते हुए भी वह और खलील हम-बिस्तर नहीं हुए। दोनों के सपने भी अलग अलग होते हैं और सपनों की जबान भी। एक ही बिस्तर पर दो अलग अलग जहान होते हैं। तो क्या खलील भी कहीं... वैसे उसे भी क्या फर्क पड़ता है। ‘आबिदा, मैं जाती रिश्तों की बात नहीं कर रही। मैं समाज को ले कर परेशान हूँ। क्या यह ठीक है जो यह दोनों कर रहे हैं?

‘आपा, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए यह बातें बेकार-सी हैं। जब मर ही गए तो क्या फर्क पड़ता है कि मिट्टी कहाँ दफन हुई। इस बात को लेकर मैं अपना आज क्यों खराब करूँ? हाँ अगर नजम मुझ से पहले मर गए, तो मैं उनको दुनिया के सबसे गरीब कब्रिस्तान में ले जाकर दफन करूँगी और कब्र पर कोई कुतबा तक नहीं लगवाऊँगी। गुमनाम कब्र होगी उसकी। अगर मैं पहले मर गई तो फिर बचा ही क्या?’

ठीक कहा आबिदा ने कि बचा ही क्या। आज जिंदा है तो भी क्या बचा है। साल भर बीत जाने के बाद भी क्या कर पाई है नादिरा। आदमी दोनो जिंदा हैं लेकिन कब्रें आरक्षित हैं दोनों के लिए। खलील और नजम आज भी इसी सोच में डूबे हैं कि नया धंधा क्या शुरू किया जाए। कब्रें आरक्षित करने के बाद वो दोनों इस विषय को भूल भी गए हैं।

लेकिन कार्पेंडर्स पार्क उनको नहीं भूला है। आज फिर एक चिट्ठी आई है। मुद्रा स्फीति के साथ साथ मासिक किश्त में पैसे बढ़ाने की चिट्ठी ने नादिरा का खून फिर खौला दिया है। खलील और नजम आज ड्राइंग रूम में योजना बना रहे हैं। पूरे लंदन में एक नजम ही है जो खलील के घर शराब पी सकता है। और एक खलील ही है जो नजम के घर सिगरेट पी सकता है। लेकिन दोनो अपना अपना नशा खुद साथ लाते हैं - सिगरेट भी और शराब भी।

‘खलील भाई, देखिए मैं पाकिस्तान में कोई धंधा नहीं करूँगा। एक तो आबिदा वहाँ जाएगी नहीं, दूसरे अब तो बुशरा का भी सोचना पड़ता है, और तीसरा यह कि अपना तो साला पूरा मुल्क ही करप्शन का मारा हुआ है। इतनी रिश्वत देनी पड़ती है कि दिल करता है सामने वाले को चार जूते लगा दूँ। ऊपर से नीचे तक सब करप्ट। अगर हम दोनों को मिल कर कोई काम शुरू करना है तो यहीं इंग्लैंड में रह कर करना होगा। वर्ना आप कराची और हम गोआ। मैं तो आजकल सपनों में वहीं गोआ में रहता हूँ। क्या जगह है खलील भाई, क्या लोग हैं, कितना सेफ फील करता है आदमी वहाँ।’

‘मियाँ तुमको चढ़ बहुत जल्दी जाती है। अभी तय कुछ हुआ नहीं तुम्हारे अंदर का हिंदुस्तानी लगा चहकने। तुम साले हिंदुस्तानी लोग कभी सुधर नहीं सकते। अंदर से तुम सब के सब मुत्तासिब होते हो, चाहे मजहब तुम्हारा कोई भी हो। तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।’

‘तो फिर आप ही कुछ सोचिये ना। आप तो बहुत ब्रॉड-माइंडेड हैं।’

‘वही तो कर रहा हूँ। देखो एक बात सुनो... ’

नादिरा भुनभुनाती हुई ड्राइंग रूम में दाखिल होती है, ‘खलील, मैने आपसे कितनी बार कहा है कि यह कब्रें कैंसिल करवा दीजिए। आप मेरी इतनी छोटी-सी बात नहीं मान सकते? ‘

‘अरे भाभी, आपको खलील भाई ने बताया नहीं कि उनकी स्कीम की खास बात क्या है? उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और खूबसूरत दिखाई दे। अब आप ही सोचिये ऐसी कौन-सी खातून है जो मरने के बाद खूबसूरत और जवान न दिखना चाहेगी?’

‘आप तो हमसे बात भी न करें नजम भाई। आपने ही यह कीड़ा इनके दिमाग में डाला है। हम आपको कभी माफ नहीं करेंगे... खलील आप अभी फोन करते हैं या नहीं। वर्ना मैं खुद ही कब्रिस्तान को फोन करके कब्रें कैंसिल करवाती हूँ।’

‘यार तुम समझती नहीं हो नादिरा, कैंसिलेशन चार्ज अलग से लगेंगे। क्यों नुकसान करवाती हो?’

‘तो ठीक है मैं खुद ही फोन करती हूँ और पता करती हूँ कि आपका कितना नुकसान होता है। उसकी भरपाई मैं खुद ही कर दूँगी।’

नादिरा गुस्से में नंबर मिला रही है। सिगरेट का धुँआ कमरे में एक डरावना-सा माहौल पैदा कर रहा है। शराब की महक रही सही कसर भी पूरी कर रही है। फोन लग गया है। नादिरा अपना रेफरेन्स नंबर दे कर बात कर रही है। खलील और नजम परेशान और बेबस-से लग रहे हैं।

नादिरा थैंक्स कह कर फोन रख देती है। ‘लीजिए खलील, हमने पता भी कर लिया है और कैंसिलेशन का आर्डर भी दे दिया है। पता है उन्होंने क्या कहा? उनका कहना है कि आपने साढ़े तीन सौ पाउंड एक कब्र के लिए जमा करवाए हैं। यानी कि दो कब्रों के लिए सात सौ पाउंड। और अब इन्फलेशन की वजह से उन कब्रों की कीमत हो गई है ग्यारह सौ पाउंड यानी कि आपको हुआ है कुल चार सौ पाउंड का फायदा।’

खलील ने कहा, ‘क्या चार सौ पाउंड का फायदा, बस साल भर में! ‘उसने नजम की तरफ देखा। नजम की आँखों में भी वही चमक थी।

नया धंधा मिल गया था!

                                                          --तेजेंद्र शर्मा-- 

करवाचौथी औरत

घर में कुतिया और कंप्यूटर एक साथ आए थे इसलिए सबने लकदक, भूरे रोएँदार, बिलौटे सी चमकती आँखों वाली कुतिया का नाम एकमत से फ्लॉपी रख दिया था।

आज करवाचौथ का व्रत था और फ्लॉपी सो रही थी। अक्सर वह सुबह पाँच बजे ही सविता को उठा देती है पर आज उसने छह बजे उठाया, जब सूरज की रोशनी आसमान पर फैल चुकी थी। सरगी* का वक्त निकल चुका था। हर साल की तरह इस बार भी सुबह सरगी खाने के लिए सविता की नींद नहीं टूटी थी। वैसे अक्सर वह उठ भी जाती थी तो सिर्फ एक प्याला चाय पी लेती थी। करवाचौथ का व्रत रखने वाली दूसरी सुहागिनों की तरह पति की लंबी उम्र की कामना करते हुए सारे दिन के निर्जला उपवास की तैयारी में सुबह सूरज उगने से पहले कमर कसकर पूरी-सब्जी या भरवाँ पराँठे का भर पेट नाश्ता उसके लिए असंभव था।

इधर फ्लॉपी ने अपने अलसाए हुए भूरे रोओं को स्पैनिश नृत्य की लय में झटकार कर सुबह होने को एलान किया, उधर सविता ने खीझ में अपना सिर झटक दिया। अब सारा दिन चाय की तलब सताएगी।

'चल फ्लॉपी, आजा', वह होंठो में बुदबुदाई तो फ्लॉपी चौकन्नी होकर उचकी।

दोनों सड़क पर थे। फ्लॉपी गले में पट्टा पहनने की आदी नहीं थी। दूसरे पालतू कुत्तों की तरह वह लीश में बंधी-बंधी मालिक के पीछे-पीछे दुम हिलाती नहीं चलती थी। उसके कदम आजाद थे और वह सविता के आगे-आगे, मनचाही राह पर इतराती हुई चलती थी। बीच-बीच में सिर घुमाकर देख लेती कि सविता पीछे आ रही है या नहीं। यह गली, यह इलाका उसकी बपौती था। अपने क्षेत्र में किसी दूसरे कुत्ते का आना उसे बर्दाश्त नहीं था। यहाँ तक कि सड़क पर एक कौआ देखकर भी वह शेरनी की तरह दहाड़ती, हिरनी की तरह कुलांचे भरकर दौड़ती और कौए को खदेड़कर ही दम लेती। उसके बाद वह शान से सविता की ओर विजेता की मुस्कान फेंकती। फ्लॉपी ने सुबह का अपना क्रिया कलाप समाप्त किया तो सविता ने लौट चलने का सिग्नल दिया।

फ्लॉपी ने आनाकानी की, फिर एहसान जताती सविता के ढीले कदमों से बेपरवाह फलाँगती घर पहुँच गई।

निर्जला व्रत शाम तक निढाल कर देता है इसलिए सविता ने दोपहर बारह बजे ही रात का खाना भी तैयार कर ढाँप-ढूँपकर रख दिया। फ्लॉपी को भी आज शाकाहारी भोजन मिलेगा। सविता ने चावल में सब्जियाँ उबालकर उसका खाना तैयार कर लिया।

फ्लॉपी इठलाती हुई आई और दही-पुलाव के सात्विक भोजन को शूँ-शूँ कर सूँघती हुई अकड़ी हुई पूँछ के साथ कोप भवन में जाकर बैठ गई। सविता की दो बेटियों की पंक्ति में यह तीसरी नकचढ़ी बेटी थी।

'नखरे मत कर, आज तुझे यही खाना मिलेगा', सविता ने उससे कहा, 'नहीं खाना... ठीक है, बैठी रह, जब भूख लगेगी न, अपने-आप आएगी खाने।'

फ्लॉपी ने तिरछी नजर से सविता की ओर देखा और कैटरपिलर की तरह हाथ-पैर समेटकर जमीन पर मुँह टिकाकर पसर गई।

शाम को दोनों बेटियाँ स्कूल से लौट आईं। दोनों ने उसे पुचकारा - 'हाय स्वीटी पाय, व्हाय डिडंट यू ईट'... छोटी ने खाना देखा तो नाक-भौं सिकोड़ - 'ममा, आप इसे घास-फूस खाने को क्यों देते हो हाऊ कैन शी ईट दिस रॉटन फूड' फिर फ्लॉपी को गोद में लेकर पुचकारा - 'ओह माय डार्लिंग, यू आर सो हंग्री। व्हॉट अ पिटी।'

अपने पापा के लौटते ही बेटियाँ शिकायत का पुलिंदा लेकर हाजिर हो गईं - 'पापा, देखो ना, मॉम इज टॉर्चरिंग पुअर लिट्ल सोल।'

सविता ने हँसकर कहा - 'आज फ्लॉपी ने भी मेरे साथ करवा चौथ का व्रत रखा है।'

'व्हॉट रबिश, यू कांट बी सो क्रुएल', बौखलाते हुए साहब मजबूत कदमों के साथ रसोई में दाखिल हुए, डीप फीजर से फ्लॉपी का मनपसंद पोर्क मिन्स्ड निकाला, डिफ्रॉस्ट किया और गैस पर चढ़ा दिया।

फ्लॉपी ने सविता को चिढ़ा-चिढ़ाकर, चटखारे ले-लेकर खाना साफ किया और हमेशा की तरह सविता की साड़ी से मुँह रगड़कर पोछ लिया। छोटी बेटी ने फ्लॉपी को शाबाशी दी - 'गुड गर्ल, दैट्स द पनिशमेंट। ममी की करवाचौथ-स्पेशल लाल साड़ी खराब कर दी।'

बड़ी बेटी ने पापा की ओर से फरमाइश की - 'फ्लॉपी को तो पापा ने खिला दिया, अब आप पापा के लिए थोड़े से चिप्स फ्राय कर दो। प्लीज ममा, हमें भी भूख लगी है।'

सविता उठी और सूखते गले को थूक निगलकर तर करते हुए आलू के चिप्स तल दिए और सिर पकड़कर लेट गई। यह सरगी में चाय न पीने की सजा थी।

सूरज जब शाम को ऊब-डूब हो रहा था, सविता ने सब लाल-गुलाबी साड़ीवालियों के साथ वृत्ताकार बैठकर पूजा की। जब सब हाथ जोड़कर बैठी थीं, फ्लॉपी ने धीरे से दायाँ पंजा बढ़ाकर पूजा की थाली का लाल कपड़ा सरकाया और कागजी बादाम के दो दाने मुँह में सटक लिए। सविता सूखे गले से कुँकुआई तो छोटी बेटी फ्लॉपी को नवजात बच्चे की तरह दोनों बाँहों में समेटकर भीतर ले गई। फ्लॉपी पर हैंडल विथ केअर का लेबल लगा था। कुछ भी कहना बेकार था। घर में फ्लॉपी के सात खून माफ थे।

इस बार पक्की चौथ थी। चाँद देर से निकलने वाला था। मेज पर ढका हुआ खाना सबने गर्म किया, स्वाद ले-लेकर खाया और खाते खाते चाँद के न निकलने को लेकर परेशान होते रहे।

आखिर चाँद निकला। सविता ने जाली की ओट से चाँद देखा, अर्ध्य दिया और हाथ जोड़कर मन ही मन कहा - 'हे गौरजा माता, अगले जनम में अगर मुझे मनुष्य योनि में जन्म न मिले तो पशुयोनि में मुझे किसी घर की पालतू कुतिया बना देना ताकि मैं करवाचौथ के दिन अपना जूठा मुँह किसी सुहागन की लाल साड़ी से पोंछ सकूँ।'

दरवाजे पर बैठी फ्लॉपी ने अघाई नजरों से सविता की ओर देखा और जीभ बाहर निकालकर लार टपकाती हुई अधमुँदी आँखों से ऊँघने लगी।

* सरगी - करवाचौथ के व्रत के दिन सूर्योदय से पहले लिया गया खाना

                                                                       --सुधा अरोड़ा--

सोमवार, 11 अगस्त 2014

जन्मभूमि

एक

गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर खड़ी थी। इसे यहाँ रुके पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से एकदम पचास रुपये गिलास तक चढ गया और पचास रुपये हिसाब से पानी खरीदते समय लोगों को बडी नरमी से बात करनी पडती थी । वे डरते थे कि पानी का भाव और न चढ जाएे । कुछ लोग अपने दिल को तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिन्दुओं पर बीत रही है वही उधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी, उन्हें पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा, उन्हें भी नानी याद आ रही होगी।

प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वाले भी तंग आ चुके थे। ये लोग सवारियों को हिंफांजत से नए देश में ले जाने के लिए जिम्मेवार थे। पर उनके लिए पानी कहाँ से लाते? उनका अपना राशन भी कम था। फिर भी बचे-खुचे बिस्कुट और मूँगफली के दाने डिब्बों में बाँटकर उन्होंने हमदर्दी जताने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। इस पर सवारियों में छीना-झपटी देखकर उन्हें आश्चर्य होता और वे बिना कुछ कहे-सुने परे को घूम जाते।

जैसे सवारियों के मन में यमदूतों की कल्पना उभर रही हो, और जन्म-जन्म के पाप उनकी आँखों के सामने नाच रहे हों। जैसे जन्मभूमि से प्रेम करना ही उनका सबसे बड़ा दोष हो। इसीलिए तो वे जन्मभूमि को छोड़कर भाग निकले थे। कहकहे और हँसी-ठठोले जन्मभूमि ने अपने पास रखे लिए थे। गोरी स्त्रियों के चेहरों पर जैसे किसी ने काले-नीले धब्बे डाल दिये हों। अभी तक उन्हें अपने सिरों पर चमकती हुई छुरियाँ लटकती महसूस होती थीं। युवतियों के कानों में गोलियों की सनसनाहट गूँज उठती, और वे काँप-काँप जातीं। उनकी कल्पना में विवाह के गीत बलवाइयों के नारों और मारधाड़ के शोर में हमेशा के लिए दब गये थे। पायल की झंकार घायल हो गयी थी। उनके गालों की लालिमा मटमैली होती चली गयी। जीवन का संगीत मृत्यु की खाइयों में भटककर रह गया। कहकहे शोक में डूब गये और हँसी-ठठोलों पर मानो श्मशान की राख उड़ने लगी। पाँच दिन की यात्रा में सभी के चेहरों की रौनक खत्म हो गयी थी।

यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ? इस पर विचार करने की किसे फुरसत थी? यह सब कैसे हुआ कि लोग अपनी ही जन्मभूमि में बेगाने हो गये? हर चेहरे पर खौफ था, त्रास था। बहुतों को इतना इतमीनान जरूर था कि जान पर आ बनने के बाद वे भाग निकलने में सफल हो गये। एक ही धरती का अन्न खाने वाले लोग कैसे एक-दूसरे के खून से हाथ रँगने लगे? यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ?

नए देश की कल्पना उन्हें इस गाड़ी में ले आयी थी। अब यह गाड़ी आगे क्यों नहीं बढ़ती? सुनने में तो यहाँ तक आया था कि स्टेशन पर बलवाइयों ने गाड़ी की पूरी-की-पूरी सवारियों के खून से हाथ रंग लिए थे। पर अब हालत काबू में थी। यद्यपि कुछ लोग पचास रुपये गिलास के हिसाब से पानी बेचनेवालों को बदमाश बलवाइयों के शरींफ भाई मानने के लिए तैयार न थे। नए देश में ये सब मुसीबतें तो न होंगी। वहाँ सब एक-दूसरे पर भरोसा कर सकेंगे। पर जब प्यास के मारे ओठ सूखने लगते और गले में प्यास के मारे साँस अटकने लगती तो वे तड़पकर रह जाते।

इनमें ऐसे लोग भी थे, जिनके घर जला दिये गये। वे बिलकुल खामोश थे। जैसे उनके दिल बुझ गये हों, दिमाग बुझ गये हों। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी हालत पर झट यह कहा जा सकता था कि न आषाढ़ में हरे न सावन में सूखे।

जन्मभूमि में हाथ हमेशा खाली रहे। अब नए देश में भी कौन-से उनके हाथ भर जाएँगे? वे बढ़-बढ़कर बातें करने लगते। सौ से छूटते ही उनके बोल लाखों पर आकर रुकते। पर प्यास के मारे उनका बुरा हाल था।

खचाखच भरे हुए डिब्बे पर आलुओं की बोरी का गुमान होता था। एक अधेड़ आयु की स्त्री जो बहुत दिनों से बीमार थी, एक कोने में बैठी थी। उसके तीन बच्चे थे। एक लड़की सात बरस की थी, एक पाँच बरस की, और तीसरा बच्चा अभी दूध पीता था। यह गोद का बच्चा ही उसे बुरी तरह परेशान कर रहा था। कभी-कभी तंग आकर वह उसका मुँह झटक देती। इस स्त्री का पति कई बार बच्चे को अपनी बाँहों में थामकर खड़ा हो जाता और अपनी पत्नी की आँखों में झाँककर यह कहना चाहता कि यह तीसरा बच्चा पैदा ही न हुआ होता तो बहुत अच्छा होता।

बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए बीमार स्त्री का पति कह उठा, ''तुम घबराओ मत। तुम ठीक हो जाओगी। बस अब थोड़ा-सा फासला और रहता है।''

बीमार स्त्री खामोश बैठी रही। शायद वह कहना चाहती थी कि यदि गाड़ी और रुकी रही तो बलवाई आ पहुँचेंगे और ये गिनती के मिलिटरी वाले भला कैसे हमारी जान बचा सकेंगे। जैसे ये सब सवारियाँ लाशें हों और गिध्द इनकी बू सूँघसकतेहों।

पास से किसी ने पूछ लिया, ''बहिन जी को क्या कष्ट है?''

''उस गाँव में कोई डाक्टर न था जहाँ मैं पढ़ाता था।'' बीमार स्त्री का पति कह उठा।

''तो आप स्कूल मास्टर हैं?''

''यह कहिए कि स्कूल मास्टर था,'' बीमार स्त्री के पति ने एक लम्बी आह भरते हुए कहा, ''अब भगवान जाने नए देश में हम पर क्या बीतेगी।''


दो

वह अपने मन को समझाता रहा। जरा गाड़ी चले तो सही। वे बहुत जल्द अपने राज्य में पहुँचने वाले हैं। वहाँ डाक्टरों की कमी न होगी। कहीं-न-कहीं उसे स्कूल मास्टर की जगह मिल ही जाएगी। उसकी आमदनी पहले से बढ़ जाएगी। वह अपनी पत्नी से कहना चाहता था कि जो चीज जन्मभूमि में आज तक नहीं मिल सकी, अब नए देश और जनता के राज्य में उसकी कुछ कमी न होगी।

बड़ी लड़की कान्ता ने बीमार माँ के समीप सरककर पूछा, ''माँ, गाड़ी कब चलेगी?''

छोटी लड़की शान्ता खिड़की के बाहर झाँक रही थी।

कान्ता और शान्ता का भैया ललित पिता की बाँहों में बराबर रोये जा रहा था।

स्कूल मास्टर को अपने स्कूल का ध्यान आ गया, जहाँ वह पिछले दस बरस से हेडमास्टर था। टैक्सला के समीप के इस गाँव को शुरू-शुरू में यह स्वीकार न था कि वहाँ स्कूल ठहर सके। उसने बड़े प्रेम से लोगों को समझाया था कि यह गाँव टैक्सला से दूर नहींटैक्सला जिसका प्राचीन नाम तक्षशिला है और जहाँ एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था और जहाँ दूर-दूर के देशों के विद्यार्थी शिक्षा पाने आया करते थे। यह विचार आते ही उसकी कल्पना को झटका-सा लगा क्योंकि इस युग के लोगों ने एक-दूसरे के खून से हाथ रँगने की कसमें खायीं और अत्याचार की ये घटनाएँ ढोलों और शहनाइयों के संगीत के साथ-साथ हुईं। शिक्षित लोग भी बलवाइयों के संग-संगाती बनते चले गये। शायद उन्हें भूलकर भी खयाल न आया कि अभी तो प्राचीन तक्षशिला की खुदाई के बाद हाथ आने वाले मूर्ति-कला के बहुमूल्य नमूने भी बराबर अपना सन्देश सुनाए जा रहे थे। यह कैसी जन्मभूमि थी? इस जन्मभूमि पर किसे गर्व हो सकता था, जहाँ कत्लेआम के लिए ढोल और शइनाइयाँ बजाना जरूरी समझा गया।

इतिहास पढ़ाते समय उसने अनेक बार विद्यार्थियों को बताया कि यही वह उनकी जन्मभूमि है, जहाँ कभी कनिष्क का राज्य था, जहाँ अहिंसा का मन्त्र फूँका गया था, जहाँ भिक्षुओं ने त्याग, शान्ति और निर्वाण के उपदेश दिये और अनेक बार गौतम बुद्ध के बताये हुए मार्ग की ओर उँगली उठायी। आज उसी धरती पर घर जलाये जा रहे थे, और शायद ढलती बर्फों के शीतल जल से भरपूर नदियों के साथ-साथ गरम-गरम खून की नदी बहाने का मनसूबा बाँधा जा रहा था।

डिब्बे में बैठे हुए लोगों के कन्धे झिंझोड़-झिंझोड़कर वह कहना चाहता था कि गौतम बुध्द को संसार में बार-बार आने की आवश्यकता नहीं। अब गौतम बुद्ध कभी जन्म नहीं लेगा, क्योंकि उसकी अहिंसा का सदा के लिए अन्त हो गया। अब लोग निर्वाण नहीं चाहते। उन्हें दूसरों की आबरू उतारने में आनन्द आता है।

अब तो नग्न स्त्रियों और युवतियों के जुलूस निकालने की बात किसी के टाले टल नहीं सकती। आज जन्मभूमि अपनी सन्तानों की लाशों से पटी पड़ी है। अब यह इनसान के मांस और रक्त की सड़ाँध कभी खत्म नहीं होगी।

नन्हा ललित रो-रोकर सो गया था। कान्ता और शान्ता बराबर सहमी-सहमी निगाहों से कभी माँ की तरफ और कभी खिड़की के बाहर देखने लगती थीं। एक-दो बार उनकी निगाह ललित की तरफ भी उठ गयी। वे चाहती थीं कि थोड़ी देर और उनका पिता ललित को उठाये खड़ा रहे। क्योंकि उसकी जगह उन्हें आराम से टाँगें फैलाने का अवसर मिल गया था।

शान्ता ने कान्ता के बाल नोंच डाले और कान्ता रोने लगी। पास से माँ ने शान्ता के चपत दे मारी, और इस पर शान्ता भी रोने लगी। उधर ललित भी जाग उठा और वह बेसुरे अन्दांज से रोने-चीखने लगा।स्कूल मास्टर के विचारों का क्रम टूट गया। प्राचीन तक्षशिला के विश्वविद्यालय और भिक्षुओं के उपदेश से हटकर वह यह कहने के लिए तैयार हो गया कि कौन कहता है कि इस देश में कभी गौतम बुध्द का जन्म हुआ था। वह कान्ता और शान्ता से कहना चाहता था कि रोने से कुछ लाभ नहीं। नन्हा ललित तो बेसमझ है और इसलिए बार-बार रोने लगता है, तुम तो समझदार हो। तुम्हें तो बिलकुल नहीं रोना चाहिए। क्योंकि यदि तुम इसी तरह रोती रहोगी तो बताओ तुम्हारे चेहरों पर कमल के फूल कैसे खिल सकते हैं? पास से किसी की आवांज आयी, ''यह सब फिरंगी की चाल है। जिस बस्तियों ने बड़े-बड़े हमलावरों के हमले बरदाश्त किये, अनगिनत सदियों से अपनी जगह पर कायम रहीं, आज वे भी लुट गयीं।''

''ऐसे-ऐसे कत्लेआम तो उन हमलावरों ने भी न किये होंगे। हमारे स्कूलों में झूठा और मनगढ़न्त इतिहास पढ़ाया जाता रहा है !'' एक और मुसाफिर ने ज्ञान बघारा।

स्कूल मास्टर ने चौंककर उस मुसाफिर की तरफ देखा। वह कहना चाहता था कि तुम सच कहते हो। मुझे मालूम न था। नहीं तो मैं कभी इस झूठे मनगढ़न्त इतिहास का समर्थन न करता। वह यह भी कहना चाहता था कि इसमें उसका तो कोई दोष नहीं। क्योंकि सभ्यता के चेहरे से सुन्दर खोल साँप की केंचुली की तरह अभी-अभी उतरा है, और अभी-अभी मालूम हुआ है कि मानव ने कुछ भी उन्नति नहीं की, बल्कि यह कहना होगा कि उसने पतन की तरफ ही बड़े वेग से पग बढ़ाये हैं।

''जिन्होंने बलवाइयों और हत्यारों का साथ दिया और मानवता की परंपरा का अपमान किया,'' स्कूल मास्टर ने साहस दिखाते हुए कहा, ''जिन्होंने नग्न स्त्रियों और युवतियों के जुलूस निकाले, जिन्होंने अपनी इन माताओं और बहनों की आबरू पर हाथ डाला, जिन्होंने माताओं के दूध-भरे स्तन काट डाले और जिन्होंने बच्चों की लाशों को नेंजों पर उछाल कर कहकहे लगाये, उनकी आत्माएँ सदा अपवित्र रहेंगी। और फिर यह सब कुछ यहाँ भी हुआ और वहाँ भी,जन्मभूमि में भी और नए देश में भी!''

इसके उत्तर में सामने वाला मुसांफिर चुप बैठा रहा। उसकी खामोशी ही उसका उत्तर था। शायद वह कहना चाहता था कि इन बातों से क्या लाभ। ऊपर से उसने इतना ही कहा, ''हमें यह कैसी आजादी मिली है?''


तीन

कान्ता और शान्ता के आँसू थम गये थे। ललित भी कुछ क्षणों के लिये खामोश हो गया। स्कूल मास्टर की निगाहें अपनी बीमार पत्नी की ओर गयीं, जो खिड़की के बाहर देख रही थी। शायद वह पूछना चाहती थी कि जन्मभूमि छोड़ने पर हम क्यों मजबूर हुए। या क्या यह गाड़ी यहाँ इसीलिए रुक गयी है कि हमें फिर से अपने गाँव लौट चलने का विचार आ जाए।

स्कूल मास्टर के होंठ बुरी तरह सूख रहे थे। उसका गला बुरी तरह खुश्क हो चुका था। उसे यह महसूस हो रहा था कि कोई उसकी आत्मा में काँटे चुभे रहा है। एक हाथ सामने वाले मुसाफिर के कन्धे पर रखते हुए वह बोला

''सरदार जी, बताओ तो सही कि कल का इनसान उस अन्न को भला कैसे अपना भोजन बनाएगा, जिसका जन्म उस धरती की कोख से होगा, जिसे अनगिनत मासूम बेगुनाहों की लाशों की खाद प्राप्त हुई?''

सरदार जी का चेहरा तमतमा उठा। जैसे वह ऐसे विचित्र प्रश्न के लिए तैयार न हों। किसी कदर सँभलकर उसने भी प्रश्न कर डाला, ''आप बताओ, इसमें धरती का क्या दोष है?''

''हाँ-हाँ इसमें धरती का क्या दोष है?'' स्कूल मास्टर कह उठा, ''धरती को तो खाद चाहिए। फिर वह कहीं से भी क्यों न मिले।''

सरदार जी प्लेटफार्म की ओर देखने लगे। बोले, ''यह गाड़ी भी अजीब ढीठ है, चलती ही नहीं। बलवाई जाने कब आ जाएँ!''

स्कूल मास्टर के मन में अनगिनत लाशों का दृश्य घूम गया, जिनके बीचोबीच बच्चे रेंग रहे हों। वह इन बच्चों के भविष्य पर विचार करने लगा। यह कैसी नई पौध है? वह पूछना चाहता था। यह नई पौध भी कैसी सिध्द होगी? उसे उन अनगिनत युवतियों का ध्यान आया, जिनकी इंज्जत पर हाथ डाला गया था। पुरुष की दहशत के सिवा इन युवतियों की कल्पना में और क्या उभर सकता है? उनके लिए निश्चत ही यह आजादी बरबादी बनकर आयी। वे निश्चय ही आंजादी के नाम पर थूकने से भी नहीं कतराएँगी। उसे उन कन्याओं का ध्यान आया, जो अब माताएँ बननेवाली थीं। ये कैसी माताएँ बनेंगी? वह पूछना चाहता था। ये घृणा के बीज भला क्या फल लाएँगे? उसने सोचा, इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास न होगा। वह डिब्बे में एक-एक व्यक्ति का कन्धा झिंझोड़कर कहना चाहता था कि मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो। नहीं तो यदि यह गाड़ी पचास-पचपन घंटों तक रुकने के पश्चात् आगे चलने के लिए तैयार भी होगी तो मैं जंजीर खींचकर गाड़ी को रोक लूँगा।

''क्या यह गाड़ी अब आगे नहीं जाएगी, हे भगवान्?'' बीमार स्त्री ने अपने चेहरे से मक्खियाँ उड़ाते हुए पूछ लिया।

''निराश होने की क्या जरूरत है? गाड़ी आखिर चलेगी ही।'' स्कूल मास्टर कह उठा।

स्कूल मास्टर खिड़की से सिर निकालकर बाहर की ओर देखने लगा। एक-दो बार उसका हाथ जेब की तरफ बढ़ा अन्दर गया और फिर बाहर आ गया। इतना महँगा पानी खरीदने का उसे साहस न हुआ। जाने क्या सोचकर उसने कहा, ''गाड़ी अभी चल पड़े तो नए देश की सीमा में घुसते उसे देर न लगेगी। फिर पानी की कुछ कमी न होगी। ये कष्ट के क्षण बहुत शीघ्र बीत जाएँगे।''


चार

कन्धे पर पड़ी हुई फटी-पुरानी चादर को वह बार-बार सँभालता था। इसे वह अपनी जन्मभूमि से बचाकर लाया था। बलवाइयों के अचानक गाँव में आ जाने के कारण वह कुछ भी तो नहीं निकाल सका था। बड़ कठिनाई से वह अपनी बीमार पत्नी और बच्चों के साथ भाग निकला था। अब इस चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे गाँव का जीवन याद आने लगा। एक-एक घटना मानो एक-एक तार थी और इन्हीं तारों की सहायता से समय के जुलाहे ने जीवन की चादर बुन डाली थी। इसी चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे मानो उस मिट्टी की सुगन्ध आने लगी, जिसे वह वर्षों से सूँघता आया था। जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से जबरदस्ती उखाड़कर इतनी दूर फेंक दिया। जाने अब गाड़ी कब चलेगी?

अब यह जन्मभूमि नहीं रह गयी। देश का बँटवारा हो गया। अच्छा चाहे बुरा। जो होना था सो हो गया। अब देश के बँटवारे को झुठलाना सहज नहीं। पर क्या जीवन का बँटवारा भी हो गया?

अपनी बीमार पत्नी के समीप झुककर वह उसे दिलासा देने लगा, ''इतनी चिन्ता नहीं किया करते। नए देश में पहुँचने भर की देर है। एक अच्छे से डाक्टर से तुम्हारा इलाज कराएँगे। मैं फिर किसी स्कूल में पढ़ाने लगूँगा। तुम्हारे लिए फिर से सोने की बालियाँ घड़ा दूँगा।'' कोई और समय होता तो वह अपनी पत्नी से उलझ जाता कि भागते समय इतना भी न हुआ कि चुड़ैल अपनी सोने की बालियाँ ही उठा लाती। बल्कि वह उस कजलौटी तक के लिए झगड़ा खड़ाकर देता, जिसे वह दर्पण के समीप छोड़ आयी थी । कजलौटी, जिसकी सहायता से वह इस अधेड़ आयु में भी कभी-कभी आँखों में बीते सपनों की याद जाता कर लेती थी।

कान्ता ने झुककर शान्ता की आँखों में कुछ देखने का प्रयास किया। जैसे वह पूछना चाहती हो कि बताओ पगली, हम कहाँ जा रहे हैं।

''मेरा झुनझुना?'' शान्ता ने पूछ लिया।

''मेरी गुड़िया!'' कान्ता बोली।

''यहाँ न झुनझुना है, न गुड़िया!'' स्कूल मास्टर ने अपनी आँसू-भरी आँखों से अपनी बच्चियों की ओर देखते हुए कहा, ''मेरी बेटियो! झुनझुने बहुतेरे,गुड़ियाँ बहुतेरी, नए देश में हर चीज मिलेगी।''

पर रह-रहकर उसका मन पीछे की तरफ मुड़ने लगता। यह कैसा आकर्षण है? यह जन्मभूमि पीछे रह गयी। अब नया देश समीप है। गाड़ी चलने भर की देर है। उसने झुँझलाकर इधर-उधर देखा। जैसे वह डिब्बे में बैठे हुए एक-एक व्यक्ति से पूछना चाहता हो कि बताओ गाड़ी कब चलेगी।

''जन्मभूमि हमेशा के लिए छूट रही है!'' उसने अपने कन्धों पर पड़ी हुई चादर को बायें हाथ की उँगलियों से सहलाते हुए कहना चाहा। जैसे इस चादर के भी कान हों, और वह सब सुन सकती हो। खिड़की से सिर निकालकर उसने पीछे की तरफ देखा और उसे यों लगा जैसे जन्मभूमि अपनी बाँहें फैलाकर उसे बुला रही हो। जैसे वह कह रही हो कि मुझे यों छोड़कर चले जाओगे, मेरा आशीर्वाद तो तुम्हारे लिए हमेशा था और हमेशा रहेगा!

स्कूल मास्टर की बीमार पत्नी ने नन्हे ललित से समझौता कर लिया था। इस दूध की एक-एक बूँद पर पचासों रुपये निछावर किए जा सकते थे। यह दूध पचास रुपये गिलास के हिसाब से बिकने वाले दूध से अवश्य महँगा था।

चादर पर दायें हाथ की उँगलियाँ फेरते हुए स्कूल मास्टर को जन्मभूमि की धरती का ध्यान आ गया, जो शताब्दियों से रुई की खेती के लिए विख्यात थी।

उसकी कल्पना में कपास के दूर तक फैले हुए खेत उभरे। यह इसी कपास का जादू ही तो था कि जन्मभूमि रुई के अनगिनत ढेरों पर गर्व कर सकती थी।

जन्मभूमि में रुई से कैसे-कैसे बारीक तार निकाले जाते थे। घर-घर चरखे चलते थे। सजीव चरखा कातने वालियों की रंगीली महफिलें, वे 'त्रिंजन'! वह बढ़-बढ़कर सूत कातने की होड़! वे सूत की अंटियाँ तैयार करने वाले हाथ! वे जुलाहे जो परंपरागत कथाओं में मूर्ख समझे जाते थे, पर जिनकी उँगलियों को महीन-से-महीन कपड़ा बुनने की कला आती थी। जैसे जन्म-भूमि पुकार-पुकारकर कह रही होतुम कद के लम्बे हो और शरीर के गठे हुए। तुम्हारे हाथ-पाँव मजबूत हैं। तुम्हारा सीना कितना चौड़ा है। तुम्हारे जबड़े इतने संख्त हैं कि पत्थर तक चबा जाओ। यह सब मेरे कारण ही तो है। देखो, तुम मुझे छोड़कर मत जाओ...स्कूल मास्टर ने झट खिड़की के बाहर देखना बन्द कर दिया और उसकी आँखें अपनी बीमार पत्नी के चेहरे पर जम गयीं।


पाँच

वह कहना चाहता था कि मुझे वे दिन अभी तक याद हैं, ललित की माँ, जब तुम्हारी आँखें काजल के बिना ही काली-काली और बड़ी-बड़ी नंजर आया करती थीं। मुझे याद हैं वे दिन, जब तुम्हारे शरीर में हिरनी की-सी मस्ती थी। उन दिनों तुम्हारे चेहरे पर चाँद की चाँदनी थी, सितारों की चमक थी। मुस्कान, हँसी,कहकहा तुम्हारे चेहरे पर खुशी के तीनों रंग थिरक उठते थे। तुम पर जन्मभूमि कितनी दयालु थी। तुम्हारे सिर पर वे काले घुँघराले केश! उन सावन के काले-काले मेघों को अपने कन्धों पर सँभाले तुम मटक-मटक कर चला करती थीं गाँव की गलियों में, और पगडंडियों पर! घुर-घुर धाँ-भाँ जैसे मटकी में गिरते समय ताजा दुहे जाने वाला दूध बोल उठे। स्कूल मास्टर को यों लगा, जैसे अभी बहुत कुछ बाकी हो।

जैसे वह वर्षों के घूमते हुए भँवर में चमकती हुई किरन के दिल की बात भाँपकर कह सकता हो कि बीते सपने कल्पना के कला-भवन में सदैव थिरकते रहेंगे। जैसे वह ताक में पड़ी सुराही से कह सकती हो , ओ सुराही, तेरी गरदन टेढ़ी है, भला मैं वे दिन कैसे भूल सकता हँ जब तुम नई-नई इस घर में आयी थी।

वह चाहता था कि गाड़ी जल्द-से-जल्द नए देश की सीमा में प्रवेश कर जाए। फिर उसके सब कष्ट मिट जाएँगे। पत्नी का इलाज भी हो सकेगा। जन्मभूमि पीछे रह जाने के विचार से कुछ उलझन-सी अवश्य महसूस हुई। पर उसने तुरन्त अपने मन को समझा लिया। वह यह प्रयास करने लगा कि नए देश में जन्मभूमि की कल्पना कायम कर सके। आखिर एक गाँव को तो जन्मभूमि नहीं कहते , जन्मभूमि तो बहुत विशाल है, बहुत महान् है। उसकी महिमा का गान तो देवता भी पूरी तरह नहीं कर सकते। जिधर से गाड़ी यहाँ तक आयी थी, और जिधर गाड़ी को जाना था, दोनों तरफ एक-जैसी भूमि दूर तक चली गयी थी। उसे विचार आया कि भूमि तो सब जगह एक-जैसी है। जन्मभूमि और नए देश की भूमि में बहुत अधिक अन्तर तो नहीं हो सकता। वह चाहता था कि जन्मभूमि की वास्तविक कल्पना कायम करे। पौ फटने से पहले का दृश्यदूर तक फैला हुआ क्षितिज किनारे-किनारे पहाड़ियों की झालर आकाश पर बगलों की पंक्ति खुली कैंची के रूप में उड़ती हुई पूरब की ओर उषा का उजाला !...

धरती ऐसी जैसी किसी युवती की गरदन के नीचे ऊँची घाटियों के बीचो-बीच ताजा श्वेत मक्खन दूर तक फैला हुआ हो। वह चिल्लाकर कहना चाहता था कि जन्मभूमि का यह दृश्य नए देश में भी जरूर नजर आएगा। अपने कन्धों पर पड़ी हुई चादर को वह दायें हाथ की उँगलियों से सहलाने लगा।

जैसे वह इस चादर के मुख से अपना समर्थन चाहता हो। लटकती डालियाँ, महकती कलियाँ, इन्द्रधनुष के रंग, आकाश-गंगा का दूधिया-सौन्दर्य, युवतियों के कहकहे, नव कुलवधुओं की लाजजन्मभूमि का रूप इन्हीं पर कायम था।

अपने खमीर पर, अपनी तासीर पर जन्मभूमि मुसकराती आयी है और मुसकराती रहेगी। वह कहना चाहता था कि नए देश में भी जन्मभूमि का रूप किसी से कम थोड़ी होगा, वहाँ भी गेहँ के खेत दूर तक फैले हुए नंजर आएँगे।

जन्मभूमि का यह दृश्य नए देश में भी उसके साथ-साथ जाएगा, उसे विश्वास था।

उसके बायें हाथ की ऍंगुलियाँ बराबर कन्धे पर पड़ी हुई फटी-पुरानी और मैली चादर से खेलती रहीं। जैसे ले-देकर आज यही चादर जन्मभूमि की प्रतीक बन गयीहो।

''फिरंगी ने देश का नक्शा बदल डाला,'' सरदारजी कह रहे थे, पास से कोई बोला, ''यह उसकी पुरानी चाल।''

एक बुढ़िया ने कहा, ''फिरंगी तो बहुत दिनों से इस देश में बस गया था। मैं न कहती थी कि हम बुरा कर रहे हैं जो फिरंगी को उनके बंगलों से निकालने की सोच रहे हैं? मैं न कहती थी कि फिरंगी का सराप लगेगा?''

दूसरी बुढ़िया बोली, ''यह सब फिरंगी का सराप ही तो है, बहिन जी!''

स्कूल मास्टर को पहली बुढ़िया पर बहुत क्रोध आया। उसकी आवांज में जन्मभूमि के सन्देह बोल उठे, उसने सोचा। दूसरी बुढ़िया उससे भी कहीं अधिक मूर्ख थी जो बिना सोचे हाँ में हाँ मिलाये जा रही थी।

परे कोने में एक कन्या चीथड़ों में लिपटी हुई बैठी थी। जैसे उसकी सहमी-सहमी निगाहें इस डिब्बे के प्रत्येक यात्री से पूछना चाहती होंक्या ये मेरे आखिरी घाव हैं? उसके बायीं तरफ उसकी माँ बैठी थी, जो शायद फिरंगी से कहना चाहती थी कि मेरी गुलामी मुझे लौटा दो, क्योंकि गुलामी में मेरी बिटिया की आबरू नहीं लुटी थी।

डिब्बे में बैठे हुए जो लोग भीड़ के कारण बेहद भिंचे हुए थे, उनकी आँखों में भय की यह दशा थी कि वे प्रतिक्षण बड़े वेग से बुङ्ढे हो रहे थे। सरदारजी बोले, ''इतनी लूट तो बाहर से आने वाले हमलावरों ने भी न की होगी।''

पास से किसी ने कहा, ''इतना सोना लूट लिया गया कि सौ-सौ पीढ़ियों तक खत्म नहीं होगा।''

''लूट का सोना ज्यादा दिन नहीं ठहरता।'' एक और यात्री बोल उठा।

सरदारजी का चेहरा तमतमा उठा। बोले, ''पुलिस के सिपाही भी तो सोना लूटने वालों के साथ रहते थे। पर लूट का सोना पुलिस के सिपाहियों के पास भी कितने दिन ठहरेगा? आज भी दुनिया सतगुरु नानक देव जी महाराज की आज्ञा पर चले तो शान्ति हो सकती है।''


छह

छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन इतने घंटों से गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर रुकी खड़ी थी। अब तो प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वालों के तने हुए शरीर भी ढीले पड़ गये थे। किसी में इतनी हिम्मत न थी कि डिब्बे से नीचे जाकर देखे कि आखिर गाड़ी रुकने का कारण क्या है। डिब्बे में हर किसी का दम घुटा जा रहा था, और हर कोई चाहता था कि और नहीं तो इस डिब्बे से निकलकर किसी दूसरे डिब्बे में कोई अच्छी-सी जगह ढूँढ़ ले। पर यह डर भी तो था कि कहीं यह न हो कि न इधर के रहें न उधर के और गाड़ी चल पड़े।

''फिरंगी का सराप खत्म होने पर ही चलेगी गाड़ी!'' बुढ़िया बोली।

''सच है, बहिन जी!'' दूसरी बुढ़िया कह उठीं।

स्कूल मास्टर ने उड़ने वाले पक्षी के समान बाँहें हवा में उछालते हुए कहा, ''फिरंगी को दोष देते रहने से तो न जन्मभूमि का भला होगा न नए देश का।''

पहली बुढ़िया ने रूखी हँसी हँसते हुए कहा, ''फिरंगी चाहे तो गाड़ी अभी चल पड़े।''

कान्ता ने खिड़की सो झाँककर दूसरे डिब्बे की खिड़की में किसी को पानी पीते देख लिया था। वह भी पानी के लिए मचलने लगी। उसकी बीमार माँ ने कराहती हुई आवाज में कहा, ''पानी का तो अकाल पड़ रहा है, बिटिया!''

अब शान्ता भी पानी की रट लगाने लगी। सरदारजी ने जेब में हाथ डाल कर कुछ नोट निकाले और पाँच-पाँच रुपये के पाँच नोट स्कूल मास्टर की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ''इससे आधा गिलास पानी ले लिया जाए।''

स्कूल मास्टर ने झिझकते हाथों से नोट स्वीकार किये। आधा गिलास पानी की कल्पना से उसकी आँखें चमक उठीं। खाली गिलास उठाकर वह पानी की तलाश में नीचे प्लेटफार्म पर उतर गया। अब 'हिन्दू पानी!' और 'मुस्लिम पानी!' का भेद नहीं रह गया था। बड़ी कठिनाई से एक व्यक्ति के पास पानी नंजर आया।

बावन रुपये गिलास के हिसाब से पच्चीस रुपये का पानी आधे गिलास से कुछ कम ही आना चाहिए था। पानी बेचने वाले ने पेशगी रुपये वसूल कर लिए और बड़ी मुश्किल से एक-तिहाई गिलास पानी दिया।

डिब्बे में आकर सरदारजी के गिलास में थोड़ा पानी उड़ेलते समय जल्दी में कोई एक घूँट पानी फर्श पर गिर गया। झट से पानी का गिलास कान्ता के मुँह पर थमाते हुए उसने कहा, ''पी ले बेटा!'' उधर से शान्ता ने हाथ बढ़ाये।

स्कूल मास्टर ने कान्ता के मुँह से गिलास हटाकर उसे शान्ता के मुँह पर थमा दिया।

फिर काँपते हाथों से यह गिलास उसने अपनी बीमार पत्नी के होंठों की तरफ बढ़ाया जिसने आँखों-ही-आँखों में अपने पति से कहा कि पहले आप भी अपने होंठ गीले कर लेते। पर पति इसके लिए तैयार न था।

कान्ता और शान्ता ने मिलकर जोर से गिलास पर हाथ मारे। बीमार माँ के कमजोर हाथों से छूटकर गिलाश फर्श पर गिर पड़ा। स्कूल मास्टर ने झट लपककर गिलास उठा लिया। बड़ी मुश्किल से इसमें एक घूँट पानी बच पाया था। यह एक घूँट पानी उसने झट अपने गले में उँड़ेल लिया।

सरदारजी कह रहे थे, ''इतना कुछ होने पर भी इनसान जिन्दा है और जिन्दा रहेगा।''

स्कूल मास्टर कह उठा, ''इनसानियत जन्मभूमि का सबसे बड़ा वरदान है। जैसे एक पौधे को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर लगाया जाता है, ऐसे ही हम नए देश से जन्मभूमि का पौधा लगाएँगे। हमें इसकी देखभाल करनी पड़ेगी और इस पौधे को नई जमीन में जड़ पकड़ते कुछ समय अवश्य लगेगा।''

यह कहना कठिन था कि बीमार औरत के गले में कितने घूँट पानी गुंजरा होगा। पर इतना तो प्रत्यक्ष था कि पानी पीने के बाद उसकी अवस्था और भी डावाँडोल हो गयी। अब उसमें इतनी शक्ति न थी कि बैठी रह सके। सरदारजी ने न जाने क्या सोचकर कहा, ''दरिया भले ही सूख जाएे, पर दिलों के दरिया तो सदा बहते रहेंगे। दिल दरिया समुन्दरों डूबें!'


सात

स्कूल मास्टर कह उठा, ''कभी ये दिलों के दरिया जन्मभूमि में बहते थे। अब ये दरिया नए देश में बहा करेंगे।''

बीमार स्त्री बुखार से काँपने लगी। सरदारजी बोले, ''यह अच्छा होगा कि इसे थोड़ी देर के लिए नीचे प्लेटफार्म पर लिटा दिया जाए। बाहर की खुली हवा इसके लिए अच्छी रहेगी।''

स्कूल मास्टर ने एहसान-भरी निगाहों से सरदारजी की तरफ देखा और उनकी मदद से बीमार पत्नी को डिब्बे से उतार कर प्लेटफार्म पर लिटा दिया।

सरदारजी फिर अपनी जगह पर जा बैठे और स्कूल मास्टर अपनी पत्नी के चेहरे पर रूमाल से पंखा करने लगा। वह धीरे-धीरे उसे दिलासा देने लगा, ''तुम अच्छी हो जाओगी। हम बहुत जल्द नए देश में पहुँचने वाले हैं। वहाँ मैं अच्छे-अच्छे डाक्टरों से तुम्हारा इलाज करवाऊँगा।''

बीमार औरत के चेहरे पर दबी-दबी-सी मुसकान उभरी। पर उसके मुख से एक भी शब्द न निकला, मानो उसकी खुली-खुली आँखें कह रही होंमैं जन्मभूमि को नहीं छोड़ सकती। मैं नए देश में नहीं जाना चाहती। मैं इस धरती की कोख से जन्मी और इसी में समा जाना चाहती हँ!

उसकी साँस जोर-जोर से चलने लगी। उसकी आँखें पथराने लगीं। स्कूल मास्टर घबराकर बोला, ''यह तुम्हें क्या हो रहा है? गाड़ी अब और नहीं रुकेगी। नया देश समीप ही तो है। अब जन्मभूमि का विचार छोड़ दो। हम आगे जाएँगे।''

खिड़की से कान्ता और शान्ता फटी-फटी आँखों से देख रही थीं, उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सरदारजी ने खिड़की से सिर बाहर निकालकर पूछा, ''अब बहनजी का क्या हाल है?''

स्कूल मास्टर बोला, ''यह अब जन्मभूमि में ही रहेंगी।''

सरदार जी बोले, ''कहो तो थोड़ा पानी खरीद लें।''

बीमार औरत ने बुझते दीप की तरह साँस लिया और उसके प्राण-पखेरू निकल गये।

लाश के समीप खड़े-खड़े स्कूल मास्टर ने बड़े ध्यान से देखा और कहा, ''अब वह पानी नहीं पीएगी।''

उधर इंजन ने सीटी दी और गाड़ी धीरे-धीरे प्लेटफार्म के साथ-साथ रेंगने लगी। उसने एक बार पत्नी की लाश की तरफ देखा फिर उसकी निगाहें गाड़ी की तरफ उठ गयीं। खिड़की से कान्ता और शान्ता उसकी तरफ देख रही थीं। लाश के साथ रह जाएे या लपककर डिब्बे में जा बैठे, यह प्रश्न बिजली के कौंध की तरह उसके हृदय और मस्तिष्क को चीरता चला गया।

उसने अपने कन्धे से झट वह फटी-पुरानी मैली चादर उतारी, जिसे वह जन्मभूमि से बचाकर लाया था और जिसके धागे-धागे में अभी तक जन्मभूमि साँस ले रही थी।

इस चादर को उसने अपने सामने पड़ी हुई लाश पर फैला दिया और गाड़ी की तरफ लपका। कान्ता की आवाज एक क्षण के लिए वातावरण में लहरायीं, ''माँ!''

गाड़ी तेज हो गयी थी, कान्ता की आवाज हवा में उछलकर रह गयी थी। स्कूल मास्टर ने शान्ता को गोद में उठा लिया और पलटकर लाश की तरफ न देखा।

                                                             --देवेन्द्र सत्यार्थी--

चमड़े का अहाता

शहर की सबसे पुरानी हाइड-मार्किट हमारी थी। हमारा अहाता बहुत बड़ा था।

हम चमड़े का व्यापार करते थे।

मरे हुए जानवरों की खालें हम ख़रीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते।

हमारा काम अच्छा चलता था।

हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी ऱहती। कई बार एक ही समय पर एक तरफ. यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ़ तैयार, परतदार चमड़ा एकसाथ छकड़ों में दबवाया जा रहा होता।

ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंज़िला मकान था। मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था।

हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं।

भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे। हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी।

सौतेली माँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी।

मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था। वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं। मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था। पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता।

भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा। उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी। हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज़्ज़त करता। फिर भी पिता उसे कुछ न कहते। मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल का पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से ग़ायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते।

रहस्य हम पर अचानक ही खुला।

भाई ने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे। सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था।

कबूतर छत पर रहते थे।

अहाते में खालों के खमीर व मांस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अकसर मँडराया करते।

भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे। बक्सा बहुत बड़ा था। उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में वे उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते।

भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता। कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता।

सौतेला और मैं अकसर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते। कबूतरों के लिए पानी लगाना हमारे ज़िम्मे रहता। बिना कुछ बोले भाई कबूतरोंवाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते। उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लिया जाता था।

गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत पर लेकर जाते।

आज क्या लिखा? बाल्टी पकड़ाते समय भाई को टोहते।

कुछ नहीं, भाई अकसर हमें टाल देता और हम मन मसोसकर कबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते।

उस दिन हमारे हाथ बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी,

आज यह बड़ी कबूतरी बीमार हैं।

देखें, सौतेला और मैं खुशी से उछल पड़े।

ध्यान से, भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी।

सौतेले की नज़र एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी।

क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ? सौतेले ने भाई से विनती की।

यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है।

मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा।

भाई का डर सही साबित हुआ।

सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुंडेर पर जा बैठा।

भाई उसके पीछे दौड़ा।

ख़तरे से बेख़बर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुंडेर से दूसरी मुंडेर पर विचरने लगा।

तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया।

कबूतर फुर्तीला था। पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया।

चील ने तेज़ी से कबूतर का अनुगमन किया।

भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन ज़रा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली।

देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए।

ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा।

घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा। सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आईं। सौतेले की दुर्दशा उनसे देखी न गई।

इसे छोड़ दे, वे चिल्लाईं, नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी। वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा।

किस टंकी में? भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया।

मैं क्या जानूँ किस टंकी में?

हमारे अहाते के दालान के अंतिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं। एक टंकी में नई आई खालें नमक, नौसागर व गंधक मिले पानी में हफ्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में ख़मीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था।

बोलो, बोलो, भाई ने ठहाका लगाया, तुम चुप क्यों हो गईं?

चल उठ, सौतेली माँ ने सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया।

मैं सब जानता हूँ, भाई फिर हँसा, पर मैं किसी से नहीं डरता। मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं...

तुमने चमगीदड़ी किसे कहा? सौतेली माँ फिर भड़कीं।

चमगीदडी को चमगीदड़ी कहा है, भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी गईं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली। मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया...

तू भी मेरे साथ नीचे चल, खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए जलेबी मँगवाई हैं...

जलेबी मुझे बहुत पसंद थीं, परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी।

तुम जाओ, सौतेली ने अपने आपको अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, हम लोग बाद में आएँगे।

ठीक है, सौतेली माँ ठहरी नहीं, नीचे उतरते हुए कह गईं, जल्दी आ जाना। जलेबी ठंडा हो रही हैं।

लड़कियों को टंकी में क्यों फेंका गया? मैं भाई के नज़दीक- बहुत नज़दीक जा खड़ा हुआ।

क्योंकि वे लड़कियाँ थीं।

लड़की होना क्या ख़राब बात है? सौतेले ने पूछा।

पिता जी सोचते हैं, लड़कियों की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है।

कैसी मुश्किल?

पैसे की मुश्किल। उनकी शादी में बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ता है।

पर हमारे पास तो बहुत पैसा है, मैंने कहा।

पैसा है, तभी तो उसे बचाना ज़रूरी है, भाई हँसा।

माँ कैसे मरीं? मैंने पूछा। माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था। घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी।

छोटी लड़की को लेकर पिता जी ने उससे खूब छीना-झपटी की। उन्हें बहुत मारा-पीटा। पर वे बहुत बहादुर थीं। पूरा ज़ोर लगाकर उन्होंने पिता जी का मुक़ाबला किया, पर पिता जी में ज़्यादा ज़ोर था। उन्होंने ज़बरदस्ती माँ के मुँह में माँ का दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गईं।

तुमने उन्हें छुड़ाया नहीं?

मैंने बहुत कोशिश की थी। पिता जी की बाँह पर, पीठ पर कईं चिकोटी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी, पर एक ज़बरदस्त घूँसा उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत नहीं बैठ गए...

पिता जी को पुलिस ने नहीं पकड़ा?

नहीं! पुलिस को किसी ने बुलाया ही नहीं।

वे कैसी थीं? मुझे जिज्ञासा हुई।

उन्हें मनकों का बहुत शौक था। मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनाईं। बाज़ार से उनकी पसंद के मनके मैं ही उन्हे लाकर देता था।

उन्हें पंछी बहुत अच्छे लगते थे? सौतेले ने पूछा, सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं। घर की लगभग सभी दीवारों पर मूरतें रहीं।

हाँ। कई मोर... कई तोतों में अक्ल भी होती है और वफ़ादारी भी... कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं।

मैं वे कहानियाँ सुनूँगा, मैंने कहा।

मैं भी, सौतेले ने कहा।

पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर था। दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इस मुए चमड़े की सडाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक्त सड़ता रहता है...

मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं लगता, सौतेले ने कहा।

बड़ा होकर मैं अहाता छोड़ दूँगा, भाई मुस्कराया, दूर, किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा। वहाँ जाकर मनकों का कारखाना लगाऊँगा...

उस दिन जलेबी हम तीनों में से किसी ने न खाईं।

                                                                --दीपक शर्मा--

कालिन्दी

रिक्शों के हुजूम में मेरा रिक्शा भी बहुत धीरे ही सही मगर आगे बढता जा रहा है। भीड़ इतनी है कि पैदल चलो तो कंधे छिलें। रिक्शे भी आपस में उलझ रहे हैं। अब तो यहाँ भीड़ और बढ ग़ई है। मैं फिर लौट रहा हूँ वहाँ। उस एक गली में, जिसकी पहचान उसमें रहने वाली उन कुछ औरतों से थी और शायद अब भी है। जिनके सर्वसुलभ जिस्मों की महक हवाओं में सूंघ कर न जाने कहाँ - कहाँ से लोग आते थे। सामान लाद कर मुम्बई आए ट्रक ड्राईवर, सुदूर प्रदेशों से रोजी की तलाश में परिवारों को पीछे छोड़ आए मजदूर - कामगार, निचले तबके के लोग। कुछ मध्यमवर्ग के भी, अपनी औरतों से उकताए लोग। यह गली हमेशा अनजाने चेहरों के हूजूम से घिरी रहती थी। ये चेहरे तरह - तरह का शोर मचाया करते थे। समय कोई भी तय नहीं था। हर वक्त एक भूख में बिलबिलाते चेहरे।

मुझे जहाँ जाना था वह एक तीन मंजिला पीली इमारत थी। ढहती हुई सी। जिसके छज्जे लटके हुए थे।अनैतिकता वहाँ खुले सर घूमती थी। तरह - तरह के गलत - सही कामों में मुब्तिला वहाँ बहुत से परिवार थे। अवैध शराब बेचने वाले। बहुत निचले तबके के स्मगलर। नशीली दवाओं का धन्धा करने वाले। फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करने वाले, आर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली लडक़ियां। ऐसी कुछ औरतें जो खुल कर शरीर का धन्धा करती थीं। कुछ ऐसी जो चुपचाप - चुपचाप अपने बच्चों से छिप कर, पति या पिता की सहमति से दैहिक सुख के बदले में घर का खर्चा चला रही थीं। बहुत कम कीमत पर। आह! इतनी कम कि !

ऐसी पीली इमारतों की एक श्रृंखला थी। पीली इमारतों के आगे दलाल (जो अकसर उनके पति या प्रेमी हुआ करते थे) और ग्राहक वहाँ की औरतों के जिस्मों का भाव - ताव करते। गहरे - अंधरे कमरे। सीलन और बदबुओं से गंधाते। ग्राहकों की प्रतीक्षा में। उन पीले घरों की परछांइयों में एक आतंक और डर भी थरथराता था। कई बार वहाँ चाकू चल जाते। बलात्कार होते।

कभी - कभी मैं हैरान होता हूँ, यह सोच कर कि वह एकदम सही माहौल था जो मुझे नशीली दवाओं का आदी बना सकता था। या फिर मैं किसी 'पैडिफिलिस' यानि बच्चों का यौनशोषण करने वाले आदमी या औरत के हाथों रबर के गुड्डे की तरह तोड़ - मरोड़ दिया जा सकता था। पूरी गुंजाइश थी उस माहौल में कि दुरगा जैसी कामुक औरत मुझे फुसला लेती या डेविड के गोद में बिठाने वाले खेल मुझे बरबाद कर देते। उस चाल के और बच्चों जैसा ही कोमल शिकार था, मैं भी। उस जगह के घातों - प्रतिघातों के प्रति सदा छठी इन्द्रीय जाग्रत रखे हुए 'जमना' मुझे आगाह करती रहती थी। इसके पास मत जा..उसके साथ बात नहीं..इसके कमरे गया तो देखना. ..उसके साथ खेला तो। फिर भी मैं इन भयावह कल्पनाओं में जीने लगता हूं कि ऐसा हुआ होता तो, क्या होता ? मुझे अजीब का पीड़ादायक सुख मिलता है इन कल्पनाओं में। मैं अपने अंतस के खाज भरे कोने खुजला कर लहुलुहान कर लिया करता हूं। मीठा दर्द और मीठा सुख।

'कश्टमर' शब्द उस गली के हमउम्र बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था। एक पिशाच जो औरतों का गला दबाया करता था। औरतें उसकी गिरफ्त में कराहतीं थीं। एक पिशाच जिसके न आने से -- कभी कटोरदान में रोटी कम पड़ ज़ाती थीं या फिर बचती तो सब्जी या शोरबे के बिना ही खानी होती थीं।

किवदंतियां जुड़ी थीं इस शब्द से। पहली बार जब यह कान में पडा तो मेरे अलावा बाकि बच्चों को कुछ भी अटपटा नहीं लगा। हम सब बच्चे रात को साढे दस बजे बिल्डिंग के सामने खेल रहे थे। तभी छोटू दलाल आकर बोला था -- "स्साले रण्डीखाने की औलादों ये कोई खेलने का टैम है। तुम पर तो अफीम भी अब असर नहीं करती। जाओ जाकर सो जाओ। कश्टमरों का टैम है ये।"

मैं ने 'कश्टमर' कभी नहीं देखा था। एक बार मैं स्कूल से लौटा तो देखा वो किसी आदमी को जल्दी - जल्दी कमरे से धकेल रही थी। मैं ने पूछा, '' ये ही कश्टमर था क्या ?'' वह फटी हुई आंखों से मुझे देखती रही और बिना खाना दिए बिस्तर पर धम्म गिर गई। मैं शाम तक भूखा बैठा रहा। उसके संदूक में रखे पुराने एलबम में पीली पड़ी हुई तस्वीरें देखता रहा। सारे चेहरे अजनबी। एक तस्वीर में कुछ औरतें थीं। उनमें से एक उसकी मां थी। एक फटा चित्र था जिसमें वह थी दूसरे की आधी बांह ही दिख रही थी।

वह इस गली की सारी औरतों से अलग थी। ऐसी जो जिन्दगी अपनी तरह से, अपनी शर्त पर जीती हैं। चाहे वह गलत हो कि सही। ऐसे में अनपढ़ होना कोई मायने नहीं रखता। बचपन में भी उसका ऐसा कडक होना मुझे खुशी देता था। वह सबके सामने घुन्नी - सी रहती। अकेले में बहुत बातें करती। वह अपने डर बांटती, जिन्हें मैं बहादुर बच्चे की तरह दूर करने की कोशिश करता। वह झगड़ती अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से। तरह - तरह के काम पकड़ती छोड़ती। कभी कपडा धोने का साबुन घर - घर बेचती। कभी साड़ियों के फाल लगाती रात - रात तक, या फिर मालिश करती औरतों की।

जिन्दगी को दी अपनी संपूर्णता का मोल वह नहीं जानती थी। उसकी नुची - कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी। जिन्दगी के साबुत टुकडे का नोचे - कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ , यह उसकी याददाश्त में धुंधला पड़ चुका है।

अब वह बिस्तर पर पड़ी है। मैं उससे रू - ब - रू हूं। वह मुझसे आंख नहीं मिलाती। मैं अपने मन की खोह में घुस कर खुदाई करके इस औरत से अपने अटूट सम्बन्ध की जड़ खोज रहा हूं। मैं खिडक़ी से बाहर देखता हूं लगातार, बूढ़े पेड़ बेचैनियों में अपनी डालियां हिला रहे हैं। धूल और धुंए से उनकी पत्तियों का हरा रंग सलेटी हो गया है। जड़ें सड़क का कोलतार फोड़ कर बाहर आकर सांस लेना चाहती हैं, भीतर नमी नहीं है न... लवण हैं...प्यासी सी रेत है। अटपटी हालत में हैं पेड़। इस हैरानी में कि वे यहाँ कैसे पहुँचे? उन्होंने जब बीज में से सर उठाया था, तब यहाँ एक जंगल का मुहाना था। अब यहाँ भीड़ है। आस - पास भरे पूरे बाजार हैं और हैं गलियों के गुंजल।

आस - पास की महक से बुरी तरह उकताया - सा मैं उसे देखता हूं। उसकी कुतरी हुई संपूर्णता के साथ उसकी जिजीविषा उसके माथे पर जल - बुझ रही है।

यह औरत जीवंत थी मेरे सपनों में। मेरे बचपन में। वह बचपन अब महज सपना ही तो लगता है। इसकी और मेरी उम्र में महज पन्द्रह सालों का फर्क है। मेरे बचपन में यह भी किशोरी थी। स्कूल का रास्ता उसकी बातों से महकता। मेरा बस्ता थामे वह दो मील चलती थी

मैं उससे कहता कि चाल के और बच्चों की मैं भी वहीं पास के सरकारी स्कूल में पढूंग़ा। इतना चलना नहीं पडेग़ा।

'' तू अलग है उन सब से। और देख मैं भी।'' वह वहीं रुक जाती और चालू हो जाता उसका भाषण ।

भीड़ और धुंए से भरा रास्ता आगे चल कर जंगली फूलों से भरा जंगल बन जाता। उसकी ढेर सारी बातों से वह रास्ता मजेदार हो जाता था। स्कूल की गली आने से पहले ही वह पलट जाती। मैं चीखता कि स्कूल के गेट तक चलो। वह गुर्रा कर मना कर देती, ''मुझे और काम नहीं है क्या?'' उसका मुलायम चेहरा रूखा हो जाता।

मैं पूरे बचपन इस औरत का मुरीद रहा। नायलोन की सस्ती साड़ी और सूती सलवार - कुरते में भी परी लगती। उसका सांवला रंग, घुंघराले बाल, बड़ी आंखों के नीचे के स्याह घेरे, उसकी मांसल पीठ, उघडे पैर और गले की उभरी हड्डी। सब कुछ।

बाद के सालों में, मुझे इस पर बहुत गुस्सा आने लगा था । मुझे स्कूल छोड़ कर पता नहीं कहाँ जाया करती थी वह। उसने साबुन बेचना, वेश्याओं की मालिश करना बन्द कर दिया था। स्कूल से लौटता तो वह कभी कमरे पर नहीं मिलती। शाम को वह मेरी चीख - पुकार सुनती और अपनी मुस्कानों से मेरे बचकाने गुस्से के खारेपन को सोखती जाती। पाव और दूध का कप पकडा कर मुझे प्यार से देखती। वह बहुत खुश रहने लगी थी।

बारह साल का होने तक तो मैं बहुत कुछ बल्कि सब कुछ समझने लगा था। अंग्रेजी स्कूल और यह परिवेश मेरे भीतर विषमता की एक बहुत बड़ी खाई खोद रहा था। मैं घनेरे असमंजस में था, मेरे व्यक्तित्व के भीतर पता नहीं क्या बन - बिगड़ रहा था। स्कूल में किसी बच्चे से झगड़ा होने पर मैं अचानक फाहशा औरतों के मुंह से निकलने वाली भाषा बोलने लगता और फिर पी टी सर के हाथों पिटाई होती। यहाँ चाल के लडक़ों से एकदम अंग्रेजी बोल पड़ ता तो मजाक बनता। वहाँ नन्स और फादर। यहाँ पेटीकोट में घूमती औरतें, दूसरी मंजिल में उसके कमरे तक पहुंचने वाली, पेशाब की मंद गंध वाली सीढियों के बीच ही, देह और उसके गुह्य रहस्यों को लेकर नित नई कक्षा लगी होती। कामुक आवाज़ों, गंधों और गालियों से कमोबेश मैं सुन्न हो चला था।

एक दिन हम दोनों लेटे - लेटे हल्की रोशनी में डूबे कमरे के कोनों में अंधेरे की बनती - बिगड़ती आकृतियों को घूर रहे थे कि वह बोली।
''मुझे पता है तेरे मन में बहुत सवाल उठने लगे हैं आजकल।''
"..."

''आज तू सारे सवाल पूछ ले, जो तेरे मन में उठते हैं।''
मैं बहुत देर चुप रहा फिर एक सवाल जो मेरी आधी आत्मा कुतर चुका था, उसे मैं ने मन के बिल से निकाल फेंका।
''तेरी शादी हुई थी''
''नहीं।''
''सच्ची - सच्ची बताऐगी ना।''
''हं।''
''खा कसम।''
'' खाई।''
'' मेरी कसम खा।''
'' पागल है क्या? कसम कसम है।''
'' तो खा न।''
'' अच्छा तेरी कसम।''
''तेरी शादी नहीं हुई फिर मैं कहाँ से कैसे आया?''
''वैसे ही जैसे और इन्सान आते हैं।''
''फिर मैं कोई कश्टमर की औलाद हूं? ''
'' वो सच नहीं है। नहीं।
'' तूने सच बताने की कसम खाई है।''
''सच है, तू नहीं समझेगा।''
''मैं सब समझता हूं।''
''नहीं समझता।''
''तू बताएगी नहीं पता था। कसम खा के भी पलटेगी।''

'' सच। तेरा बाप है। उसका नाम भी है, तेरे स्कूल के रजिस्टर में। उसने छोड़ दिया मुझे। अब उसकी बात की तो देखना। ये अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर तू कैसे - कैसे सवाल करता है रे। यहीं के सरकारी स्कूल में पढता तो शायद कोई सवाल नहीं करता। चुपचाप समझने की कोशिश करता।''

सच जानने के बाद तो मैं फिल्मों में वेश्याओं, दलालों और ऑर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली औरतों की रिहाइश वाली उस इमारत से निकल भागना चाहता था।
''जमना, यहाँ से कहीं और जाकर रहें।''
''किराया कहाँ से देंगे ?''
''इसका कहाँ से देती है ? इससे छोटा और कच्चा झौंपडा चलेगा पर यह नहीं''
''इसका किराया नहीं देती मैं। ये मेरी मां का कमरा है। खरीदा हुआ।''
''तू तो कहती थी दूर कहीं रत्नागिरी में तेरा घर है। आम के बाग हैं।''
'' ऐसे ही । वो धन्धेवाली थी। उसने ही ये कोठरी खरीदी थी। रत्नागिरी में तेरे बाप का घर है। ''
''....''

'' और तू भी अब।'' उसकी आंखें फिर पथरा गईं और वह बैठे - बैठे दीवार पर सर मारने लगी। पहले हल्के - हल्के फिर ज़ोर - ज़ोर से। मुझे चिढ हुई इस नाटक से।

उस दिन भी मेरे मुंह से 'कश्टमर' शब्द सुनते ही पगला गई थी। शरीफ बनती है स्साली । गली के और बच्चे दिनरात 'कश्टमर' की बात करते हैं, उनको कोई औरत कुछ नहीं कहती। यह है कि नाटक।

तब से मैं ने उसे कुछ भी कहना पूछना छोड़ दिया। मुझे शक नहीं यकीन था, वह मुझे स्कूल छोड़ कर के धन्धा किया करती थी। अगर नहीं करती तो मेरे अंग्रेजी स्कूल की फीस कहाँ से लाती। रात को परियों की कहानियां सुनाते हुए जरूर मुझे अफीम चटाती थी। उसका बटुआ हमेशा दस - दस के नोटों से भरा रहता था। अब एक पासबुक भी रखती थी वह।

एक दिन मैं स्कूल के रास्ते में से ही लौट आया। पीली इमारत के सामने बने एक सस्ते होटल की टेबल पर बस्ता लेकर बैठा रहा। मैं ने देखा वो साड़ी पहने थी। बाल खोले थे, उनमें सेवन्ती के फूल थे। हाथ में पर्स। कहाँ जाती है यह, आज देखना ही होगा। आज अपने सारे भरम तोड कर विषमता के चौडे पाटों के सिरों पर रखे अपने पैरों को आज छोड़ दूंगा और इस बजबजाती खाई में गिर ही जाऊंगा।

बस्ता वहीं भूल कर मैं उसके पीछे लग गया। गली - दर -गली। चौक और मोड। कुछ कच्चे रास्ते और रेल की लाईनें। फिर नौ - पन्द्रह की लोकल। मैं भी बिना टिकट चढ़ ग़या भीड़ में। मुझे लगा उसने मुझे चढ़ते हुए देखा, पर उसने मुंह फेर लिया। मैं एक मोटे आदमी के पीछे छिप गया। जहाँ वो उतरी मैं भी उतर गया। वह फिर चल पड़ी, एक चौड़ी सड़क के फुटपाथ पर....मैं खीज रहा था कितना और चलेगी ? अचानक वह एक चर्च जैसी दिखने वाली इमारत में घुस गई। जब सिक्योरिटी वाला एक आदमी का पास देख रहा था, तभी मैं विकेट गेट से चुपचाप भीतर चला गया। बड़ा - सा हरा - भरा बगीचा सामने पीले - लाल पत्थरों वाली बहुत बड़ी इमारत थी। बड़े - बड़े खम्भे। बड़ी मेहराबों वाले, बड़े दरवाजे। सब कुछ बड़ा और खुला। साफ और खुश्बूदार हवा। सबकुछ भूल कर मेरा मन खुश हो गया। उस बदबूदार नर्क के सामने यह बहुत सुन्दर एक स्वर्ग था। मैं इस स्वर्ग का और सुख लेता कि वह इस खुली - खुली इमारत के गलियारों में घुस गई। जहाँ बड़े - बड़े हॉल थे। सफेद पोश आदमी। साफ - सुन्दर औरतें और पढने वाले लडक़े - लडक़ियां आ - जा रहे थे। क्या यहाँ नौकरी करती है वह ? या उसका कोई सगेवाला!

वह गलियारे के एक हॉल में दाखिल हुई फिर तुरन्त पलट आई। वह सफेद खंभे के पीछे छिप गया। वह मुड़ कर उसी खंभे की तरफ आ रही थी। ''क्या उसने देख लिया ?''मेरा दिल गले तक उछल आया। दौड़- दौड़ कर,चल - चल कर वैसे भी मेरी सांसे काबू में ही नहीं आ रही थीं। उसकी परछांई दिखी लगा वह हल्की उदास मगर बहुत शांत थी। खंभे के जरा पहले उसने एक बड़ा दरवाजा धकेला और अन्दर चली गई। मैं ने चैन की सांस ली और खंभे के पीछे से निकल आया। अब मैं वहाँ एकदम अकेला खडा था, हवा में उडते पत्तों और ठण्डे सन्नाटों के बीच। मैं ने चारों तरफ नजर डाली, गलियारे के दोनों तरफ चित्र टंगे थे। बड़े अजीब। हरी गाय और जामुनी पहाड। ख़ेतों में झुके हुए अधनंगे, हडियल आदमी - औरतों के झुण्ड। पेड़ों में उगे लाल फलों पर कुछ रोते कुछ हंसते चेहरे। कैसे चित्र हैं ये? बड़े भद्दे और डरावने। तभी बहुत से पैरों की धपड़ - धपड़ आहटें सुनाई दीं। कुछ खिलखिलाहटें और बातें, मैं गलियारे के एक खुले हिस्से से बगीचे में कूद गया।

उसे दरवाजे में भीतर घुसे पन्द्रह मिनट से ज्यादा हो गए थे। मैं लगातार उस दरवाजे पर नजर टिकाए रहा। अचानक एक डर पेट में गङ्ढा बनाने लगा। पेट में हल्का - हल्का कंपन हुआ जो आतंक का पूर्वाभास होता है। वह इन गलियारों और बड़े - बड़े कमरों में खो गई तो मैं क्या करुंगा ? वह बेखबर घर जाऐगी और मुझे ढूंढेगी और मैं इस एकदम अजनबी इलाके में खो जाऊंगा। लौटने का रास्ता, ट्रेनका स्टेशन का कुछ भी नहीं पता था मुझे। मैं तो पीली इमारतों से स्कूल और उसके आगे कभी आया ही नहीं। मगर कल तो वह वापस आऐगी वह अगर नौकरी करती है यहाँअगर नहीं करती हो और बस आज किसी काम से आई हो तो क्या करुंगा ? मुझे लगा पन्द्रह साल का होकर भी बच्चे का बच्चा ही रह गया। चाल के बच्चे जो चिढाते हैं वह सही हैकि मैं दूध पीता बच्चा हूँ, उसके पल्ले से चिपका रहता हूं। अब मेरी हथेलियों में पसीना चिपचिपा रहा था। भूख पेट जला रही थी। आंखों में आंसुओं के कण किरकिरा रहे थे। भीषण असुरक्षा मन में भर गई। एक इच्छा हुई कि गेट के पास बैठे चपडासी से जमुना बाईजमुना बाई सलुंके के बारे में पूछे। पर अगर उसने मुझे पकड लियाऔर पूछा 'अन्दर कैसे घुसा' तो ?

मैं सहमा हुआ गलियारे के साथ - साथ नीचे घास पर चलता रहा, आगे गलियारा बन्द हो गया। खिडक़ियां शुरू हो गयीं। एक के बाद एक, कई - कई मैं हर खिडक़ी के नीचे बने एक पतले चबूतरे पर चढ़ - उतर कर खिडक़ी - दर - खिडक़ी झांकता हुआ सरकने लगा। कहीं परदे तो कहीं नहीं। कहीं अन्दर बड़े कमरों में हर दीवार पर चित्र ही चित्र और चित्र बनाते लडक़े - लडक़ी। कहीं छोटी - बड़ी मूर्तियां तो कहीं लोहे और लकड़ी क़ी अजीब सी आकृतियां बनाते लोग। बड़ी - बड़ी लाइटें और कैमरे। भीतर दुबका आतंक अब उत्सुकता में बदल रहा था। एक उम्मीद जागी थी कि अब मैं उसे खोज लूंगा। एक खिडक़ी में मैं ठिठक गया। कमरा खाली था। परदा खुला था। दीवारों पर नंगे मर्द और औरतों के चित्र लगे थे। जवान भी और बूढ़े और बहुत बूढ़े नंगे मर्द और औरतें। मैं बुरी तरह अचकचा गया। तब तक मैं ने नंगी औरतों वाली किताबें देख ली थीं। चाल में वैसी किताबें हर कहीं मिलेंगी और उनके पन्नों पर सफेद, सुन्दर, नंगी - कामुक औरतें। मुझे लगा क्या बकवास है-- ये कैसी हैं किसी के चेहरे पथरीले हैं, किसी की देह ढलकी हुई। लटकी छातियों और मोटे नितम्बों वाली औरतें। मुझे जुगुप्सा होने लगी थी। तभी कुछ लडक़े लडक़ियों का झुण्ड घुसा कमरे में और उनके पीछे 'वह' । मन हुआ कि आवाज दे दूं। पर वह टेबल पर चढ़ कर बैठ गई थी। मुझे हैरानी हुई। इसकी साड़ी कहाँ गई? ये तौलिए का झब्बा क्या पहना है ? अब क्या इस ड्रेस में ये उन लडक़े - लडक़ियों को पढाने ही लगेगी? एक दाढी वाला पेट के बल मेज पर लेटा पैर मोड कर, कूल्हे उठा कर। वैसे ही उसे कुछ कहा और फिर उतर कर गोल टेबल पर बैठ गया। लडक़े - लडक़ी भी उस मेज के दो तरफ बैठ गए। दूसरी लम्बी मेज पर वो थी।कहाँ गई इस मेज पर कूल्हे ऊंचे करके लेटी, यह नंगी औरत कौन है ! ! ! !

मैं सुन्न हो गया था। यह सब क्या था? तुरन्त खिड़की पर से बेजान हो कर नीचे कूद गया। कुछ देर वहीं लेटा रहा। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसा धन्धा है? उन वेश्याओं, सफेद, नंगी औरतों की किताबों और इसकी इस नंगी नुमाइश के बीच क्या कोई फर्क है? यह ऐसा क्यों कर रही है?

मेरे शरीर से जान निकल चुकी थी। दिमाग पर पाला पड़ ग़या था।

फिर मैं घास के लम्बे मैदान को दौड कर पार करके दीवार फांद कर बाहर आ गया और सिक्योरिटी वाले से जरा हट कर उसका इंतजार करने लगा। वह दो घण्टे बाद निकली और चल पड़ी। कुछ देर चल कर उसने जरा सा पीछे मुड़ कर देखा, मैं बेमन से दीवार से सट गया, फिर चल पडा उसके पीछे, शिथिल मगर सजग _ उन्हीं रास्तों पर। मैं उसके घर पहुंचने के दो घण्टे बाद पहुंचा घर गया। इधर - उधर आवारा घूमता रहा भूखा और बहुत से सवालों में घिरा।

उसकी जो नंगी - गीली परछाइयां मेरे सवालों से लिपटी थीं, न जाने कितने सालों तक यूं ही लिपटी रहीं, फिर वक्त के साथ सूख - सूख कर झर गईं। शायद एकाध अब भी हरी हो, लिपटी हो। मैं ने उन बिना जवाब के सवालों को बहुत दिनों से नहीं पलटा था मसलन वह कुछ और भी तो कर सकती थी? आखिरकार नंगे ही होना था क्या?

मेरी नजर उसके चेहरे पर उगे झुर्रियों के एकदम नए जाल पर पड़ती है। उस जाल में बहुत से पुराने सपनों के पंख फंसे हैं। उसकी आंखे मुंदी हैं। आज जब मैं उसके चेहरे में झुर्रियों के जाल को देखता हूं तो हैरान होता हूं क्या सच में यह बहुत चतुर थी? बत्तीस दांतों के बीच अपने मूल्यों के साथ जीभ - सा बचे रहना चतुराई थी? पूरी जिन्दगी अपने वजूद की नंगी परछाइयों को ढकने की कोशिश में मुझसे भागती रही, क्या वह चतुराई थी? यह आज भी वहीं नौकरी करती है। कहती है, रिटायर हो कर ही छोडेग़ी। पेन्शन लेगी। यहीं रहेगी। मैं जानता हूं जिद्दी है।

यह खुद क्या कम जिद्दी है?

प्रोफेसर साहब के फोन करने के बावजूद, ये आर्ट कॉलेज नहीं आया। मुझे पता था नहीं आऐगा। वहाँ उसे डराने वाले भूत छुपे हैं, खंभे के पीछे, टेबल के ऊपर। आज दोपहर हुआ ये कि पोज देते - देते मैं बेहोश हो गयी। शायद घुटना मोडे - मोडे ख़ून का दौरा दिमाग तक जाना बन्द हो गया था। वहीं डॉक्टर आया, दो इंजेक्शन लगे, वहीं ग्लूकोज क़ी बोतल भी चढी। फिर कॉलेज वालों ने ही एम्बुलेन्स में मुझे यहाँ तक छुड़वाया। मगर यह नहीं आया। अब आया है। इसे पता है कि मैं अब भी वही नौकरी वही मॉडलिंग करती हूं। उमर तो हो गयी है। मगर प्रोफेसर साहब कहते हैं कि ''जवान और सधे जिस्म तो कोई भी पेन्ट कर ले असली कला तो वह है जो झुर्रियों के बारीक जाल की सुन्दरता को पकडे।''

(शायद यह बहाना है। ऐसी युवा मॉडल मिलना बहुत मुश्किल होता है, यहाँ इतने बड़े शहर के इतने बड़े और पुराने आर्ट कॉलेज में कॉन्ट्रेक्ट और परमानेन्ट मिला कर छ: हैं बस। उस पर फैकल्टी कितनी सारी, मूर्तिकला, फोटोग्राफी, एब्स्ट्रेक्ट कंटम्प्रेरी, म्यूराल। )

ये दुबला हो गया है। दाढी क्यों बढा ली है? घुन्ना है। चुपचाप बैठा रहेगा। कहेगा नहीं कुछ।आंखे तक नहीं मिलाना चाहता मुझसे। मुझे ही क्या पड़ी है। जाने दो। बाहर पेड़ों को ताक रहा है। ऐसे चुप बैठे रहना है तो आता ही क्यों है? फोन पर हाल पूछ ले। मोह नहीं छूटता इसका मेरे से। अच्छा हुआ 'मेरे साथ चल' की रट अब छोड़ दी है। मुझे नहीं जाना वहाँ उस समाज में। मां इस समाज की थी सर से पांव तक। मैं इस समाज से अपनी जड़ें उखाडने की चाह में, खुली जडे लिए नित जलील होती, सूखती घूमती रही। फिर ये ये भी त्रिशंकु होने की स्थिति में ही रहा। अब इसके बच्चे एकदम मुक्त हो कर उसी समाज में सांस ले वही ठीक है। इसीलिए मैं अपनी खुली, फफूंद लगी जड़ें ले कर वहाँ नहीं जाना चाहती।
कितने दिनों बाद यह इधर आया है। सोचता होगा कि मैं अपनी नंगी सच्चाइयां इससे छुपाती हुई, यहाँ तक चली आई हूं और सोचता होगा कि मैं आंख नहीं मिलाना चाहती। तुझे आंखें चुराते देख कर ही मैं आंखें बन्द कर लेती हूं या फेर लेती हूँ। तुझसे शरम करुंगी तू जो मेरी जांघों से सतमासा ही निकल पडा था।

तू जितना समझता है, उससे कहीं चतुर हूं मैं। बहुत दिनों तक लगातार छुपाने के बाद और तेरी उत्सुकता के एक हद पार कर लेने के बाद ही मैं ने अपने सच तुझ पर उजागर हो जाने दिए और यह भरम भी बना रहने दिया कि तू समझता है कि तूने जो मेरे सच जान लिए हैं , उस बाबत मैं कुछ नहीं जानती। अब तू कुछ भी समझ कि कपडे उतार कर भी वेश्याओं की बस्ती में मैं पवित्रता का ड्रामा किए हुए बैठी हूं। मैं जानती हूं कि तू जानता है मेरा हर सच। वो चाहे पवित्र हो कि न हो। तुझे हक था जानने का उस पहली सांस से जब तू मेरी जांघों के बीच खून के तालाब में अचानक आ गिरा था।

मुझे नहीं पता कि मैं ने इससे कुछ छिपा कर गलती की थी या नहीं लेकिन अपनी मां से कुछ तो बेहतर ही कोशिश रही थी मेरी। वह तो हमारे स्कूल से लौटने के बाद अगर कोई कस्टमर आता तो कहती, दीपू - लाली बिस्तर के नीचे घुस जाओ। हम वहीं स्कूल का काम करते। उपर चलती धपड़ - धपड़ क़े नीचे।

मैं देखती मां के बदन पर तरह - तरह के निशान। सिगरेट के जले सलेटी निशान, नीले - जामुनी निशान और बहुत बुरी तरह डर जाती। मुझे मां पर गुस्सा आता। यह बर्तन - झाडू क्यों नहीं कर लेती। दस - दस रूपए के लिए मर्दों से खुद को कुचलवाती क्यों है। मगर वह तो मुझसे भी यही उम्मीदें लगाने लगी थी।

आठवीं के बाद मेरी मां ने स्कूल छुडा दिया और मुझे मंहगी 'कॉल गर्ल' बनाने की सोचने लगी। एक बाहर के दलाल के बात भी की। मुझे मंहगी या सस्ती कैसी भी वेश्या नहीं बनना था। मैं एक टैक्सी ड्रायवर के साथ भाग गई। प्यार - व्यार का गहरा चक्कर डाला था उसने। बोला था, रत्नागिरी में घर है, थोड़ी ख़ेती है। आम के पेड़ हैं। मगर ये नहीं बताया एक और पत्नी भी है। एक दिन मुझे वापस छोड़ गया अजन्मे बच्चे के साथ। मुझे तब नहीं पता था कि इन पीले मकानों के बाहर का जो समाज है वह दूसरी ही कोई दुनिया है।

मेरे जाने के बाद ही दीपू भी एक ट्रकवाले के साथ खलासी बन कर गया तो फिर कभी नहीं आया। माँ बहुत गुस्से में थी, दोनों बच्चे, जिनकी वजह से खुद को कुचलवाती रही, दोनों के दोनों भाग गए। इसलिए सारा गुस्सा मुझ पर उतरा। मेरे कमरे में घुसते ही मां ने कपड़ों की तरह कूट डाला। इतना कि जांघ से खून गिरने लगा और मैं ने सतमासे बच्चे यानि इसे जनम दिया। मां बीमार रहने लगी थी। 'कश्टमर' कतराते थे। मैं वेश्याओं के नुचे हुए जिस्मों की मालिश करने लगी पांच - पांच रूपए में। एक दिन मां मर गई।

मैं अकेली, दलाल भी कमरे के चक्कर काटने लगे।

तब मैं ने अपनी बचपन की सहेली जोली के साथ सेल्सगर्ल का काम पकडा। क्या नहीं बेचा, सर्फ, साबुन, बरतन. फिर वो ही एक दिन अपने साथ आर्ट कॉलेज ले गई। पहले सिटिंग के हिसाब से पैसा मिलता था। साठ रूपए एक सिटिंग का।

सात साल ऐसे ही चला फिर वहाँ की परमानेन्ट मॉडल की नौकरी मिल गई। अब तक पूरे सतरह साल हो गए वहाँ काम करते हुए।

जब पहली बार गई थी तो बहुत संकोच हुआ था। जोली ने समझाया कि यह गलत काम नहीं है।

''अच्छा, मगर थोड़ा बोल्ड जॉब है जमना! मैं ने बहुत साल किया है। अब शादी करने जा रही हूं न। बेकरी वाले मोजेज़ के वहाँ यह सब नहीं चलेगा। तुझे अपनी जगह रखवा रही हूं।''

अपनी चाल के टाट पडे हुए स्नानघर में भी नहाते हुए कभी कपडे नहीं उतारे तो इतने लडक़े - लडक़ियों के सामने! मैं नहीं जानती वो क्या सोचते होंगे पर उनके चेहरों पर एक सस्ती उत्सुकता नहीं थी, एक धीरज भरा इंतजार था, मैं ने तौलिए का झब्बा उतार दिया था. मन ही मन यह ठानते हुए कि 'वेश्या बनने से यह थोड़ा अच्छा है।'

पहले मैं उनकी फरमाइश पर कठिन पोज दे देती थी। सोचती कुछ नहीं, हो जाऐगा...पर दो मिनट बाद ही समझ आ जाता कि इस पोज में रहना आसान नहीं मगर पूरे 15 मिनट शरीर अकड़ा हुआ रहता और दर्द महसूस करता। मैं दम साधे रहती। हर पन्द्रह मिनट के बाद दस मिनट की छुट्टी और आधे घण्टे बाद एक कप चाय मिलती। बाद में मुझे आसान से आसान पोज समझ आ गए, जिनमें मैं 15 से 20 मिनट बैठ या लेट सकती थी। खुजली की तेज इच्छा को टालना भी आ गया था। दिमाग वैसे ही ढल जाता है। मैं अपने चित्र नहीं देखती। ज्यादातर वो बहुत भद्दे दिखते थे।

कभी - कभी इतनी सारी लाइट के कारण, उमस भरे दिनों में पसीने की बूंदे मेरी छातियों के नीचे जमा होतीं रहतीं फिर इकट्ठी होकर पेट पर बह निकलतीं फिर जांघों में घुस जातीं।

एक बार मैं ने वहीं बैठे - बैठे एक लडक़े के कैनवास पर नजर डाली तो देखा, उसने वो बहती बूंदे बना डाली हैं। छाती से पेट पर फिसलती हुई। फिर वो मुझे देखते हुए देख कर बहुत मीठा - सा मुस्कुराया था। मुझे इसकी याद आ गई। स्कूल से आकर मुझे घर पर देख कर ऐसे ही मुस्कुराता था। न मिलूं तो पूरे दिन मुंह फुला कर रहता।

इतने लम्बे समय में मुझे अपना एक ही चित्र पसन्द आया था। आठ फुट ऊंचा। पूरा शरीर हल्के जामुनिया रंग का और छातियां और कूल्हे का उभार गुलाबी। बालों का रंग पीला उसमें नीली - नीली नदी की लहरें। बड़ी - बड़ी आंखें मंदिर की देवी जैसी। मुझे लगा थकान और अकड़न से खडे हुए रोंगटों वाली, मेरी छाया नहीं है यह। यह कोई और है। प्रोफेसर मोहनीश ने बनाया था वो। बोले - '' जमना तुम्हें पता है तुम्हारे शरीर का रंग सांवला या भूरा - वूरा नहीं है। यह जामुनी है। मैं ने ये तेज रंग कभी इस्तेमाल नहीं किये। आज जब बिना लाइटों के खिडक़ी खोल कर तुम्हें नेचुरल लाईट में देखा तो, मैं ने ये रंग उठाए हैं पहली बार । मैं ने ब्रश के कभी तिरछे स्ट्रोक नहीं इस्तेमाल किए मगर आज तुम्हारे शरीर की काट और ढलान ने मुझे मजबूर किया।''

उनको उस चित्र पर कोई बहुत बड़ाई नाम मिला था। एक किताब में वह चित्र छपा था, प्रोफेसर साहब के फोटो के साथ। उन्होंने वह किताब दिखाई '' देखो 'आर्ट टुडे' में तुम्हारा वाला चित्र छपा है। इस चित्र को मैं ने शीर्षक दिया है कालिन्दी। पढ़ो, अपना नाम, कालिन्दी यानि 'जमना' जमना सलुंके'।'' उन्होंने हजार रूपए की बख्शीश जबरदस्ती पकडाई। कहते थे ''जीवित मॉडल ही कलाकार के 'मास्टरपीस' बनाने के लिए एक बड़ा माध्यम होती है। लेकिन उन्हें वह इज्ज़त नहीं मिलती जो उन्हें मिलना चाहिये।''

प्रोफेसर हर आने वाले नए बैच से कहते -- ''ये कोई फैशन मॉडल्स नहीं हैं। न ये किसी ब्यूटी कान्टेस्ट की देन हैं, ये हर आकार, लिंग और आयु के साधारण लोग हैं, जो यथार्थवादी कला को जन्म देने में हमारी मदद करते हैं। यहाँ नग्नता मायने ही नहीं रखती। आप जब कला की बारीकियों में उलझ जाते हैं, प्रकाश, छाया, कटावों और कोणों के उकेरने की तकनीकी में। उस वक्त आप कला के बारे में सोच रहे होते हो न कि नग्नता के बारे में। यहाँ वे नग्नता के पदर्शन के लिए नहीं बिठाई जाते हैं, ये तो 'सुपर प्रोफेशनल्स' हैं। इनके माध्यम से तुम एक मानव शरीर के सही - सही आकार और आयाम देख पाते हो, जो कि कपड़ों के चलते ठीक से पता नहीं चलते। यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि तुम देह की लचीली मांसपेशियों का विविधता से भरे आयाम, तनाव और आराम के माध्यम से देख पाते हो, उनके आकार और आयाम जैसा कि मैं ने कहा न्यूड मॉडलिंग आसान काम नहीं है। एक अच्छे पोज क़े लिए उनकी मेहनत और एकाग्रता लगती है। बीस मिनट में पैर सो जाता, नितम्ब की हड्डियां दर्द करने लगती हैं, नस पर नस चढ़ ज़ाती है ।''

काश मैं उनकी बातें टेप करके उसे सुना पाती जो उस दिन खुली खिडक़ी से मुझे पोज करते हुए देख गया था एन् इसी मास्टरपीस बनने वाले दिन। जामुनी रंग वाली जमना को।

हाँ, उसे देख लिया था मैं ने। लोकल में चढ़ते हुए। जानती थी, उसके पास पैसे होंगे नहीं इसलिए लोकल से उतर कर रिक्शा भी नहीं किया। पैदल आर्ट कॉलेज पहुंची। ठान लिया था, आज इसके सारे सवालों के उत्तर इसे बिना बोले दे दूं। इसीलिए जब बिना लाईट के सूरज की रोशनी में चित्र बनाने की बात कही प्रोफेसर साहब ने तो मैं चुपचाप मान गई। परदे खोल दिए गए। मैं ने कनखियों से उसे देखा भी, उसका चेहरा लाल हुआ फिर बैंगनी....अंत में काला। फिर वह खिडक़ी से कूद गया।

उस दिन जब वह घर लौटा तो मैं ने बहुत दिनों बाद पास के होटल से मुर्गे का कढाही शोरबा और रोटियां मंगाए थे। शायद भूख तेज थी और गुस्सा नपुंसक। उसने चुपचाप खा लिया। खाकर भी गुस्से में वह होंठ चबाता रहा।

खाने के बाद जब वो हाथ धो रहा था तब वो बोली।
'' स्कूल नहीं क्या आज तू ?''
'' गया तो था।''
सोचा कि पूछूं।
''तू आज मेरे पीछे आया था ! लोकल से उतरते देख लिया था मैं ने। तू क्या सोचता है तू ही शाणा है। और वहाँ आर्ट कोलेज में तुझे सिकोरिटी वाला ऐसेईच घुसने देता !''
लेकिन मैं ने नहीं पूछा क्योंकि फिर वो पूछता कि -- '' तूने फिर मुझे साथ क्यों नहीं लिया ?''
तो क्या कहूंगी ? कह दूंगी कि -- ''नौकरी है वो मेरी।''
फिर वो कहेगा कि -- ''ऐसी गन्दी नौकरी। छोड़ दे वो नौकरी।''
तो कहूंगी कि -- ''काम में गन्दा - अच्छा क्या? मुझे बस ये पता है कि इन ड्राईंग पढने वाले इन बच्चों को मेरी जरूरत है। मेरे काम से इनको सीखने को मिलता है। वहाँ कोई मुझे गन्दी नजर से नहीं देखता। मैं नहीं छोड़ ने वाली ये नौकरी। पूर सात हजार मिलते हैं महीने के। ''
मैं चुप रही। चुपचाप बर्तन समेटे और मांजे। वह उंगलियां चटखाता रहा। देखा! आज भी उंगलियां चटखा रहा है। कितना मना करती रही हूं।
''उंगलियां तोडेग़ा क्या?'' मैं आंखें खोलकर तरेरती हूं । वह हंसता है। बचपन वाली हंसी।
''अब छोड़ दे ये नौकरी जो तू कॉलेज में करती है।''
'' छोड़ दूंगी। रिटायर हो ही जाऊंगी जल्दी ही।''
''पैसा दे के जाऊं।''
''अभी तो है। चाहिएगा तो ले लूंगी। तेरा कैसा चल रहा है ?''
''ठीक ।''
''नौकरी ?''
''बदल ली।''
''अब फोटो नहीं खींचता।''
''खींचता हूं। भूकंप और बम धमाके के नहीं । खून में लथपथ लोगों के फोटो खींच कर भी अखबार में पैसे कम ही मिलते थे।''
''फिर?''
''फिर क्या बच्चे होने के बाद खर्चा बढ ग़या है। एक कमरे में काम नहीं चलता। इसलिए अब फ्रीलांस अपना ही काम करता हूं। एक साथ कई जगह पर।''
'' तभी तू दुबला हो गया है। काम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर झेल सके।''
'' उधर की तरफ यहाँ के जैसे तो नहीं रहा जा सकता है न। थोडे ज्यादा पैसे बन जाते हैं। अब मै विज्ञापनों के लिए भी काम करता हूं। मॉडलों के फोटो खींचता हूं अभी अपने खींचे फोटो की प्रदर्शनी लगाई थी उसका एक किताब में रिव्यू भी आया है।''
''आर्ट टुडे में! 'डिवाइन न्यूडिटी' ? ''
''तुझे कैसे पता ?''
मैं ने आंखे मूंद ली। मुझे पता था उसके भीतर के अहम् की हवा रिस कर उसे पिचका हुआ छोड़ गई है।

                                                          --मनीषा कुलश्रेष्ठ--