रविवार, 11 अगस्त 2013

मेरा दुश्मन

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज मिला दी थी कि खाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई खास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोर-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीग कर दमक उठती हैं, होंठों का जहर और उजागर हो जाता है, और बस - होशोहवास बदस्‍तूर कायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्‍यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोच कर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोच कर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में जायका पहचान कर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास खत्‍म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्‍पना से दिल दहल कर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुजदिल आदमी की कल्‍पना बहुत तेज होती है, हमेशा उसे हर खतरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्‍मत बाँध कर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा जरूर था। इतना भी क्‍या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

खैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़क कर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्‍त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देख कर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूजी किसी भी क्षण उछल कर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताकत उसकी खामोशी में है। बातें वह उस जमाने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।

उसकी गूँगी अवहेलना की कल्‍पना-मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न, कि मैं एक बुजदिल इंसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अर्से की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफहमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते-मटकते तंदुरुस्‍त बच्‍चों और आरास्‍ता-पैरास्‍ता अलीशान कोठी को देख कर खुद ही मैदान छोड़ कर भाग जाएगा और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवार हद तक मैंने अपनी जिंदगी को सँभाल-सँवार लिया है।

लेकिन ये सब लँगड़े बहाने हैं। हकीकत शायद यह है कि उस रोज मैं उसे अपने साथ नहीं लाया था, बल्कि वह खुद ही मेरे साथ चला आया था, जैसे मैं उसे नहीं बल्कि वह मुझे नीचा दिखाना चाहता हो। जाहिर है कि उस समय यह बारीक बात मेरी समझ में नहीं आई होगी। मौके पर ठीक बात मैं कभी नहीं सोच पाता। यही तो मुसीबत है। वैसे मुसीबतें और भी बहुत हैं, लेकिन उन सबका जिक्र यहाँ बेकार होगा।

खैर, माला के सामने उस रोज मैंने इसी किस्‍म की कोई लँगड़ी सफाई पेश करने की कोशिश की थी और उस पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसे देखते ही बिफर उठी थी। सबसे पहले अपनी बेवकूफी और सारी स्थिति का एहसास शायद मुझे उसी क्षण हुआ था। मुझे उस कमबख्त से वहीं घर से दूर, उस सड़क के किनारे किसी-न-किसी तरह निबट लेना चाहिए था। अगर अपनी उस सहमी हुई खामोशी को तोड़ कर मैंने अपनी तमाम मजबूरियाँ उसके सामने रख दी होतीं, माला का एक खाका-सा खींच दिया होता, साफ-साफ उससे कह दिया होता - देखो गुरु, मुझ पर दया करो और मेरा पीछा छोड़ दो - तो शायद वहीं हम किसी समझौते पर पहुँच जाते। और नहीं तो वह मुझे कुछ मोहलत तो दे ही देता। छूटते ही दो मोरचों को एक साथ सँभालने की दिक्‍कत तो पेश न आती। कुछ भी हो, मुझे अपने घर नहीं लाना चाहिए था। लेकिन अब यह सारी समझदारी बेकार थी। माला और वह एक-दूसरे को यूँ घूर रहे थे जैसे दो पुराने और जानी दुश्‍मन हों। एक क्षण के लिए मैं यह सोच कर आश्‍वस्‍त हुआ था कि माला सारी स्थिति खुद सँभाल लेगी और फिर दूसरे ही क्षण मैं माला की लानत-मुलामत की कल्‍पना कर सहम गया था। बात को मजाक में घोल देने की कोशिश में मैंने एक खास गिलगिले लहजे में - जो मेरे पास ऐसे नाजुक मौकों के लिए सुरक्षित रहता है - कहा था, डार्लिंग, जरा रास्‍ता तो छोड़ो, कि हम बहुत लंबी सैर से लौटे हैं, जरा बैठ जाएँ तो जो सजा जी में आए, दे देना।

वह रास्‍ते से तो हट गई थी, लेकिन उसके तनाव में कोई कमी नहीं हुई थी, और न ही उसने मुझे बैठने दिया था। साथ ही उस मुरदार ने मेरी तरफ यूँ देखा था जैसे कह रहा हो - तो तुम वाकई इस औरत के गुलाम बन कर रह गए हो। और खुद मैं उन दोनों की तरफ यूँ देख रहा था जैसे एक की नजर बचा कर दूसरे से कोई साजिशी संबंध पैदा कर लेने की ख्‍वाहिश हो।

फिर माला ने मौका पाते ही मुझे अलग ले जा कर डाँटना-डपटना शुरू कर दिया था - मैं पूछती हूँ कि यह तुम किस आवारागर्द को पकड़ कर साथ ले आए हो? जरूर कोई तुम्‍हारा पुराना दोस्‍त होगा? है न? इत्‍ते बरस शादी को हो चले लेकिन तुम अभी तक वैसे-के-वैसे ही रहे। मेरे बच्‍चे उसे देख कर क्‍या कहेंगे? पड़ोसी क्‍या सेाचेंगे? अब कुछ बोलोगे भी?

मैं हैरान था कि क्‍या बोलूँ! माला के सामने में बोलता कम हूँ, ज्‍यादा समय तोलने में ही बीत जाता है और उसका मिजाज और बिगड़ जाता है। वैसे उसका गुस्‍सा वजा था। उसका गुस्‍सा हमेशा वजा होता है। हमारी कामयाब शादी की बुनियाद भी इसी पर कायम है - उसकी हर बात हमेशा सही होती है और मैं अपनी हर गलती को चुपचाप और फौरन कबूल कर लेता हूँ। बीच-बीच में महज मुझे खुश कर देने के खयाल से वह इस किस्‍म की शि‍कायतें जरूर कर दिया करती है - तुम्‍हें न जाने हर मामूली-से-मामूली बात पर मेरे खिलाफ डट जाने में क्‍या मजा आता है? मानती हूँ कि तुम मुझसे कहीं ज्‍यादा समझदार हो, लेकिन कभी-कभी मेरी बात रखने के लिए ही सही... वगैर-वगैरा।

मुझे उसके ये झूठे उलाहने बहुत पसंद हैं, गो मैं उनसे ज्‍यादा खुश नहीं हो पाता। फिर भी वह समझती है कि इनसे मेरा भ्रम बना रहता है और मैं जानता हूँ कि बागडोर उसी के हाथ में रहती है और यह ठीक ही है।

तो माला दाँत पीस कर कह रही थी - अब कुछ बोलोगे भी? मेरे बच्‍चे पार्क से लौट कर इस मनहूस आदमी को बैठक में बैठा देखेंगे, तो क्‍या कहेंगे? उन पर क्‍या असर होगा? उफ, इतना गंदा आदमी! सारा घर महक रहा है। बताओ न, मैं अपने बच्‍चों से क्‍या कहूँगी?

अब जाहिर है कि माला को कुछ भी नहीं बता सकता था। सो मैं सर झुकाए खड़ा रहा और वह मुँह उठाए बहुत देर तक बरसती रही।

वैसे यहाँ यह साफ कर दूँ कि वे बच्‍चे माला अपने साथ नहीं लाई थी। वे मेरे भी उतने ही हैं जितने कि उसके, लेकिन ऐसे मौकों पर वह हमेशा 'मेरे बच्‍चे' कह कर मुझसे उन्‍हें यूँ अलग कर लिया करती है, जैसे कोई कीचड़ से लाल निकाल रहा हो। कभी-कभी मुझे इस बात पर बहुत दुख भी होता था, लेकिन फिर ठंडे दिल से सोचने पर महसूस होता है कि शारीरिक सचाई कुछ भी हो, रूहानी तौर पर हमारे सभी बच्‍चे माला के ही है, उनके रंग-ढंग में मेरा हिस्‍सा बहुत कम है। और यह ठीक ही है, क्योंकि अगर वे मुझ पर जाते तो उन्‍हें भी मेरी तरह सीधा होने में न जाने कितनी देर लग जाती। मैं खुश हूँ कि उनका कानूनी और शायद जिस्‍मानी, बाप हूँ, उनके लिए पैसे कमाता हूँ, और दिलोजान से उनकी माँ की सेवा में दिन-रात जुटा रहता हूँ।

खैर! कुछ देर यूँ ही सर नीचा किए खड़े रहने के बाद आखिर मैंने निहायत आजिजाना आवाज में कहना शुरू किया था - अरे भई, मैं तो उस कमबख्‍त को ठीक तरह से पहचानता भी नहीं, उससे दोस्‍ती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अब अगर रास्‍ते में कोई आदमी मिल जाए तो...।

न जाने मेरे फिकरे का अंत क्‍योंकर होता। शायद होता भी कि नहीं, लेकिन माला ने बीच में ही पाँव पटक कर कह दिया - झूठ, सरासर झूठ।

यह कह कर वह अंदर चली गई और मैं कुछ देर तक और वहीं सर नीचा किए खड़ा रहने के बाद वापस उस कमरे में लौट आया, जहाँ बैठा वह बीड़ी पी रहा था और मुस्‍करा रहा था, जैसे सब जानता हो कि मैं किस मरहले से गुजर कर आ रहा हूँ।

अब हुआ दरअसल यह था कि उस शाम माला से, कुछ दूर अकेला घूम आने की इजाजत माँग कर मैं यूँ ही बिना मतलब घर से बाहर निकल गया था। आम तौर पर वह ऐसी इजाजतें आसानी से नहीं देती और न ही मैं माँगने की हिम्‍मत कर पाता हूँ। बिना मतलब घूमना उसे बहुत बुरा लगता है। कहीं भी जाना हो, किसी से भी मिलना हो, कुछ भी करना या न करना हो, मतलब का साफ और सही फैसला वह पहले से ही कर लेती है। ठीक ही करती है। मैं उसकी समझदारी की दाद देता हूँ। वैसे घर से दूर अकेला मैं किसी मतलब से भी नहीं आ पाता। माला की सोहबत की कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है, कि उसके बगैर सब सूना-सूना-सा लगता है। जब वह साथ रहती है तो किसी किस्‍म का कोई ऊल-जलूल विचार मन में उठ ही नहीं पाता, हर चीज ठोस और बामतलब दिखाई देती है। अंदर की हालत ऐसी रहती है, जैसे माला के हाथों सजाया हुआ कोई कमरा हो, जिसमें हर चीज करीने से पड़ी हो, बेकायदगी की कोई गुंजाइश न हो। और जब वह साथ नहीं होती, तो वही होता है जो उस शाम हुआ, या फिर उसी किस्‍म का कोई और हादसा, क्योंकि उससे पहले वैसी बात कभी नहीं हुई थी।

तो उस शाम न जाने किस धुन में मैं बहुत देर निकल गया था। आम तौर पर घर से दूर होने पर भी मैं घर ही के बारे में सोचता रहता हूँ - इसलिए नहीं कि घर में किसी किस्‍म की कोई परेशानी है। गाड़ी न सिर्फ चल रही है, बल्कि खूब चल रही है। बागडोर जब माला-जैसी औरत के हाथ हो, तो चलेगी नहीं तो और करेगी भी क्‍या? नहीं, घर में कोई परेशानी नहीं - अच्‍छी तनख्‍वाह, अच्‍छी बीवी, अच्‍छे बच्‍चे, अच्‍छे बा-रसूख दोस्‍त, उनकी बीवियाँ भी खूब हट्टी-कट्टी और अच्‍छी, अच्‍छा सरकारी मकान, अच्‍छा खुशनुमा लॉन, पास-पड़ोस भी अच्‍छा, महँगाई के बावजूद दोनों वक्‍त अच्‍छा खाना, अच्‍छा बिस्‍तर और अच्‍छी बिस्‍तरी जिंदगी। मैं पूछता हूँ, इस सबके अलावा और चाहिए भी क्‍या एक अच्‍छे इंसान को? फिर भी अकेला होने पर घरेलू मामलों को बार-बार उलट-पलट कर देखने से वैसा ही इत्‍मीनान मिलता है, जैसा किसी भी सेहतमंद आदमी को बार-बार आईने में अपनी सूरत देख कर मिलता होगा। मेरा मतलब है कि वक्‍त अच्‍छी तरह से कट जाता है, ऊब नहीं होती। यह भी माला के ही सुप्रभाव का फल है, नहीं तो एक जमाना था कि मैं हरदम ऊब का शिकार रहा करता था।

हो सकता है कि उस शाम दिमाग कुछ देर के लिए उसी गुजरे हुए जमाने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।

महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देख कर घात में बैठे हुए किसी खतरनाक अजनबी ने ही रास्‍ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठक कर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसल कर मेरी निगाह उसकी मुस्‍कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद जमाने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़ कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सर इस पेशी के खयाल से दब कर झुक गया था।

कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रूबरू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता, तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं, या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।

वैसे यह सच है कि उसे पहचानते ही मैंने माला को याद करना शुरू कर दिया था, कि हर संकट में मैं हमेशा उसी का नाम लेता हूँ। साथ ही यहाँ से दुम दबा कर भाग उठने की ख्‍वाहिश भी मन में उठती रही थी। एक उड़ती हुई-सी तमन्‍ना यह भी हुई थी कि वापस घर लौटने के बजाय चुपचाप उस कमबख्‍त के साथ हो लूँ, जहाँ वह ले जाना चाहे चला जाऊँ और माला को खबर तक न हो। इस विचार पर तब भी मैं बहुत चौंका था और अभी तक हैरान हूँ, क्‍योंकि आखिर उसी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर आज से कुछ बरस पहले मैंने उसके खिलाफ बगावत न की होती तो। लेकिन उस भागने को बगावत का नाम दे कर मैं अपने-आपको धोखा दे रहा हूँ, मैंने सोचा था और मेरा मुँह शर्म के मारे जल उठा था।

उस हरामजादे ने जरूर मेरी सारी परेशानी को भाँप लिया होगा। उससे मेरी कोई कमजोरी छिपी नहीं और उससे भाग कर माला की गोद में पनाह लेने की एक बड़ी वजह यही थी। उसकी हँसी मुझे सूखे पत्‍तों की हैबतनाक खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और उस खड़खडाहाट में उसके साए में गुजारे हुए जमाने की बेशुमार बातें आपस में टकरा रही थीं। बड़ी ही मुश्किल से आँख उठा कर उसकी ओर देख था। उसका हाथ मेरी तरफ बढ़ा हुआ था। कसे हुए दाँतों से मैंने उसकी आँखों का सामना किया था। अपना हाथ उसके खुरदरे हाथ में देते हुए और उसकी साँसों की बदबूदार हरारत अपने चेहरे पर झेलते हुए मैंने महसूस किया था जैसे इतनी मुद्दत आजाद रह लेने के बाद फिर अपने-आपको उसके हवाले कर दिया हो। अजीब बात है, एहसास से जितनी तकलीफ मुझे होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी। शायद हर भगोड़ा मुजरिम दिल से यही चाहता है कि उसे कोई पकड़ ले।

घर पहुँचने तक कोई बात नहीं हुई थी। अपनी-अपनी खामोशी में लिपटे हुए हम धीमे-धीमे चल रहे थे, जैसे कंधों पर कोई लाश उठाए हुए हों।

सो, जब माला की डाँट-डपट सुन लेने के बाद, मुँह बनाए, मैं वापस बैठक में लौटा, तो वह बदजात मजे में बैठा बीड़ी पी रहा था। एक क्षण के लिए भ्रम हुआ, जैसे वह कमरा उसी का हो। फिर कुछ सँभल कर, उससे नजर मिलाए बगैर, मैंने कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, पंखे को और तेज कर दिया, एक झुँझलाई हुई ठोकर से उसके जूतों को सोफे के नीचे धकेल दिया, रेडियो चलाना ही चाहता था कि उसकी फटी हुई हँसी सुनाई दी और मैं बेबस हो, उससे दूर हट कर चुपचाप बैठ गया।

जी में आया कि हाथ बाँध कर उसके सामने खड़ा हो जाऊँ, सारी हकीकत सुना कर कह दूँ - देखो दोस्‍त, अब मेरे हाल पर रहम करो और माला के आने से पहले चुपचाप यहाँ से चले जाओ, वरना नतीजा बुरा होगा।

लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। कहा भी होता तो सिवाय एक और जहरीली हँसी के उसने मेरी अपील का कोई जवाब न दिया होता। वह बहुत जालिम है, हर बात की तह तक पहुँचने का कायल, और भावुकता से उसे सख्‍त नफरत है।

उसे कमरे का जायजा लेते देख मैंने दबी निगाह से उसकी ओर देखना शुरू कर दिया। टाँगे समेटे वह सोफे पर बैठा हुआ एक जानवर-सा दिखाई दिया। उसकी हालत बहुत खस्‍ता दिखाई दी, लेकिन उसकी शक्‍ल अब भी मुझसे कुछ-कुछ मिलती थी। इस विचार से मुझे कोफ्त भी हुई और एक अजीब किस्‍म की खुशी भी महसूस हुई। एक जमाना था जब वही एक मात्र मेरा आदर्श हुआ करता था, जब हम दोनों घंटों एक साथ घूमा करते थे, जब हमने बार-बार कई नौकरियों से एक साथ इस्‍तीफे दिए थे, कुछ-एक से एक साथ निकाले भी गए थे, जब हम अपने-आपको उन तमाम लोगों से बेहतर और ऊँचा समझते थे जो पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हुए अपनी सारी जिंदगी एक बदनुमा और रवायती घरौंदे की तामीर में बरबाद कर देते हैं, जिनके दिमाग हमेशा उस घरौंदे की चहारदीवारी में कैद रहते है, जिनके दिल सिर्फ अपने बच्चों की किलकारियों पर ही झूमते हैं, जिनकी बेवकूफ बीवियाँ दिन-रात उन्‍हें तिगनी का नाच नचाती हैं, और जिन्‍हें अपनी सफेदपोशी के अलावा और किसी बात का कोई गम नहीं होता। कुछ देर मैं उस जमाने की याद में डूबा रहा। महसूस हुआ, जैसे वह फिर उसी दुनिया से एक पैगाम लाया हो, फिर मुझे उन्‍हीं रोमानी वीरानों में भटका देने की कोशिश करना चाहता हो, जिनसे भाग कर मैने अपने लिए एक फूलों की सेज सँवार ली है, और जहाँ मैं बहुत सुखी हूँ।

वह मुस्‍करा रहा था, जैसे उसने मेरे अंदर झाँक लिया हो। उसे इस तरह आसानी से अपने ऊपर काबिज होते देख, मैंने बात बदलने के लिए कहा - कितने रोज यहाँ ठहरोगे?

उसकी हँसी से एक बार फिर हमारे घर की सजी-सँवारी फि़जा दहक गई, और मुझे खतरा हुआ कि माला उसी दम वहाँ पहुँच कर उसका मुँह नोच लेगी। लेकिन यह खतरा इस बात का गवाह है कि इतने बरसों की दासता के बावजूद मैं अभी तक माला को पहचान नहीं पाया। थोड़ी ही देर में वह एक बहुत खूबसूरत साड़ी पहने मुस्‍कराती-इठलाती हुई हमारे सामने आ खड़ी हुई। हाथ जोड़ कर बड़े दिलफरेब अंदाज में नमस्‍कार करती हुई बोली, 'आप बहुत थके हुए दिखाई देते हैं, मैंने गरम पानी रखवा दिया है, आप 'वाश' कर लें, तो कुछ पी कर ताजादम हो जाएँ। खाना तो हम लोग देर से ही खाएँगे।'

मैं बहुत खुश हुआ। अब मामला माला ने अपने हाथ में ले लिया था और मैं यूँ ही परेशान हो रहा था। मन हुआ कि उठ कर माला को चूम लूँ, मैंने कनखियों से उस हरामजादे की तरफ देखा। वह वाकई सहमा हुआ-सा दिखाई दिया। मैंने सोचा, अब अगर वह खुद-ब-खुद ही न भाग उठा तो मैं समझूँगा कि माला की सारी समझ-सीख और रंग-रूप बेकार है। कितना लुत्‍फ आए अगर वह कमबख्‍त भी भाग खड़ा होने के बजाय माला के दाँव में फँस जाए और फिर मैं उससे पूछूँ - अब बता, साले, अब बात समझ में आई? मैंने आँखें बंद कर लीं और उसे माला के इर्द-गिर्द नचाते हुए, उस पर फिदा होते हुए, उसके साथ लेटे हुए देखा। एक अजीब राहत का ए‍हसास हुआ। आँखें खोलीं तो वह गुसलखाने में जा चुका था और माला झुकी हुई सोफे को ठीक कर रही थी। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसकी तनी हुई सूरत से घबरा कर नजरें झुका लीं। जाहिर था कि उसने अभी मुझे माफ नहीं किया था।

नहा कर वह बाहर निकला, तो उसने मेरे कपड़े पहने हुए थे। इस बीच माला ने बीअर निकाल ली थी और उसका गिलास भरते हुए पूछ रही थी - 'आप खाने में मिर्च कम लेते हैं या ज्यादा?' मैंने बहुत मुश्किल से हँसी पर काबू किया - उस साले को तो खाना ही कब मिलता होता, मैं सोच रहा था और माला की होशियारी पर खुश हो रहा था।

कुछ देर हम बैठे पीते रहे, माला उससे घुल-मिल कर बातें करती रही, उससे छोटे-छोटे सवाल पूछती रही - आपको यह शहर कैसा लगा? बीअर ठंडी तो है न? आप अपना सामान कहाँ छोड़ आए? - और वह बगलें झाँकता रहा। हमारे बच्‍चों ने आ कर अपने 'अंकल' को ग्रीट किया, बारी-बारी उसके घुटनों पर बैठ कर अपना नाम वगैरा बताया, एक-दो गाने गाए और फिर 'गुड नाइट' कह कर अपने कमरे में चले गए। माला की मीठी बातों से यूँ लग रहा था जैसे हमारे अपने ही हलके का कोई बेतकल्‍लुफ दोस्‍त कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ ठहरा हो, और उसकी बड़ी-सी गाड़ी हमारे दरवाजे़ के सामने खड़ी हो।

मैं बहुत खुश था और जब माला खाना लगवाने के लिए बाहर गई, तो उस शाम पहली बार मैंने बेधड़क उस कमीने की तरफ देखा। वह तीन-चार गिलास बीअर के पी चुका था और उसके चेहरे की जर्दी कुछ कम हो चुकी थी। लेकिन उसकी मुस्कराहट में माला के बाहर जाते ही फिर वही जहर और चैलेंज आ गया था और मुझे महसूस हुआ जैसे वह कह रहा हो - बीवी तुम्‍हारी मुझे पसंद है, लेकिन बेटे! उसे खबरदार कर दो, मैं इतना पिलपिला नहीं जितना वह समझती है।

एक क्षण के लिए फिर मेरा जोश कुछ ढीला पड़ गया। लगा जैसे बात इतनी आसानी से सुलझनेवाली नहीं। याद आया कि खूबसूरत और शोख औरतें उस जमाने में भी उसे बहुत पसंद थीं, लेकिन उनका जादू ज्‍यादा देर तक नहीं चलता था। फिर भी, मैंने सोचा, बात अब मेरे हाथ से निकल गई है और सिवाय इंतजार के मैं और कुछ नहीं कर सकता था।

खाना उस रोज बहुत उम्‍दा बना था और खाने के बाद माला खुद उसे उसके कमरे तक छोड़ने गई थी। लेकिन उस रात मेरे साथ माला ने कोई बात नहीं की। मैंने कई मजाक किए, कहा - नहा-धो कर वह काफी अच्‍छा लग रहा था, क्‍यों? बहुत छेड़-छाड़ की, कई कोशिशें कीं कि सुल‍हनामा हो जाए, लेकिन उसने मुझे अपने पास फटकने नहीं दिया। नींद उस रात मुझे नहीं आई, फिर भी अंदर से मुझे इत्‍मीनान था कि किसी-न-किसी तरह माला दूसरे रोज उसे भगा सकने में जरूर कामयाब हो जाएगी।

लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। माना कि माला बहुत चालाक है, बहुत समझदार है, बहुत मनमोहिनी है, लेकिन उस हरामजादे की ढिठाई का भी कोई मुकाबला नहीं। तीन दिन तक माला उसकी खातिर-तबाजा करती रही। मेरे कपड़ों में वह अब बिलकुल मुझ जैसा हो गया था और नजर यूँ आता था जैसे माला के दो पति हों। मैं तो सुबह-सबेरे गाड़ी ले कर दफ्तर को निकल जाता था, पीछे उन दोनों में न जाने क्‍या बातें होती थीं। लेकिन जब कभी उसे मौका मिलता वह मुझे अंदर ले जा कर डाँटने लगती -अब यह मुरदार यहाँ से निकलेगा भी कि नहीं। जब तक यह घर में है, हम किसी को न तो बुला सकते हैं, न किसी के यहाँ जा सकते हैं। मेरे बच्‍चे कहते हैं कि इसे बात करने तक की तमीज नहीं। आखिर यह चाहता क्‍या है?

मैं उसे क्‍या बताता कि वह क्‍या चाहता है? कभी कहता - थोड़ा सब्र और करो अब जाने की सोच रहा होगा। कभी कहता - क्‍या बताऊँ, मैं तो खु़द शर्मिंदा हूँ। कभी कहता - तुमने खु़द ही तो सर पर चढ़ा लिया है। अगर तुम्‍हारा बर्ताव रूखा होता तो...

माला ने अपना बर्ताव तो नहीं बदला, लेकिन चौथे रोज अपने बच्‍चों-सहित घर छोड़ कर अपने भाई के यहाँ चली गई। मैंने बहुतेरा रोका, लेकिन वह नहीं मानी। उस रोज वह कमबख्‍त बहुत हँसा था, जोर-जोर से, बार-बार।

आज माला को गए पाँच रोज हो गए हैं। मैंने दफ्तर जाना छोड़ दिया है। वह फिर अपने असली रंग में आ गया है। मेरे कपड़े उतार कर उसने फिर अपना वह मैला-सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया है। कहता कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि क्‍या चाहता है - वह मौका फिर हाथ नहीं आएगा! वह चली गई है। बेहतर यही है कि उसके लौटने से पहले तुम भी यहाँ से भाग चलो। उसकी चिंता मत करो, वह अपना इंतजाम खुद कर लेगी।

और आज आखिर मैं उसे थोड़ी देर के लिए बेहोश कर देने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो रास्‍ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले मैं उसे जान से मार डालूँ। और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बाँध कर तैयार हो जाऊँ और ज्‍यूँ ही उसे होश आए, हम दोनों फिर उसी रास्‍ते पर चल दें, जिससे भाग कर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर माला इस समय यहाँ होती तो कोई तीसरा रास्‍ता भी निकाल लेती। लेकिन वह नहीं है और मैं नहीं जानता कि मैं क्या करूँ?

                                                               ---कृष्ण बलदेव वैद---

चिकित्सा का चक्कर

मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूँ। देखने में मुझे कोई भला आदमी रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूँ। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है। आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगों को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्‍छा होती थी कि किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्‍छा होता। यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते। पर इतना अवश्‍य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिसकुट - जिन्‍‍हें साधारण अवस्‍था में घरवाले खाने नहीं देते - दवा की बात और है - खाने को मिलते। 'यू.डी. कलोन' की शीशियाँ सिर पर कोमल करों से बीवी उड़ेल कर मलती और सबसे बड़ी इच्‍छा तो यह थी कि दोस्‍त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किस की दवा हो रही है? कुछ फायदा है? जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बनाकर ऐसे प्रश्‍न करता है तब मुझे बड़ा मजा आता है और उस समय मैं आनंद की सीमा के उस पार पहुँच जाता हूँ जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्‍दी उठते नहीं। यदि उनके मन की तसवीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के 'खोजियों' के लिए एक अनोखी वस्‍तु मिल जाए।

हाँ, तो एक दिन हाकी खेलकर आया। कपड़े उतारे, स्‍नान किया। शाम को भोजन कर लेने की मेरी आदत है, पर आज मैच में रेफ्रेशमेंट जरा ज्‍यादा खा गया था इसलिए भूख न थी। श्रीमती जी ने खाने को पूछा। मैंने कह दिया कि आज स्‍कूल में मिठाई खाकर आया हूँ, कुछ विशेष भूख नहीं है। उन्‍होंने कहा, 'विशेष न सही, साधारण सही। मुझे आज सिनेमा जाना है। तुम अभी खा लेते तो अच्‍छा था। संभव है मेरे आने में देर हो।' मैंने फिर इनकार नहीं किया, उस दिन थोड़ा ही खाया। बारह पूरियाँ थीं और वही रोज वाली आध पाव मलाई। मलाई खा चुकने के बाद पता चला कि 'प्रसाद' जी के यहाँ से बाग बाजार का रसगुल्‍ला आया है। रस तो होगा ही। कल संभव है, कुछ खट्टा हो जाए। छह रसगुल्‍ले निगलकर मैंने चारपाई पर धरना दिया। रसगुल्‍ले छायावादी कविताओं की भाँति सूक्ष्‍म नहीं थे, स्‍थूल थे। एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली। नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में मालूम पड़ता था, कोई बड़ी-बड़ी सुइयाँ लेकर कोंच रहा है। परंतु मुझे भय नहीं मालूम हुआ, क्‍योंकि ऐसे ही समय के लिए औषधियों का राजा, रोगों का रामबाण, अमृतधारा की एक शीशी सदा मेरे पास रहती है। मैंने तुरंत उसकी कुछ बूँदें पान कीं। दो बार दवा पी। तिबारा। पीत्‍वा पीत्‍वा पुन: पीत्‍वा की सार्थकता उसी समय मुझे मालूम हुई। प्रात: काल होते-होते शीशी समाप्‍त हो गई। दर्द में किसी प्रकार कमी न हुई। प्रात: काल एक डाक्‍टर के यहाँ आदमी भेजना पड़ा।

रायबहादुर डाक्‍टर विनोद बिहारी मुकर्जी यहाँ के बड़े नाम डाक्‍टर हैं। पहले जब प्रैक्टिस नहीं चलती थी तब आप लोगों के यहाँ मुफ्त जाते थे। वहाँ से पता चला कि डाक्‍टर साहब नौ बजे ऊपर से उतरते हैं। इसके पहले वह कहीं जा नहीं सकते। लाचार दूसरे के पास आदमी भेजना पड़ा। दूसरे डाक्‍टर साहब सरकारी अस्‍पताल के सब-असिस्‍टेंट थे। वे एक एक्‍के पर तशरीफ लाए। सूट तो वे ऐसा ही पहने हुए थे कि मालूम पड़ता था, प्रिंस आफ वेल्‍स के वेलेटों में हैं। ऐसे सूट वाले का एक्‍के पर आना वैसा ही मालूम हुआ जैसा लीडरों का मोटर छोड़कर पैदल चलना। मैं अपना पूरा हाल भी न कह पाया था कि आप बोले, 'जनाब, दिखाइए।' प्रेमियों को जो मजा प्रेमिकाओं की आँखें देखने में आता है, शायद वैसा ही डाक्‍टरों को मरीजों की जीभ में आता है। डाक्‍टर महोदय मुस्‍कराए। बोले, 'घबराने की कोई बात नहीं है। दवा पीजिए। दो खुराक पीते-पीते आपका दर्द वैसे ही गायब हो जाएगा, जैसे हिंदुस्‍तान से सोना गायब हो रहा है।' मैं तो दर्द से बेचैन था। डाक्‍टर साहब साहित्‍य का मजा लूट रहे थे। चलते-चलते बोले, 'अभी अस्‍पताल खुला न होगा नहीं तो आपको दवा मँगानी न पड़ती। खैर, चन्‍द्रकला फारमेसी से दवा मँगवा लीजिएगा। वहाँ दवाइयाँ ताजा मिलती हैं। बोतल में पानी गर्म करके सेंकिएगा।' दवा पी गई। गर्म बोतलों से सेंक भी आरंभ हुई। सेंकते-सेंकते छाले पड़ गए। पर दर्द में कमी न हुई।

दोपहर हुई, शाम हुई। पर दर्द में कमी न हुई, हटने का नाम तो दूर। लोग देखने के लिए आने लगे। मेरे घर पर मेला लगने लगा। ऐसे ऐसे लोग आए कि कहाँ तक लिखें। हाँ, एक विशेषता थी। जो आता एक न एक नुस्‍खा अपने साथ लेता आता था। किसी ने कहा, अजी, कुछ नहीं हींग पिला दो, किसी ने कहा, चूना खिला दो। खाने के लिए सिवा जूते के और कोई चीज बाकी नहीं रह गई जिसे लोगों ने न बताई हो। यदि भारतीय सरकार को मालूम हो जाए कि देश में इतने डाक्‍टर हैं तो निश्‍चय है कि सारे मेडिकल कॉलेज तोड़ दिए जाएँ। इतने खर्च की आखिर आवश्‍यकता ही क्‍या है?

कुछ समझदार लोग भी आते थे, जो इस बात की बहस छेड़ देते थे कि असहयोग-आंदोलन सफल होगा कि नहीं, ब्रिटिश नीति में कितनी सच्‍चाई है, विश्‍व आर्थिक सम्‍मेलन में अमेरिका का भाषण बहुत स्‍वार्थपूर्ण हुआ इत्‍यादि। मैं इस समय केवल स्‍मरण-शक्ति से काम ले रहा हूँ। तीन दिन बीत गए। दर्द में कमी न हुई। कभी-कभी कम हो जाता था; बीच-बीच में जोरों का हमला हो जाता था, मानो चीन-जापान का युद्ध हो रहा हो।

तीसरे दिन तो यह मालूम होता था कि मेरा घर क्‍लब बन गया है। लोग आते मुझे देखने के लिए, पर चर्चा छिड़ती थी कि पंडित बनारसीदास ने इस बार किसको पछाड़ा, प्रसाद जी का अमुक नाटक स्‍टेज की दृष्टि से कैसा है, हिंदी के दैनिक पत्रों में बड़ी अशुद्धियाँ रहती हैं, अब देश में अनारकिस्‍ट नहीं रह गए हैं, लार्ड विलिंगडन अब ब्रुक बांड चाय नहीं पीते, छतारी के नवाब टेढ़ी टोपी क्‍यों लगाते हैं और राय कृष्‍णदास हफ्ते में नौ बार दाढ़ी क्‍यों बनवाते हैं; अर्थात लार्ड विलिंगडन और महात्‍मा गांधी से लेकर रामजियावन लाल पटवारी तक की आलोचना यहाँ बैठकर लोग करते थे। और यहाँ दर्द की वह दर्दनाक हालत थी कि क्‍या लिखूँ। मुझे भी कुछ बोलना ही पड़ता था। ऊपर से पान और सिगरेट की चपत अलग। भला दर्द में क्‍या कमी हो। बीच-बीच में लोग दवा की सलाह और डाक्‍टर बदलने की सलाह और कौन डाक्‍टर किस तरह का है, यह बतलाते जाते थे।

आखिर में लोगों ने कहा कि तुम कब तक इस तरह पड़े रहोगे। किसी दूसरे की दवा करो। लोगों की सलाह से डाक्‍टर चूहानाथ कतरजी को बुलाने की सबकी सलाह हुई। आप लोग डाक्‍टर साहब का नाम सुनकर हँसेंगे। पर यह मेरा दोष नहीं है। डाक्‍टर साहब के माँ-बाप का दोष है। यदि मुझे उनका नाम रखना होता तो अवश्‍य ही कोई साहित्यिक नाम रखता। परंतु ये यथानाम तथागुण। आपकी फीस आठ रुपए थी और मोटर का एक रुपया अलग। आप लंदन के एफ.आर.सी.एस. थे।

कुछ लोगों का सौंदर्य रात में बढ़ जाता है, डाक्‍टरों की फीस रात में बढ़ जाती है। खैर, डाक्‍टर साहब बुलाए गए। आते ही हमारे हाल पर रहम किया और बोले, मिनटों में दर्द गायब हुआ जाता है, थोड़ा पानी गरम कराइए, तब तक यह दवा मँगवाइए। एक पुर्जे पर आपने दवा लिखी। पानी गर्म हुआ। दो रुपए की दवा आई। डाक्‍टर बाबू ने तुरंत एक छोटी-सी पिचकारी निकाली; उसमें एक लंबी सूई लगाई, पिचकारी में दवा भरी और मेरे पेट में वह सूई कोंचकर दवा डाली।

यह कह देना आसान है कि मेरा कलेजा निगाहों के नेजे के घुस जाने से रेजा-रेजा हो गया है, अथवा उनका दिल बरुनी की बरछियों के हमले से टुकड़े-टुकड़े हो गया है, पर अगर सचमुच एक आलपीन भी धँस जाए तो बड़े-बड़े प्रेमियों की नानी याद आ जाए, प्रेमिकाएँ भूल जाएँ। डाक्‍टर साहब कुछ कहकर और मुझे सांत्‍वना देकर चले गए। इसके बाद मुझे नींद आ गई और मैं सो गया। मेरी नींद कब खुली कह नहीं सकता, पर दर्द में कमी हो चली थी और दूसरे दिन प्रात:काल पीड़ा रफूचक्‍कर हो गई थी। कोई दो सप्‍ताह मुझे पूरा स्‍वस्‍थ होने में लगे। बराबर डाक्‍टर चूहानाथ कतरजी की दवा पीता रहा। अठारह आने की शीशी प्रतिदिन आती रही। दवा के स्‍वाद का क्‍या कहना। शायद मुर्दे के मुख में डाल दी जाए तो वह भी तिलमिला उठे। पंद्रह दिन के बाद मैं डाक्‍टर साहब के घर गया। उन्‍हें धन्‍यवाद दिया। मैंने पूछा कि अब तो दवा पीने की कोई आवश्‍यकता न होगी। वे बोले, 'यह तो आपकी इच्‍छा पर है। पर यदि आप काफी एहतियात न करेंगे तो आपको 'अपेंडिसाइटीज' हो जाएगा। यह दर्द मामूली नहीं था। असल में आपको 'सीलियो सेंट्रिक कोलाइटीज' हो गया था। और उससे 'डेवेलप' कर 'पेरिकार्डियल हाइड्रेट्यूलिक स्‍टमकालिस' हो जाता, फिर ब्रह्मा भी कुछ न कर सकते। मालूम होता है कि आपकी श्रीमती बड़ी भाग्‍यवती हैं। अगर छह घंटे की देर और हो जाती तो उन्‍हें जिंदगी भर रोना पड़ता। वह तो कहिए कि आपने मुझे बुला लिया। अभी कुछ दिनों आप दवा कीजिए।'

डाक्‍टर महोदय ने ऐसे-ऐसे मर्जों के नाम सुनाए कि मेरी तबीयत फड़क उठी। भला मुझे ऐसे मर्ज हुए जिनका नाम साधारण क्‍या बड़े पढ़े-लिखे लोग भी नहीं जानते। मालूम नहीं, ये मर्ज सब डाक्‍टरों को मालूम हैं कि केवल हमारे डाक्‍टर चूहानाथ को ही मालूम हैं। खैर, दवा जारी रखी।

अभी एक सप्‍ताह भी पूरा न हुआ था कि दो बजे एकाएक फिर दर्द रूपी फौज ने मेरे शरीररूपी किले पर हमला कर दिया। डाक्‍टर साहब ने जिन-जिन भयंकर मर्जों का नाम लिया था उनका स्‍वरूप मेरी तड़पती हुई आँखों के सामने नृत्‍य करने लगा। मैं सोचने लगा कि हुआ हमला किसी उन्‍हीं में से एक मर्ज का। तुरंत डाक्‍टर साहब के यहाँ आदमी दौड़ाया गया कि इंजेक्शन का सामान लेकर चलिए। वहाँ से आदमी बिना माँगी पत्रिका की भाँति लौटकर आया कि डाक्‍टर साहब कहीं गए हैं। इधर मेरी हालत क्‍या थी उसका वर्णन यदि सरस्‍वती शार्टहैंड से भी लिखें तो संभवत: समाप्‍त न हो। एयरोप्‍लेन के पंखे की तेजी के समान करवटें बदल रहा था। इधर मित्रों और घरवालों की कांफ्रेंस हो रही थी कि अब कौन बुलाया जाए, पर 'डिसार्मामेंट कांफ्रेंस' की भाँति कोई न किसी की बात मानता था, न कोई निश्‍चय ही हो पता था। मालूम नहीं, लोगों में क्‍या बहस हुई, कौन-कौन प्रस्‍ताव फेल हुए, कौन-कौन पास। जहाँ मैं पड़ा कराह रहा था उसी के बगल में लोग बहस कर रहे थे। कभी-कभी किसी-किसी की चिल्‍लाहट सुनाई दे जाती थी। बीमार मैं था, अच्‍छा-बुरा होना मुझे था, फीस मुझे देनी थी, परंतु लड़ और लोग रहे थे। मालूम होता था कि उन्‍हीं लोगों में से किसी की जमींदारी कोई जबरदस्‍ती छीने लिए जा रहा है। अंत में हमारे मकान के बगल में रहने वाले पंडित जी की विजय हुई और आयुर्वेदाचार्य, रसज्ञ-रंजन, चिकित्‍सा-मार्तंड, प्रमेह-गज-पंचानन, कविराज पंडित सुखड़ी शास्‍त्री के बुलाने की बात तय हुई। आधा घंटा तो बहस में बीता। खैर, किसी तरह से कुछ तय हुआ। एक सज्‍जन उन्‍हें बुलाने के लिए भेजे गए। कोई पैंतालीस मिनट बीत गए, परंतु वहाँ से न वैद्य जी आए, न भेजे गए सज्‍जन का ही पता चला। एक ओर दर्द इनकम टैक्‍स की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था, दूसरी ओर इन लोगों का भी पता नहीं। और भी बेचैनी बढ़ी। अंत में जो साहब गए थे वे लौटे, वैद्य जी ने बड़े गौर से पत्रा देखा और कहा कि अभी बुद्ध-क्रांति-वृत्त में शनि की स्थिति है, एकतीस पल नौ विपल में शनि बाहर हो जाएगा और डेढ़ घड़ी एकादशी का योग है, उसके समाप्‍त होने पर मैं चलूँगा। आप आधा घंटा में आइएगा। सुनकर मेरा कलेजा कबाब हो गया। मगर वे कह आए थे, अतएव बुलाना भी आवश्‍यक था। मैंने फिर उन्‍हें भेजा। कोई आंधे घंटे बाद वैद्य जी एक पालकी पर तशरीफ लाए। आकर आप मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गए। आप धोती पहले हुए थे और कंधे पर एक सफेद दुपट्टा डाले हुए थे। इसके अतिरिक्‍त शरीर पर सूत के नाम पर केवल जनेऊ था, जिसका रंग देखकर यह शंका होती थी कि कविराज जी कुश्‍ती लड़कर आ रहे हैं। वैद्य जी ने कुछ और न पूछा - पहले नाड़ी हाथ में ली। पाँच मिनट तक एक हाथ की नाड़ी देखी, फिर दूसरे हाथ की। बोले, 'वायु का प्रकोप है, यकृत से वायु घूमकर पित्ताशय में प्रवेश कर अंत्र में जा पहुँची है। इससे मंदाग्नि का प्रादुर्भाव होता है और इसी कारण जब भोज्‍य पदार्थ प्रतिहत होता है तब शूल का कारण होता है। संभव है, मूत्राशय में अश्‍म भी एकत्र हो।' कविराज जी मालूम नहीं क्‍या बक रहे थे और मेरी तबीयत दर्द और क्रोध से एक दूसरे ही संसार में हो रही थी। आखिर मुझसे रहा न गया। मैंने एक सज्‍जन से कहा, 'जरा आलमारी में से आप्टे का कोष तो लेते आइए।' यह सुनकर लोग चकराए। कुछ लोगों को संदेह हुआ कि अब मैं अपने होश में नहीं हूँ। मैंने कहा, 'दवा तो पीछे होगी, मैं पहले समझ तो लूँ कि मुझे रोग क्‍या है?' पंडित जी कहने लगे, 'बाबू साहब, देखिए आजकल के नवीन डाक्‍टरों को रोगों का निदान तो ठीक मालूम ही नहीं, चिकित्‍सा क्‍या करेंगे। अंग्रेजी पढ़े-लिखों का वैद्यक-शास्‍त्र पर से विश्‍वास उठ गया है। परंतु हमारे यहाँ ऐसी-ऐसी औषधियाँ हैं कि एक बार मृत्‍युलोक से भी लौटा लें। मुहूर्त मिल जाना चाहिए। और अच्‍छा वैद्य मिल जाना चाहिए।' इसके पश्‍चात वैद्य जी चरक, सुश्रुत, रसनिघंटु, भेषजदीपिका, चिकित्‍सा-मार्तंड के श्‍लोक सुनाने लगे। और अंत में कहा, 'देखिए, मैं दवा देता हूँ और अभी आपको लाभ होगा। परंतु इसके पश्‍चात आपको पर्पटी का सेवन करना होगा। क्‍योंकि आपका शुक्र मंद पड़ गया है। गोमूत्र में आप पर्पटी का सेवन कीजिए, फिर देखिए दर्द पारद के समान उड़ जाएगा और गंधक के समान भस्‍म हो जाएगा। लिखा है,

गोमूत्रेण समायुक्‍ता रसपर्पटिकाशिता।

मासमात्रप्रयोगेण शूलं सर्वे विनाशयेत्।। '

मैंने कहा, 'शुक्र अस्‍त नहीं हो गया, यही क्‍या कम है। पंडित जी, गोमूत्र पिलाइए और गोबर भी खिलाइए। शायद आप लोगों के शास्‍त्र में और कोई भोजन रह ही नहीं गया है। इसी कारण से आप लोगों के दिमाग की बनावट भी विचित्र है।'' खैर, पंडित जी ने दवा दी। कहा कि अदरख के रस में इस औषधि का सेवन करना होग। खैर, साहब, फीस दी गई, किसी प्रकार वैद्य जी से पिंड छूटा। दो दिन दवा की गई। कभी-कभी तो कम अवश्‍य हो जाता था, पर पूरा दर्द न गया। सी.आई.डी के समान पीछा छोड़ता ही न था। वैद्य जी के यहाँ जब आदमी जाता तब कभी रविवार के कारण, कभी प्रदोष के कारण और कभी त्रिदोष के कारण ठीक समय से दवा ही नहीं देते थे।

अब वैसी बेचैनी नहीं रह गई थी, पर बलहीन होता गया। खाना-पीना भी ठीक मिलता ही न था। चारपाई पर पड़ा रहने लगा। दिन को मित्रों की मंडली आती थी। वह आराम देती थी कम, दिमाग चाटती थी अधिक। कभी-कभी दूर-दूर से रिश्‍तेदार भी आते थे। और सब लोग डाक्‍टरों को गाली देकर और मुझे बिना माँगी सलाह देकर चले जाते थे। मैं चारपाई पर 'इंटर्न' था। आखिर मेरा विचार हुआ कि फिर डाक्‍टर साहब की याद की जाए। जिस समय मैं यह जिक्र कर रहा था एक 'कांग्रेसमैन' बैठे हुए थे। यह सज्‍जन अभी जेल से लौटे थे। मुझे देखने के लिए तशरीफ लाए थे। बोले, 'साहब, आप लोगों को देश का हर समय ध्‍यान रखना चाहिए। ये डाक्‍टर सिवा विलायती दवाओं के ठीकेदार के और कुछ नहीं होते। इनके कारण ही विलायती दवाएँ आती हैं। आप किसी भारतीय हकीम अथवा वैद्य को दिखलाइए।' ऐसी खोपड़ी वालों से मैं क्‍या बहस करता? मैंने मन में सोचा कि वैद्य महाराज को तो मैंने देख ही लिया। कुछ और रुपयों पर ग्रह आया होगा, हकीम भी सही। एक की सलाह से मसीहुअ हिंद, बुकारते जमाँ, सुकरातुश्‍शफा जनाब हकीम आलुए बुखारा साहब के यहाँ आदमी भेजा। आप फौरन तशरीफ लाए। इस जमाने में भी जब तेज-से-तेज सवारियों का प्रबंध सभी जगह मौजूद हैं, आप पालकी में चलते हैं। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि पालकी रख दी जाती है अथवा कहार कंधे पर ले लेता है और हकीम साहब उसमें टहला करते है। मेरा मतलब यह है कि जब किसी के यहाँ आप बुलाए जाते हैं तब पालकी के भीतर बैठकर आप जाते हैं।

हकीम साहब आए। यद्यपि मैं अपनी बीमारी का जिक्र और अपनी बे-बसी का हाल लिखना चाहता हूँ, पर हकीम साहब की पोशाक और उनके रहन-सहन तथा फैशन का जिक्र न करना मुझसे न हो सकेगा। सर्दी बहुत तेज नहीं थी। बनारस में यों भी तेज सर्दी नहीं पड़ती। फिर भी ऊनी कपड़ा पहनने का समय आ गया था। परंतु हकीम साहब चिकन का बंददार अंगा पहने हुए थे। सिर पर बनारसी लोटे की तरह टोपी रखी हुई थी। पाँव में पाजामा ऐसा मालूम होता था कि चूड़ीदार पाजामा बनने वाला था, परंतु दर्जी ईमानदार था। उसने कपड़ा चुराया नहीं, सबका सब लगा दिया; अ‍थवा यह भी हो सकता है कि ढीली मोहरी के लिए कपड़ा दिया गया हो और दर्जी ने कुछ कतर-ब्‍योंत की हो और चुस्‍ती दिखाई हो। जूता कामदार दिल्‍ली वाला था, मोजा नहीं था। रूमाल इतना बड़ा था कि अगर उसमें कसीदा कढ़ा न होता तो मैं समझता कि यह रूमाल मुँह अथवा हाथ पोंछने के लिए नहीं तरकारी बाँधने के लिए है। हकीम साहब की दाढ़ी के बाल ठुड्डी के नोक ही पर इकट्ठे हो गए थे। मालूम होता था कि हजामत बनाने का बुरुश है। हकीम साहब दुबले-पतले इतने थे कि मालूम पड़ता था, अपनी तंदुरुस्‍ती आपने अपने मरीजों में बाँट दी है। हकीम साहब में नजाकत भी बला की थी। रहते थे बनारस में, मगर कान काटते थे लखनऊ के।

आते ही मैंने सलाम किया, जिसका उत्तर उन्‍होंने मुस्‍कुराते हुए बड़े अंदाज से दिया और बोले, 'मिजाज कैसा है?'

मैंने कहा, 'मर रहा हूँ। बस, आपका ही इंतजार था। अब यह जिंदगी आपके ही हाथों में है।'

हकीम साहब ने कहा, 'या रब! आप तो ऐसी बातें करते हैं गोया जिंदगी से बेजार हो गए हैं। भला ऐसी गुफ्तगू भी कोई करता है। मरें आपके दुश्‍मन। नब्‍ज तो दिखलाइए। खुदाबंद करीम ने चाहा तो आननफानन में दर्द रफूचक्‍कर होगा।'

मैंने कहा, 'आपकी दुआ है। आपका नाम बनारस में ही नहीं, हिंदुस्‍तान में लुकमान की तरह मशहूर है, इसीलिए आपको तकलीफ दी गई है।'

दस मिनट तक हकीम साहब ने नब्‍ज देखी। फिर बोले, 'मैं यह नुस्‍खा लिखे देता हूँ। इसे इस वक्‍त आप पीजिए, इंशा अल्‍लाह जरूर शफा होगी। मैंने बगौर देख लिया। लेकिन आपका मेदा साफ नहीं है और सारे फसाद की बुनियाद यही है।'

मैंने कहा, 'तो बुनियाद उखाड़ डालिए। किस दिन के लिए छोड़ रहे हैं।'

हकीम आलू बुखारा बोले, 'तो आप मुसहिल ले लीजिए। पाँच रोज तक मुंजिज पीना होगा, इसके बाद मुसहिल। इसके बाद मैं एक माजून लिख दूँगा। उसमें जोफ दिल, जोफ दिमाग, जोफ मेदा, जोफ चश्‍म, हर एक की रियायत रहेगी।' मुझसे न रहा गया। मैं बोला, 'कई जोफ आप छोड़ गए, इसे कौन अच्‍छा करेगा।' हकीम साहब ने कहा, 'जब तक मैं हूँ, आप कोई फिक्र न कीजिए।'

एक सज्‍जन ने उनके हाथों में फीस रखी। हकीम साहब चलने को तैयार हुए। उठे। उठते-उठते बोले, जरा एक बात का खयाल रखिएगा कि आजकल दवाइयाँ लोग बहुत पुरानी रखते हैं। मेरे यहाँ ताजा दवाइयाँ रहती हैं।

मैंने उनकी दवा उस दिन पी। वह कटोरा भर दवा जिसकी महक रामघाट के सिवर से कंपिटीशन के लिए तैयार थी, किसी प्रकार गले के नीचे उतार गया, जैसे अहल्‍कार लोग अंग्रेजों की डाँट निगल जाते हैं। दूसरे दिन मुंजिज आरंभ हुआ। उसका पीना और भी एक आफत थी। मालूम पड़ता था, भरतपुर के किले पर मोरचा लेना है। मेरी इच्‍छा हुई कि उठाकर गिलास फेंक दूँ, पर घरवाले जेल के पहरुओं की भाँति सिर पर सवार रहते थे। चौथे दिन मुसहिल की बारी आई। एक बड़े-से मिट्टी के बधने से दवा मुझे पीने को दी गई। शायद दो सेर के लगभग रही होगी। एक घूँट गले के नीचे उतरा होगा कि जान-बूझकर मैंने करवा गिरा दिया। बधना गिरते ही अफसल प्रेमी के हृदय की भाँति चूर-चूर हो गया और दवा होली के रंग के समान सबकी धोतियों पर जा पड़ी। उस दिन के बाद से हकीम साहब की दवा मुझे पिलाने का फिर किसी को साहस न हुआ। खेद इतना ही रह गया कि उसी के साथ हकीम साहब वाला माजून भी जाता रहा।

दर्द फिर कम हो चला। परंतु दुर्बलता बढ़ती जाती थी। कभी-कभी दर्द का दौरा अधिक वेग से हो जाता था। अब लोगों को विशेष चिंता मेरे संबंध में नहीं रहती थी। कहने का मतलब यह है कि लोग देखने-सुनने कम आते थे। वही घनिष्‍ठ मित्र आते थे। घरवालों को और मुझे भी दर्द के संबंध में विशेष चिंता होने लगी। कोई कहता कि लखनऊ जाओ, कोई एक्‍स-रे का नाम लेता था। किसी-किसी ने राय दी कि जल-चिकित्‍सा कीजिए। एक सज्‍जन ने कहा, यह सब कुछ नहीं, आप होमियोपैथी इलाज शुरू कीजिए, देखिए कितनी शीघ्रता से लाभ होता है। बोले, 'साहब, इन नन्‍हीं-नन्‍हीं गोलियों में मालूम नहीं कहाँ का जादू है। साहब, जादू का काम करती है, जादू का।'

एक नेचर-क्‍योर वाले ने कहा कि आप गी‍ली मिट्टी पेट पर लेपकर धूप में बैठिए, एक हफ्ते में दर्द हवा हो जाएगा। हमारे ससुर साहब एक डाक्‍टर को लेकर आए। उन्‍होंने कहा, 'देखिए साहब! आप पढ़े-लिखे आदमी हैं। समझदार हैं...' मैं बीच में बोल उठा, 'समझदार न होता तो भला आपको कैसे यहाँ बुलाता।'

डाक्‍टर महोदय ने कहा, 'दवा तो नेचर की सहायता करने के लिए होती है। आप कुछ दिनों तक अपना 'डायट' बदल दीजिए। मैंने इसी डायट पर कितने ही रोगियों को अच्‍छा किया है। मगर हम लोगों की सुनता कौन है। असल में आप में विटेमिन 'एफ' की कमी है। आप नीबू, नारंगी, टमाटो, प्‍याज, धनिया के रस में सलाद भिगोकर खाया कीजिए। हरी-भरी पत्तियाँ खाया कीजिए।'

मैंने पूछा, 'पत्तियाँ खाने के लिए पेड़ पर चढ़ना होगा। अगर इसके बजाय घास बतला दें तो अच्‍छा हो। जमीन पर ही मिल जाएगी।'

इसी प्रकार जो आता इतनी हमदर्दी दिखलाता था कि एक डाक्‍टर, हकीम या वैद्य अपने साथ लेता आता था।

खाने के लिए साबूदाना ही मेरे लिए अब न्‍यामत थी। ठंडा पानी मिल जाता था, यह परमात्‍मा की दया थी। तीन बजे एक पंडित जी महाराज आकर एक पोथी में से बड़-बड़ पाठ किया करते थे और मेरा मग्‍ज खाते थे। शाम को एक पंडित और आकर मेरे हाथ में कुछ धूल रख जाते कि महामृत्‍युंजय का प्रसाद है। इसी बीच में मेरी नानी की मौसी मुझे देखने आईं। उन्‍होंने बड़े प्रेम से देखा। देखकर बोलीं, 'मैं तो पहले ही सोच रही थी कि यह कुछ ऊपरी खेल है।' मैंने पूछा, 'यह ऊपरी खेल क्‍या है, नानीजी।' बोलीं, 'बेटा, सब कुछ किताब में ही थोड़े लिखा रहता है। यह किसी चुड़ैल का फसाद है।' मेरी स्‍त्री और माता की ओर दिखाकर कहने लगीं, 'देखो न, इसकी बरौनी कैसी खड़ी है। कोई चुड़ैल लगी है। किसी को दिखा देना चाहिए।' मैंने कहा, 'डाक्‍टर तो मेरी जान के पीछे लग गए हैं! क्‍या चुड़ैल उनके भी बढ़कर होगी।' जब सब लोग चले गए तब मेरी स्‍त्री ने कहा, 'तुम लोगों की बात क्‍यों नहीं मान लिया करते? कुछ हो या न हो, इसमें तुम्‍हारा हर्ज ही क्‍या है। कुछ खाने की दवा तो देंगे नहीं। परमात्‍मा की आज्ञा तो टाली जा सकती है, परंतु अपनी या मैं तो कहूँगी किसी भले आदमी की स्‍त्री की आज्ञा कोई भला आदमी नहीं टाल सकता।' मैंने कहा, 'तुम लोगों को जो कुछ करना है करो, मगर मेरे पास किसी को मत बुलाना। कोई ओझा या भूत का पचड़ा मेरे पास लेकर आया तो वही सन 2 में मुजफ्फरपुर सम्‍मेलन में जो चप्‍पल पहनकर गया था उसी से मैं उठकर मरम्‍मत करने लगूँगा।' श्रीमती जी बोलीं, 'अजी वह कोई ओझा थोड़े ही हैं। एम.ए. पास हैं। कुछ समझा होगा तभी तो यह काम करते हैं। कितनी स्त्रियाँ रोज उनके पास जाती हैं, कितने पुरुष जाते हैं। बड़े वैज्ञानिक ढंग से उन्‍होंने इसका अन्‍वेषण किया है।'

मेरे दर्द में किसी विशेष प्रकार की कमी न हुई। ओझा से तो किसी प्रकार की आशा क्‍या करता। पर बीच-बीच में दवा भी हो जाती थी। अंत में मेरे साले साहब ने बड़ा जोर दिया कि यह सब झेलना इसीलिए है कि तुम ठीक दवा नहीं करते। हामियोपैथी चिकित्‍सा शुरू करो, सारी शिकायत गंजों के बाल की तरह गायब हो जाएगी। मैंने भी कहा, 'मुर्दे पर जैसे बीस मन वैसे पचास। ऐसा न हो कि कोई कह दे कि अमुक 'सिस्‍टम' का इलाज छूट गया।' अब राय होने लगी कि किस होमियोपैथ को बुलाया जाए। हमारे मकान से कुछ दूरी पर होमियोपैथ डाकिया था। दिनभर चिट्ठी बाँटता था, सवेरे और शाम दो पैसे पुड़िया दवा बाँटता था। सैकड़ों मरीज उसके यहाँ जाते। बड़ी प्रैक्टिस थी। एक और होमियोपैथ से चार-छह आने पैदा कर लेते थे। एक मास्‍टर भी थे जो कहा करते थे कि सच पूछो तो जैसी होमियोपैथी मैंने 'स्‍टडी' की है, किसी ने नहीं की। कुछ बहस के बाद एक डाक्‍टर का बुलाना निश्चित हुआ। डाक्‍टर महोदय आए। आप भी बंगाली थे। आते ही सिर से पाँव तक मुझे तीन-चार बार ऐसे देखा मानो मैं हानोलूलू से पकड़कर लाया गया हूँ और खाट पर लिटा दिया गया हूँ। इसके पश्‍चात मेडिकल सनातन-धर्म के अनुसार मेरी जीभ देखी। फिर पूछा, 'दर्द ऊपर से उठता है, कि नीचे से, बाएँ से कि दाएँ से, नोचता है कि कोंचता है; चिकोटता है कि बकोटता है; मरोड़ता है कि खरबोटता है।' मैंने कहा कि मैंने तो दर्द की फिल्‍म तो उतरवाई नहीं है। जो कुछ मालूम होता है, मैंने आपसे कह दिया। डाक्‍टर महोदय बोले, 'बिना सिमटाम के देखे कैसे दवा देने सकता है। एक-एक दवा का भेरियस सिमटाम होता है।' फिर मालूम नहीं कितने सवाल मुझसे पूछे। इतने सवाल तो आई.सी.एस. 'वाइवावोसी' में भी नहीं पूछे जाते। कुछ प्रश्‍न यहाँ अवश्‍य बतला देना चाहता हूँ। मुझसे पूछा, 'तुम्‍हारे बाप के चेहरे का रंग कैसा था। कै बरस से तुमने सपना नहीं देखा। जब चलते हो तब नाक हिलती है या नहीं। किसी स्‍त्री के सामने खड़े होते हो तब दिल धड़कता है कि नहीं? जब सोते हो तब दोनों आँखें बंद रहती हैं कि एक। सिर हिलाते हो तो खोपड़ी में खटखट आवा आती है कि नहीं।' मैंने कहा, 'आप एक शार्टहैंड राइटर भी साथ लेकर चलते हैं कि नहीं। इतने प्रश्‍नों का उत्तर देना मेरे लिए असंभव है।'

फिर डाक्‍टर बाबू ने पचीसों पुस्‍तकों का नाम लिया और बोले, 'फेरिंगटन यह कहते हैं, नैश यह कहते हैं, क्‍लार्क के हिसाब से यह दवा होगी।' डाक्‍टर साहब पंद्रह-बीस पुस्‍तकें भी लाए थे। आधे घंटे तक उन्‍हें देखते रहे। तब दवा दी। आपकी दवा से कुछ लाभ अवश्‍य हुआ, पर पूरा फायदा न हुआ। मैंने अब पक्‍का इरादा कर लिया कि लखनऊ जाऊँ। जो बात काशी में नहीं हो सकती, लखनऊ में हो सकती है। वहाँ सभी साधन हैं।

सब तैयारी हो चुकी थी कि इतने में एक और डाक्‍टर को एक मेहरबान लिवा लाए। उन्‍होंने देखा, कहा, 'जरा मुँह तो देखूँ।' मैंने कहा, 'मुँह-जीभ जो चाहे देखिए।' देखकर बड़े जोर से हँसे। मैं घबराया। ऐसी हँसी वेवल कवि-सम्‍मेलन में बेढंगी कविता पढ़ने के समय सुनाई देती है। मैं चकित भी हुआ। डाक्‍टर बोले, 'किसी डाक्‍टर को यह सूझी नहीं। तुम्‍हें 'पाइरिया' है। उसी का जहर पेट में जा रहा है और सब फसाद पैदा कर रहा है।' मैंने कहा, 'तब क्‍या करूँ?' डाक्‍टर साहब ने कहा, 'इसमें करना क्‍या है? किसी डेंटिस्‍ट के यहाँ जाकर सब दाँत निकलवा दीजिए।' मैंने अपने मन में कहा, 'आपको तो यह कहने में कुछ कठिनाई ही नहीं हुई। गोया दाँत निकलवाने में कोई तकलीफ ही नहीं होती।' खैर, रात भर मैंने सोचा। मैंने भी यही निश्‍चय किया कि यही डाक्‍टर ठीक कहता है। डेंटिस्‍ट के यहाँ से पुछवाया। उसने कहलाया कि तीन रुपए फी दाँत तुड़वाने में लगेंगे। कुल दाँतों के लिए छानबे रुपए लगेंगे। मगर मैं आपके लिए छह रुपए छोड़ दूँगा। इसके अतिरिक्‍त दाँत बनवाई डेढ़ सौ अलग। यह सुनकर पेट के दर्द के साथ-साथ सिर में भी चक्‍कर आने लगा। मगर मैंने सोचा कि जान सलामत है तो सब कुछ। इतना और खर्च करो। श्रीमती से मैंने रुपए माँगे। उन्‍होंने पूछा, 'क्‍या होगा?' मैंने सारा हाल कह दिया। वे बोलीं, 'तुम्‍हारी बुद्धि कहीं घास चरने गई है क्‍या? किसी कवि का तो साथ नहीं हो गया है कि ऐसी बातें सूझने लगी हैं। आज कोई कहता है कि दाँत उखड़वा डालो। कल कोई कहेगा बाल उखड़वा डालो; परसों कोई डाक्‍टर कहेगा कि नाक नोचवा डालो, आँख निकलवा दो। यह सब फजूल है। तुम सुबह टहला करो, किसी एक भले डाक्‍टर की दवा करो। खाना ठिकाने से खाओ। पंद्रह दिन में ठीक हो जाओगे। मैंने सबका इलाज भी देख लिया।' मैंने कहा, 'तुम्‍हें अपनी ही दवा करनी थी तो इतने रुपए क्‍यों बरबाद कराए?'

कुछ दिन के बाद मैंने समझा कि स्त्रियों में भी बुद्धि होती है। विशेषत: बीस साल की आयु के बाद।

                                                                    ---बेढब बनारसी---

परमात्मा का कुत्ता

बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाट, अपनी लाठियों पर झुके हुए, उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्‌टा लगा रहा था-सी ए टी कैट-कैट माने बिल्ली; बी ए टी बैट-बैट माने बल्ला; एफ ए टी फैट-फैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते, रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट वाला चपरासी, आस-पास की भीड़ से उदासीन, अपने स्टूल पर बैठा मन ही मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ हिलते थे, और कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली थी। चिडिय़ों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उडऩे का अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चहलक़दमी कर रहे थे। एक सत्तर-पचहत्तर की बुढिय़ा, जिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं था, लोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लडक़े के मरने के बाद उसके नाम एलाट हुई ज़मीन की हकदार हो जाती है या नहीं...?

अन्दर हॉल कमरे में फ़ाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की मेज़ के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ़्तरी कागज़ पर लिखी अपनी ताज़ा ग़ज़ल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ सुन रहे थे कि वह ग़ज़ल उसने 'शमा' या 'बीसवीं सदी' के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।

"अज़ीज़ साहब, ये शेअर आपने आज ही कहे हैं, या पहले के कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?" साँवले चेहरे और घनी मूँछों वाले एक बाबू ने बायीं आँख को ज़रा-सा दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गये।

"यह बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल है," अज़ीज़ साहब ने अदालत में खड़े होकर हलफिया बयान देने के लहज़े में कहा, "इससे पहले भी इसी वज़न पर कोई और चीज़ कही हो तो याद नहीं।" और फिर आँखों से सबके चेहरों को टटोलते हुए वे हल्की हँसी के साथ बोले, "अपना दीवान तो कोई रिसर्चदां ही मुरत्तब करेगा...।"

एक फरमायशी कहकहा लगा जिसे 'शी-शी' की आवाज़ों ने बीच में ही दबा दिया। कहकहे पर लगायी गयी इस ब्रेक का मतलब था कि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ़ ले आये हैं। कुछ देर का वक्फा रहा, जिसमें सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फ़ाइल एक मेज़ से एक्शन के लिए दूसरी मेज़ पर पहुँच गयी, सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गया, और जिस बाबू की मेज़ से फ़ाइल गयी थी, वह पाँच रुपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ शामिल हुआ। अज़ीज़ साहब अब आवाज़ ज़रा धीमी करके ग़ज़ल का अगला शेअर सुनाने लगे।

साहब के कमरे से घंटी हुई। चपरासी मुस्तैदी से उठकर अन्दर गया, और उसी मुस्तैदी से वापस आकर फिर अपने स्टूल पर बैठ गया।

चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक कराकर कमिश्नर साहब ने मेज़ पर रखे ढेर-से काग़ज़ों पर एक साथ दस्तख़त किए और पाइप सुलगाकर 'रीडर्ज़ डाइजेस्ट' का ताज़ा अंक बैग से निकाल लिया। लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे इतालवी मर्दों से क्यों प्यार है, वे पढ़ चुके थे। और लेखों में हृदय की शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में जे.डी. रैटक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढऩे के लिए चुन रखा था। पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्यौरा पढऩे लगे।

तभी बाहर से कुछ शोर सुनाई देने लगा।

कम्पाउंड में पेड़ के नीचे बिखरकर बैठे लोगों में चार नए चेहरे आ शामिल हुए थे। एक अधेड़ आदमी था जिसने अपनी पगड़ी ज़मीन पर बिछा ली थी और हाथ पीछे करके तथा टाँगें फैलाकर उस पर बैठ गया था। पगड़ी के सिरे की तरफ़ उससे ज़रा बड़ी उम्र की एक स्त्री और एक जवान लडक़ी बैठी थीं; और उनके पास खड़ा एक दुबला-सा लडक़ा आस-पास की हर चीज़ को घूरती नज़र से देख रहा था, अधेड़ मरद की फैली हुई टाँगें धीरे-धीरे पूरी खुल गयी थीं और आवाज़ इतनी ऊँची हो गयी थी कि कम्पाउंड के बाहर से भी बहुत-से लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ खिंच गया था। वह बोलता हुआ साथ अपने घुटने पर हाथ मार रहा था। "सरकार वक़्त ले रही है! दस-पाँच साल में सरकार फ़ैसला करेगी कि अर्ज़ी मं$जूर होनी चाहिए या नहीं। सालो, यमराज भी तो हमारा वक़्त गिन रहा है। उधर वह वक़्त पूरा होगा और इधर तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्ज़ी मं$जूर हो गयी है।"

चपरासी की टाँगें ज़मीन पर पुख़्ता हो गयीं, और वह सीधा खड़ा हो गया। कम्पाउंड में बिखरकर बैठे और लेटे हुए लोग अपनी-अपनी जगह पर कस गये। कई लोग उस पेड़ के पास आ जमा हुए।

"दो साल से अर्ज़ी दे रखी है कि सालो, ज़मीन के नाम पर तुमने मुझे जो गड्ïढा एलाट कर दिया है, उसकी जगह कोई दूसरी ज़मीन दो। मगर दो साल से अर्ज़ी यहाँ के दो कमरे ही पार नहीं कर पायी!" वह आदमी अब जैसे एक मजमे में बैठकर तकरीर करने लगा, "इस कमरे से उस कमरे में अर्ज़ी के जाने में वक़्त लगता है! इस मेज़ से उस मेज़ तक जाने में भी वक़्त लगता है! सरकार वक़्त ले रही है! लो, मैं आ गया हूँ आज यहीं पर अपना सारा घर-बार लेकर। ले लो जितना वक़्त तुम्हें लेना है!...सात साल की भुखमरी के बाद सालों ने ज़मीन दी है मुझे-सौ मरले का गड्ïढा! उसमें क्या मैं बाप-दादों की अस्थियाँ गाड़ूँगा? अर्ज़ी दी थी कि मुझे सौ मरले की जगह पचास मरले दे दी-लेकिन ज़मीन तो दो! मगर अर्ज़ी दो साल से वक़्त ले रही है! मैं भूखा मर रहा हूँ, और अर्ज़ी वक़्त ले रही है!"

चपरासी अपने हथियार लिये हुए आगे आया-माथे पर त्योरियाँ और आँखों में क्रोध। आस-पास की भीड़ को हटाता हुआ वह उसके पास आ गया।

"ए मिस्टर, चल हियां से बाहर!" उसने हथियारों की पूरी चोट के साथ कहा, "चल...उठ...!"

"मिस्टर आज यहाँ से नहीं उठ सकता1" वह आदमी अपनी टाँगें थोड़ी और चौड़ी करके बोला, "मिस्टर आज यहाँ का बादशाह है। पहले मिस्टर देश के बेताज बादशाहों की जय बुलाता था। अब वह किसी की जय नहीं बुलाता। अब वह खुद यहाँ का बादशाह है...बेलाज बादशाह7 उसे कोई लाज-शरम नहीं है। उस पर किसी का हुक्म नहीं चलता। समझे, चपरासी बादशाह!"

"अभी तुझे पता चल जाएगा कि तुझ पर किसी का हुक्म चलता है या नहीं," चपरासी बादशाह और गरम हुआ, "अभी पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाएगा तो तेरी सारी बादशाही निकल जाएगी...।"

"हा-हा!" बेलाज बादशाह हँसा। "तेरी पुलिस मेरी बादशाही निकालेगी? तू बुला पुलिस को। मैं पुलिस के सामने नंगा हो जाऊँगा और कहूँगा कि निकालो मेरी बादशाही! हममें से किस-किसकी बादशाही निकालेगी पुलिस? ये मेरे साथ तीन बादशाह और हैं। यह मेरे भाई की बेवा है-उस भाई की जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकडक़र चीर दिया गया था। यह मेरे भाई का लडक़ा है जो अभी से तपेदिक का मरीज़ है। और यह मेरे भाई की लडक़ी है जो अब ब्याहने लायक हो गयी है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी पाकिस्तान में है। आज मैंने इन सबको बादशाही दे दी है। तू ले आ जाकर अपनी पुलिस, कि आकर इन सबकी बादशाही निकाल दे। कुत्ता साला...!"

अन्दर से कई-एक बाबू निकलकर बाहर आ गये थे। 'कुत्ता साला' सुनकर चपरासी आपे से बाहर हो गया। वह तैश में उसे बाँह से पकडक़र घसीटने लगा, "तुझे अभी पता चल जाता है कि कौन साला कुत्ता है! मैं तुझे मार-मारकर..." और उसने उसे अपने टूटे हुए बूट की एक ठोकर दी। स्त्री और लडक़ी सहमकर वहाँ से हट गयीं। लडक़ा एक तरफ़ खड़ा होकर रोने लगा।

बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आये और उन्होंने चपरासी को उस आदमी के पास से हटा लिया। चपरासी फिर भी बड़बड़ाता रहा, "कमीना आदमी, दफ़्तर में आकर गाली देता है। मैं अभी तुझे दिखा देता कि..."

"एक तुम्हीं नहीं, यहाँ तुम सबके-सब कुत्ते हो," वह आदमी कहता रहा, "तुम सब भी कुत्ते हो, और मैं भी कुत्ता हूँ। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि तुम लोग सरकार के कुत्ते हो-हम लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ़ से भौंकते हो। मैं परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँ, और उसकी तरफ़ से भौंकता हूँ। उसका घर इन्साफ़ का घर है। मैं उसके घर की रखवाली करता हूँ। तुम सब उसके इन्साफ़ की दौलत के लुटेरे हो। तुम पर भौंकना मेरा फर्ज़ है, मेरे मालिक का फरमान है। मेरा तुमसे अज़ली बैर है। कुत्ते का बैरी कुत्ता होता है। तुम मेरे दुश्मन हो, मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। मैं अकेला हूँ, इसलिए तुम सब मिलकर मुझे मारो। मुझे यहाँ से निकाल दो। लेकिन मैं फिर भी भौंकता रहूँगा। तुम मेरा भौंकना बन्द नहीं कर सकते। मेरे अन्दर मेरे मालिक का नर है, मेरे वाहगुरु का तेज़ है। मुझे जहाँ बन्द कर दोगे, मैं वहाँ भौंकूँगा, और भौंक-भौंककर तुम सबके कान फाड़ दूँगा। साले,आदमी के कुत्ते, जूठी हड्डी पर मरनेवाले कुत्ते दुम हिला-हिलाकर जीनेवाले कुत्ते...!"

"बाबा जी, बस करो," एक बाबू हाथ जोडक़र बोला, "हम लोगों पर रहम खाओ, और अपनी यह सन्तबानी बन्द करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारा केस क्या है...?"

"मेरा नाम है बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ़्तर का दिया हुआ है। मैं बारह सौ छब्बीस बटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरु का कुत्ता-बारह सौ छब्बीस बटा सात।"

"बाबा जी, आज जाओ, कल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्ज़ी की कार्रवाई तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है...।"

"तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन-तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है, कि पहले मैं पूरा होता हूँ! एक तरफ़ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ़ परमात्मा का हुनर है! तुम्हारा तकरीबन-तकरीबन अभी दफ़्तर में ही रहेगा और मेरा तकरीबन-तकरीबन कफ़न में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई ख़र्च करके दो लफ़्ज ईज़ाद किये हैं-शायद और तकरीबन। 'शायद आपके काग़ज़ ऊपर चले गये हैं-तकरीबन-तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है!' शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो! तकरीबन से निकालो और शायद में गर्क़ कर दो। तकरीबन तीन-चार महीने में तहक़ीक़ात होगी।...शायद महीने-दो महीने में रिपोर्ट आएगी।' मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है, तो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के गाहक ये सब खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो...।"

बाबू लोग अपनी सद्‌भावना के प्रभाव से निराश होकर एक-एक करके अन्दर लौटने लगे।

"बैठा है, बैठा रहने दो।"

"बकता है, बकने दो।"

"साला बदमाशी से काम निकालना चाहता है।"

"लेट हिम बार्क हिमसेल्फ टु डेथ।"

बाबुओं के साथ चपरासी भी बड़बड़ाता हुआ अपने स्टूल पर लौट गया। "मैं साले के दाँत तोड़ देता। अब बाबू लोग हाक़िम हैं और हाक़िमों का कहा मानना पड़ता है, वरना..."

"अरे बाबा, शान्ति से काम ले। यहाँ मिन्नत चलती है, पैसा चलता है, धौंस नहीं चलती," भीड़ में से कोई उसे समझाने लगा।

वह आदमी उठकर खड़ा हो गया।

"मगर परमात्मा का हुक्म हर जगह चलता है," वह अपनी कमीज़ उतारता हुआ बोला, "और परमात्मा के हुक़्म से आज बेलाज बादशाह नंगा होकर कमिश्नर साहब के कमरे में जाएगा। आज वह नंगी पीठ पर साहब के डंडे खाएगा। आज वह बूटों की ठोकरें खाकर प्रान देगा। लेकिन वह किसी की मिन्नत नहीं करेगा। किसी को पैसा नहीं चढ़ाएगा। किसी की पूजा नहीं करेगा। जो वाहगुरु की पूजा करता है, वह और किसी की पूजा नहीं कर सकता। तो वाहगुरु का नाम लेकर..."

और इससे पहले कि वह अपने कहे को किये में परिणत करता, दो-एक आदमियों ने बढक़र तहमद की गाँठ पर रखे उसके हाथ को पकड़ लिया। बेलाज बादशाह अपना हाथ छुड़ाने के लिए संघर्ष करने लगा।

"मुझे जाकर पूछने दो कि क्या महात्मा गाँधी ने इसीलिए इन्हें आज़ादी दिलाई थी कि ये आज़ादी के साथ इस तरह सम्भोग करें? उसकी मिट्‌टी ख़राब करें? उसके नाम पर कलंक लगाएँ? उसे टके-टके की फ़ाइलों में बाँधकर ज़लील करें? लोगों के दिलों में उसके लिए नफ़रत पैदा करें? इन्सान के तन पर कपड़े देखकर बात इन लोगों की समझ में नहीं आती। शरम तो उसे होती है जो इन्सान हो। मैं तो आप कहता हूँ कि मैं इन्सान नहीं, कुत्ता हूँ...!"

सहसा भीड़ में एक दहशत-सी फैल गयी। कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर निकल आये थे। वे माथे की त्योरियों और चेहरे की झुर्रियों को गहरा किये भीड़ के बीच में आ गये।

"क्या बात है? क्या चाहते हो तुम?"

"आपसे मिलना चाहता हूँ, साहब," वह आदमी साहब को घूरता हुआ बोला, "सौ मरले का एक गड्ïढा मेरे नाम एलाट हुआ है। वह गड्ïढा आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार उसमें एक तालाब बनवा दे, और अफ़सर लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढे में सरकार एक तहख़ाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बन्द कर दे...।"

"ज़्यादा बक-बक मत करो, और अपना केस लेकर मेरे पास आओ।"

"मेरा केस मेरे पास नहीं है, साहब! दो साल से सरकार के पास है-आपके पास है। मेरे पास अपना शरीर और दो कपड़े हैं। चार दिन बाद ये भी नहीं रहेंगे, इसलिए इन्हें भी आज ही उतारे दे रहा हूँ। इसके बाद बाकी सिर्फ़ बारह सौ छब्बीस बटा सात रह जाएगा। बारह सौ छब्बीस बटा सात को मार-मारकर परमात्मा के हु$जूर में भेज दिया जाएगा...।"

"यह बकवास बन्द करो ओर मेरे साथ अन्दर आओ।"

और कमिश्नर साहब अपने कमरे में वापस चले गये। वह आदमी भी कमीज़ कन्धे पर रखे उस कमरे की तरफ़ चल दिया।

"दो साल चक्कर लगाता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। ख़ुशामदें करता रहा, किसी ने बात नहीं सुनी। वास्ते देता रहा,किसी ने बात नहीं सुनी...।"

चपरासी ने उसके लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाख़िल हो गया। घंटी बजी, फ़ाइलें हिलीं,बाबुओं की बुलाहट हुई, और आधे घंटे के बाद बेलाज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया। उत्सुक आँखों की भीड़ ने उसे आते देखा, तो वह फिर बोलने लगा, "चूहों की तरह बिटर-बिटर देखने में कुछ नहीं होता। भौंको, भौंको,सबके-सब भौंको। अपने-आप सालों के कान फट जाएँगे। भौंको कुत्तो, भौंको..."

उसकी भौजाई दोनों बच्चों के साथ गेट के पास खड़ी इन्तज़ार कर रही थी। लडक़े और लडक़ी के कन्धों पर हाथ रखते हुए वह सचमुच बादशाह की तरह सडक़ पर चलने लगा।

"हयादार हो, तो सालहा-साल मुँह लटकाए खड़े रहो। अर्ज़ियाँ टाइप कराओ और नल का पानी पियो। सरकार वक़्त ले रही है! नहीं तो बेहया बनो। बेहयाई हज़ार बरकत है।"

वह सहसा रुका और ज़ोर से हँसा।

"यारो, बेहयाई हज़ार बरकत है।"

उसके चले जाने के बाद कम्पाउंड में और आस-पास मातमी वातावरण पहले से और गहरा हो गया। भीड़ धीरे-धीरे बिखरकर अपनी जगहों पर चली गयी। चपरासी की टाँगें फिर स्टूल पर झूलने लगीं। सामने के कैंटीन का लडक़ा बाबुओं के कमरे में एक सेट चाय ले गया। अर्ज़ीनवीस की मशीन चलने लगी और टिक-टिक की आवाज़ के साथ उसका लडक़ा फिर अपना सबक दोहराने लगा। "पी ई एन पेन-पेन माने कलम; एच ई एन हेन-हेन माने मुर्गी; डी ई ऐन डेन-डेन माने अँधेरी गुफा...!"

                                                                      ---मोहन राकेश---

भेड़िये

‘भेड़िया क्या है’, खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ।’ मैंने उसका विश्वास कर लिया। खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि 70 के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था। उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पाँ होता था। उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी। उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान।

जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है। खारू ने मुझसे यह कहानी कही उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ - इसका एक-एक लफ्ज।

‘मैं किसी चीज से नहीं डरता, हाँ, सिवा भेड़िये के मैं किस चीज से नहीं डरता।’ खारू ने कहा। एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं। भेड़ियों का झुंड - 200-300 जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका - उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता। लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है। यह झूठ है। भेड़िया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है। तुम कहते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं। तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का - बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दिखाता। एक मर्तबा, सिर्फ एक मर्तबा - गेंद-सा कूदकर उसकी जाँघ में गहरा जख्म कर देता है - बस। फिर पीछे, बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहाँ पहुँच जाता है। जहाँ वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ा है। या, उचककर एक क्षण मैं अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है - और वहीं चिपक जाता है। भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है। वह थकना तो जानता ही नहीं। अच्छे पछैयाँ बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोड़ों से तेज ले जाते हैं : और जब उन्हें भेड़िया की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं। लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता...

‘सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था। अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पड़े थे। हमारा गड्डा काफी भरा था। मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नटनियाँ - 15-15 साल की। हम लोग उन्हें पछाँह लिये जा रहे थे।’

‘किसलिए?’ - मैंने पूछा

‘तुम्हारा क्या खयाल है, मुजरा करने? अरे बेचने के लिए। और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियाँ छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं। यह लड़कियाँ होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं। हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों-से तेज भागनेवाले बैल।

हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे। वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी। बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने घूमकर कहा - `खारे, भेड़िये हैं?’

मैंने तेजी से कहा - ’क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?’

बूढ़े ने सर हिलाकर कहा - ’नहीं, भेड़िये जरूर हैं। खैर, वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है।’ बूढ़े ने कहा - ’और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा। बंदूक भर लो!’

मैंने कमानों की तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था।

‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले।’ मेरे बाप ने कहा।

‘बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो पुरानी ही वाली है।’

तब बूढ़े ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं - ’तू यह है, तू वह है।’

मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी।

मेरे बाप ने भी सब टटोला - ’तू झूठ बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!’ पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी। मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुँचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुँचकर...’ और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे। मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खँडहरों में भी आँधी गुजरने से आती है -

ह्वा आ आ आ आ आ आ आ आ!

‘हवा,’ मैंने सहम के कहा। ‘भेड़िये!’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया। पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी। उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे। दूर मैं एक छाटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था। उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो। और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था। बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएँ, मारो। एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा।’ और तब उन तीन लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आँसू) बहाना शुरू किया। ‘चुप रहो।’ मैंने उनसे कहा, ‘तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला।’

भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक सँभालकर बैठा। मैंने कमान सँभाली - मैं अँधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप - वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था। कोई 400 गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया। धाँय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई; और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह। बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुँह का फेन उड़कर हमारे मुँहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रँभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकलें करती हैं। पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे। गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे। मेरे बाप ने मेरे कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी। धाँय-धाँय ! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है।) मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10 मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था।

‘ले बंदूक ले!’ उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूँगा।’’

उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था। दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे।

मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक। खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी। बादीं अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक। मैंने दस और गिराए - धाँय-धाँय-धाँय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे।

मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए।’

बूढ़ा हँसा - ’वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते। पर मैं मरते-मरते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है।’

मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हँसोड़ हो गया था।

हाँ, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे। उन्हें कुछ खाने को मिल गया था। ‘सप-सप-चट’ बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया। वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे। मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो।’

‘एकबारगी ठोकर खाकर गड्डा चरकराकर चला। पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए।

बड़े मियाँ ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो।’

‘क्या?’ मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएँगे?’

उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो।’ मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया। हा! ग्वालियर की नटनिया, उसे दाँत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टाँगें पकड़ लीं। पर इससे भी क्या फायदा था। एकदम वह नजर से ओझल हो गयी। जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो। गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आए।

‘दूसरी फेंको’, बड़े मियाँ ने कहा। पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो।’

मैंने एक बैल खोल दिया। वह पीठ पर पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया।

मेरे बाप की आँखों में आँसू भर आए। ‘बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...,’ वह बुदबुदा रहा था।

‘हम बच तो गए’, मैंने कहा। पर तभी, ह्वा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था। ‘आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया।

पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे और हमारे बैल मरके गिरना ही चाहते थे। ‘दूसरी लड़की भी फेंको!’ मेरे बाप ने चीखकर कहा।

इन दोनों में बादीं भारी थी और कुछ सोचकर काँपते हाथों वह अपनी चाँदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी।

इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!’ पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था। मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही। गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा। पर पाँच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए। बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें, भीख माँग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...

मैंने बादीं की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ। मैंने कहा, ‘तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूँ?’ उसने चाँदी की नथ उतारकर मुझे दे दी और बाँहों से आँखें बन्द किए कूद पड़ी। गड्डा बिलकुल हवा-सा उड़ने लगा। वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था।

पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुँचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे। मैं बंदूक के कुन्दे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे।

मेरे बाप के मुँह से पसीना टपकने लगा - ’लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें।’

मैंने कहा, ‘यह मौत के मुँह में जाना है। हम लोग दोनों मारे जाएँगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए।’

‘तुम ठीक कहते हो।’ उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी जिन्‍दगी खत्म हो गई। मैं कूद पड़ूँगा।’

मैंने कहा, ‘हिरास मत होना। मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा।’

‘तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये। उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छूरियाँ ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया।

‘रुको,’ उसने कहा - ’मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।’

उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा। मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया।

खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा, जोर से हँसा और फिर खखारकर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया।

‘मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ भेड़िये और मारे।’ खारू ने फिर हँसकर कहा। पर उसके साथ ही उसकी आँखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।

                                                                       (हंस - अप्रैल, 1938)
                                                                           ---भुवनेश्वर---