गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

जुरमाना


ऐसा शायद ही कोई महीना जाता कि अलारक्खी के वेतन से कुछ जुरमाना न कट जाता। कभी-कभी तो उसे ६) के ५) ही मिलते, लेकिन वह सब कुछ सहकर भी सफाई के दारोग़ा मु० खैरात अली खाँ के चंगुल में कभी न आती। खाँ साहब की मातहती में सैकड़ों मेहतरानियाँ थीं। किसी की भी तलब न कटती, किसी पर जुर्माना न होता, न डाँट ही पड़ती। खाँ साहब नेकनाम थे, दयालु थे। मगर अलारक्खी उनके हाथों बराबर ताडऩा पाती रहती थी। वह कामचोर नहीं थी, बेअदब नहीं थी, फूहड़ नहीं थी, बदसूरत भी नहीं थी; पहर रात को इस ठण्ड के दिनों में वह झाड़ू लेकर निकल जाती और नौ बजे तक एक-चित्त होकर सडक़ पर झाड़ू लगाती रहती। फिर भी उस पर जुर्माना हो जाता। उसका पति हुसेनी भी अवसर पाकर उसका काम कर देता, लेकिन अलारक्खी की क़िस्मत में जुर्माना देना था। तलब का दिन औरों के लिए हँसने का दिन था अलारक्खी के लिए रोने का। उस दिन उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहता। न जाने कितने पैसे कट जाएँगे? वह परीक्षा वाले छात्रों की तरह बार-बार जुर्माना की रकम का तखमीना करती।

उस दिन वह थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गयी थी। उसी वक्त दारोगाजी अपने इक्के पर आ रहे थे। वह कितना कहती रही हजूरअली, मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के सेवड़े लेकर खा रही थी। उसी वक्त दारोग़ा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहाँ छिपा रहता है? जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है-अल्ला जाने! आठ आने से बढक़र एक रुपया न हो जाए। वह सिर झुकाये वेतन लेने जाती और तखमीने से कुछ ज्यादा ही कटा हुआ पाती। काँपते हुए हाथों से रुपये लेकर आँखों में आँसू भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दारोग़ा के सामने उसकी सुनेगा कौन?

आज फिर वही तलब का दिन था। इस महीने में उसकी दूध पीती बच्ची को खाँसी और ज्वर आने लगा था। ठण्ड भी खूब पड़ी थी। कुछ तो ठण्ड के मारे और कुछ लडक़ी के रोने-चिल्लाने के कारण उसे रात-रात-भर जागना पड़ता था। कई दिन काम पर जाने में देर हो गयी। दारोग़ा ने उसका नाम लिख लिया था। अबकी आधे रुपये कट जाएँगे। आधे भी मिल जाएँ तो गनीमत है। कौन जाने कितना कटा है? उसने तडक़े बच्ची को गोद में उठाया और झाड़ू लेकर सडक़ पर जा पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही न थी। उसने बार-बार दारोग़ा के आने की धमकी दी-अभी आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लडक़ी को अपने नाक-कान कटवाना मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर न था; आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, किसी उपाय से न उतरी तो अलारक्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती छोडक़र झाड़ू लगाने लगी। मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर रोती भी न थी। अलारक्खी के पीछे लगी हुई बार-बार उसकी साड़ी पकडक़र खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर जमीन पर लोट जाती और एक क्षण में उठकर फिर रोने लगती।

उसने झाड़ू तानकर कहा-चुप हो जा, नहीं तो झाड़ू से मारूँगी, जान निकल जाएगी; अभी दारोग़ा दाढ़ीजार आता होगा...

पूरी धमकी मुँह से निकल भी न पाई थी कि दारोग़ा खैरातअली खाँ सामने आकर साइकिल से उतर पड़ा। अलारक्खी का रंग उड़ गया, कलेजा धक्-धक् करने लगा! या मेरे अल्लाह, कहीं इसने सुन न लिया हो! मेरी आँखें फूट जाएँ। सामने से आया और मैंने देखा नहीं। कौन जानता था, आज पैरगाड़ी पर आ रहा है? रोज तो इक्के पर आता था। नाडिय़ों में रक्त का दौडऩा बन्द हो गया। झाड़ू हाथ में लिए नि:स्तब्ध खड़ी रह गयी।

दारोग़ा ने डाँटकर कहा-काम करने चलती है तो एक पुच्छिल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं छोड़ आयी?

अलारक्खी ने कातर स्वर में कहा-इसका जी अच्छा नहीं है हुजूर, घर पर किसके पास छोड़ आती।

‘क्या हुआ है इसको!’

‘बुखार आता है हुजूर!’

‘और तू इसे यों छोडक़र रुला रही है। मरेगी कि जियेगी?’

‘गोद में लिये-लिये काम कैसे करूँ हुजूर!

‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेती!’

‘तलब कट जाती हुजूर, गुजारा कैसे होता?’

‘इसे उठा ले और घर जा। हुसेनी लौटकर आये तो इधर झाड़ू लगाने के लिए भेज देना।’

अलारक्खी ने लडक़ी को उठा लिया और चलने को हुई, तब दारोग़ाजी ने पूछा-मुझे गाली क्यों दे रही थी?

अलारक्खी की रही-सही जान भी निकल गयी। काटो तो लहू नहीं। थर-थर काँपती बोली-नहीं हुजूर, मेरी आँखें फूट जाएँ जो तुमको गाली दी हो।

और वह फूट-फूटकर रोने लगी।

सन्ध्या समय हुसेनी और अलारक्खी दोनों तलब लेने चले। अलारक्खी बहुत उदास थी।

हुसेनी ने सान्त्वना दी-तू इतनी उदास क्यों है? तलब ही न कटेगी-काटने दे अबकी से तेरी जान की कसम खाता हूँ, एक घूँट दारू या ताड़ी नहीं पिऊँगा।

‘मैं डरती हूँ, बरखास्त न कर दे मेरी जीभ जल जाय! कहाँ से कहाँ ...

‘बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्ला भला करे! कहाँ तक रोयें!’

‘तुम मुझे नाहक लिये चलते हो। सब-की-सब हँसेंगी।’

‘बरखास्त करेगा तो पूछूँगा नहीं किस इलजाम पर बरखास्त करते हो, गाली देते किसने सुना? कोई अन्धेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे और कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी के दरवाजे पर सर पटक दूँगा।’

‘ऐसी ही एकता होती तो दारोग़ा इतना जरीमाना करने पाता?’

‘जितना बड़ा रोग होता है, उतनी दवा होती है, पगली!’

फिर भी अलारक्खी का मन शान्त न हुआ। मुख पर विषाद का धुआँ-सा छाया हुआ था। दारोग़ा क्यों गाली सुनकर भी बिगड़ा नहीं, उसी वक्त उसे क्यों नहीं बरखास्त कर दिया, यह उसकी समझ में न आता था। वह कुछ दयालु भी मालूम होता था। उसका रहस्य वह न समझ पाती थी, और जो चीज हमारी समझ में नहीं आती उसी से हम डरते हैं। केवल जुरमाना करना होता तो उसने किताब पर उसका नाम लिखा होता। उसको निकाल बाहर करने का निश्चय कर चुका है, तभी दयालु हो गया था। उसने सुना था कि जिन्हें फाँसी दी जाती है, उन्हें अन्त समय खूब पूरी मिठाई खिलायी जाती है, जिससे मिलना चाहें उससे मिलने दिया जाता है। निश्चय बरखास्त करेगा।

म्युनिसिपैलिटी का दफ्तर आ गया। हजारों मेहतरानियाँ जमा थीं, रंग-बिरंग के कपड़े पहने, बनाव-सिंगार किये। पान-सिगरेट वाले भी आ गये थे, खोंचे वाले भी। पठानों का एक दल भी अपने असामियों से रुपये वसूली करने आ पहुँचा था। वह दोनों भी जाकर खड़े हो गये।

वेतन बँटने लगा। पहले मेहतरानियों का नम्बर था। जिसका नाम पुकारा जाता वह लपककर जाती और अपने रुपये लेकर दारोग़ाजी को मुफ्त की दुआएँ देती हुई चली जाती। चम्पा के बाद अलारक्खी का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज अलारक्खी का नाम उड़ गया था। चम्पा के बाद जहूरन का नाम पुकारा गया जो अलारक्खी के नीचे था।

अलारक्खी ने हताश आँखों से हुसेनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगीं। उसके जी में आया, घर चली जाए। यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट जाती कि उसमें समा जाती।

एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अलारक्खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब इसकी परवा न थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।

सहसा अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ी! धीरे से उठी और नवेली बहू की भाँति पग उठाती हुई चली। खजांची ने पूरे ६) उसके हाथ पर रख दिये।

उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीन बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और अबकी तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकण्ड वहाँ खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रुपया वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा, अब क्यों खड़ी है। जाती क्यों नहीं? तब वह धीरे से बोली-यह तो पूरे रुपये हैं।

खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा!

‘तो और क्या चाहती है, कम मिलें?’

‘कुछ जरीमाना नहीं है?’

‘नहीं, अबकी कुछ जरीमाना नहीं है।’

अलारक्खी चली, पर उसका मन प्रसन्न न था। वह पछता रही थी कि दारोग़ाजी को गाली क्यों दी।

                                                                              ---प्रेमचंद---

अपनी अपनी बीमारी


हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ?

अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।

टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।

मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।

उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे।

मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं।

तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।

दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता।

मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।

वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ?
मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।

                                                                       ---हरिशंकर परसाई---

उसका सच


धूलभरी सड़क पर हिचकोले खाती हुई बस अपने आखिरी मुकाम पर पहुँच चुकी थी। कंडक्टर की आवाज के साथ ही झपकियाँ लेती आँखें खुल गईं। हड़बड़ी, उत्सुकता और उत्साह के साथ यात्री अपने-अपने थैले और गठरियाँ सँभालते हुए दरवाजे की तरफ लपके।

बस से बाहर रात ज्यादा गहरी दिखाई दी। आसमान में तारे अभी चमक रहे थे। पर चाँदनी का पसरा हुआ रूप कुछ झीना हो चला था - सफेद बादलों पर जैसे कोई हल्की चादर डालता जा रहा हो। फिर भी, सब कुछ साफ देखा जा सकता था।

छिटपुट पेड़, ऊँचे-नीचे खेत। टीले-भाटों से घिरा यह सिपाह गाँव - जिले का पिछड़ा और अति उपेक्षित हिस्सा। आगे नदी तक जाने के लिए सड़क नहीं, सिर्फ पगडंडियाँ थीं। पगडंडियों के किनारे-किनारे सरपतों के झुरमुट तथा भटकइया और मदार के पौधे थे।

तीन मील पैदल चलना होगा - बहुत खराब रास्ता है। लोग आपस में बतियाते दिखे। तीर्थयात्रियों में खुशी और उमंग के साथ चिंता, बेचैनी और शोर का अद्भुत मेल था। कई एक अपने साथियों का नाम ले पुकारते और उन्हें खोजते फिर रहे थे। किसी के चेहरे पर झुँझलाहट थी। कोई खिलखिला भी रहा होता। इस गुल-गपाड़े में हमीनपुर हरिजन टोले के मनीराम की आवाज सबसे ऊँची थी।

'सुनयना भौजी...ई'

उसके अलग स्वभाव और व्यवहार के कारण टोले ने मनीराम को एक और नाम दिया था - 'रसिया'। यह सिर्फ बच्चों, नौजवान और बूढ़ों के लिए ही नहीं, बल्कि टोले की हर नई-पुरानी औरत के लिए भी रसिया ही था। बिरहा खूब अच्छा गाता। बगैर फरमाइश के ही शुरू हो जाता। नई युवतियों को भौजी कहकर बुलाता। होली का अबीर माथे के बजाय गाल पर रगड़ता। किसी के एतराज पर फौरन तुलसी की चौपाई बाँच अपनी साफदिली का इजहार करता। टोले की रीत में रसिया सभी के लिए राग-देवता था - दुख में भी, सुख में भी।

इस महीने का यह पहला मंगलवार था जब रसिया ने हरफूल की मौजूदगी में सुनयना की चिंता दूर करने की राह खोजी - 'सब पूरा होगा भौजी। एक नहीं दर्जन भर किलकारी मारेंगे। लेकिन एक बार चलना होगा?'

'कहाँ?' सुनयना ने जिज्ञासा से देखा।

'दूर नहीं भौजी, बस धोपाप। बड़ा जस है धोपाप घाट का। कहते हैं बाभन रावण को मारने के बाद भगवान राम की कोमल गदोड़ी में लंबे-लंबे बाल उग आए थे। आखिर रावण ज्ञानी ब्राह्मण था - ब्रह्मदोष तो लगना ही था। लेकिन घाट की महिमा! अयोध्या जाते समय जब राम वहाँ नहाए तो सारे बाल साफ - सारे पाप खत्म! तभी से नदी के उस घाट का नाम पड़ा धोपाप घाट।' रसिया कथावाचक जैसी मुद्रा में था।

'तो ले जा अपनी भौजी के भी पाप धुला दे।' हरफूल ने सुनयना की आँखों में झाँकते हुए कहा।

'तो का मैं पापिन हूँ?' सुनयना ने नाराजगी जाहिर की। रसिया हँस पड़ा, 'भइया को कहने दे भौजी। तू काहे नाराज होती है। फिर पाप तो हर आदमी से होता है। चलते रास्ते चींटी दब गई - का पाप नहीं है। पर सारी महिमा घाट की ही नहीं, वहाँ की पहाड़ी पर मौजूद पापर देवी की शक्ति की भी है। भगवान ने स्वयं भी देवी की पूजा की थी। देवी के मंदिर में साफ मन दुआ माँगो तो सब पूरा होगा। दियरा के राजा को बुढ़ाई बेला में लड़का पैदा हुआ था। दूर की छोड़ो, गाँव के चंदू बनिया को ही देखो...।' रसिया की आँखें नाच उठीं।

हरफूल ने व्यंग्य कसा, 'तू भी देवी से अपने लिए बीवी माँग ले।'

रसिया ने जोर का ठहाका लगाया, 'बीवी तो हमारे लिए भौजी ला देंगी भइया -एकदम अपनी तरह। ...लेकिन अबकी भूलना मत भौजी - दशमी के दिन है नहावन। फिर देखना नौ महीने बाद, 'किलकारी मरिहें ललना तोरे अँगना', भइया को साथ जरूर ले चलना। आते वखत काली बाग का मेला भी घूमना।' रसिया आगे बढ़ चुका था।

हरफूल, सुनयना की तरफ देखकर मुस्कराया। सुनयना की आँखें झुक गईं। पल्लू सिर तक खींच लिया।

रसिया के जाने के बाद से ही सुनयना टूटे पत्ते सी खामोश बनी खोई-खोई रही। हरफूल को काम से निपटते देख सकुचाते हुए पूछा, 'तो का अबकी दशमी को चलोगे?'

हरफूल ने झिड़कियाँ दीं, 'अगर देवी-देवता की दुआ से ही बच्चा पैदा होने लगे तो फिर मरद की क्या जरूरत। तू भी रसिया की बात में...।'

'लेकिन आदमी का विश्वास तो चला आ रहा है।' सुनयना बात काटते हुए बोली।

'तो क्या तुझे मुझ पर विश्वास नहीं है।' हरफूल की निगाहें टेढ़ी हुईं मानो गुस्सा किया हो, किंतु दूसरे ही क्षण आँखों में मुस्कराहट थी। फिर भी सुनयना की उदासी कम नहीं हुई।

काम से फारिग हरफूल का ध्यान जब सुनयना की ओर गया तो वह खुद भी चिंतित हो उठा। सुनयना की आँखें भीग आई थीं। पति-पत्नी कुछ क्षण तक एक-दूसरे से आँखें चुराते रहे। उनकी चुप्पी गैरजरूरी कामों में उलझने का बहाना भी दिखीं। लेकिन वह भी कब तक - मन के पीछे एक पराजित द्वंद्व था। वही द्वंद्व हरफूल को सुनयना के नजदीक खींच ले गया, 'इस घर में किसलिए बच्चा पैदा करेगी। हमारी तरह देह पीसने और दुख ढोने के लिए। कौन सी खतौनी और खाता अपने पास रखा है कि आते ही उसके नाम कर दूँगा - ले बेटा, खानदान का चिराग बन। फिर मजदूरी भी तो ऐसी नहीं कि ढंग से खिला-पिला, पढ़ा सकें। जब अपना ही पेट पालना मुश्किल हो रहा है तो बेटा हो या बेटी, बाप को क्या सहारा देगा।' अंतिम क्षणों तक हरफूल के तर्क की आवाज महीन होती गई। उसके शब्दों में सिसकियों का पूर्वाभास होने लगा। उसने अब तक जो कुछ भी कहा था, सुनयना को समझाने और दिलासा देने के लिए।

'औरत होते तो...।' सुनयना ने एक लंबी साँस ली। उसमें शताब्दियों का दर्द था। पति ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया। आँखें पोंछते हुए उसने जैसे शाप को पोंछा हो।

'तू पागल बन रही है।' हरफूल की परेशानी बढ़ गई। सुनयना के विक्षोभ और विषाद ने उसके अंदर के मर्द को झकझोर दिया।

'हाँ... मैं पागल हूँ।' माँ न बन पानेवाली औरत का यह सख्त रूप था।

दरवाजे पर बोझिल सन्नाटा तैरने लगा, जबकि शाम की बेला में टोले की चहल-पहल बढ़ रही थी। हरफूल जिस चिंता पर सवार था, वहाँ सुनयना भी साथ खड़ी थी। वह पीछे मुड़कर देखता - नीम-हकीम, पूजा-पाठ सभी उसके लिए बेकार रहे। वह पति है। एक पति की जिम्मेदारी को वह अच्छी तरह जानता है, लेकिन बहुत कुछ अपने वश में नहीं, जबकि सुनयना की जिद और इच्छा थी। उसकी इच्छा का साथी तो उसे बनना ही चाहिए।

'तू औरत है। औरत का दुख मैं भी समझता हूँ। वैसे मेरा मन देवी-देवता पर टिकता नहीं, पर तेरा विश्वास है तो जहाँ कह, वहीं चलूँ। क्या मेरी इच्छा नहीं होती घर में एक बच्चे की किलकारी गूँजे।' हरफूल ने अपनी चिंताओं और सपने की बातें खोल कर खुद को हल्का महसूस किया।

'तो क्या दशमी को चलोगे?' सुनयना ने उत्सुकता से देखा।

'जरूर।'

दो दिलों में हुलास की लहरें एक साथ उठीं।

लेकिन हरफूल आज नहीं आ सका। पैर में अरहर की खूँटी धँस जाने से हुआ घाव और बहता मवाद ही सिर्फ कारण नहीं था, बल्कि मजबूरी पैसे की थी। तीन घर से निराश होने के बाद चौथी जगह बीस-रुपया मिला भी तो दो हफ्ते के अंदर लौटाने की शर्त पर।

पैसे की कमी ने उनकी मनोकामना पर हिमपात कर दिया। घर में ऐसी कोई भी चीज दिखाई नहीं दे रही थी जिसे बेच कर वे धोपाप घाट तक जा सकते हों। बच्चे की किलकारी की जगह उनके कानों में खुद की हूक सुनाई देने लगी। सुनयना अकेले जाने को तैयार नहीं थी। हरफूल की जिद थी कि वह जरूर जाए। जब विश्वास है तो शायद धोपाप घाट और पापर देवी की कृपा से ही कोख भर जाए।

बच्चे की लालसा ने सुनयना को अकेले जाने के लिए मजबूर कर दिया। हरफूल के न आने की बेबसी रास्ते भर सुनयना को रुलाती रही। बस में कई लोग ऊँघने लगे थे। कुछ को बाहर की चाँदनी में शांत खड़े पेड़, जादुई तिलिस्म की तरह रहस्यमय और खामोश दिखते घरों ने सम्मोहित कर लिया था। नींद और प्रकृति का अनन्य रूप भी सुनयना को अपनी ओर नहीं खींच सके। कभी-कभी आदमी दूर जा कर भी एकदम नजदीक हो जाता है, जितना कि वह साथ होने पर भी नहीं होता। सुनयना-हरफूल से दूर होते हुए भी साथ थी, जबकि बगल में बैठी पड़ोसिन कलपा बुआ का सिर नींद में उसके कंधे पर गिरा-गिरा जा रहा था।

'देवी से तुम्हारा पैर जल्दी ठीक हो जाने की दुआ माँगूँगी फिर लड़का...।' खुद के बजाय सुनयना ने जैसे हरफूल से कहा हो।

'सुनयना भौजी।' भीड़ और शोर को चीरती रसिया की दुबारा आई आवाज सुनयना को अटपटी लगी।

'यहीं तो हूँ, का चिल्ला रहे हो।' वह जैसे सोते से जागी। लपकते हुए टोलेवालों के बीच जा पहुँची।

'सुनयना का बड़ा ख्याल रखता है।' कलपा बुआ ने व्यंग्य मारा। बुआ बाल विधवा थीं। नौजवान लोगों के हँसी-मजाक को वह छिनरपन कहतीं।

'रखना भी चाहिए, देवर हैं...।' टोले की शोभा काकी बुआ के रूखे व्यवहार से चिढ़ती थीं। अवसर मिलते ही वह बुआ के खिलाफ मोर्चा सँभाल लेती।

'लेकिन सुनयना भौजी हरफूल भइया की याद में एक रात भी...।' रिश्ते की एक ननद ने सुनयना से ठिठोली की। वह झेंप उठी। जो रंगे हाथ पकड़ी गई थी। असहजता को छिपाने के लिए झोले को दूसरे हाथ में बदल लिया। सिर के पल्लू को माथे तक खींचा। रसिया से आँख मिलते ही सकपका उठी। उलाहनाभरी निगाहों से ननद की ओर देखा। एक-दूसरे को मजा चखाने की हँसी दोनों चेहरों पर एक साथ फूट पड़ी।

'भइया भी तो सुनयना भौजी की याद में आज रात...।'

'चुप रह।' बुआ ने रसिया को डांटा। त्योरियों में बल पड़े, श्राप देने वाले ऋषि की तरह बुआ का लहजा सख्त हो आया, 'कहाँ चल रहा है - धोपाप-देवी-देवता के घाट...।'

पर रसिया कहाँ चुप रहनेवाला। ऐसे अवसरों पर ही उसकी हरकतें उसका नाम सार्थक करती। वह आगे बढ़कर सैल्यूट की मुद्रा में बुआ के सामने खड़ा हो गया। उसकी आँखों में शरारती मुस्कराहट थी।

'हम घाट और भगवान से क्यों डरें। का हमने कोई पाप किया है। धोपाप घाट और देवी मैया के दरवाजे चल रहा हूँ तो हाथ-जोड़ कहूँगा - हमें धन-दौलत कुछ नहीं, बस सुनयना भौजी जैसी बीवी चाहिए, जिसे दिन भर निहारता रहूँ। ...कहो भौजी?' रसिया ने सुनयना की स्वीकृति चाही। उसने भी साथ दिया। एक साथ फूट पड़ा हँसी का फव्वारा बुआ को छेड़ने के लिए जैसी काफी हो। 'राम-राम दूर हट... दूर हट...' बुआ झल्लाते हुए आगे बढ़ गईं। उलाहना देते हुए कहा, 'आज के औरत-मरद पर तीरथ-धरम में भी बदमाशी सवार रहती है... घोर कलयुग आ गया है।'

रसिया के हाथ जैसे खिलौना आ गया हो। लपकते हुए आगे आया, बुआ का पैर पकड़ कर बैठ गया, 'हे सतयुग की बुआ काहे कलयुगी औलाद पैदा कर दी।' साथ के सभी लोग कौतुक और मजे लेने की मुद्रा में बुआ को घेर कर खड़े हो गए। रसिया से अलग होने की बुआ ने कोशिश नहीं की। लोगों की हँसी में इस बार खुद को भी शामिल कर लिया। झुक कर रसिया का कान पकड़ा, 'एकदम बच्चा बन जाता है... चल आगे।'

हँसी, शोर और तालियों से जैसे सभी ने बुआ का सम्मान किया हो। रसिया ने फुर्ती दिखाई। उसकी चाल तेज हो गई। उसे अचानक तुलसी याद आ गए। रामचरित मानस की कोई चौपाई गाता हुआ वह वर्तमान से दूर चला गया था। साथ के कई लोग चौपाई दुहराने लगे।

आगे बढ़ते लोगों का मेला था। गीत था। सुनयना थी। रास्ता जाने किस ऊबड़-खाबड़ खोह से गुजर रहा था, जाने कब अंत होगा? कुछ दिन पहले हुई बरसात से दबी धूल स्नानार्थियों के पैरों से फिर उड़ने लगी। तलवों में कंकड़ चुभने लगे। अच्छा ही हुआ हरफूल नहीं आया, सुनयना के मन को तसल्ली हुई।

भोर होने से पहले रसिया की टोली धोपाप घाट पर पहुँच गई। नदी तट को जोड़ती घाट की लंबी-चौड़ी सीढ़ियाँ काली पड़ चुकी थीं। उनकी सीमेंट और ईटें टूटी हुई दिखाई दीं। सीढ़ियों से जुड़ा एक खाली मैदान था... रेत-धूल और दिशा फराख्त से निपटते लोगों की गंदगी से भरा हुआ। स्नानार्थियों की भीड़ यहाँ भी फैल चुकी थी। इनके बीच चादर झाले कुछ ऊँघते लोग भी दिखाई दिए। घाट की हलचल इनकी नींद और थकान पर कमजोर पड़ रही थी।

कुंभ जैसी ख्याति धोपाप घाट को नहीं मिली थी। चार-छह जिले तक के लोग ही इस घाट से जुड़ी कथा और यहाँ की देवी की महिमा को सुनते चले आ रहे थे। सरकारी बंदोबस्त भी साधारण ही था... गिनती के दिखाई देते पुलिस वाले, जनरेटर से की गई रोशनी, डूबते लोगों को बचाने के लिए नौकाएँ। स्वास्थ्य केंद्र की तरफ से एक तंबू, जहाँ डॉक्टर की जगह कंपाउंडर की ही सेवाएँ उपलब्ध थीं। यद्यपि इस वक्त वह भी नदारद था। दवाइयों के नाम पर खाली डिब्बा।

सुनयना के लिए हर दृश्य अपरिचित और मोहक होता। घर-गृहस्थी से दूर यह स्वप्न जैसी दुनिया थी। छिटपुट बल्बों की रोशनी - जैसे जल में तारे उतर आए हों। उसकी चिंताएँ कुछ क्षण के लिए स्थगित हो गईं। विस्मय और जिज्ञासा से हर दृश्य पर नजर दौड़ती रही... जल में डुबकियाँ लगाते लोग। पिंडदान करवाते पंडे और पुजारी। बछियों की पूँछ पकड़ परलोक सुधारने की चिंता लिए औरत और मर्द। राम नाम की गूँजती जय-जयकार, ऊँची पहाड़ी पर स्थित पापर देवी के मंदिर की ओर उमड़ती भक्तों की भीड़, चिल्लाते लाउडस्पीकर। सुनयना को एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती, कभी एकदम फिरकी की तरह घूमकर तैरती नावों को देखने में मजा आ रहा था। हरफूल होता तो वह भी नाव में बैठती। उसे साथ ले कर नदी में नहाती, उथले पानी में भी डूबने का नाटक करती, और क्या-क्या करती... 'धत्त' वह मुस्कराई और खुद को डाँटा भी।

'खड़ी-खड़ी का सोच रही है, जा तू भी नहा...।' बुआ ने गुस्सा किया। लोगों के नदी में उतर जाने के बाद अकेली बची बुआ कपड़े और सामान की रखवाली कर रही थीं।

'तू भी चल।' सुनयना बुआ की नाराजगी भाँप गई।

'कैसे चलूँ?' बुआ की आँखों में शिकायत थी, 'चोर-चांडाल तो हर जगह फिराक में रहते हैं। निगाह टली कि सामान गायब।'

'धोपाप में पाप...।' सुनयना मन ही मन हँस पड़ी। बुआ अब करीब बैठे छोकरे पर खफा हो गईं, यह घाट पर नहाती औरतों की देह को एकटक निहार रहा था। सुनयना ने भी देखा, लड़के की उम्र उन्नीस-बीस के करीब रही होगी। आँखें छोटी, रंग साँवला, बेतरतीब दाढ़ी और मुहासों भरा चेहरा। सूखे पपड़ाए होठों पर व्याकुल प्यास। वह खुद से भी चिढ़ा हुआ दिखाई दिया। उसके पैर में गहरा घाव था। उस पर भिनभिनाती मक्खियों, धूल, रेत के प्रति भी वह लापरवाह था, जैसे पैर खुद का न हो। सुनयना को लड़के के प्रति दया आई, बेचारा... लेकिन बुआ उसे भगाने पर तुली थीं।

'भौजी।' रसिया की आवाज बीच धारा से आई। तैरने की कलाबाजी कर रहा था वह।

'हाय दइया।' बेचारे की घरवाली होती तो कभी न जाने देती।

रास्ते में ठिठोली करनेवाली ननद सुनयना को नदी के जल में खींच ले गई। दोनों 'छपकोरिया' खेलने लगीं। रसिया की आवाज फिर आई। वह भौजी को आगे आने के लिए कह रहा था।

'ना बाबा...' सुनयना ने कान पकड़े और किनारे ही नहाने लगी। तभी एक बूढ़ा पंडा आ गया। उसके हाथ में एक बछिया की रस्सी थी। बछिया भूखी और थकी सी थी। बूढ़ा गऊदान कराने की जिद कर रहा था। सुनयना की नजर बुआ पर जा टिकी।

'बीस आना... बीस आना... ।' बुआ कैसेट की तरह बज उठीं।

'इस महँगाई में बीस आने से क्या होगा मावा...।'

'इससे ज्यादा नहीं दूँगी।' सुनयना बाहर आई और झोले से बीस आने निकाले।

पंडित ने उसे बछिया की पूँछ पकड़ाई। उसके होंठ एक लय में कुछ देर तक बुदबुदाते रहे। सुनयना को पंडित पर गुस्सा आ रहा था। बीस आना निकल जाने का अफसोस उसे सता रहा था।

'बाबा अच्छा आशीर्वाद देना। पर पहुँचते ही पाँव भारी होना चाहिए।' बुआ के दोनों हाथ जुड़ गए।

सुनयना लजा उठी। 'बुआ भी गजब हैं...।' पंडित की आँखें फैल गईं। मानो तपस्या से मुक्त होने के बाद वह संसार पर दृष्टिपात कर रहा हो। मगर बुआ की चौकस निगाहें उसे बेंधती हुई लगीं। जल्दी में चावल और हल्दी का अक्षत जल, अन्य दिशाओं की तरफ फेंकने के बजाय सुनयना पर ही फेंकने लगा। बुआ अंदर से चिढ़ उठीं, 'बबवा मतिभ्रम हो गया है?'

नहाते हुए सुनयना का ध्यान किनारे आए नवागंतुकों पर गया। दो औरतें, दो मर्द- एक नवयुवक, एक अधेड़ उम्र आदमी। औरतें भारी और थुलथुल बदन की। किंतु उम्र बढ़ने के बाद भी गाल ऐसे लाल कि छू देने से ही खून छलक आए। अधेड़ मर्द के बालों में सफेदी उतर आई थी। काले करने के बाद भी सफेदी छिपाए न छिप रही थी। हालाँकि शरीर का वजन और उम्र का दबाव उसकी फुर्ती पर नहीं था। दूसरे मर्द का हुलिया और व्यवहार नौकरों जैसा था। नौजवानी में भी रूखी आँखें, बुझा चेहरा, शरीर से कमजोर। फिर भी, अपनी जिम्मेदारियों के प्रति वह एकदम सतर्क था।

नौकर के एक हाथ में कपड़ों से भरी हुई प्लास्टिक की डोलची थी। दूसरे हाथ में बड़े बालोंवाला विदेशी नस्ल का एक सफेद कुत्ता। कुत्ते का नाम टोनी था। टोनी नौकर से ज्यादा वफादार था। वह जमीन पर उतरने को अमादा था।

दोनों औरतें खिलखिला रही थीं। वे नहीं चाहती थीं कि टोनी नौकर के हाथ से छूट कर जमीन पर आए और धूल-मिट्टी में खुद को गंदा कर ले।

सुनयना के लिए नवागंतुक किसी अन्य दुनिया के प्राणी लगे। उन्हें देखते हुए वह ठिठकी खड़ी रही। नौकर पर तरस आया, औरतों के लिए ईर्ष्या।

'जल्दी नहा के आ जा...।' बुआ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा।

मंदिर की ओर बढ़ते श्रद्धालुओं का जयकारा फिर सुनाई दिया। उसने दो-तीन डुबकियाँ लगातार लगाई और नदी से बाहर निकल पड़ी। किनारे आते ही उसके पैर रुक गए।

टोनी नौकर की गिरफ्त से छूट कर इधर-उधर दौड़ने लगा था। नौकर भी उसके पीछे दौड़ रहा था।

'टोनी-टोनी... 'दोनों औरतें नदी के जल में खड़ी-खड़ी आवाज देने लगीं। टोनी की स्वामीभक्ति उन्हें चिढ़ा रही थी। टोनी ने हुक्म न मान कर उन्हें हास्यास्पद बना दिया था। अब आवाज देने के बजाय वे उसे चुपचाप देख रही थीं। टोनी कहीं गुम न हो जाए, यही चिंता उनके चेहरे पर थी। अधेड़ आदमी ने नौकर की लापरवाही पर गाली दी और नहाना छोड़ कर नंगे बदन टोनी-टोनी चिल्लाते हुए वह भी दौड़ने लगा।

सभी की निगाहें टोनी पर थीं। वह सुंदर और प्यारा कुत्ता था। भीड़ में किसी के भी हत्थे चढ़ सकता था।

लेकिन सुनयना की आँखों में कुत्ता नहीं, काला जूता था। बिल्कुल नया। टोनी के पीछे दौड़नेवाले अधेड़ न कुछ ही देर पहले जूता किनारे पर उतारा था। जूते ने सुनयना में उथल-पुथल मचा दी। गर्मी की धूप में हरफूल का जलता पाँव, बारिश और ठंड में सिकुड़ी उँगलियाँ, खेत-जवार में नंगी खूँटियों-काँटों से घायल हुआ पैर-एक ही क्षण में सामने आ गए। एक दिन जूता खरीदने की बात चली तो हरफूल हँसा। नए की बात क्या, फटा-पुराना भी नसीब में हो तो... सुनयना की आँखें उसे हरफूल के पैरों में देखने लगीं। 'एकदम नाप का है।' जैसे किसी ने कानों में कहा हो। वह खिल उठी। लेकिन इसी समय 'जयकारा' के स्वर ने उसके इरादे पर पानी फेर दिया। मन में भय समा गया। देवी की चौखट सामने दिखाई दे रही थी। वह क्या करने जा रही है... पाप है यह। भगवान राम के घाट और देवी मैया के दरवाजे पर यह ठीक नहीं। वह काँप उठी। घाट और मंदिर से ही नहीं, उगते सूरज से भी माफी माँगी।

बुआ झोले से सरौता निकाल सुपारी कतरने लगी हैं। लोग पाप धोने के साथ शरीर का मैल भी छुड़ा रहे हैं। कुछ अभी टोनी का पीछा करते नौकर और उसके अधेड़ मालिक को ही देखे जा रहे हैं। जूते पर सिर्फ सुनयना की ही नजर है।

जरूरत ने उसे फिर लोभी बना दिया। मानसिक द्वंद्व पीछे छूट चुका था। वह लपक कर जूते के पास जा पहुँची। भीगी धोती को जूते पर छोड़ते हुए धोती और जूता एक साथ झोले में भर लिए। काम तेजी और फुर्ती से हुआ था, फिर भी मन में खटका तो था ही। बुआ पर नजर पड़ी तो घबरा उठी, किंतु बुआ कनखियों से उस जवान छोकरे को निहार रही थीं जिसकी निगाहें घाट पर नहाती औरतों का जायजा लेते हुए सुनयना पर आ कर अटक जाती थीं। उसने मन ही मन छोकरे को गालियाँ दीं और बुआ के बगल में जा बैठी।

टोनी के पकड़ में आते ही जूता गायब हो जाने का पता चला। भद्र महिलाएँ नौकर पर गुस्सा उतारने लगीं। टोनी नाराजगी में नौकर पर भौंकने लगा। अधेड़ मर्द को मलाल था कि लुच्चों-लफंगों और इन दरिद्र गँवारों के बीच वे क्यों आए। उसने धमकी दी कि चोरी करने वाले का हाथ-पैर तोड़ देगा। तभी हाथ में डंडा लिए हुए एक पुलिसवाला दिखाई दिया। वह इस तरफ ही आ रहा था। सुनयना बदहवास हो गई। बुआ को बातों में उलझाना चाहा पर बुआ का ध्यान भीड़ पर था।

'कोई भागने न पाए। चोर यहीं कहीं होगा। सबके सामान की तलाशी लो।' किसी ने राय दी।

'जूताचोर भला यहाँ टिकेगा। पहन कर चंपत हो गया होगा।' कोई कह रहा था।

'एक जूता गायब हो जाने पर लोग इस कदर हल्ला मचा रहे हैं जैसे खजाना लुट गया हो...' सुनयना को घबराहट में रोना आ रहा था।

पुलिसवाले ने पहुँचते ही भीड़ को खदेड़ा। डंडा घुमाते हुए गालियाँ बकी। अधेड़ आदमी और दोनों महिलाओं की शिकायत को गंभीरता से लिया। टोहती आँखों से अगल-बगल ही नहीं दूर तक निहारा। हर चेहरे को पढ़ने की कोशिश की। जूते की चोरी जैसे मामूली घटना नहीं थी। अगल-बगल के लोगों की गठरियों, झोलों की तलाशी लेता हुआ वह गालियाँ भी बकता जा रहा था।

'नाहक गाली दे रहा है। राम के घाट पर जिसने भी चोरी की है, उसे सजा मिलेगी ही। ऊपरवाले नाथ अंधे तो नहीं हैं।' पुलिसवाले को सुनाने के बहाने बुआ ने कहा।

सुनयना की धड़कनें खुद को धिक्कारने लगीं। मौका था नहीं कि जूता निकाल कर फेंक सके। पुलिसवाला करीब आ रहा था।

सुनयना को लगा बहुत से लोग उसे घूर रहे हैं। नजदीक बैठा छोकरा भी।

'बुआ जा तू भी नहा ले।' सुनयना को झुँझलाहट हुई। वह अति शीघ्र यहाँ से निकल जाना चाहती थी, पर बुआ तो पूरा तमाशा देखने पर तुली थीं।

रसिया ने पूछा, 'भौजी तुमने कितनी डुबकियाँ लगाईं? उसका शरीर ही नहीं मन भी सुन्न हो चुका था। उस समय कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था - न रसिया, न घाट। उन सभी से उसे कोफ्त हो रही थी जिन्हें यहाँ से निकल चलने में कोई हड़बड़ी नहीं थी।

पुलिसवाला रसिया के थैले की तलाशी ले चुका था। वह सुनयना की तरफ बढ़ा। सुनयना काँप उठी, काटो तो खून नहीं। ...हाय राम किस घड़ी में जूता चुराया, भाड़ में जाए जूता - भाड़ में जाएँ देवी-देवता...। हे भगवान, आज बचा लो। वह मन ही मन भगवान से विनती करती जा रही थी। तभी उसे कपड़े बदलने का खयाल आया। ब्लाउज के बटन खोलते हुए घुटनों पर झुकी। सिपाही ने डंडा नचाते हुए घूरा। सुनयना बेफिक्र दिखाई दी। ब्लाउज के सारे बटन खुल गए थे।

पुलिस का सिपाही बुआ की चौकस नजरों से टकरा कर दूसरी तरफ मुड़ गया। उसने करीब बैठे छोकरे की पीठ पर जोर से डंडा मारा, 'अबे तू यहाँ क्या कर रहा है?'

'अबे साले - मादर...। चोरी करके कहाँ जाएगा।' पुलिस का सिपाही अपनी पर उतर आया था। उसने छोकरे को दूर तक दौड़ाया और खुद भी उसके पीछे दौड़ने लगा।

बुआ की खीस फैल गई। रसिया भी हँसा।

लेकिन सुनयना की चिंता बढ़ गई, कहीं वह छोकरा कुछ बता न दे।

घाट की सीढ़ियों, रास्ते की भीड़-भाड़ और देवी के मंदिर तक न तो पुलिस का सिपाही मिला और न ही वह छोकरा। फिर भी साथ के लोगों की नजर जूते पर न पड़ जाए, वह झोले को बगल में दबाए रही।

देवी दर्शन से ले कर परिक्रमा तक वह भूली रही कि आखिर किसलिए यहाँ आई है। उसकी चिंता में बाहर रखा झोला था। सभी लोगों के सामान की रखवाली अब रसिया कर रहा था। स्वभाव से मजाकिया - क्या पता झोला उठा कर देखने ही लगे। सुनयना घबरा उठी। मंदिर से भागी-भागी बाहर आई, झोला पूर्ववत था। रसिया किसी साधू का भजन सुनने में मशगूल था। सुनयना के दिल को तसल्ली मिली लेकिन मुराद माँगना तो वह भूल ही गई। इच्छा हुई एक बार फिर लौट चले मंदिर की तरफ। लेकिन रसिया जा चुका था। सामान की रखवाली का जिम्मा अब उस पर था। वहीं बैठे-बैठे उसने देवी से माफी माँगी, फिर माँ बनने की प्रार्थना की।

काली बाग के मेले में पहुँचने तक दिन काफी चढ़ चुका था। उमस बढ़ गई थी। सभी लोग सुस्ताने के लिए एक पेड़ की छाया में जा बैठे। थोड़ी देर तक वे पेड़ की खामोशी पर भड़ास निकालते रहे। फिर अपनी-अपनी जिंदगी की रामधुन में शामिल हुए। हास-परिहास का दौर भी साथ-साथ चलता रहा।

काकी ने चमकते हुए कहा, 'हरामी गाली दे रही थी।'

'कौन?' सुनयना ने पलट कर देखा।

'जिसका साबुन गुम हुआ था।' काकी उसकी गाली पर अब भी खफा थीं।

'किसी ने चुरा लिया था क्या...।?' सुनयना में उत्सुकता थी।

'हमने', काकी ने निर्भीकता से कहा और गठरी से साबुन निकाल कर सामने रख दिया।

'महकउआ है।' रसिया की टकटकी पर काकी हँस पड़ीं।

'तुम पापिन हो?' रसिया ने मजाक में ही कह दिया।

'कौन यहाँ पुण्यात्मा बैठा है।' काकी के चेहरे पर ही नहीं, आँखों में भी गर्मी उतर आई थी।

रसिया भी चुप न रह सका, 'बुढ़ा गई तेरी अक्ल। देवी-देवता का आँगन मैला कर दिया।' काकी आग-बबूला हो उठीं। फिर ऐसी लुआठी फेंकी कि पूरा टोला ही जल उठा... 'किसने नहीं की है चोरी। तीन पुश्त तक का हाल जानती हूँ सबका।' काकी का मिजाज फड़फड़ाने लगा। इतिहास के पन्ने एक-एक कर खुलने लगे। राह चलते लोग भी ठिठकने लगे तो साथ के लोगों ने चुप्पी साध ली।

इस वार्तालाप से सुनयना को सुकून और संबल मिला। वह मन बना चुकी थी कि अब काकी को कोई नसीहत देगा तो वह भी जूता चुराने का खुलासा कर देगी। किंतु रसिया की चुप्पी और लोगों की बातचीत में वह पूछ बैठी, 'पाप का होता है?'

रसिया भी संशय में, पाप क्या होता है, कभी सोचा भी नहीं। लेकिन इतना जरूर जानता है कि कोई भी गलत काम पाप है। रसिया की राय पर सभी सहमत थे। 'गलत काम का है?' सुनयना ने जिज्ञासा से रसिया को देखा, फिर सबको।

'भौजी हठखेली मत करो। सबका मूड काकी ने वैसे ही खराब कर दिया है।' रसिया के खीज उठने पर भी काकी बुत बनी रहीं जैसे सुनयना ही अब उसकी वकील हो।

'सच्चे... हठखेली नहीं कर रही हूँ। पर तुम्हीं सब बताओ गलत काम का होता है? काकी ने बाल धोने को साबुन चुरा लिया तो कौन सी गलती कर दी। किसी का खजाना लूट कर अपना घर तो नहीं भरा।'

'यही तो बात है भौजी, कोई भी चोरी पाप है चाहे वह सुई की ही क्यों न हो।' काकी को अपनी गलती का एहसास दिलाने के लिए रसिया ने ऊँची आवाज में कहा।

बुआ ने भी फिकरा कसा, 'उसके साबुन से कितने दिन नहाएँगी।'

काकी को बात लग गई। उँगलियाँ चटखाने और चिल्लाने के बजाय सुनयना के नजदीक खिसक आईं। अपनी तरफ से वकालत करते देख काकी का दिल सुनयना के करीब हो चुका था। आँखों से ढुरकते आँसुओं को पोछते हुए बोलीं, 'तुम भी सुन लो दुलहिन - मैं पापिन हूँ। पर यह कोई नहीं पूछता कैसे जी रही हूँ। जब से तेरे काका मरे, तब से आज तक इस सिर को...।' काकी ने अपनी लटों को आगे कर दिया, 'तेल और साबुन मयस्सर नहीं हुआ। बेटे-बहू तो रोटी खिलाने में ही अहसान जताते हैं। नहाने कैसे आई हूँ कोई नहीं पूछेगा।'

'बेटों को ही कौन सा सिंहासन मिला है।' काकी की बात उचित होते हुए भी दोष सिर्फ लड़कों को ही नहीं दिया जा सकता, रसिया ने सोचा।

सुनयना को काकी के साथ गाँव-जवार की कई और बूढ़ी औरतें याद आ गईं। सबकी जिंदगी का अँधेरा उसकी आँखों के सामने था। उसे काकी की तरह रोने की आवाज सब तरफ सुनाई दी। वह काँप उठी, खुद के जीवन का अंतिम दृश्य जैसे सामने हो। वह सड़क की तरफ देखने लगी। सड़क पर चल रहे धूल सने पाँव, पसीने से भीगी देह, सिर पर गठरियाँ... उन गठरियों में जाने क्या होगा? काकी का चुराया हुआ साबुन या मेरा यह जूता...। जूते का खयाल फिर आ गया। मन के किसी हिस्से में छिपा हुआ अपराध-बोध जैसे लाग-डाट कर रहा था। ...वे अमीर लोग, फिर जूता खरीद लेंगे। मालिक, नौकर, टोनी, थुलथुल औरतें और यह जूता - सभी आँखों के सामने आ खड़े हुए। उसने सिर के साथ अपने किए को झटक दिया और काकी की ओर देखने लगी। काकी की आँखों में युगों से समाई बदहाली थी। उदास चेहरे पर हमेशा से व्याप्त दरिद्रता ने सुनयना के सामने फिर एक प्रश्न खड़ा कर दिया, 'रसिया भइया, तुम्हीं बताओ अगर कोई भूखा-नंगा किसी की रोटी चुरा कर खा ले तो का वह भी पाप होगा?'

रसिया मुस्कराया। भौजी का प्रश्न बिलकुल अटपटा था। रसिया के पास एक तयशुदा उत्तर था, 'हाँ', उसने स्वीकार में सिर हिला दिया। 'चोरी तो पाप हई है।'

'कैसे?' सुनयना ने पूछा।

'उसे माँग कर ही खाना चाहिए।' रसिया ने कहा।

'माँगने पर न मिले तो?' सुनयना ने रसिया को असमंजस में डाल दिया। साथ के लोग भी सोचने लगे। प्रश्न अबूझ पहेली बन चुका था। कुछ क्षण बाद रसिया ने किसी ज्ञानी-ध्यानी की तरह आकाश की ओर आँखें उठाई, 'न देनेवाले को भगवान दंड देगा। वह सबको देख रहा है।'

सुनयना खीज गई, 'यहाँ तो भूख से मर जानेवाले की भी किसी को चिंता नहीं।' वह चाह रही थी कोई और भी उसके पक्ष में बोले।

तभी काकी ने उँगलियाँ चटखाईं, 'अरे, ऊपरवाला का दंड देगा। दुख सहते-सहते बाल पक गए। पीटनेवाले को खाट, पिटे को जमीन, यही तो देखती चली आ रही हूँ। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी सूखी-रोटी के लाले पड़े रहते हैं, काहे नहीं फट पड़ते भगवान? जाने किस अँधेरी कोठरी में पाथर बनके बैठ गए हैं... सब हवा है - हवा। फूल माला चढ़ाओ - दुख गाओ पर कोई फायदा नहीं।' साथ के लोगों ने काकी का विरोध नहीं किया। उनकी चुप्पी में काकी का दर्द शामिल था। फिर भी वे उत्तेजित नही हुए। मन से हारे हुए, कमजोर लोग थे वे।

पेड़ की पत्तियाँ हिलीं। मंद बयार बह चली। पसीने से भीगे लोगों को कुछ राहत मिली। सभी लोग काली बाग का मेला घूमने के लिए उठने लगे। जल्दी घर पहुँचने की फिक्र में काली बाग का मेला भी सुनयना को रास नहीं आ रहा था। झोले को दूसरों की नजरों से बचा कर रखना भी मुश्किल था। कुछ खरीदे बगैर भी झोला पहले से भारी दिखाई दे रहा था। जादूगरी के खेलों, झूले-हिंडोले और सर्कस में सुनयना को अब रुचि नहीं। चाट, टिककी और गोल-गप्पों के खोमचे भी उसे अपनी तरफ नहीं खींच सके। यह झोले को ही छिपाती-लुकाती रही।

बुआ की जिद पर सुनयना ने जलेबी और गट्टे खरीदे। हरफूल के लिए एक चुनौटी। अपने लिए बिंदी, सिंदूर और लाल फीता।

टोले के लोग सड़क के किनारे बनी पुलिया पर बस से उतरे तो रात हो चुकी थी। पुलिया से जुड़ी कच्ची सड़क थीं, फिर आगे जा कर सड़क से फूटती हुई पगडंडियाँ। एक पगडंडी हरिजन टोले की तरफ चली गई थी।

रसिया सबसे आगे था। जेठ में भी कजरी गाता हुआ। मौसम और राग का मेल नहीं, जरूरी है मन में उत्साह और खुशी की कोई भी धुन। काकी का खून खौल रहा था, फिर भी वे उसे चुप होने को नहीं कह सकीं। बड़बड़ाती और कोसती रहीं गर्मी को, अपनी गठिया बतास को। साथ के लोग भी रसिया के गायन से बेगौर थे, उनके थके मुरझाए चेहरों पर घर पहुँचने की चिंताभरी ललक थी। लेकिन सुनयना अपनी सफलता पर खुश थी - पैरों में मानो पंख लग गए हों।

टोले में घुसते ही लोग अपने-अपने घरों की तरफ बढ़ गए। रसिया ने मुड़ कर भौजी से सलाम करना चाहा लेकिन सुनयना पहले ही खिसक गई थी। नाराज काकी ने मुस्करा कर देखा, रसिया को हँसते हुए विदा किया।

हरफूल दरवाजे पर खड़ा मिला। सुनयना आगे बढ़ गई, उसे चिढ़ाती और अधीर करती हुई। नीम के पेड़ तले खाट पर जा बैठी। 'थक गई' उसने मानो खुद से कहा। लेकिन मन की खुशी चेहरे पर छुपाए नहीं छुप रही थी। वह हरफूल की बेचैनी और कौतूहल की थाह लेने लगी, लेकिन उसके लिए वक्त जाया करना ठीक नहीं था, न ही उतना धीरज था। हरफूल सुनयना की बगल आ बैठा, 'का हुआ, काम बन गया?'

'धत्त', सुनयना तुनक गई। 'यह नहीं पूछोगे तुम्हारे लिए क्या लाई हूँ?' उसने इठलाते हुए कहा।

'का लाई हो?' हरफूल की निगाहें झोले पर जा टिकीं। झोला अभी भी उसके हाथ में था।

'पैर कैसा है?' हरफूल के पैर पर घाव देख सुनयना बोल उठी।

'मवाद निकल गया, बस ठीक ही समझो।' हरफूल की लापरवाही पर सुनयना नाराज हुई। पहले मवाद पोंछा, फिर पट्टी की। 'अब कभी तुम्हें चोट नहीं लगेगी। देखो, तुम्हारे लिए क्या लाई हूँ।'

उसने एक-एक करके झोले से चुनौटी, फीता, गट्टा और जलेबी निकाली, फिर जूता। जूते पर ठहरी हरफूल की उत्सुकता पर सुनयना मेले की रामकहानी सुनाने लगी।

हरफूल ने चुनौटी जेब के हवाले की। गट्टा एक खुद खाया, एक सुनयना के मुँह में ठूँस दिया। फिर लाल फीते का फूल बना कर पत्नी की चोटी में सजा दिया। अंत में उसने जूतों में पैर डाले - 'अरे, ये तो मेरे लिए ही बने लगते हैं...

                                                                         ---अरविंद कुमार सिंह---

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

कफ़न


आनन्द ने गद्देदार कुर्सी पर बैठकर सिगार जलाते हुए कहा-आज विशम्भर ने कैसी हिमाकत की! इम्तहान करीब है और आप आज वालण्टियर बन बैठे। कहीं पकड़ गये, तो इम्तहान से हाथ धोएँगे। मेरा तो खयाल है कि वजीफ़ा भी बन्द हो जाएगा।

सामने दूसरे बेंच पर रूपमणि बैठी एक अखबार पढ़ रही थी। उसकी आँखें अखबार की तरफ थीं; पर कान आनन्द की तरफ लगे हुए थे। बोली-यह तो बुरा हुआ। तुमने समझाया नहीं? आनन्द ने मुँह बनाकर कहा-जब कोई अपने को दूसरा गाँधी समझने लगे, तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है। वह उलटे मुझे समझाने लगता है।

रूपमणि ने अखबार को समेटकर बालों को सँभालते हुए कहा-तुमने मुझे भी नहीं बताया, शायद मैं उसे रोक सकती।

आनन्द ने कुछ चिढक़र कहा-तो अभी क्या हुआ, अभी तो शायद काँग्रेस आफिस ही में हो। जाकर रोक लो।

आनन्द और विशम्भर दोनों ही यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी; विशम्भर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटा-सा वजीफा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं के समकक्ष थी; पर इस साल उसने कालेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभी-कभी उससे मिलने आते रहते थे। आनन्द आता था। उसका हृदय लेने के लिए, विशम्भर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी विपत्ति-कथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था; ज़लील करता था और बेवकूफ बनाता था। विशम्भर में उससे बहस करने की सामथ्र्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या? आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था। और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशम्भर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को ढाला; पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय विद्रोह करता रहा। बेशक उसका यह साल खराब हो जाएगा। सम्भव है, छात्र-जीवन ही का अन्त हो जाए, फिर इस १४-१५ वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा न खुदा ही मिलेगा, न सनम का विसाल ही नसीब होगा। आग में कूदने से क्या फायदा। यूनिवर्सिटी में रहकर भी तो बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है। आनन्द महीने में कुछ-न-कुछ चन्दा जमा करा देता है, दूसरे छात्रों से स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है। विशम्भर को भी आनन्द ने यही सलाह दी। इस तर्क ने उसकी बुद्धि को तो जीत लिया, पर उसके मन को न जीत सका। आज जब आनन्द कालेज गया तो विशम्भर ने स्वराज्य-भवन की राह ली। आनन्द कालेज से लौटा तो उसे अपनी मेज पर विशम्भर का पत्र मिला। लिखा था-

प्रिय आनन्द,

मैं जानता हूँ कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूँ वह मेरे लिए हितकर नहीं है; पर न जाने कौन-सी शक्ति मुझे खींचे लिये जा रही है। मैं जाना नहीं चाहता, पर जाता हूँ, उसी तरह जैसे आदमी मरना नहीं चाहता, पर मरता है; रोना नहीं चाहता, पर रोता है। जब सभी लोग, जिन पर हमारी भक्ति है, ओखली में अपना सिर डाल चुके थे, तो मेरे लिए भी अब कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मैं अब और अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकता। यह इज्जत का सवाल है, और इज्जत किसी तरह का समझौता (compromise) नहीं कर सकती।

तुम्हारा-‘विशम्भर’

ख़त पढक़र आनन्द के जी में आया, कि विशम्भर को समझाकर लौटा लाये; पर उसकी हिमाक़त पर गुस्सा आया और उसी तैश में वह रूपमणि के पास जा पहुँचा। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती-जाकर उसे लौटा लाओ, तो शायद वह चला जाता, पर उसका यह कहना कि मैं उसे रोक लेती, उसके लिए असह्य था। उसके जवाब में रोष था, रुखाई थी और शायद कुछ हसद भी था।

रूपमणि ने गर्व से उसकी ओर देखा और बोली-अच्छी बात है, मैं जाती हूँ।

एक क्षण के बाद उसने डरते-डरते पूछा-तुम क्यों नहीं चलते?

फिर वही गलती। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती तो आनन्द जरूर उसके साथ चला जाता, पर उसके प्रश्न में पहले ही यह भाव छिपा था, कि आनन्द जाना नहीं चाहता। अभिमानी आनन्द इस तरह नहीं जा सकता। उसने उदासीन भाव से कहा-मेरा जाना व्यर्थ है। तुम्हारी बातों का ज्यादा असर होगा। मेरी मेज पर यह ख़त छोड़ गया था। जब वह आत्मा और कर्तव्य और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें सोच रहा है और अपने को भी कोई ऊँचे दरजे का आदमी समझ रहा है, तो मेरा उस पर कोई असर न होगा।

उसने जेब से पत्र निकालकर रूपमणि के सामने रख दिया। इन शब्दों में जो संकेत और व्यंग्य था, उसने एक क्षण तक रूपमणि को उसकी तरफ देखने न दिया। आनन्द के इस निर्दय प्रहार ने उसे आहत-सा कर दिया था; पर एक ही क्षण में विद्रोह की एक चिनगारी-सी उसके अन्दर जा घुसी। उसने स्वच्छन्द भाव से पत्र को लेकर पढ़ा। पढ़ा सिर्फ आनन्द के प्रहार का जवाब देने के लिए; पर पढ़ते-पढ़ते उसका चेहरा तेज से कठोर हो गया, गरदन तन गयी, आँखों में उत्सर्ग की लाली आ गयी।

उसने मेज पर पत्र रखकर कहा-नहीं, अब मेरा जाना भी व्यर्थ है।

आनन्द ने अपनी विजय पर फूलकर कहा-मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया, इस वक्त उसके सिर पर भूत सवार है, उस पर किसी के समझाने का असर न होगा। जब साल भर जेल में चक्की पीस लेंगे और वहाँ तपेदिक लेकर निकलेंगे, या पुलिस के डण्डों से सिर और हाथ-पाँव तुड़वा लेंगे, तो बुद्धि ठिकाने आवेगी। अभी तो जयजयकार और तालियों के स्वप्न देख रहे होंगे।

रूपमणि सामने आकाश की ओर देख रही थी। नीले आकाश में एक छायाचित्र-सा नजर आ रहा था-दुर्बल, सूखा हुआ नग्न शरीर, घुटनों तक धोती, चिकना सिर, पोपला मुँह, तप, त्याग और सत्य की सजीव मूर्ति।

आनन्द ने फिर कहा-अगर मुझे मालूम हो, कि मेरे रक्त से देश का उद्धार हो जाएगा, तो मैं आज उसे देने को तैयार हूँ; लेकिन मेरे जैसे सौ-पचास आदमी निकल ही आएँ, तो क्या होगा? प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीखता।

रूपमणि अब भी वही छायाचित्र देख रही थी। वही छाया मुस्करा रही थी, सरल मनोहर मुस्कान, जिसने विश्व को जीत लिया है।

आनन्द फिर बोला-जिन महाशयों को परीक्षा का भूत सताया करता है, उन्हें देश का उद्धार करने की सूझती है। पूछिए, आप अपना उद्धार तो कर ही नहीं सकते, देश का क्या उद्धार कीजिएगा? इधर फेल होने से उधर के डण्डे फिर भी हलके हैं।

रूपमणि की आँखें आकाश की ओर थीं। छायाचित्र कठोर हो गया था।

आनन्द ने जैसे चौंककर कहा-हाँ, आज बड़ी मजेदार फिल्म है। चलती हो? पहले शो में लौट आएँ।

रूपमणि ने जैसे आकाश से नीचे उतरकर कहा-नहीं, मेरा जी नहीं चाहता।

आनन्द ने धीरे से उसका हाथ पकडक़र कहा-तबीयत तो अच्छी है? रूपमणि ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। बोली-हाँ, तबीयत में हुआ क्या है?

‘तो चलती क्यों नहीं?’

‘आज जी नहीं चाहता।’

‘तो फिर मैं भी न जाऊँगा।’

‘बहुत ही उत्तम, टिकट के रुपये काँग्रेस को दे दो।’

‘यह तो टेढ़ी शर्त है; लेकिन मंजूर!’

‘कल रसीद मुझे दिखा देना।’

‘तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास नहीं?’

आनन्द होस्टल चला। जरा देर बाद रूपमणि स्वराज्य-भवन की ओर चली।



रूपमणि स्वराज्य-भवन पहुँची, तो स्वयंसेवकों का एक दल विलायती कपड़े के गोदामों को पिकेट करने जा रहा था। विशम्भर दल में न था।

दूसरा दल शराब की दूकानों पर जाने को तैयार खड़ा था। विशम्भर इसमें भी न था।

रूपमणि ने मन्त्री के पास आकर कहा-आप बता सकते हैं, विशम्भर नाथ कहाँ हैं?

मन्त्री ने पूछा-वही, जो आज भरती हुए हैं?

‘जी हाँ, वही।’

‘बड़ा दिलेर आदमी है। देहातों को तैयार करने का काम लिया है। स्टेशन पहुँच गया होगा। सात बजे की गाड़ी से जा रहा है।’

‘तो अभी स्टेशन पर होंगे।’

मन्त्री ने घड़ी पर नजर डालकर जवाब दिया-हाँ, अभी तो शायद स्टेशन पर मिल जाएँ।

रूपमणि ने बाहर निकलकर साइकिल तेज की। स्टेशन पर पहुँची, तो देखा, विशम्भर प्लेटफार्म पर खड़ा है।

रूपमणि को देखते ही लपककर उसके पास आया और बोला-तुम यहाँ कैसे आयी। आज आनन्द से तुम्हारी मुलाकात हुई थी?

रूपमणि ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा-यह तुमने क्या सूरत बना रखी है? क्या पाँव में जूता पहनना भी देशद्रोह है?

विशम्भर ने डरते-डरते पूछा-आनन्द बाबू ने तुमसे कुछ कहा नहीं?

रूपमणि ने स्वर को कठोर बनाकर कहा-जी हाँ, कहा। तुम्हें यह क्या सूझी? दो साल से कम के लिए न जाओगे!

विशम्भर का मुँह गिर गया। बोला-जब यह जानती हो, तो क्या तुम्हारे पास मेरी हिम्मत बाँधने के लिए दो शब्द नहीं हैं?

रूपमणि का हृदय मसोस उठा; मगर बाहरी उपेक्षा को न त्याग सकी। बोली-तुम मुझे दुश्मन समझते हो, या दोस्त।

विशम्भर ने आँखों में आँसू भरकर कहा-तुम ऐसा प्रश्न क्यों करती हो रूपमणि? इसका जवाब मेरे मुँह से न सुनकर भी क्या तुम नहीं समझ सकतीं?

रूपमणि-तो मैं कहती हूँ, तुम मत जाओ।

विशम्भर-यह दोस्त की सलाह नहीं है रूपमणि! मुझे विश्वास है, तुम हृदय से यह नहीं कह रही हो। मेरे प्राणों का क्या मूल्य है, जरा यह सोचो। एम०ए० होकर भी सौ रुपये की नौकरी। बहुत बढ़ा तो तीन-चार सौ तक जाऊँगा। इसके बदले यहाँ क्या मिलेगा, जानती हो? सम्पूर्ण देश का स्वराज्य। इतने महान् हेतु के लिए मर जाना भी उस जिन्दगी से कहीं बढक़र है। अब जाओ, गाड़ी आ रही है। आनन्द बाबू से कहना, मुझसे नाराज न हों।

रूपमणि ने आज तक इस मन्दबुद्धि युवक पर दया की थी। इस समय उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया। त्याग में हृदय को खींचने की जो शक्ति है, उसने रूपमणि को इतने वेग से खींचा कि परिस्थितियों का अन्तर मिट-सा गया। विशम्भर में जितने दोष थे, वे सभी अलंकार बन-बनकर चमक उठे। उसके हृदय की विशालता में वह किसी पक्षी की भाँति उड़-उडक़र आश्रय खोजने लगी।

रूपमणि ने उसकी ओर आतुर नेत्रों से देखकर कहा-मुझे भी अपने साथ लेते चलो।

विशम्भर पर जैसे घड़ों का नशा चढ़ गया।

‘तुमको? आनन्द बाबू मुझे जिन्दा न छोड़ेंगे!’

‘मैं आनन्द के हाथों बिकी नहीं हूँ!’

‘आनन्द तो तुम्हारे हाथों बिके हुए हैं?’

रूपमणि ने विद्रोह भरी आँखों से उसकी ओर देखा, पर कुछ बोली नहीं। परिस्थितियाँ उसे इस समय बाधाओं-सी मालूम हो रही थीं। वह भी विशम्भर की भाँति स्वछन्द क्यों न हुई? सम्पन्न माँ-बाप की अकेली लडक़ी, भोग-विलास में पली हुई, इस समय अपने को कैदी समझ रही थी। उसकी आत्मा उन बन्धनों को तोड़ डालने के लिए जोर लगाने लगी।

गाड़ी आ गयी। मुसाफिर चढऩे-उतरने लगे। रूपमणि ने सजल नेत्रों से कहा-तुम मुझे नहीं ले चलोगे?

विशम्भर ने दृढ़ता से कहा-नहीं।

‘क्यों?’

‘मैं इसका जवाब नहीं देना चाहता!’

‘क्या तुम समझते हो, मैं इतनी विलासासक्त हूँ कि मैं देहात में रह नहीं सकती?’

विशम्भर लज्जित हो गया। यह भी एक बड़ा कारण था, पर उसने इनकार किया-नहीं, यह बात नहीं।

‘फिर क्या बात है? क्या यह भय है, पिताजी मुझे त्याग देंगे?’

‘अगर यह भय हो तो क्या वह विचार करने योग्य नहीं?’

‘मैं उनकी तृण बराबर परवा नहीं करती।’

विशम्भर ने देखा, रूपमणि के चाँद-से मुख पर गर्वमय संकल्प का आभास था। वह उस संकल्प के सामने जैसे काँप उठा। बोला-मेरी यह याचना स्वीकर करो, रूपमणि, मैं तुमसे विनती करता हूँ।

रूपमणि सोचती रही।

विशम्भर ने फिर कहा-मेरी खातिर तुम्हें यह विचार छोडऩा पड़ेगा।

रूपमणि ने सिर झुकाकर कहा-अगर तुम्हारा यह आदेश है, तो मैं मानूँगी विशम्भर! तुम दिल से समझते हो, मैं क्षणिक आवेश में आकर इस समय अपने भविष्य को गारत करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें दिखा दूँगी, यह मेरा क्षणिक आवेश नहीं है, दृढ़ संकल्प है। जाओ; मगर मेरी इतनी बात मानना कि कानून के पंजे में उसी वक्त आना, जब आत्माभिमान या सिद्धान्त पर चोट लगती हो। मैं ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती रहूँगी।

गाड़ी ने सीटी दी। विशम्भर अन्दर जा बैठा। गाड़ी चली, रूपमणि मानो विश्व की सम्पत्ति अंचल में लिये खड़ी रही।



रूपमणि के पास विशम्भर का एक पुराना रद्दी-सा फोटो आल्मारी के एक कोने में पड़ा हुआ था। आज स्टेशन से आकर उसने उसे निकाला और उसे एक मखमली फ्रेम में लगाकर मेज पर रख दिया। आनन्द का फोटो वहाँ से हटा दिया गया।

विशम्भर ने छुट्टियों में उसे दो-चार पत्र लिखे थे। रूपमणि ने उन्हें पढक़र एक किनारे डाल दिये थे। आज उसने उन पत्रों को निकाला और उन्हें दोबारा पढ़ा। उन पत्रों में आज कितना रस था। वह बड़ी हिफाजत से राइटिंग-बाक्स में बन्दकर दिये गये।

दूसरे दिन समाचारपत्र आया तो रूपमणि उस पर टूट पड़ी। विशम्भर का नाम देखकर वह गर्व से फूल उठी।

दिन में एक बार स्वराज्य-भवन जाना उनका नियम हो गया। ज़लसों में भी बराबर शरीक होती, विलास की चीजें एक-एक करके सब फेंक दी गयीं। रेशमी साडिय़ों की जगह गाढ़े की साडिय़ाँ आयीं। चरखा भी आया। वह घण्टों बैठी सूत काता करती। उसका सूत दिन-दिन बारीक होता जाता था। इसी सूत से वह विशम्भर के कुरते बनवाएगी।

इन दिनों परीक्षा की तैयारियाँ थीं। आनन्द को सिर उठाने की फुरसत न मिलती। दो-एक बार वह रूपमणि के पास आया; पर ज्यादा देर बैठा नहीं शायद रूपमणि की शिथिलता ने उसे ज्यादा बैठने ही न दिया।

एक महीना बीत गया।

एक दिन शाम आनन्द आया। रूपमणि स्वराज्य-भवन जाने को तैयार थी। आनन्द ने भवें सिकोडक़र कहा-तुमसे तो अब बातें भी मुश्किल हैं।

रूपमणि ने कुर्सी पर बैठकर कहा-तुम्हें भी तो किताबों से छुट्टी नहीं मिलती। आज की कुछ ताजी खबर नहीं मिली। स्वराज्य-भवन में रोज-रोज का हाल मालूम हो जाता है।

आनन्द ने दार्शनिक उदासीनता से कहा-विशम्भर ने तो सुना, देहातों में खूब शोरगुल मचा रखा है। जो काम उसके लायक था, वह मिल गया। यहाँ उसकी जबान बन्द रहती थी। वहाँ देहातियों में खूब गरजता होगा; मगर आदमी दिलेर है।

रूपमणि ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा; जो कह रही थीं; तुम्हारे लिए यह चर्चा अनधिकार चेष्टा है, और बोली-आदमी में अगर यह गुण है तो फिर उसके सारे अवगुण मिट जाते हैं। तुम्हें काँग्रेस बुलेटिन पढ़ने की क्यों फुरसत मिलती होगी। विशम्भर ने देहातों में ऐसी जागृति फैला दी है कि विलायती का एक सूत भी नहीं बिकने पाता और न नशे की दूकानों पर कोई जाता है। और मजा यह है कि पिकेटिंग करने की जरूरत नहीं पड़ती। अब तो पंचायतें खोल रहे हैं।

आनन्द ने उपेक्षा भाव से कहा-तो समझ लो, अब उनके चलने के दिन भी आ गये हैं।

रूपमणि ने जोश से कहा-इतना करके जाना बहुुत सस्ता नहीं है। कल तो किसानों का एक बहुत बड़ा जलसा होने वाला था। पूरे परगने के लोग जमा हुए होंगे। सुना है, आजकल देहातों से कोई मुकदमा ही नहीं आता। वकीलों की नानी मरी जा रही है।

आनन्द ने कड़वेपन से कहा-यही तो स्वराज्य का मजा है कि जमींदार, वकील और व्यापारी सब मरें। बस, केवल मजदूर और किसान रह जाएँ।

रूपमणि ने समझ लिया, आज आनन्द तुलकर आया है। उसने भी जैसे आस्तीन चढ़ाते हुए कहा-तो तुम क्या चाहते हो कि जमींदार और वकील और व्यापारी गरीबों को चूस-चूसकर मोटे होते जाएँ और जिन सामाजिक व्यवस्थाओं में ऐसा महान् अन्याय हो रहा है, उनके खिलाफ जबान तक न खोली जाए? तुम तो समाजशास्त्र के पण्डित हो। क्या किसी अर्थ में यह व्यवस्था आदर्श कही जा सकती है? सभ्यता के तीन मुख्य सिद्धान्तों का ऐसी दशा में किसी न्यूनतम मात्रा में भी व्यवहार हो सकता है?

आनन्द ने गर्म होकर कहा-शिक्षा और सम्पत्ति का प्रभुत्व हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा। हाँ, उसका रूप भले ही बदल जाए।

रूपमणि ने आवेश से कहा-अगर स्वराज्य आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूँगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेजी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी हैं? कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाएँ। मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल सके।

आनन्द-यह तुम्हारी निज की कल्पना होगी।

रूपमणि-तुमने अभी इस आन्दोलन का साहित्य पढ़ा ही नहीं।

आनन्द-न पढ़ा है, न पढऩा चाहता हूँ।

रूपमणि-इससे राष्ट्र की कोई बड़ी हानि न होगी।

आनन्द-तुम तो जैसे वह रही ही नहीं। बिलकुल काया-पलट हो गयी।

सहसा डाकिए ने काँग्रेस बुलेटिन लाकर मेज पर रख दिया। रूपमणि ने अधीर होकर उसे खोला। पहले शीर्षक पर नजर पड़ते ही उसकी आँखों में जैसे नशा छा गया। अज्ञात रूप से गर्दन तन गयी और चेहरा एक अलौकिक तेज से दमक उठा।

उसने आवेश में खड़ी होकर कहा-विशम्भर पकड़ लिए गये और दो साल की सजा हो गयी।

आनन्द ने विरक्त मन से पूछा-किस मुआमले में सजा हुई?

रूपमणि ने विशम्भर के फोटो को अभिमान की आँखों से देखकर कहा-रानीगंज में किसानों की विराट् सभा थी। वहीं पकड़ा है।

आनन्द-मैंने तो पहले ही कहा था, दो साल के लिए जाएँगे। जिन्दगी खराब कर डाली।

रूपमणि ने फटकार बतायी-क्या डिग्री ले लेने से ही आदमी का जीवन सफल हो जाता है? सारा ज्ञान, सारा अनुभव पुस्तकों ही में भरा हुआ है। मैं समझती हूँ, संसार और मानवी चरित्र का जितना अनुभव विशम्भर को दो सालों में हो जाएगा, उतना दर्शन और कानून की पोथियों से तुम्हें दो सौ वर्षों में भी न होगा। अगर शिक्षा का उद्देश्य चरित्रबल मानो, तो राष्ट्र-संग्राम में मनोबल के जितने साधन हैं, पेट के संग्राम में कभी हो ही नहीं सकते। तुम यह कह सकते हो कि हमारे लिए पेट की चिन्ता ही बहुत है, हमसे और कुछ हो ही नहीं सकता, हममें न उतना साहस है, न बल है, न धैर्य है, न संगठन, तो मैं मान जाऊँगी; लेकिन जातिहित के लिए प्राण देने वालों को बेवकूफ बनाना मुझसे नहीं सहा जा सकता। विशम्भर के इशारे पर आज लाखों आदमी सीना खोलकर खड़े हो जाएँगे। तुममें है जनता के सामने खड़े होने का हौसला? जिन लोगों ने तुम्हें पैरों के नीचे कुचल रखा है, जो तुम्हें कुत्तों से भी नीचे समझते हैं, उन्हीं की गुलामी करने के लिए तुम डिग्रियों पर जान दे रहे हो। तुम इसे अपने लिए गौरव की बात समझो, मैं नहीं समझती।

आनन्द तिलमिला उठा। बोला-तुम तो पक्की क्रान्तिकारिणी हो गयीं इस वक्त।

रूपमणि ने उसी आवेश में कहा-अगर सच्ची-खरी बातों में तुम्हें क्रान्ति की गन्ध मिले, तो मेरा दोष नहीं।

‘आज विशम्भर को बधाई देने के लिए जलसा जरूर होगा। क्या तुम उसमें जाओगी?’

रूपमणि ने उग्रभाव से कहा-जरूर जाऊँगी, बोलूँगी भी, और कल रानीगंज भी चली जाऊँगी। विशम्भर ने जो दीपक जलाया है, वह मेरे जीते-जी बुझने न पाएगा।

आनन्द ने डूबते हुए आदमी की तरह तिनके का सहारा लिया-अपनी अम्माँ और दादा से पूछ लिया है?

‘पूछ लूँगी!’

और वह तुम्हें अनुमति भी दे देंगे?’

सिद्धान्त के विषय में अपनी आत्मा का आदेश सर्वोपरि होता है।’

‘अच्छा, यह नयी बात मालूम हुई।’

यह कहता हुआ आनन्द उठ खड़ा हुआ और बिना हाथ मिलाये कमरे के बाहर निकल गया। उसके पैर इस तरह लडख़ड़ा रहे थे, कि अब गिरा, अब गिरा।

                                                                                  ---प्रेमचंद---

मेरी पहली रचना


उस वक्त मेरी उम्र कोई १३ साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं० रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों-हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था। स्व० हजरत रियाज़ ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहान्त हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उस जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व० मौलाना सज्जाद हुसेन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का अनुवाद ‘धोखा’ या ‘तिलस्मी फ़ानूस’ के नाम से किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं और पं० रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति न होती थी। उनकी सारी रचनाएँ मैंने पढ़ डालीं। उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर ही के मिशन स्कूल में आठवें में पढ़ता था, जो तीसरा दरजा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दूकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था; मगर दूकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान से अँग्रेजी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लडक़ों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दूकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टाक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलस्मी होशरुबा’ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद् तिलस्मी ग्रन्थ के १७ भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपररायल के आकार के दो-दो हज़ार पृष्ठों से कम न होगा। और इन १७ भागों के उपरान्त उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रन्थ की रचना की, उसकी कल्पना-शक्ति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है। कहते हैं, ये कथाएँ मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं। इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता; लेकिन इतनी वृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो। पूरी एंसाइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने ६० वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता। रचना तो दूसरी बात है।

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहाँ आया करते थे। अधेड़ हो गये थे; लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे। पास में थोड़ी-सी जमीन थी, मकान था, लेकिन घरनी के बिना सब कुछ सूना था। इसलिए घर पर जी नहीं लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे, और सबसे यही आशा रखते थे, कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके लिए सौ-दो-सौ खर्च करने को भी तैयार थे। क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे-खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूँछें, औसत कद, साँवला रंग। गाँजा पीते थे, इससे आँखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे। और माँस मछली नहीं खाते थे।

आख़िर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं। एक चमारिन के नयन-बाणों से घायल हो गये। वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी, और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भाँति प्रसन्न मुख और विनोदनी थी। ‘एक समय सखि सुअरि सुन्दरि’ वाली बात थी। मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गयी। ऐसी अल्हड़ न थी। और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पडऩे लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आँखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आयी, और काम में ढिलाई भी शुरू हुई। कभी दोपहर को आयी और झलक दिखाकर चली गयी, कभी साँझ को आयी और एक तीर चलाकर चली गयी। बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहाँ तो अब प्रेम उदय हो गया था। होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी; मगर अबकी गजी की साड़ी न थी, खूबसूरत-सी सवा दो रुपये की चुँदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी दी। और यह सिलसिला यहाँ तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गयी।

एक दिन सन्ध्या-समय चमारों ने आपस में पंचायत की। बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे! एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा, (हालाँकि यह सरासर ग़लत था) और एक यह हैं कि नीच जाति की बहू-बेटियों पर भी डोरे डालते हैं! समझाने-बुझाने का मौका न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उलटे और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके कलम घुमाने की तो देर है। इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज्जत का बदला खून ही चुकाता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है।

दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर में आयी तो उन्होंने अन्दर का द्वार बन्द कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाय, कुल मरजाद रहे या जाय, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बन्द हुए, उधर उन्होंने द्वार खटखटाना शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई असामी मिलने आया होगा, किवाड़ बन्द पाकर लौट जाएगा; लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाये। जाकर किवाड़ों की दराज से झाँका। कोई बीस-पचीस चमार लाठियाँ लिए द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोडऩे की चेष्टा कर रहे थे। अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गये कि शामत आ गयी। आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते। उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी-तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गयी। घर वाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बन्द न करो, हाथ-पाँव जोड़ती थी, मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आये थे। कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता; लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गयी। बरौठ में थर-थर काँपते ‘हनुमान-चालीसा’ का पाठ करते हुए खड़े थे। कुछ न सूझता था।

और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था, यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया। बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुँचे। इससे ज्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवद्र्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द एक औरत के साथ घर में बन्द पाया जाए! फिर वह चाहे कितना ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती। बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गये और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले। चम्पा आँगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहाँ जाते? वह जानते थे, उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पडऩे लगी और बेभाव की पडऩे लगी। जिसके हाथ जो कुछ लगा-जूता, छड़ी, छाता, लात, घँूसा अस्त्र चले। यहाँ तक मामू साहब बेहोश हो गये और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझकर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गये, तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टीदारों के हाथ आएगी।

इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहाँ भी पहुँची। मैंने भी उसका खूब आनन्द उठाया। पिटते समय उनकी रूप-रेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हँसी आयी।

एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्योंही चलने-फिरने लायक हुए, हमारे यहाँ आये। यहाँ अपने गाँव वालों पर डाके का इस्तग़ासा दायर करना चाहते थे।

अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखायी होती, तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती; लेकिन उनका वही दम-खम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगडऩा और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था! अब तो मेरे पास उन्हें नीचा दिखाने के लिए काफी मसाला था!

आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनायी। सब-के-सब खूब हँसे। मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ-साफ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया। दिल में कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था। सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढक़र मामू साहब क्या कहते हैं। स्कूल में जी न लगता था। दिल उधर ही टँगा हुआ था। छुट्टी होते ही घर चला गया। मगर द्वार के समीप आकर पाँव रुक गये। भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें; लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लडक़ों में न था।

मगर यह मामला क्या है! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहाँ वह नित्य लेटे हुए मिलते थे। क्या घर चले गये? आकर कमरा देखा वहाँ भी सन्नाटा। मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता। अन्दर जाकर पूछा। मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गये। भोजन तक नहीं किया।

मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा मगर मेरा ड्रामा-मेरी वह पहली रचना-कहीं न मिली। मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गये?

                                                                                  ---प्रेमचंद---

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

किराए पर सब कुछ


घर का सारा काम अब बहुउद्देशीय सेवा केंद्र (मल्टीपरपज सर्विसेज सेंटर) नामक एजेंसी के द्वारा संपन्न होने लगा था। प्रेरणा खिन्न थी... अन्यमनस्क थी। अभिराम केडिया अपने होलसेल मेडिकल शॉप से देर रात में आने पर यांत्रिक ढंग से खाने-पीने के बाद बस एक ही काम करता था... रात में उसके साथ सोने का। प्रेरणा कभी-कभी सोच जाती थी कि कल कहीं यह काम भी एजेंसी के हवाले न कर दिया जाए और उसे अपने पति की जगह मल्टीपरपस के किसी लड़के के साथ रात गुजारना पड़े। अभिराम की जिस तरह व्यापार में संलिप्तता बढ़ती जा रही थी और उसके शरीर के आयतन में गुणात्मक परिवर्तन होने लगा था कि यह खतरा भी असंभव जैसा नहीं रह गया था।

कल फुन्नू की गेंद खेलते वक्त दाहिने हाथ की कोहनी किसी टूटी हुई टहनी की तरह झूल गई। प्रेरणा एकदम नर्वस सी हो गई, फिर भी दुकान पर फोन करना उचित नहीं समझा। क्या फायदा ? वह आदमी अपनी गद्दी-गल्ला छोड़ कर आनेवाला तो है नहीं। बहुत हुआ तो टेलीफोन पर ही उसे कोसने, डाँटने और हिदायत देने का काम करने लगेगा, 'ध्यान नहीं रखती हो ठीक से...पता नहीं घर में क्या करती रहती हो दिन भर? अब बैठ कर रोती मत रहो...ले जाओ उसे गुप्ता नर्सिंग होम में। खुद से नहीं जा सकती तो मल्टीपरपज में रिंग करके किसी को बुला लो।'

प्रेरणा यह स्टीरियो भाषण सुनने में समय क्यों जाया करती। उसने खुद ही मल्टीपरपज में फोन कर दिया। एक ऑटो ले कर फौरन एक लड़का दाखिल हो गया। वह फुन्नू को उसके साथ ले कर चली गई।

रात में अभिराम लौटा तो काफी देर तक अपने बही-खाते में उलझा रह गया। दो हजार रुपए का हिसाब नहीं मिल रहा था। गुणा-भाग के बीच उसे होश ही नहीं आया कि फुन्नू के साथ आज कोई दुर्घटना भी हुई है।

प्रेरणा बस इंतजार ही करती रह गई कि बेटे को जरा दुलार-पुचकार करेगा यह आदमी। उसने खाना लगा दिया तो अनमने से वह खा कर सो गया।

प्रेरणा अपने बेटे के पास चली गई। फुन्नू अब तक जगा हुआ था और उसकी आँखें दरवाजे की तरफ ही निहार रही थीं। उसने पूछा, 'ममा, क्या डैड अब तक हिसाब-किताब में ही उलझे हुए हैं?'

'नहीं, वे सो गए। शायद काफी थके हुए थे।' बेटे का मन रखने के लिए एक बहाना गढ़ लिया प्रेरणा ने।

फुन्नू का चेहरा उतर गया और देखते ही देखते उसकी आँखों में आँसू भर आए। वह अपने को रोक न सका और अपनी माँ के गले से लग कर सिसक पड़ा।

सुबह अभिराम जब दुकान जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी एन के मल्टीपरपज सर्विसेज का एन के यानी नवल किशोर आ गया।

'अरे एन के! कैसे हो भाई? कैसा चल रहा है तुम्हारा मल्टीपरपस ?'

'बहुत अच्छा चल रहा है, केडिया साहब। अब तो इस एरिया का शायद ही कोई घर बचा हो जो अब तक मेरा कस्टमर नहीं बन गया।'

'वेरी गुड। मुझे बहुत खुशी हुई जान कर। तुम अपना कार्यक्षेत्र इतना बढ़ा लोगे, इसकी तो मुझे वाकई उम्मीद नहीं थी। मेरा तो भाई सारा काम तुम्हारे जिम्मे ही है। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि तुम्हारी एजेंसी यहाँ न शुरू होती तो शायद मेरे घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती।'

'यह मेरा सौभाग्य है, केडिया साहब। अच्छा, फुन्नू कैसा है ? दर्द तो बहुत रहा होगा रात में। गोली खाने से नींद तो आ गई होगी उसे। डॉक्टर ने बताया कि मेजर कंपाउंड फ्रैक्चर है...लेकिन बच्चा है इसलिए हड्डी जुड़ जाएगी। मुझसे रहा न गया और मैं उसे देखने चला आया।'

एक सेकेंड के लिए तिलमिला गया अभिराम केडिया। उफ! उसकी मानसिक दशा क्यों इस तरह है कि रात में इस बारे में पूछने का उसे जरा भी ध्यान न रहा। उसने खुद को संभालते हुए कहा, 'जा कर देख लो अंदर।'

नवल अंदर चला गया। अभिराम एक खीज से भर उठा। इस औरत से इतना नहीं हुआ कि उसे जरा याद दिला दे। मनहूस की तरह भीतर ही भीतर घुमड़ते रहती है। इतना भी नहीं समझती कि मैं जो कर रहा हूँ...कमा रहा हूँ, सब उसी के लिए है। बिजनेस में आजकल कितनी प्रतिस्पर्धा हो गई है, यह बताने से भी इसे समझ में नहीं आता।

वह दुकान के लिए बिल-वाउचर-बही आदि समेटने लगा। एन के अंदर से देख कर फिर ड्राइंग हॉल में आ गया। कहने लगा, 'आपका यह फुन्नू बहुत भावुक और होशियार है, केडिया साहब। मुझे देखते ही रो पड़ा और कहने लगा कि आपने जिस तरह प्यार-दुलार दे कर संभाला है अंकल, उसे मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा।'

क्षण भर के लिए एक अपराध बोध उसके भीतर किसी पिन की तरह चुभ गया - सचमुच, चाहे कितनी भी भौतिक सुविधाओं से भरा हो आदमी, लेकिन प्यार-दुलार और जज्बात का हाशिया जीवन में बना ही रहता है। उसने बात बदलते हुए कहा, 'अपना बिल लाए हो एन के?'

'नहीं सर। आपसे बिल लेने की मुझे कोई जल्दी नहीं रहती। मैं बाद में भिजवा दूंगा। इस समय तो मैं सचमुच फुन्नू को देखने आया हूँ और आ गया हूँ तो सोचता हूँ कि एक और जरूरी काम निपटाता जाऊँ। अपने हाथों से मुझे आपको यह निमंत्रण पत्र देना है। मैंने अपना एक घर बनाया है...अगले सप्ताह सोमवार को गृहप्रवेश का रस्म पूरा करना है। इस अवसर पर आपको मेरा सबसे खास मेहमान हो कर आना है। डिनर का शुभारंभ आपको ही करना है।'

अभिराम अविश्वास से एन के का मुँह देखता रह गया। जब यह लड़का उससे मिला था तो दो जून की रोटी का इंतजाम भी इसके पास नहीं था। उसकी दुकान में कैसा भी रूखा-सूखा काम देने के लिए निहोरा कर रहा था। इसकी एमएससी की डिग्री देख कर अभिराम के अन्तर्मन ने स्वीकार नहीं किया कि उसे एक छोटे-मोटे काम में लगा कर उसकी मजबूरी का दोहन किया जाए। उस समय उसे खुद एक ऐसी एजेंसी की तलब थी जो टेलीफोन, बिजली, सेटलमेंट, इंश्योरेंस, कारपोरेशन आदि के कार्यालयों में उसके बार-बार पड़नेवाले काम सलटा सके। इन कार्यालयों के लफड़ों से वह ही नहीं बल्कि उसके संपर्क के कई अन्य व्यापारी तथा कई ग्राहक भी त्राहि-त्राहि की स्थिति में थे।

अभिराम ने उसे काम का पूरा प्रारूप समझाते हुए सलाह दी कि वह सबके काम इकट्ठे ले-ले कर इन कार्यालयों में जाए तथा साम-दाम और बुद्धि-बल लगा कर उन्हें अंजाम तक पहुँचाए। इनके बदले में एक वाजिब मेहनताना तय कर ले तो लोग खुशी-खुशी दे डालेंगे।

नवल किशोर को रोजी कमाने का यह रास्ता अच्छा लगा और वह अभिराम की दुकान में ही बैठ कर जॉब जुटाने लगा। बाद में जब वह पूरी तरह स्थापित हो गया और सभी लोग उसे जान गए तो उसने उस मोहल्ले में ही एक भाड़े की कोठरी ले ली, जहाँ उसके अधिकांश ग्राहकों के आवास थे। उसने अब बजाब्ता एन के मल्टीपरपस सर्विसेज सेंटर का एक बोर्ड लगा लिया और साथ में एक अन्य लड़के को भी रख लिया।

दो-ढाई साल बाद अभिराम को नवल ने बताया कि मल्टीपरपस ने अब कई तरह के काम, मसलन कोई लंबा मुकदमा लड़ना...खाली मकान के लिए किराएदार ढूँढ़ना...गाड़ी या जमीन बेचना...पासपोर्ट-वीजा बनवाना...ड्राइविंग लाइसेंस या आवासीय प्रमाणपत्र बनवाना...पुलिस से कोई मामला सलटवाना आदि शुरू कर दिए हैं। इसके लिए अब स्थायी रूप से और भी छह-सात लड़के बहाल करने पड़े हैं। कुछ लड़के पार्ट टाइमर हैं जो काम बढ़ जाने पर कभी भी बुला लिए जाते हैं।

इसी तरह एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए एन के आज इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया कि ऐसे पॉश इलाके में अपना मकान बनवा लिया! अभिराम ने कहा, 'भाई एन के! तुम्हें तो मैंने सिर्फ एक आइडिया भर दिया था, उसे साकार तो तुमने अपनी मेहनत लगा कर किया है। इस श्रेय के हकदार तुम खुद ही हो, मुझे इतना मान क्यों दे रहे हो। तुम जानते हो कि मेरा खुद का काम ऐसा है कि जरा सी भी मुझे फुर्सत नहीं देता। तुम क्यों नहीं अपने जश्न में मेरी जगह किसी सरकारी अफसर को बुला लेते...तुम्हारा एक कॉन्टैक्ट भी डेवलप हो जाएगा।' अभिराम ने कन्नी काटने की मंशा से कहा।

'केडिया साहब, अब कॉन्टैक्ट का मैं मोहताज नहीं हूँ। आपकी दुआ से मैंने यह रहस्य जान लिया है कि किससे कॉन्टैक्ट कैसे बनाना और बढ़ाना है। सब पैसे का खेल है। आप मुझे इस काम से जोड़ने के प्रेरणास्रोत रहे हैं। अतः मेरी यह खवाहिश है कि जीवन की पहली बड़ी उपलब्धि के रूप में जो मकान मैंने बनाया है, उसके जश्न में आपकी शिरकत जरूर हो और वह भी एक खास मेहमान के तौर पर। जानता हूँ कि समय निकालने में आपको बहुत मुश्किल आएगी...आपको ही क्या इस मोहल्ले में रहनेवाले किसी भी शख्स को फुरसत कहाँ है...लेकिन फिर भी अपने इस सेवक के लिए थोड़ा-सा वक्त निकालने की गुजारिश मैं हरेक से कर रहा हूँ...आपसे तो मेरी खास दरख्वास्त है।'

'कन्विंस करने की तुम्हारी अदा बहुत लाजवाब है एन के...शायद इसीलिए यह काम तुम्हें रास आ गया। मेरे लिए इतना आदर रखते हो मन में, यह जान कर भी न आऊं तो सचमुच तुम पर ज्यादती हो जाएगी। लेकिन भाई, तुमने मकान बनाया कहाँ है?'

नवल किशोर भौंचक रह गया, 'केडिया साहब...आप मजाक कर रहे हैं या सचमुच नहीं जानते?'

'अरे यार, मैं मजाक क्यों करने लगा...मेरा यह टाइम तो भाग कर दुकान पहुँचने की है।'

'आपका दो मिनट और चाहूँगा केडिया साहब...जरा सा आप मेरे साथ अपनी छत पर चलें।'

छत पर आ गया अभिराम केडिया। सुबह के इस पहर में छत से आसपास का मंजर एक गजब की सुखद अनुभूति भरने लगा उसके भीतर। उसे याद नहीं कि इस बेला में वह छत पर कब आया था।

नवल किशोर ने अपनी उंगली के इशारे से बताया, 'वह सामने लगभग चार सौ गज दूर जो नया घर दिख रहा है, वही मेरा घर है।'

अभिराम आँखें फाड़ कर वह चमचमाता हुआ नया दोमंजिला मकान देखता रह गया। उसके घर के इतने पास एक बड़ा मकान बन गया और उसे पता भी नहीं चल पाया! उसने चारो ओर घूम कर पूरे मोहल्ले पर अपनी एक सरसरी नजर दौड़ायी...अरे यह अमलताश का पेड़ गुप्ता जी के घर में तो नहीं था और शर्मा के लॉन में इतना लंबा यूकिलिप्टस कहाँ से आ गया? तिवारी जी की खिड़की से एक लड़की और उसके सामने ठाकुर जी की खिड़की से चिपके एक लड़के के बीच ये क्या इशारेबाजी हो रही है? ये दोनों हैं कौन? एन के ने बताया कि लड़की तिवारी की बेटी है और लड़का ठाकुर जी का बेटा है। दोनों में बहुत दिनों से इश्क चल रहा है। अभिराम ठगा रह गया...तो ये दोनों इतने बड़े हो गए? लग रहा था जैसे कल ही उसने दोनों को तीन-साढ़े तीन फुट की लंबाई में गली में एक गेंद के लिए झगड़ते देखा है। नीचे की गलियों में टेलीफोन के तार जाल की तरह कब फैल गए? मतलब अधिकांश घरों में टेलीफोन पहुँच गया!

उसे लगा जैसे कई साल बाद वह विदेश से लौटा हो... जबकि वह लगातार अपने इसी मकान के बीचवाले तल्ले में कायम रहा जो इस छत से महज छत्तीस पायदान नीचे है। ऐसा भी नहीं है कि वह छत पर इस बीच आया नहीं। गर्मियों में तो अक्सर बिजली गुल के समय छत पर ही सोया लेकिन बिजली आते ही आँख मलते हुए सीधे नीच उतर गया। कभी जरूरत नहीं समझी कि दो-एक मिनट ठहर कर आसपास निहार लें। पहले तो एक-एक परिवर्तन पर उसकी निगाह रहती थी। आखिर जीने का यह कौन-सा ढंग उसने कब अख्तियार कर लिया ? उसने मन ही मन विचार किया कि कभी फुर्सत में इस पर सोचेंगे। अभी तो दुकान पहुँचने की जल्दी है। उसने घड़ी देखी...ओ माई गॉड! आठ बज गए! साढ़े आठ बजे उसे दुकान पहुँचना है वरना कई होल सेल कस्टमर वापस हो जाएँगे।

'एक्सक्यूज मी एन के, मुझे देर हो रही है।'

फटाफट वह नीचे उतर गया। नाश्ते के टेबुल पर प्रेरणा और फुन्नू बैठे थे। उसने जल्दी-जल्दी एक-दो पराठे चबा लिए और बिना चाय पिये ही बैग उठा लिया। जाते-जाते ठिठक कर उसने कहा, 'तो तुमलोगों ने डाँट खाने के डर से मुझे रात में हाथ टूटने के बारे में याद तक नहीं दिलाया। लेकिन मुझे फिर भी सारी खबर हो गई।'

हाथ लहराते हुए वह चला गया। प्रेरणा सन्न रह गई। मतलब अब अपने परिवार के बीच संवाद और सूचनाओं के आदान-प्रदान भी एजेंसी के ही मार्फत होंगे!

प्रेरणा को अपने भाई की शादी में इंदौर जाना था। पिता की दो-तीन चिटि्ठयां आ गई थीं। उन्होंने लिखा था कि हम यह सौ प्रतिशत मान कर चल रहे हैं कि तुम अभिराम को साथ ले कर आ रही हो। वे शायद जानते थे कि अभिराम को ले आना आसान नहीं है। ठीक यही हुआ। उसने इनकार करते हुए प्रेरणा को समझा दिया।

'तुम जानती हो कि मेरा जाना कतई मुमकिन नहीं है। मैं ज्यादा से ज्यादा शादी में एक दिन के लिए आ सकता हूँ। लेकिन तुम इत्मीनान रहो, तुम अकेली नहीं जाओगी। एन के को मैं आज ही फोन कर देता हूँ, वह कोई रिलायबल लड़का तुम्हारे साथ भेज देगा।'

प्रेरणा ने बड़े बुझे मन से कहा, 'पापा इसका बहुत बुरा मानेंगे। एक बार मम्मी को मामा ने अपने नौकर के साथ इंदौर भिजवा दिया था। पापा गुस्से से एकदम लाल हो गए थे...तुम्हारे भाई को इतनी भी फुर्सत नहीं मिली कि अपनी बहन को खुद से पहुँचा दें। रिश्तेदारी में और रखा ही क्या है ? इन्हीं छोटे-छोटे निर्वहनों से रिश्ते की सघनता का अनुमान होता है। हम समझ गए कि तुम्हारा भाई तुम्हें कितना महत्व देता है।'

'तुम्हारे पिता ने ऐसा कहा और उनका यह खयाल है कि साथ आने-जाने से ही रिश्तों में निहित घनिष्टता उजागर होती है तो यह जरूरी नहीं कि वे सही थे और तुम्हारे मामा गलत थे। मैं तो कहूँगा कि बदलते वक्त के अनुरूप तुम्हारे मामा की समझ ही ठीक थी। मेरा अपना निर्णय तो इस वाकिए को सुन कर और भी पुख्ता हो गया है। मल्टीपरपस के लड़के के साथ तुम्हारा जाना कहीं से भी अनुपयुक्त नहीं है। हो सकता है तुम्हारे मामा के नौ कर में कुछ अपात्रता रही हो लेकिन मल्टीपरपस आज एक रेपुटेटेड ब्रैंड का नाम है। इसके लड़के तत्पर, शिक्षित और समर्पित हैं। रास्ते में तुम्हारे सहूलियत का खयाल जितना वे रख सकेंगे, शायद उतना मैं भी नहीं रख सकूँगा।'

इतने ठोस अनुशंसा और प्रस्तावना के बाद प्रेरणा के कुछ भी कहने का न कोई फायदा था, न कोई औचित्य। उसने अपनी मूक सहमति दे दी। मल्टीपरपस के लड़के के साथ ही वह चली गई इंदौर।

बाद में ऐसा हुआ कि अभिराम शादी में भी एक दिन के लिए न जा सका। दो दिन पहले उसकी मां आ गई बीमार हो कर मामा घर से। वह भी अपने भतीजे की शादी में गई हुई थी और बहुत दिनों तक वहीं पड़ी रह गई। अभिराम फोन से पूछता तो कह देती कि मुझे यहीं मन लग रहा है। वह अपना ज्यादातर समय तफरीह, तीर्थाटन और रिश्तेदारों से मेलजोल में ही बिता देने की अभ्यस्त रही थी। साथ आने-जाने के लिए कुछ लोगों का एक ग्रुप मिल गया था। मामा के यहाँ जब इलाज के बावजूद तबीयत बिगड़ती गई तो मामला नाजुक समझ कर मामा ने उचित समझा कि उसे यहाँ पहुँचा दिया जाए। अभिराम ने तत्काल मां को सबसे महंगे नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने बताया कि उसे जॉन्डिस हो गया है। तीसरे दिन वह रात में चल बसी।

उसने अपनी मां के पार्थिव शरीर को घर लाना जरूरी नहीं समझा। प्रेरणा घर में होती तो शायद लाने का कुछ मतलब होता। सुबह स्थानीय अखबार में अंतिम संस्कार की सूचना छपवा दी गई। मोहल्ले में भी कुछ लोगों को फोन से सूचित कर दिया गया।

अर्थी निकालने का समय जब हो गया तो पड़ोस के सिर्फ तीन आदमी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। अभिराम को किसी ने याद दिलाया कि आज भारत और पाकिस्तान के बीच एक अति रोमांचक और संघर्षपूर्ण क्रिकेट मैच हो रहा है, जिसके प्रसारण देखने के लिए लोग अपने-अपने टीवी सेट से चिपके हुए हैं।

अभिराम को आभास हो गया कि अब और कोई नहीं आएगा। इन चार-पांच वर्षों में आखिर वह भी तो किसी की शवयात्रा या श्राद्ध में शामिल नहीं हुआ।

उसने मल्टीपरपज को फोन मिलाया और कहा कि शवयात्रा निकालने के लिए अविलंब दस लड़कों को भेज दे।

आधे घंटे में दस लड़के हाजिर हो गए। पड़ोस के जो दो-तीन जन आए थे, अभिराम ने उनकी भी छुट्टी कर दी, 'बेकार आप लोग जहमत क्यों उठाएँगे...लड़के आ गए हैं, काम हो जाएगा। आने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।'

लड़कों ने मिल-जुल कर अपने कंधों पर अर्थी उठा ली और ट्रक पर लोड कर दिया।

श्मशान-घाट पर लकड़ी से भी जलाने का प्रबंध था और विद्युत शव-दाह गृह भी था। लकड़ी में पूरी तरह जलाने के लिए तीन-चार घंटे का समय चाहिए था। उसने फर्नेस को ही उचित समझा। कोई झंझट भी नहीं और पौन घंटे में काम समाप्त।

अभिराम ने एक डब्बे में अस्थि-भस्म ले लिया और उसे मल्टीपरपज के लड़कों को सुपुर्द करते हुए हिदायत कर दी कि वे कल ही जा कर इन्हें चार प्रमुख नदियों में विसर्जित कर दें।

प्रेरणा जब वापस आई तो माँ की मृत्यु के बीस-पच्चीस दिन हो गए थे। उसे इसकी अब तक कोई जानकारी नहीं थी। आने के सात-आठ दिन बाद मल्टीपरपज की ओर से एक बिल आया, जिसमें 'बिल फॉर फ्यूनरल प्रोसेशन' लिखा हुआ था। पूछने पर लड़के ने उसे पूरी जानकारी दी। वह हैरान रह गई...माँ के मरने की खबर भी उसे एजेंसी से मिल रही है! अभिराम ने फोन करने की या यहाँ आ जाने पर भी खुद से बताने की कोई जरूरत नहीं समझी? क्या माँ का मरना भी आज के वक्त में एक मामूली वाकिया हो गया?

सास बहुत मानती थी उसे और जाने के समय उसने कहा था, 'जब मैं मायके से लौट कर आऊँगी बहू तो तुम्हें अपने साथ भारत-भ्रमण पर ले चलूँगी। अभिराम तो तुम्हें सामनेवाले पार्क में भी साथ नहीं ले जाएगा।' प्रेरणा को लगा कि इस घर में अब उसे प्यार करनेवाला कोई नहीं रहा और वह सचमुच बहुत अकेली हो गई। वह जार-जार रो पड़ी।

                                                                                      ---जयनंदन---