आज
तीन दिन
गुज़र गये।
शाम का
वक्त था।
मैं युनिवर्सिटी
हॉल से
खुश-खुश
चला आ रहा
था। मेरे
सैकड़ों दोस्त
मुझे बधाइयाँ
दे रहे
थे। मारे
खुशी के
मेरी बाँछें
खिली जाती
थीं। मेरी
जिन्दगी की
सबसे प्यारी
आरजू कि
मैं एम०ए०
पास हो
जाऊँ, पूरी
हो गयी
थी और
ऐसी खूबी
से जिसकी
मुझे तनिक
भी आशा
न थी।
मेरा नम्बर
अव्वल था।
वाइस चान्सलर
साहब ने
खुद मुझसे
हाथ मिलाया
था और
मुस्कराकर कहा
था कि
भगवान तुम्हें
और भी
बड़े कामों
की शक्ति
दे। मेरी
खुशी की
कोई सीमा
न थी।
मैं नौजवान
था, सुन्दर
था, स्वस्थ
था, रुपये-पैसे
की न मुझे
इच्छा थी
और न कुछ
कमी, माँ-बाप
बहुत कुछ
छोड़ गये
थे। दुनिया
में सच्ची
खुशी पाने
के लिए
जिन चीज़ों
की ज़रूरत
है, वह
सब मुझे
प्राप्त थीं।
और सबसे
बढक़र पहलू
में एक
हौसलामन्द दिल
था जो
ख्याति प्राप्त
करने के
लिए अधीर
हो रहा
था।
घर
आया, दोस्तों
ने यहाँ
भी पीछा
न छोड़ा,
दावत की
ठहरी। दोस्तों
की खातिरतवाजों
में बारह
बज गये,
लेटा तो
बरबस ख़याल
मिस लीलावती
की तरफ़
जा पहुँचा
जो मेरे
पड़ोस में
रहती थीं
और जिसने
मेरे साथ
बी०ए० का
डिप्लोमा हासिल
किया था।
भाग्यशाली होगा
वह व्यक्ति
जो मिस
लीला को
ब्याहेगा, कैसी
सुन्दर है!
कितना मीठा
गला है!
कैसा हँसमुख
स्वभाव! मैं
कभी-कभी
उसके यहाँ
प्रोफेसर साहब
से दर्शनशास्त्र
में सहायता
लेने के
लिए जाया
करता था।
वह दिन
शुभ होता
था जब
प्रोफेसर साहब
घर पर
न मिलते
थे। मिस
लीला मेरे
साथ बड़े
तपाक से
पेश आतीं
और मुझे
ऐसा मालूम
होता था
कि मैं
ईसा मसीह
की शरण
में आ जाऊँ
तो उसे
मुझे अपना
पति बना
लेने में
आपत्ति न होगी।
वह शेली,
बायरन और
कीट्स की
प्रेमी थी
और मेरी
रुचि भी
बिल्कुल उसी
के समान
थी। हम
जब अकेले
होते तो
अक्सर प्रेम
और प्रेम
के दर्शन
पर बातें
करने लगते
और उसके
मुँह से
भावों में
डूबी हुई
बातें सुन-सुनकर
मेरे दिल
में गुदगुदी
पैदा होने
लगती थी।
मगर अफ़सोस,
मैं अपना
मालिक न था।
मेरी शादी
एक ऊँचे
घराने में
कर दी
गयी थी
और अगरचे
मैंने अब
तक अपनी
बीबी की
सूरत भी
न देखी
थी मगर
मुझे पूरा-पूरा
विश्वास था
कि मुझे
उसकी संगत
में वह
आनन्द नहीं
मिल सकता
जो मिस
लीला की
संगत में
सम्भव है।
शादी हुए
दो साल
हो चुके
थे मगर
उसने मेरे
पास एक
ख़त भी
न लिखा
था। मैंने
दो तीन
ख़त लिखे
भी, मगर
किसी का
जवाब न मिला।
इससे मुझे
शक हो
गया था
कि उसकी
तालीम भी
यों ही-सी
है।
आह!
क्या मैं
इसी लडक़ी
के साथ
ज़िन्दगी बसर
करने पर
मजबूर हूँगा?
.... इस सवाल
ने मेरे
उन तमाम
हवाई क़िलों
को ढा
दिया जो
मैंने अभी-अभी
बनाये थे।
क्या मैं
मिस लीला
से हमेशा
के लिए
हाथ धो
लूँ? नामुमकिन
है। मैं
कुमुदिनी को
छोड़ दूँगा,
मैं अपने
घरवालों से
नाता तोड़
लूँगा, मैं
बदनाम हूँगा,
परेशान हूॅँगा,
मगर मिस
लीला को
ज़रूर अपना
बनाऊँगा।
इन्हीं ख़यालों के
असर में
मैंने अपनी
डायरी लिखी
और उसे
मेज पर
खुला छोडक़र
बिस्तर पर
लेटा रहा
और सोचते-सोचते
सो गया।
सबेरे
उठकर देखता
हूँ तो
बाबू निरंज़नदास
मेरे सामने
कुर्सी पर
बैठे हैं।
उनके हाथ
में डायरी
थी जिसे
वह ध्यानपूर्वक
पढ़ रहे
थे। उन्हें
देखते ही
मैं बड़े
चाव से
लिपट गया।
अफ़सोस, अब
उस देवोपम
स्वभाव वाले
नौजवान की
सूरत देखनी
न नसीब
होगी। अचानक
मौत ने
उसे हमेशा
के लिए
हमसे अलग
कर दिया।
कुमुदिनी के
सगे भाई
थे, बहुत
स्वस्थ, सुन्दर
और हँसमुख,
उम्र मुझसे
दो ही
चार साल
ज़्यादा थी,
ऊँचे पद
पर नियुक्त
थे, कुछ
दिनों से
इसी शहर
में तबदील
होकर आ गये
थे। मेरी
और उनकी
गाढ़ी दोस्ती
हो गयी
थी। मैंने
पूछा-क्या
तुमने मेरी
डायरी पढ़
ली?
निरंजन-हाँ!
मैं-मगर
कुमुदिनी से
कुछ न कहना।
निरंजन-बहुत अच्छा,
न कहूँगा।
मैं-इस
वक़्त किसी
सोच में
हो। मेरा
डिप्लोमा देखा?
निरंजन-घर से
ख़त आया
है, पिता
जी बीमार
हैं, दो-तीन
दिन में
जाने वाला
हूँ।
मैं-शौक़
से जाइए,
ईश्वर उन्हें
जल्द स्वस्थ
करे।
निरंजन-तुम भी
चलोगे? न मालूम
कैसा पड़े,
कैसा न पड़े।
मैं-मुझे
तो इस
वक़्त माफ़
कर दो।
निरंजनदास यह कहकर
चले गये।
मैंने हजामत
बनायी, कपड़े
बदले और
मिस लीलावती
से मिलने
का चाव
मन में
लेकर चला।
वहाँ जाकर
देखा तो
ताला पड़ा
हुआ है।
मालूम हुआ
कि मिस
साहिबा की
तबीयत दो-तीन
दिन से
खराब थी।
आबहवा बदलने
के लिए
नैनीताल चली
गयीं। अफ़सोस,
मैं हाथ
मलकर रह
गया। क्या
लीला मुझसे
नाराज़ थी?
उसने मुझे
क्यों ख़बर
नहीं दी।
लीला, क्या
तू बेवफा
है, तुझसे
बेवफ़ाई की
उम्मीद न थी।
फ़ौरन पक्का
इरादा कर
लिया कि
आज की
डाक से
नैनीताल चल
दूँ। मगर
घर आया
तो लीला
का ख़त
मिला। काँपते
हुए हाँथों
से खोला,
लिखा था-मैं
बीमार हूँ,
मेरी जीने
की कोई
उम्मीद नहीं
है, डाक्टर
कहते हैं
कि प्लेग
है। जब
तक तुम
आओगे, शायद
मेरा क़िस्सा
तमाम हो
जाएगा। आखिरी
वक़्त तुमसे
न मिलने
का सख्त
सदमा है।
मेरी याद
दिल में
क़ायम रखना।
मुझे सख्त
अफ़सोस है
कि तुमसे
मिलकर नहीं
आयी। मेरा
क़सूर माफ
करना और
अपनी अभागिनी
लीला को
भुला मत
देना। ख़त
मेरे हाथ
से छूटकर
गिर पड़ा।
दुनिया आँखों
में अँधेरी
हो गयी,
मुँह से
एक ठण्डी
आह निकली।
बिना एक
क्षण गँवाये
मैंने बिस्तर
बाँधा और
नैनीताल चलने
के लिए
तैयार हो
गया। घर
से निकला
ही था
कि प्रोफेसर
बोस से
मुलाक़ात हो
गयी। कालेज
से चले
आ रहे
थे, चेहरे
पर शोक
लिखा हुआ
था। मुझे
देखते ही
उन्होंने जेब
से एक
तार निकालकर
मेरे सामने
फेंक दिया।
मेरा कलेजा
धक् से
हो गया।
आँखों में
अँधेरा छा
गया, तार
कौन उठाता
है। और
हाय मारकर
बैठ गया।
लीला, तू
इतनी जल्दी
मुझसे जुदा
हो गयी!
२
मैं
रोता हुआ
घर आया
और चारपाई
पर मुँह
ढाँपकर खूब
रोया। नैनीताल
जाने का
इरादा खत्म
हो गया।
दस-बारह
दिन तक
मैं उन्माद
की-सी
दशा में
इधर-उधर
घूमता रहा।
दोस्तों की
सलाह हुई
कि कुछ
रोज़ के
लिए कहीं
घूमने चले
जाओ। मेरे
दिल में
भी यह
बात जम
गयी। निकल
खड़ा हुआ
और दो
महीने तक
विन्ध्याचल, पारसनाथ
वग़ैरह पहाडिय़ों
में आवारा
फिरता रहा।
ज्यों-त्यों
करके नई-नई
जगहों और
दृश्यों की
सैर से
तबियत को
ज़रा तस्कीन
हुई। मैं
आबू में
था जब
मेरे नाम
तार पहुँचा
कि मैं
कालेज की
असिस्टेण्ट प्रोफेसरी
के लिए
चुना गया
हूँ। जी
तो न चाहता
था कि
फिर इस
शहर में
आऊँ, मगर
प्रिन्सिपल के
ख़त ने
मजबूर कर
दिया। लाचार,
लौटा और
अपने काम
में लग
गया। जिन्दादिली
नाम को
न बाक़ी
रही थी।
दोस्तों की
संगत से
भागता और
हँसी मज़ाक
से चिढ़
मालूम होती।
एक
रोज़ शाम
के वक्त
मैं अपने
अँधेरे कमरे
में लेटा
हुआ कल्पना-लोक
की सैर
कर रहा
था कि
सामने वाले
मकान से
गाने की
आवाज़ आयी।
आह, क्या
आवाज थी,
तीर की
तरह दिल
में चुभी
जाती थी,
स्वर कितना
करुण था!
इस वक्त
मुझे अन्दाज़ा
हुआ कि
गाने में
क्या असर
होता है।
तमाम रोंगटे
खड़े हो
गये, कलेजा
मसोसने लगा
और दिल
पर एक
अजीब वेदना-सी
छा गयी।
आँखों से
आँसू बहने
लगे। हाय,
यह लीला
का प्यारा
गीत था-
पिया मिलन है कठिन बावरी।
मुझसे
ज़ब्त न हो
सका, मैं
एक उन्माद
की-सी
दशा में
उठा और
जाकर सामने
वाले मकान
का दरवाजा
खटखटाया। मुझे
उस वक़्त
यह चेतना
न रही
कि एक
अजनबी आदमी
के मकान
पर आकर
खड़े हो
जाना और
उसके एकान्त
में विघ्न
डालना परले
दर्जे की
असभ्यता है।
३
एक
बुढिय़ा ने
दरवाज़ा खोल
दिया और
मुझे खड़े
देखकर लपकी
हुई अन्दर
गयी। मैं
भी उसके
साथ चला
गया। देहलीज़
तय करते
ही एक
बड़े कमरे
में पहुँचा।
उस पर
एक सफेद
फ़र्श बिछा
हुआ था।
गावतकिए भी
रखे थे।
दीवारों पर
खूबसूरत तस्वीरें
लटक रही
थीं और
एक सोलह-सत्रह
साल का
सुन्दर नौजवान
जिसकी अभी
मसें भीग
रही थीं
मसनद के
क़रीब बैठा
हुआ हारमोनियम
पर गा
रहा था।
मैं क़सम
खा सकता
हूँ कि
ऐसा सुन्दर
स्वस्थ नौजवान
मेरी नज़र
से कभी
नहीं गुज़रा
चाल-ढाल
से सिख
मालूम होता
था। मुझे
देखते ही
चौंक पड़ा
और हारमोनियम
छोडक़र खड़ा
हो गया।
शर्म से
सिर झुका
लिया और
कुछ घबराया
हुआ-सा
नजर आने
लगा। मैंने
कहा-माफ
कीजिएगा, मैंने
आपको बड़ी
तकलीफ़ दी।
आप इस
फन के
उस्ताद मालूम
होते हैं।
ख़ासकर जो
चीज़ अभी
आप गा
रहे थे,
वह मुझे
पसन्द है।
नौजवान ने अपनी
बड़ी-बड़ी
आँखों से
मेरी तरफ़
देखा और
सर नीचा
कर लिया
और होठों
ही में
कुछ अपने
नौसिखियेपन की
बात कही।
मैंने फिर
पूछा-आप
यहाँ कब
से हैं?
नौजवान-तीन महीने
के क़रीब
होता है।
मैं-आपका
शुभ नाम।
नौजवान-मुझे मेहर
सिंह कहते
हैं।
मैं
बैठ गया
और बहुत
गुस्ताख़ाना बेतकल्लुफ़ी
से मेहर
सिंह का
हाथ पकडक़र
बिठा दिया
और फिर
माफ़ी माँगी।
उस वक्त
की बातचीत
से मालूम
हुआ कि
वह पंजाब
का रहने
वाला है
और यहाँ
पढ़ने के
लिए आया
हुआ है।
शायद डाक्टरों
ने सलाह
दी थी
कि पंजाब
की आबहवा
उसके लिए
ठीक नहीं
है। मैं
दिल में
तो झेंपा
कि एक
स्कूल के
लड़के के
साथ बैठकर
ऐसी बेतकल्लुफ़ी
से बातें
कर रहा
हूँ, मगर
संगीत के
प्रेम ने
इस ख़याल
को रहने
न दिया।
रस्मी परिचय
के बाद
मैंने फिर
प्रार्थना की
कि वही
चीज़ छेडिय़े।
मेहर सिंह
ने आँखें
नीचे करके
जवाब दिया
कि मैं
अभी बिलकुल
नौसिखिया हूँ।
मैं-यह
तो आप
अपनी जबान
से कहिये।
मेहर
सिंह-(झेंपकर)
आप कुछ
फ़रमायें, हारमोनियम
हाज़िर है।
मैं-मैं
इस फ़न
में बिलकुल
कोरा हूँ
वर्ना आपकी
फ़रमाइश ज़रूर
पूरी करता।
इसके
बाद मैंने
बहुत-बहुत
आग्रह किया
मगर मेहर
सिंह झेंपता
ही रहा।
मुझे स्वभावत:
शिष्टाचार से
घृणा है।
हालाँकि इस
वक्त मुझे
रूखा होने
का कोई
हक़ न था
मगर जब
मैंने देखा
कि यह
किसी तरह
न मानेगा
तो ज़रा
रुखाई से
बोला-खैर
जाने दीजिए।
मुझे अफ़सोस
है कि
मैंने आपका
बहुत वक्त
बर्बाद किया।
माफ़ कीजिए।
यह कहकर
उठ खड़ा
हुआ। मेरी
रोनी सूरत
देखकर शायद
मेहर सिंह
को उस
वक्त तरस
आ गया,
उसने झेंपते
हुए मेरा
हाथ पकड़
लिया और
बोला-आप
तो नाराज़
हुए जाते
हैं।
मैं-मुझे
आपसे नाराज
होने का
कोई हक़
हासिल नहीं।
मेहर
सिंह-अच्छा
बैठ जाइए,
मैं आपकी
फ़रमाइश पूरी
करूँगा। मगर
मैं अभी
बिल्कुल अनाड़ी
हूँ।
मैं
बैठ गया
और मेहर
सिंह ने
हारमोनियम पर
वही गीत
अलापना शुरू
किया-
पिया
मिलन है
कठिन बावरी।
कैसी
सुरीली तान
थी, कैसी
मीठी आवाज,
कैसा बेचैन
करने वाला
भाव! उसके
गले में
वह रस
था जिसका
बयान नहीं
हो सकता।
मैंने देखा
कि गाते-गाते
खुद उसकी
आँखों में
आँसू भर
आये। मुझ
पर इस
वक़्त एक
मोहक सपने
की-सी
दशा छायी
हुई थी।
एक बहुत
मीठा, नाजुक,
दर्दनाक असर,
दिल पर
हो रहा
था जिसे
बयान नहीं
किया जा
सकता। एक
हरे-भरे
मैदान का
नक्शा आँखों
के सामने
खिंच गया
और लीला,
प्यारी लीला,
उस मैदान
पर बैठी
हुई मेरी
तरफ़ हसरतनाक
आँखों से
ताक रही
थी। मैंने
एक लम्बी
आह भरी
और बिना
कुछ कहे
उठ खड़ा
हुआ। इस
वक्त मेहर
सिंह ने
मेरी तरफ़
ताका, उसकी
आँखों में
मोती के
क़तरे डबडबाये
हुए थे
और बोला-कभी-कभी
तशरीफ़ लाया
कीजिएगा।
मैं
सिर्फ इतना
जवाब दिया-मैं
आपका बहुत
कृतज्ञ हूँ।
४
धीरे-धीरे
मेरी यह
हालत हो
गयी कि
जब तक
मेहर सिंह
के यहाँ
जाकर दो-चार
गाने न सुन
लूँ जी
को चैन
न आता।
शाम हुई
और मैं
जा पहुँचा।
कुछ देर
तक गानों
की बहार
लूटता और
तब उसे
पढ़ाता। ऐसे
ज़हीन और
समझदार लड़के
को पढ़ाने
में मुझे
ख़ास मज़ा
आता था।
मालूम होता
था कि
मेरी एक-एक
बात उसके
दिल पर
नक्श हो
रही है।
जब तक
मैं पढ़ाता
वह पूरे
जी-जान
से कान
लगाये बैठा
रहता जब
उसे देखता,
पढ़ने-लिखने
में डूबा
हुआ पाता।
साल भर
में अपने
भगवान के
दिये हुए
जेहन की
बदौलत उसने
अंग्रेजी में
अच्छी योग्यता
प्राप्त कर
ली। मामूली
चि_ियाँ
लिखने लगा,
और दूसरा
साल गुज़रते-गुज़रते वह अपने
स्कूल के
कुछ छात्रों
से बाजी
ले गया।
जितने मुदर्रिस
थे, सब
उसकी अक्ल
पर हैरत
करते और
सीधा नेक-चलन
ऐसा कि
कभी झूठ-मूठ
भी किसी
ने उसकी
शिकायत नहीं
की। वह
अपने सारे
स्कूल की
उम्मीद और
रौनक़ था,
लेकिन बावजूद
सिख होने
के उसे
खेलकूद में
रुचि न थी।
मैंने उसे
कभी क्रिकेट
में नहीं
देखा। शाम
होते ही
सीधे घर
चला आता
और लिखने-पढ़ने
में लग
जाता।
मैं
धीरे-धीरे
उससे इतना
हिल-मिल
गया कि
बजाय शिष्य
के उसको
अपना दोस्त
समझने लगा।
उम्र के
लिहाज़ से
उसकी समझ
आश्चर्यजनक थी।
देखने में
१६-१७
साल से
ज़्यादा न मालूम
होता मगर
जब कभी
मैं रवानी
में आकर
दुर्बोध कवि-कल्पनाओं और कोमल
भावों की
उसके सामने
व्याख्या करता
तो मुझे
उसकी भंगिमा
से ऐसा
मालूम होता
कि एक-एक
बारीकी को
समझ रहा
है। एक
दिन मैंने
उससे पूछा-मेहर
सिंह, तुम्हारी
शादी हो
गयी?
मेहर
सिंह ने
शरमाकर जवाब
दिया-अभी
नहीं।
मैं-तुम्हें कैसी औरत
पसन्द है?
मेहर
सिंह-मैं
शादी करूँगा
ही नहीं।
मैं-क्यों?
मेहर
सिंह-मुझ
जैसे जाहिल
गँवार के
साथ शादी
करना कोई
औरत पसन्द
न करेगी।
मैं-बहुत
कम ऐसे
नौजवान होंगे
तो तुमसे
ज्यादा लायक़
हों या
तुमसे ज्यादा
समझ रखते
हों।
मेहर
सिंह ने
मेरी तरफ़
अचम्भे से
देखकर कहा-आप
दिल्लगी करते
हैं।
मैं-दिल्लगी नहीं, मैं
सच कहता
हूँ। मुझे
खुद आश्चर्य
होता है
कि इतने
कम दिनों
में तुमने
इतनी योग्यता
क्योंकर पैदा
कर ली।
अभी तुम्हें
अंग्रेजी शुरू
किए तीन
बरस से
ज़्यादा नहीं
हुए।
मेहर
सिंह-क्या
मैं किसी
पढ़ी-लिखी
लेडी को
खुश रख
सकूँगा।
मैं-(जोश
से) बेशक!
५
गर्मी
का मौसम
था। मैं
हवा खाने
शिमले गया
हुआ था।
मेहर सिंह
भी मेरे
साथ था।
वहाँ मैं
बीमार पड़ा।
चेचक निकल
आयी। तमाम
जिस्म में
फफोले पड़
गये। पीठ
के बल
चारपाई पर
पड़ा रहता।
उस वक़्त
मेहर सिंह
ने मेरे
साथ जो-जो
एहसान किए
वह मुझे
हमेशा याद
रहेंगे। डाक्टरों
की सख्त
मनाही थी
कि वह
मेरे कमरे
में न आवे।
मगर मेहर
सिंह आठों
पहर मेरे
ही पास
बैठा रहता।
मुझे खिलाता-पिलाता, उठाता-बिठाता।
रात-रात
भर चारपाई
के क़रीब
बैठकर जागते
रहना मेहर
सिंह ही
का काम
था। सगा
भाई भी
इससे ज्यादा
सेवा नहीं
कर सकता
था। एक
महीना गुज़र
गया। मेरी
हालत रोज़-ब-रोज़
बिगड़ती जाती
थी। एक
रोज़ मैंने
डाक्टर को
मेहर सिंह
से कहते
सुना कि
‘इनकी हालत
नाजुक है।
मुझे यकीन
हो गया
कि अब
न बचूँगा,
मगर मेहर
सिंह कुछ
ऐसी दृढ़ता
से मेरी
सेवा सुश्रुषा
में लगा
हुआ था
जैसे वह
मुझे ज़बर्दस्ती
मौत के
मुँह से
बचा लेगा।
एक रोज़
शाम के
वक़्त मैं
कमरे में
लेटा हुआ
था कि
किसी के
सिसकी लेने
की आवाज
आयी। वहाँ
मेहर सिंह
को छोडक़र
और कोई
न था।
मैंने पूछा-मेहर
सिंह, मेहर
सिंह, तुम
रोते हो।
मेहर
सिंह ने
ज़ब्त करके
कहा-नहीं,
रोऊँ क्यों,
और मेरी
तरफ़ बड़ी
दर्द-भरी
आँखों से
देखा।
मैं-तुम्हारे सिसकने की
आवाज़ आयी।
मेहर
सिंह-वह
कुछ बात
न थी।
घर की
याद आ गयी
थी।
मैं-सच
बोलो।
मेहर
सिंह की
आँखें फिर
डबडबा आयीं।
उसने मेज
पर से
आईना उठाकर
मेरे सामने
रख दिया।
हे नारायण!
मैं खुद
को पहचान
न सका।
चेहरा इतना
ज़्यादा बदल
गया था।
रंगत बजाय
सुर्ख के
सियाह हो
रही थी
और चेचक
के बदनुमा
दागों ने
सूरत बिगाड़
दी थी।
अपनी यह
बुरी हालत
देखकर मुझसे
भी जब्त
न हो
सका और
आँखें डबडबा
गयीं। वह
सौन्दर्य जिस
पर मुझे
इतना गर्व
था बिल्कुल
विदा हो
गया था।
६
मैं
शिमले से
वापस आने
की तैयारी
कर रहा
था। मेहर
सिंह उसी
रोज मुझसे
विदा होकर
अपने घर
चला गया
था। मेरी
तबीयत बहुत
उचाट हो
रही थी।
असबाब सब
बँध चुका
था कि
एक गाड़ी
मेरे दरवाजे
पर आकर
रुकी और
उसमें से
कौन उतरा
मिस लीला!
मेरी आँखों
को विश्वास
न हो
रहा था,
चकित होकर
ताकने लगा।
मिस लीलावती
ने आगे
बढक़र मुझे
सलाम किया
और हाथ
मिलाने को
बढ़ाया। मैंने
भी बौखलाहट
में हाथ
तो बढ़ा
दिया मगर
अभी तक
यह यक़ीन
नहीं हुआ
था कि
मैं सपना
देख रहा
हूँ या
हक़ीक़त है।
लीला के
गालों पर
वह लाली
न थी
न वह
चुलबुलापन बल्कि
वह बहुत
गम्भीर और
पीली-पीली
सी हो
रही थी।
आख़िर मेरी
हैरत कम
न होते
देखकर उसने
मुस्कराने की
कोशिश करते
हुए कहा-तुम
कैसे जेण्टिलमैन
हो कि
एक शरीफ़
लेडी को
बैठने के
लिए कुर्सी
भी नहीं
देते।
मैंने
अन्दर से
कुर्सी लाकर
उसके लिए
रख दी।
मगर अभी
तक यही
समझ रहा
था कि
सपना देख
रहा हूँ।
लीलावती ने कहा-शायद
तुम मुझे
भूल गये।
मैं-भूल
तो उम्र
भर नहीं
सकता मगर
आँखों को
एतबार नहीं
आता।
लीला-तुम
तो बिलकुल
पहचाने नहीं
जाते।
मैं-तुम
भी तो
वह नहीं
रही। मगर
आख़िर यह
भेद क्या
है, क्या
तुम स्वर्ग
से लौट
आयी?
लीला-मैं
तो नैनीताल
में अपने
मामा के
यहाँ थी।
मैं-और
वह चिठ्ठी
मुझे किसने
लिखी थी
और तार
किसने दिया
था?
लीला-मैंने
ही।
मैं-क्यों-तुमने
यह मुझे
धोखा क्यों
दिया? शायद
तुम अन्दाजा
नहीं कर
सकती कि
मैंने तुम्हारे
शोक में
कितनी पीड़ा
सही है।
मुझे
उस वक़्त
एक अनोखा
गुस्सा आया-यह
फिर मेरे
सामने क्यों
आ गयी!
मर गयी
तो मरी
ही रहती!
लीला-इसमें
एक गुर
था, मगर
यह बात
तो फिर
होती रहेंगी।
आओ इस
वक़्त तुम्हें
अपनी एक
लेडी फ्रेण्ड
से इण्ट्रोड्यूस
कराऊँ, वह
तुमसे मिलने
की बहुत
इच्छुक हैं।
मैंने
अचरज से
पूछा-मुझसे
मिलने की!
मगर लीलावती
ने इसका
कुछ जवाब
न दिया
और मेरा
हाथ पकडक़र
गाड़ी के
सामने ले
गयी। उसमें
एक युवती
हिन्दुस्तानी कपड़े
पहने बैठी
हुई थी।
मुझे देखते
ही उठ
खड़ी हुई
और हाथ
बढ़ा दिया।
मैंने लीला
की तरफ़
सवाल करती
हुई आँखों
से देखा।
लीला-क्या
तुमने नहीं
पहचाना?
मैं-मुझे
अफ़सोस है
कि मैंने
आपको पहले
कभी नहीं
देखा और
अगर देखा
भी हो
तो घूँघट
की आड़
से क्योंकर
पहचान सकता
हूँ।
लीला-यह
तुम्हारी बीवी
कुमुदिनी है!
मैंने
आश्चर्य के
स्वर में
कहा-कुमुदिनी,
यहाँ?
लीला-कुमुदिनी मुँह खोल
दो और
अपने प्यारे
पति का
स्वागत करो।
कुमुदिनी ने काँपते
हुए हाथों
से ज़रा-सा
घूँघट उठाया।
लीला ने
सारा मुँह
खोल दिया
और ऐसा
मालूम हुआ
कि जैसे
बादल से
चाँद निकल
आया। मुझे
ख़याल आया,
मैंने यह
चेहरा कहीं
देखा है।
कहाँ? अहा,
उसकी नाक
पर भी
तो वही
तिल है,
उँगुली में
वही अँगूठी
भी है।
लीला-क्या
सोचते हो,
अब पहचाना?
मैं-मेरी
कुछ अक्ल
काम नहीं
करती। हूबहू
यही हुलिया
मेरे एक
प्यारे दोस्त
मेहर सिंह
का है।
लीला-(मुस्कराकर) तुम तो
हमेशा निगाह
के तेज़
बनते थे,
इतना भी
नहीं पहचान
सकते!
मैं
खुशी से
फूल उठा-कुमुदिनी मेहर सिंह
के भेष
में! मैंने
उसी वक़्त
उसे गले
से लगा
लिया और
खूब दिल
खोलकर प्यार
किया। इन
कुछ क्षणों
में मुझे
जो खुशी
हासिल हुई
उसके मुक़ाबिले
ज़िन्दगी भर
की खुशियाँ,
हेच हैं।
हम दोनों
आलिंगन-पाश
में बँधे
हुए थे।
कुमुदिनी, प्यारी
कुमुदिनी के
मुँह से
आवाज़ न निकलती थी। हाँ,
आँखों से
आँसू जारी
थे।
मिस
लीला बाहर
खड़ी कोमल
आँखों से
यह दृश्य
देख रही
थी। मैंने
उसके हाथों
को चूमकर
कहा-प्यारी
लीला, तुम
सच्ची देवी
हो, जब
तक जिएँगे
तुम्हारे कृतज्ञ
रहेंगे।
लीला
के चेहरे
पर एक
हल्की-सी
मुस्कराहट दिखायी
दी। बोली-अब
तो शायद
तुम्हें मेरे
शोक का
काफ़ी पुरस्कार
मिल गया।
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