रविवार, 3 फ़रवरी 2013

चिमगादड़ें


टीन की छत पर पहले एक छितराई-छितराई-सी आवाज़ हुई, जैसे किसी शैतान बच्चे ने कंकरियाँ उछाल दी हों एक क्षण एक बोझिल सन्नाटा - और फिर तरड़-तरड़, एक झटके के साथ बौछार खुल कर बरस पड़ी। मारिया चौंक कर उठ बैठी। अभ्यस्त हाथों ने तकिये के नीचे से चश्मा निकाल कर चढ़ा लिया और अपनी चुंधियाई आँखें मिचमिचाती, कुछ देर वह खिड़की के परे पड़ती बूँदों को ताकती रही।

मौसम की पहली बरसात थी। एक गुनगुनी गर्मी लिए हुए ज़मीन का सोंधापन उठा और कमरे में भर गया। धारों की चमकीली निरंतरता में बीहड़ हवा आड़े-तिरछे 'पैटर्न' बनाए जा रही थी! एक हल्की बौछार खिड़की की मुंडेर को भिगो गई टप-टप टप-टप कोने की टूटी नाली से चमकीली बूँदें काँप-काँप कर गिर रहीं थीं।

"अरी कम्बख्त उठ, देख तो कितनी प्यारी बरसात हो रही है।" - मारिया ने बगल की पलंग पर बेखबर सोती सोनिया का कम्बल खींचा।

"चुप भी कर मारी - " उनींदी झिड़की के साथ सोनिया ने करवट बदल ली।

मारी खिसियाई-सी कुछ देर नाखून कुतरती रही, फिर हाथ बढ़ाकर, कुर्सी से अपना काला 'हाउसकोट' उठा लिया और कमर का फ़ीता कसती, बाहर निकल आई। ऐन सीढ़ियों के पास छत फिर चूने लगी थी - "अं हं, यह घर भी कोई घर है! टपड़ा कहीं का!" वह बाथरूम से चिलमची लाने ममा के कमरे में घुस गई।"क्या हाल है ममा? नींद आई ठीक से?"

ममा सूखी तोरई-सी बाँहों से सीना थामे आदतन काँख रही थी - "हाय मेरे ईसू, अब पास बुला ले।" 'हं हं! सभी को बुलाता है एक तेरी ही बारी नहीं आती।' - वह टपकती छत के नीचे चिलमची रखती बुदबुदाई।

फिर लगभग चीखते हुए भीतर झाँका - "क्या हुआ? फिर गैस हो रही है क्या पेट में?" - ममा की लगभग अंधी मटमैली-सलैटी आँखें उधर को मुड़ी - "हं अरे जैसी हालत हैं, मैं ही जानता हूँ ऐसा दर्द उठता है कि बस, जान खिंची जाती है। इस डाक्टर लाल की तो दवा ही बेकार है क्या भरोसा इन नेटिव डाक्टरों का - थू"

ममा ने पलंग के नीचे रखे पैन में थूक दिया - "मुँह का स्वाद जाने कैसा हो गया है। बस फ़ायदा तो डाक्टर डैनियल की ही दवा करती थी या मेरे ईसू।"

बातचीत का रुख मनचाही दिशा में मुड़ता देख, मारिया ने अपनी भरकम देह दरवाज़े से टिका दी और फ़ुर्सत से खड़ी हो गई - "ममा, बात तो ये है कि जब तक तू अपनी जुबान को कन्ट्रोल नहीं करेगी, कोई डाक्टर-हकीम तेरे मर्ज़ की दवा नहीं कर सकता। अब डिनर में ज़बरदस्ती चावल खा ले, ऊपर से चॉकलेट भी चबा ले तो डायबिटीज बिगड़ेगी नहीं क्या?"

ममा का पोपला मुँह उत्तेजना में ऊँट के थोबड़े की तरह वलवलाने लगा - "तेरा - सोनिया का क्या है। तुम दोनों के लिये तो मैं बस एक जिन्दा लाश-भर हूँ। तुम्हारा बस चले तो कुत्ते की तरह बस एक सूखी रोटी डाल दो।" - ममा के झुर्रीदार गालों पर आँसू चूने लगे - "ठीक कहते थे डॉक्टर डैनियल कि अगाथा, आदमी का अपना ही खून सबसे ज्यादा दगा देता है! क्या मालूम था मुझे, मेरे ईसू कि अपनी ही बेटियाँ रोटी-रोटी पर टोकेंगी- "

ममा का संलाप स्वगत भाषण में बदल गया था। अब बुढ़िया घण्टों बिलखेगी। तृप्त भाव से अपने चश्मे की कमानी ठीक करती, मारिया जीर्ण सीढ़ियाँ उतरने लगी

सामने तमाम दीवारों पर सीलन से चकत्ते-से उभर आये थे। प्लास्टर भी जगह-जगह फूल कर झड़ने-झड़ने को हो रहा था। थोड़ी देर मारिया उदास आँखों से ताकती रही सारी की सारी इमारत जैसे गल-गल कर बैठती जा रही है। सारा बगीचा झाड़-झंखाड़ से भरा हुआ, फव्वारे में सूखी पत्तियों के ढेर हं... कोई घर है यह भी! एक उसाँस लेकर वह सीढ़ियाँ उतर गई।

पैंट्री में बूढ़ा सैम्युअल तसले में चावल धो रहा था। लाल बदसूरत चावल। फिर वही बदबूदार भात मिलेगा, मारी कुढ़ गई - "क्यों इस बार भी यही सड़ा चावल ले आया तू?" सैम्युअल उपेक्षा से चावल का पानी निधारता रहा, पोपले मसूढ़े कुछ हिले। राशन का माल है, ऐसा नहीं तो कैसा होगा?

"पानी गरम हुआ?"

"अभी हो जाता है" - सैम्युअल ने मैली कमीज़ पर गीले हाथ पोंछे और भट्टी के ऊपर चढ़ी देग में झाँकने लगा - "बस, बीस मिनट और - "

मारी बुरी तरह भुन्ना गई - "आज तक तूने कभी पानी ठीक टाइम पर दिया है क्या? अब किससे नहाऊँ, बता?" सैम्युअल लापरवाही से देग का ढकना सीधा करता हुआ, कुछ बुदबुदाया। शायद यही कि लकड़ी ही सड़ी हों तो उसका क्या कसूर। "तू खुद ही तो लकड़ी ख़रीदता है, देखते वक्त दीदे फूट गए थे क्या?" - मारिया ने अपना झोंटा कान के पीछे खोंस लिया, यह तो नित्य के नाटक की पुनरावृत्ति थी।

"अब आप तो जैसे जानती ही नहीं" - सैम्युअल ने चिमटे से आग कुरेदी - "हर चीज़ पर तो बड़ी मेमसा'ब बोलती है कि सस्ते दाम वाली लाना, अब बारा आने में आजकल सूखी लकड़ी कहाँ से आएगी। बोतल-भर किरासन का तेल तक तो आता नहीं, ऊपर से डाँटने को हर कोई..."

मारिया ने एक विवश क्रोध से होंठ काट लिए। कब्र में टाँग लटकाए बैठी है बुढ़िया, पर पैसे-पैसे को दाँत से पकड़ेगी सैम्युअल भी क्या करे। ये तो बुढ़ापे की मजबूरी है कि टिक गया, वह भी वर्ना...

"ठीक है, हो जाए तो बाथरूम में रख देना और फिर ब्रेकफास्ट लगा देना, समझे?" - अपने रुआब के चीथड़े समेटती मारी सीढ़ियों को मुड़ गई - देखना अण्डा मत जला डालना फिर से।" "मुड़गी तो सब कुड़क हैं, अण्डा नहीं है घर में - "सैम्युअल निर्विकार भाव से आलू छीलने लगा

"तो काट कर पका डाल कम्बख्तों को" - मारी हाउसकोट का कॉलर कसती हुई सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। हँह सभी-कुछ एक से बढ़ कर एक। मुर्गियाँ भी हैं तो कम्बख्त गंदगी फैलाने के अलावा किसी काम की नहीं। जब देखो तब कुड़क! हँह, कोई घर है यह भी...

कमरे में सोनिया अपनी सींक-सलाई देह को तोड़ती-मरोड़ती जमुहाई ले रही थी - " सैम्युअल कहाँ मर गया मारी? आज चाय ही नहीं लाया सुबह।"

"लाया कैसे नहीं, पलंग के नीचे तो पड़ी है प्याली।"

सोनिया ने झुक कर देखा और मूर्खों की तरह हँसने लगी - "अब मुझे क्या पता! आज दूसरी तरफ़ रख गया! मैं तो दाहिनी तरफ़ ही झाँक देखती हूँ।"

"हँह" मारी खिड़की के पास खड़ी, बरसात देख रही थी एकदम घोड़ी लगती है सोनिया हँसते हुए बिचारी को शायद पता नहीं कि वह कितनी अधेड़ लगने लगी हैं।

इतराएगी ऐसे, जैसे कल की छोकरी हो। मारिया ने चश्मे की कमानी ठीक की।

"आज सुबह-सुबह ममा बड़ा चीख रही थी, क्या हुआ? फिर गैस बढ़ गई क्या?"

"होगा क्या" - मारी खुली खिडकी का पल्ला बन्द करती, बाथरूम में घुस गई हँह टूथपेस्ट भी ख़त्म होने पर आ गया है! अब अगले महीने से पहले तो बुढ़िया नई ट्यूब मँगवाने से रही। उसने थोड़ा-सा पेस्ट ब्रश पर लगा लिया और एक हिंस्त्र झटके से दाँतों पर रगड़ डाला - "रात बुढ्ढी ने मना करते-करते भी खूब चावल खा लिए। फिर दो टुकड़े चाकलेट के चाट गई, अब कलप रही है। जुबान पर तो बस है नहीं, फिर डाक्टरों को कोसती हैं - "

"डाक्टर था तो बस मेरा डेनियल" - सोनिया ने ममा की पोपली बोली की नकल की - "आजकल के नेटिव डाक्टर तो, बस" - दोनों बहनें हँसने लगीं। मारिया ने तौलिये से मुँह पोंछा - "एकदम भीगा तौलिया है। बुढ़िया से इतना नहीं होता कि नए मँगा ले - "

सोनिया, जो अनमनी-सी खिड़की को ताक रही थी, अचानक पलटी - "देख, मेरे वाले को इस्तेमाल मत करना। परसों ही डी. सी. एम. से लाई हूँ" - "कौन कर रहा है तेरे तौलिये को इस्तेमाल" - मारिया ने अपना तौलिया स्टैन्ड पर टांग दिया और बाथरूम का दरवाज़ा भिड़ा दिया। कुछ देर दोनों, अपरिचितों की तरह आमने-सामने बैठी एक-दूसरे के परे देखती रहीं। मनहूस चुप्पी को तोड़ती बरसात लगातार गिर रही थी तरड़-तरड़। बन्द खिड़की के शीशों पर पानी की बूँदे एक चमकीली व्यग्रता से टेढ़ी-मेढ़ी होकर रेंग रही थीं। मारी ने चश्मा उतार कर, यत्न से पोंछा और फिर चढ़ा लिया। कुछ देर वह यों ही पैर के अंगूठे से अदृश्य लकीरें खींचती रही।

फिर एक सहमी-सी कनखी से उसने सोनिया को ताका - "सोनिया!"

"हूँ?" - सोनिया माथे पर सलवट डाले, कुछ सोच-सी रही थी - "तेरे पास चार रुपये होंगे क्या? मेरी चप्पलें एकदम - "

"नहीं है" - सोनिया उसकी ओर बगैर देखे ही चट-से उठ गई। मारिया ने रश्कभरी नज़र से उसकी अल्मारी पर झूलते ताले को देखा। दस-पन्द्रह तो जरूर ही होंगे कम्बख्त के पास! पर देगी क्यों? आखिर है ना ममा का खून। सारा का सारा सेंत कर सात तालों में छुपाये रखेगी कि कोई माँग न ले आवाज में हल्की दीनता भर कर, उसने फिर एक बार और सहमी चेष्टा की - "बस, पाँच-छै दिन का सवाल है। फिर मैं ममा से माँग कर वापस दे दूँगी।" सोनिया ने दरवाज़े को लापरवाही से धक्का दिया - "आज तक कभी ममा ने चुकाये हैं जो अब देगी?" उसकी पतली आवाज़ और तीखी हो गई - "मर-खप कर अस्सी रुपया स्कूल से कमाती हूँ, उसके भी सौ हिस्सेदार हो जाते हैं। अपने धोबी का हिसाब मैं अलग से करूँ। बस का किराया अपने पैसों से दूँ। धेले का क्रिसमस प्रेजेंट तो मिलना दूर, उस पर उधार माँगने को सब तैयार। ममा से क्यों नहीं कहती सीधे? मेरी मारी, मेरी मारिया तो सारे वक्त कहती रहती है बुढ़िया! हँह कोई घर है यह भी?"

दरवाज़ा भड़ाक से बन्द हो गया। एक शिथिलता से मारिया सलवट-भरे बिस्तरे पर अधलेटी हो गई। गलती उसी की है। सोनिया का भिड़ के छत्ते-जैसा मिजाज़ जानते हुए भी उससे माँगने गई ही क्यों? इस घर में सबकी दुखती रग है, पैसा! घर की ज़िम्मेदारी न होती तो वह भी ढूँढ लेती कोई नौकरी। कम से कम सोनिया के हाथों ऐसे बेइज्जती तो नहीं...पर देता भी कौन उसे नौकरी? माइनस ग्यारह का मोटा चश्मा, मोटी, फूहड़ देह। दो-चार बार कोशिश भी की तो लोग शक्ल देख कर ही बिदक गए एक रश्क-भरी साँस लेकर उसने अल्गनी पर टँगे सोनिया के बित्ते भर के ब्लाउज को ताका। कम्बख्त कितना ही खा-पी ले, पर मजाल है कि तोला-भर भी माँस चढ़ जाए एक वह है दिन-पर-दिन और भी मोटी और भोंडी होती जा रही है मनहूसियत में जो कसर बची थी, उसे पूरा करने को उसका कम्बख्त चश्मा...

भडाक। बाथरूम का दरवाज़ा फिर खुला सोनिया बाल बिखराये, दहकती खड़ी थी - "मारी, तूने फिर मेरा ओडीकोलोन लगाया?" गुस्से से उसके होठों के ऊपर भीगे रोयें काँप रहे थे। कोटरग्रस्त आँखें और भी मिचमिची हो आईं थीं। कहीं एक तृप्ति की भावना से मारी ने नोट किया कि गुस्से में सोनिया खासी बदसूरत लगती है।

"बोलती क्यों नहीं?" सोनिया आग्नेय आँखों से उसे घूर रही थी मारी चुप रही एक-दो बूँद हो तो "सौ बार कहा है, कि अपने शौक अपने तक ही रखा कर! या तो पैसा माँग अपनी गमा से और अपने लिए अलग से ख़रीद ला। मेरी कमाई से ख़रीदी चीज़ों का शौक करने की ज़रूरत नहीं! समझीं!" भड़ाक से दरवाज़ा उसी अप्रत्याशितता से बन्द हो गया, जैसे खुला था मारी कुछ देर स्तब्ध बैठी रही। अब आज से 'ओडीकोलोन' भी ताले में बन्द हो जाएगा! कमीनी नहीं तो। हर चीज़ में ममा को उलाहना देती है, जैसे उसे पता ही नहीं कि ममा मारिया की चापलूसी सिर्फ़ इसलिये करती है कि अब अंधी खुद घर नहीं सम्हाल सकती! घर का भी क्या है? काम की ज़िम्मेदारी सब उसकी और पैसा-रुपया सब ममा के पास! धेले-धेले का हिसाब रखवा लेती है बुड्ढी, पर रूमाल के लिए भी आठ आने माँगो तो बिदक जाएगी! हँह मेरी मारिया। खूब समझती है वह ममा के लाड़ का राज! पर करे क्या? कहाँ जा सकती है वह भी? अब तो वह है और गल-गल कर बैठता यह घर। अधटूटी चप्पल घसीटती मारिया ममा के कमरे में घुस गई।

जिंघम की रंग-उड़ी नीली फ्राक में लिपटी ममा किसी प्रागैतिहासिक फासिल की तरह आरामकुर्सी पर उकडू बैठी थी दृष्टिहीन सलेटी आँखें दरवाज़े की ओर मुड़ी -

"कौन? सैम्युअल है क्या? आज तो तूने ब्रेकफास्ट ही नहीं - "

"नहीं मैं हूँ ममा!" - मारी खिड़की के पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठ गई - "कैसी तबीयत हूँ तेरी अब? दवा ले ली थी क्या?"

"क्या दवा-दारू करूँ बेटा, अब तो बस दिन ही कट रहे हैं " ममा की सूखी झुर्रीदार उँगलियाँ मकड़ों की तरह अपनी गर्दन सहला रहीं थीं - "न बदन में ताकत हैं, न आँखों में रोशनी या मेरे ईसू!"

एक क्षण को मारिया के भीतर दया-सा कुछ सिहर गया - "डाक्टर लाल को फ़ोन करूँ क्या? शायद दवा बदलने से - "अरे दवा-हवा क्या, अब तो ऐसे ही ठेलना है बेटा - " ममा ने पलकें झपकाई - "ऊपर से और एक लम्बा बिल थमा जाएगा कम्बख्त! मैं इन लालची नेटिव डाक्टरों को खूब जानती हूँ! यहाँ पैसे-पैसे को सोच-कर खर्च करना पड़ता है कि किसी तरह महीना कट जाए दवा का बिल कौन... "

मारिया ने गले के पास घृणा का ठण्डा-हरा स्वाद महसूस किया- "तेरा ब्रेकफास्ट मँगा दूँ ममा?" बूढ़ी की अंधी आँखों में एक लोलुप चमक गहराई - "पुकारना तो जरा कम्बख्त को बेटा, मेरी तो सुनता ही नहीं मैं तो कहती हूँ मेरी मारिया न हो तो " मारिया ने क्रूरता से ठोकर मारकर दरवाज़ा खोल दिया और बाहर आ गई हँह यह घर। - "अरे सैम्युअल! अभी तक तेरा ब्रेकफास्ट नहीं बना क्या?"

बाहर बारिश यकायक और तेज़ हो गई तूफ़ान की साँय-साँय में पूरा घर हिल-सा रहा था - "सैम्युअल!" वह फिर चीखी।

"सुन लिया जी, आ रही हूँ अभी!" झुँझलाई आवाज़ सीढ़ियों के मोड़ पर से ही आई। सैम्युअल ट्रे में ममा का नाश्ता लिए आ ही रहा था - " अब लकड़ियाँ ही ऐसी सीली हुई हैं तो मैं क्या करूँ?"

मारिया चुपचाप कमरे में फिर घुस गई - "ले, आ गया तेरा ब्रेकफास्ट भी - यहाँ रख दो सैम्युअल" , उसने इशारे से तिपाई दिखा दी।

सैम्युअल चुपचाप ट्रे रख कर, बाहर निकल गया। पुतली-सी बैठी ममा यकायक चैतन्य हो आई - "टोस्ट गरम तो हैं ना मारी?" मारी नि:शब्द टोस्ट पर मक्खन लगाती रही। बस, खाने की गंध मिली नहीं कि बुढ्ढी की पाँचों इन्द्रियाँ जाग पड़ती है! ममा जबाब न पाकर भी चहके जा रही थी - "सैकरीन की तीन गोली डालना मेरी चाय में! एक-दो गोली से तो मिठास ही नहीं आती " मारिया ने टोस्ट बढ़ा दिया - "ले!"

एक घृणास्पद उत्सुकता से झुर्रीदार हाथ प्लेंट तलाशने लगे। टोस्ट पर हाथ पड़ते ही एक बेताबी से ममा ने दबोच लिया और पोपले मसूढ़े परम तृप्ति से उसे चुभाने लगे - "मक्खन कम लगाया है मारी बेटा, ज़रा और दे देना!"

ममा डाक्टर ने मना किया है - " ममा का निचला होंठ रूठे बच्चों की तरह फूल आया - "तो कल से खाना भी बन्द कर देना कि वो भी नुकसान करेगा। अपने लिए तो कोई कमी नहीं करोगे तुम लोग, बस मेरे ही लिए सब चीज़ की मनाही है। मैं सब समझती नहीं क्या? - " उसकी अंधी ही आँखों से आँसू टपकने लगे - "पैसे देकर भी खाना मयस्सर नहीं होता, या मेरे ईसू, कैसी मजबूरी है! अरे मेरे ही पैसों से सब लोग खाते हो और मुझी पर सारी रोक-टोक भी लगाते हो! इतना ही पैसा किसी होटल को देती तो - " ममा ने फ्राक उठाकर, नाक सुड़क ली!

एक क्षण को मारिया का मन हुआ कि बुढ़िया की गर्दन के पीछे की झुर्रीदार खाल चुटकी में पकड़ कर उसे ऊपर उठा ले, जैसे कुत्ते के पिल्लों को उठाया जाता है, और फिर झकझोर-झकझोर कर मक्खन की तश्तरी में उसकी नाक रगड़ डाले - 'जा किसी होटल में और दो आउंस की टिकिया को हफ्ते-भर चला ले!' अपने ही गुस्से के उफान से पस्त वह बाहर निकल आई - "सैम्युअल! पानी गर्म हो गया हो तो रख देना बाथरूम में!"

सैम्युअल ने पता नहीं सुना भी या नहीं मारिया चुपचाप बाहर ताकने लगी, बरसात निढाल होकर थम गई थी। बस, एक हल्की बौछार-सी पड़ रही थी। झीने पड़ते बादलों के पीछे से कहीं-कहीं आसमान की सलेटी झाँई भी नज़र आने लगी थी ! चले, गीला तौलिया तो बाहर डाल दे कम से कम। थके पैरों मारी कमरे में घुस गई! सोनिया ने हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लिए थे और गुनगुनाती हुई बाल ब्रश कर रही थी। मूड शायद कुछ बेहतर था, मारिया ने हल्के से खँखारा - "कहीं बाहर जा रही है क्या?"

"कहाँ जाऊँगी ऐसे मौसम में - " सोनिया ने तुनक कर कंधा रख दिया और उँगली पर टूटे बाल लपेटने लगी - "एक ढंग का छाता तक तो पास में हैं नहीं, कौन बैठा है मेरा जिसके पास जाऊँगी? थू :" आदतन उसने बालों के गुच्छे पर थूका और खिड़की के बाहर फेंक दिया। "तो जा फिर जहन्नुम में ही -" मारिया ने मन-ही-मन दाँत पीस लिए...

सोनिया बाहर चली गई तो चादर बिछाते-बिछाते उसने सिर को झटका - हँह , बेकार ही वह भी इन लोगों को लेकर पागल होती हैं। चलें, नहा लें! अल्मारी से कपड़े निकालती, वह चौंक पड़ी - सड़ाक्! सड़ाक् - बाहर से ऐसी आवाज आ रही थी, जैसे कोई बेरहमी से पेड़ों को झकझोर रहा हो उसने दौड़ कर खिड़की खोल दी, और झाँकने लगी। अन्दाज़ ठीक ही था, फिर वही स्कूली छोकरे लग्गी लेकर फल झड़ा रहे थे - "सैम्युअल!" उसकी तीखी आवाज़ कोड़े-सी लपलपाई - "ज़रा देखना इन कम्बख्तों को!" बच्चों ने अचकचा कर ऊपर ताका। खिड़की पर मारिया का विराट आकार काले हाउसकोट में लिपटा टँका था

रसोई से सैम्युअल लकड़ी लेकर काँखता हुआ लपका - "नाश हो इन छोकरों का! ईसू कसम, एक-एक की कमर नहीं तोड़ी तो" मारिया उत्तेजना से पँजों पर झूल रही थी, - "पकड़ लो बदमाशों को, जाने न पायें" बच्चों के हुजूम ने अपनी लग्गी वहीं पटकी और पल-भर में पूरा झुंड खरगोशों की तरह बिला गया प़ोपले मुँह से चिंघाड़ता सेम्युअल पेड़ों के व्यर्थ चक्कर काट रहा था - "भाग गए बदमाश सब के सब! न पढ़ाई, न लिखाई, बस चोरी-चमारी में अव्वल! आएँ अब आगे कभी!" लकड़ी को झुलाता वह वापस रसोई में घुस गया। एक शान्ति की साँस लेकर मारिया ने हाउसकोट की पेटी कस ली। वह तो उसने देख लिया वर्ना एक भी फल नहीं रहने देते ये छोकरे -

टप्! - वह चौंक कर पीछे हटी , एक कंकड़ी ठीक उसी के पैरों के पास, आकर गिरी - 'चिमगादड़! चिमगादड़!" छ़ोकरों का झुण्ड अब सड़क को खुली सुरक्षा में घिरा खड़ा था उनके अगुआ ने बाँहें फटफटाते चिमगादड़ का आकार बनाया - "वो देखो, काली चिमगादड़!"

हो-हो-हो अपने लीडर की रसिकता से अभिभूत जत्था आगे भागने लगा देर तक मोड़ से उनकी पतली बचकानी आवाजें कंकरियों की तरह उछल-उछल कर आती रहीं - 'चिमगादड़! चिमगादड़!" मारी ने पाया कि उससे हाथ से कपड़ों का गट्ठर न जाने कब फ़र्श पर गिर पड़ा है। खिड़की बन्द कर उन्हें उठाने को झुको तो चप्पल का आखिरी फ़ीता भी तड़ाक से टूट गया! एक बेबसी से उसने टूटी चप्पल को ताका और वहीं फ़र्श पर बैठ गई चुँधी आँखों से आँसुओं के मोटे-मोटे कतरे फूले गालों पर ढुलकने लगे। काला हाउसकोट डैनों की तरह उसके ईद-गिर्द फैला पड़ा था।

हवा का एक भटका झोंका आकर खिड़की को फिर खोल गया। बाहर आसमान बच्चे की पहली रूलाई-सा नंगा और तीखा हो आया था...

                                                                                         ---मृणाल पांडे---

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें