सोमवार, 11 अगस्त 2014

जन्मभूमि

एक

गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर खड़ी थी। इसे यहाँ रुके पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से एकदम पचास रुपये गिलास तक चढ गया और पचास रुपये हिसाब से पानी खरीदते समय लोगों को बडी नरमी से बात करनी पडती थी । वे डरते थे कि पानी का भाव और न चढ जाएे । कुछ लोग अपने दिल को तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिन्दुओं पर बीत रही है वही उधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी, उन्हें पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा, उन्हें भी नानी याद आ रही होगी।

प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वाले भी तंग आ चुके थे। ये लोग सवारियों को हिंफांजत से नए देश में ले जाने के लिए जिम्मेवार थे। पर उनके लिए पानी कहाँ से लाते? उनका अपना राशन भी कम था। फिर भी बचे-खुचे बिस्कुट और मूँगफली के दाने डिब्बों में बाँटकर उन्होंने हमदर्दी जताने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। इस पर सवारियों में छीना-झपटी देखकर उन्हें आश्चर्य होता और वे बिना कुछ कहे-सुने परे को घूम जाते।

जैसे सवारियों के मन में यमदूतों की कल्पना उभर रही हो, और जन्म-जन्म के पाप उनकी आँखों के सामने नाच रहे हों। जैसे जन्मभूमि से प्रेम करना ही उनका सबसे बड़ा दोष हो। इसीलिए तो वे जन्मभूमि को छोड़कर भाग निकले थे। कहकहे और हँसी-ठठोले जन्मभूमि ने अपने पास रखे लिए थे। गोरी स्त्रियों के चेहरों पर जैसे किसी ने काले-नीले धब्बे डाल दिये हों। अभी तक उन्हें अपने सिरों पर चमकती हुई छुरियाँ लटकती महसूस होती थीं। युवतियों के कानों में गोलियों की सनसनाहट गूँज उठती, और वे काँप-काँप जातीं। उनकी कल्पना में विवाह के गीत बलवाइयों के नारों और मारधाड़ के शोर में हमेशा के लिए दब गये थे। पायल की झंकार घायल हो गयी थी। उनके गालों की लालिमा मटमैली होती चली गयी। जीवन का संगीत मृत्यु की खाइयों में भटककर रह गया। कहकहे शोक में डूब गये और हँसी-ठठोलों पर मानो श्मशान की राख उड़ने लगी। पाँच दिन की यात्रा में सभी के चेहरों की रौनक खत्म हो गयी थी।

यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ? इस पर विचार करने की किसे फुरसत थी? यह सब कैसे हुआ कि लोग अपनी ही जन्मभूमि में बेगाने हो गये? हर चेहरे पर खौफ था, त्रास था। बहुतों को इतना इतमीनान जरूर था कि जान पर आ बनने के बाद वे भाग निकलने में सफल हो गये। एक ही धरती का अन्न खाने वाले लोग कैसे एक-दूसरे के खून से हाथ रँगने लगे? यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ?

नए देश की कल्पना उन्हें इस गाड़ी में ले आयी थी। अब यह गाड़ी आगे क्यों नहीं बढ़ती? सुनने में तो यहाँ तक आया था कि स्टेशन पर बलवाइयों ने गाड़ी की पूरी-की-पूरी सवारियों के खून से हाथ रंग लिए थे। पर अब हालत काबू में थी। यद्यपि कुछ लोग पचास रुपये गिलास के हिसाब से पानी बेचनेवालों को बदमाश बलवाइयों के शरींफ भाई मानने के लिए तैयार न थे। नए देश में ये सब मुसीबतें तो न होंगी। वहाँ सब एक-दूसरे पर भरोसा कर सकेंगे। पर जब प्यास के मारे ओठ सूखने लगते और गले में प्यास के मारे साँस अटकने लगती तो वे तड़पकर रह जाते।

इनमें ऐसे लोग भी थे, जिनके घर जला दिये गये। वे बिलकुल खामोश थे। जैसे उनके दिल बुझ गये हों, दिमाग बुझ गये हों। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी हालत पर झट यह कहा जा सकता था कि न आषाढ़ में हरे न सावन में सूखे।

जन्मभूमि में हाथ हमेशा खाली रहे। अब नए देश में भी कौन-से उनके हाथ भर जाएँगे? वे बढ़-बढ़कर बातें करने लगते। सौ से छूटते ही उनके बोल लाखों पर आकर रुकते। पर प्यास के मारे उनका बुरा हाल था।

खचाखच भरे हुए डिब्बे पर आलुओं की बोरी का गुमान होता था। एक अधेड़ आयु की स्त्री जो बहुत दिनों से बीमार थी, एक कोने में बैठी थी। उसके तीन बच्चे थे। एक लड़की सात बरस की थी, एक पाँच बरस की, और तीसरा बच्चा अभी दूध पीता था। यह गोद का बच्चा ही उसे बुरी तरह परेशान कर रहा था। कभी-कभी तंग आकर वह उसका मुँह झटक देती। इस स्त्री का पति कई बार बच्चे को अपनी बाँहों में थामकर खड़ा हो जाता और अपनी पत्नी की आँखों में झाँककर यह कहना चाहता कि यह तीसरा बच्चा पैदा ही न हुआ होता तो बहुत अच्छा होता।

बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए बीमार स्त्री का पति कह उठा, ''तुम घबराओ मत। तुम ठीक हो जाओगी। बस अब थोड़ा-सा फासला और रहता है।''

बीमार स्त्री खामोश बैठी रही। शायद वह कहना चाहती थी कि यदि गाड़ी और रुकी रही तो बलवाई आ पहुँचेंगे और ये गिनती के मिलिटरी वाले भला कैसे हमारी जान बचा सकेंगे। जैसे ये सब सवारियाँ लाशें हों और गिध्द इनकी बू सूँघसकतेहों।

पास से किसी ने पूछ लिया, ''बहिन जी को क्या कष्ट है?''

''उस गाँव में कोई डाक्टर न था जहाँ मैं पढ़ाता था।'' बीमार स्त्री का पति कह उठा।

''तो आप स्कूल मास्टर हैं?''

''यह कहिए कि स्कूल मास्टर था,'' बीमार स्त्री के पति ने एक लम्बी आह भरते हुए कहा, ''अब भगवान जाने नए देश में हम पर क्या बीतेगी।''


दो

वह अपने मन को समझाता रहा। जरा गाड़ी चले तो सही। वे बहुत जल्द अपने राज्य में पहुँचने वाले हैं। वहाँ डाक्टरों की कमी न होगी। कहीं-न-कहीं उसे स्कूल मास्टर की जगह मिल ही जाएगी। उसकी आमदनी पहले से बढ़ जाएगी। वह अपनी पत्नी से कहना चाहता था कि जो चीज जन्मभूमि में आज तक नहीं मिल सकी, अब नए देश और जनता के राज्य में उसकी कुछ कमी न होगी।

बड़ी लड़की कान्ता ने बीमार माँ के समीप सरककर पूछा, ''माँ, गाड़ी कब चलेगी?''

छोटी लड़की शान्ता खिड़की के बाहर झाँक रही थी।

कान्ता और शान्ता का भैया ललित पिता की बाँहों में बराबर रोये जा रहा था।

स्कूल मास्टर को अपने स्कूल का ध्यान आ गया, जहाँ वह पिछले दस बरस से हेडमास्टर था। टैक्सला के समीप के इस गाँव को शुरू-शुरू में यह स्वीकार न था कि वहाँ स्कूल ठहर सके। उसने बड़े प्रेम से लोगों को समझाया था कि यह गाँव टैक्सला से दूर नहींटैक्सला जिसका प्राचीन नाम तक्षशिला है और जहाँ एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था और जहाँ दूर-दूर के देशों के विद्यार्थी शिक्षा पाने आया करते थे। यह विचार आते ही उसकी कल्पना को झटका-सा लगा क्योंकि इस युग के लोगों ने एक-दूसरे के खून से हाथ रँगने की कसमें खायीं और अत्याचार की ये घटनाएँ ढोलों और शहनाइयों के संगीत के साथ-साथ हुईं। शिक्षित लोग भी बलवाइयों के संग-संगाती बनते चले गये। शायद उन्हें भूलकर भी खयाल न आया कि अभी तो प्राचीन तक्षशिला की खुदाई के बाद हाथ आने वाले मूर्ति-कला के बहुमूल्य नमूने भी बराबर अपना सन्देश सुनाए जा रहे थे। यह कैसी जन्मभूमि थी? इस जन्मभूमि पर किसे गर्व हो सकता था, जहाँ कत्लेआम के लिए ढोल और शइनाइयाँ बजाना जरूरी समझा गया।

इतिहास पढ़ाते समय उसने अनेक बार विद्यार्थियों को बताया कि यही वह उनकी जन्मभूमि है, जहाँ कभी कनिष्क का राज्य था, जहाँ अहिंसा का मन्त्र फूँका गया था, जहाँ भिक्षुओं ने त्याग, शान्ति और निर्वाण के उपदेश दिये और अनेक बार गौतम बुद्ध के बताये हुए मार्ग की ओर उँगली उठायी। आज उसी धरती पर घर जलाये जा रहे थे, और शायद ढलती बर्फों के शीतल जल से भरपूर नदियों के साथ-साथ गरम-गरम खून की नदी बहाने का मनसूबा बाँधा जा रहा था।

डिब्बे में बैठे हुए लोगों के कन्धे झिंझोड़-झिंझोड़कर वह कहना चाहता था कि गौतम बुध्द को संसार में बार-बार आने की आवश्यकता नहीं। अब गौतम बुद्ध कभी जन्म नहीं लेगा, क्योंकि उसकी अहिंसा का सदा के लिए अन्त हो गया। अब लोग निर्वाण नहीं चाहते। उन्हें दूसरों की आबरू उतारने में आनन्द आता है।

अब तो नग्न स्त्रियों और युवतियों के जुलूस निकालने की बात किसी के टाले टल नहीं सकती। आज जन्मभूमि अपनी सन्तानों की लाशों से पटी पड़ी है। अब यह इनसान के मांस और रक्त की सड़ाँध कभी खत्म नहीं होगी।

नन्हा ललित रो-रोकर सो गया था। कान्ता और शान्ता बराबर सहमी-सहमी निगाहों से कभी माँ की तरफ और कभी खिड़की के बाहर देखने लगती थीं। एक-दो बार उनकी निगाह ललित की तरफ भी उठ गयी। वे चाहती थीं कि थोड़ी देर और उनका पिता ललित को उठाये खड़ा रहे। क्योंकि उसकी जगह उन्हें आराम से टाँगें फैलाने का अवसर मिल गया था।

शान्ता ने कान्ता के बाल नोंच डाले और कान्ता रोने लगी। पास से माँ ने शान्ता के चपत दे मारी, और इस पर शान्ता भी रोने लगी। उधर ललित भी जाग उठा और वह बेसुरे अन्दांज से रोने-चीखने लगा।स्कूल मास्टर के विचारों का क्रम टूट गया। प्राचीन तक्षशिला के विश्वविद्यालय और भिक्षुओं के उपदेश से हटकर वह यह कहने के लिए तैयार हो गया कि कौन कहता है कि इस देश में कभी गौतम बुध्द का जन्म हुआ था। वह कान्ता और शान्ता से कहना चाहता था कि रोने से कुछ लाभ नहीं। नन्हा ललित तो बेसमझ है और इसलिए बार-बार रोने लगता है, तुम तो समझदार हो। तुम्हें तो बिलकुल नहीं रोना चाहिए। क्योंकि यदि तुम इसी तरह रोती रहोगी तो बताओ तुम्हारे चेहरों पर कमल के फूल कैसे खिल सकते हैं? पास से किसी की आवांज आयी, ''यह सब फिरंगी की चाल है। जिस बस्तियों ने बड़े-बड़े हमलावरों के हमले बरदाश्त किये, अनगिनत सदियों से अपनी जगह पर कायम रहीं, आज वे भी लुट गयीं।''

''ऐसे-ऐसे कत्लेआम तो उन हमलावरों ने भी न किये होंगे। हमारे स्कूलों में झूठा और मनगढ़न्त इतिहास पढ़ाया जाता रहा है !'' एक और मुसाफिर ने ज्ञान बघारा।

स्कूल मास्टर ने चौंककर उस मुसाफिर की तरफ देखा। वह कहना चाहता था कि तुम सच कहते हो। मुझे मालूम न था। नहीं तो मैं कभी इस झूठे मनगढ़न्त इतिहास का समर्थन न करता। वह यह भी कहना चाहता था कि इसमें उसका तो कोई दोष नहीं। क्योंकि सभ्यता के चेहरे से सुन्दर खोल साँप की केंचुली की तरह अभी-अभी उतरा है, और अभी-अभी मालूम हुआ है कि मानव ने कुछ भी उन्नति नहीं की, बल्कि यह कहना होगा कि उसने पतन की तरफ ही बड़े वेग से पग बढ़ाये हैं।

''जिन्होंने बलवाइयों और हत्यारों का साथ दिया और मानवता की परंपरा का अपमान किया,'' स्कूल मास्टर ने साहस दिखाते हुए कहा, ''जिन्होंने नग्न स्त्रियों और युवतियों के जुलूस निकाले, जिन्होंने अपनी इन माताओं और बहनों की आबरू पर हाथ डाला, जिन्होंने माताओं के दूध-भरे स्तन काट डाले और जिन्होंने बच्चों की लाशों को नेंजों पर उछाल कर कहकहे लगाये, उनकी आत्माएँ सदा अपवित्र रहेंगी। और फिर यह सब कुछ यहाँ भी हुआ और वहाँ भी,जन्मभूमि में भी और नए देश में भी!''

इसके उत्तर में सामने वाला मुसांफिर चुप बैठा रहा। उसकी खामोशी ही उसका उत्तर था। शायद वह कहना चाहता था कि इन बातों से क्या लाभ। ऊपर से उसने इतना ही कहा, ''हमें यह कैसी आजादी मिली है?''


तीन

कान्ता और शान्ता के आँसू थम गये थे। ललित भी कुछ क्षणों के लिये खामोश हो गया। स्कूल मास्टर की निगाहें अपनी बीमार पत्नी की ओर गयीं, जो खिड़की के बाहर देख रही थी। शायद वह पूछना चाहती थी कि जन्मभूमि छोड़ने पर हम क्यों मजबूर हुए। या क्या यह गाड़ी यहाँ इसीलिए रुक गयी है कि हमें फिर से अपने गाँव लौट चलने का विचार आ जाए।

स्कूल मास्टर के होंठ बुरी तरह सूख रहे थे। उसका गला बुरी तरह खुश्क हो चुका था। उसे यह महसूस हो रहा था कि कोई उसकी आत्मा में काँटे चुभे रहा है। एक हाथ सामने वाले मुसाफिर के कन्धे पर रखते हुए वह बोला

''सरदार जी, बताओ तो सही कि कल का इनसान उस अन्न को भला कैसे अपना भोजन बनाएगा, जिसका जन्म उस धरती की कोख से होगा, जिसे अनगिनत मासूम बेगुनाहों की लाशों की खाद प्राप्त हुई?''

सरदार जी का चेहरा तमतमा उठा। जैसे वह ऐसे विचित्र प्रश्न के लिए तैयार न हों। किसी कदर सँभलकर उसने भी प्रश्न कर डाला, ''आप बताओ, इसमें धरती का क्या दोष है?''

''हाँ-हाँ इसमें धरती का क्या दोष है?'' स्कूल मास्टर कह उठा, ''धरती को तो खाद चाहिए। फिर वह कहीं से भी क्यों न मिले।''

सरदार जी प्लेटफार्म की ओर देखने लगे। बोले, ''यह गाड़ी भी अजीब ढीठ है, चलती ही नहीं। बलवाई जाने कब आ जाएँ!''

स्कूल मास्टर के मन में अनगिनत लाशों का दृश्य घूम गया, जिनके बीचोबीच बच्चे रेंग रहे हों। वह इन बच्चों के भविष्य पर विचार करने लगा। यह कैसी नई पौध है? वह पूछना चाहता था। यह नई पौध भी कैसी सिध्द होगी? उसे उन अनगिनत युवतियों का ध्यान आया, जिनकी इंज्जत पर हाथ डाला गया था। पुरुष की दहशत के सिवा इन युवतियों की कल्पना में और क्या उभर सकता है? उनके लिए निश्चत ही यह आजादी बरबादी बनकर आयी। वे निश्चय ही आंजादी के नाम पर थूकने से भी नहीं कतराएँगी। उसे उन कन्याओं का ध्यान आया, जो अब माताएँ बननेवाली थीं। ये कैसी माताएँ बनेंगी? वह पूछना चाहता था। ये घृणा के बीज भला क्या फल लाएँगे? उसने सोचा, इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास न होगा। वह डिब्बे में एक-एक व्यक्ति का कन्धा झिंझोड़कर कहना चाहता था कि मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो। नहीं तो यदि यह गाड़ी पचास-पचपन घंटों तक रुकने के पश्चात् आगे चलने के लिए तैयार भी होगी तो मैं जंजीर खींचकर गाड़ी को रोक लूँगा।

''क्या यह गाड़ी अब आगे नहीं जाएगी, हे भगवान्?'' बीमार स्त्री ने अपने चेहरे से मक्खियाँ उड़ाते हुए पूछ लिया।

''निराश होने की क्या जरूरत है? गाड़ी आखिर चलेगी ही।'' स्कूल मास्टर कह उठा।

स्कूल मास्टर खिड़की से सिर निकालकर बाहर की ओर देखने लगा। एक-दो बार उसका हाथ जेब की तरफ बढ़ा अन्दर गया और फिर बाहर आ गया। इतना महँगा पानी खरीदने का उसे साहस न हुआ। जाने क्या सोचकर उसने कहा, ''गाड़ी अभी चल पड़े तो नए देश की सीमा में घुसते उसे देर न लगेगी। फिर पानी की कुछ कमी न होगी। ये कष्ट के क्षण बहुत शीघ्र बीत जाएँगे।''


चार

कन्धे पर पड़ी हुई फटी-पुरानी चादर को वह बार-बार सँभालता था। इसे वह अपनी जन्मभूमि से बचाकर लाया था। बलवाइयों के अचानक गाँव में आ जाने के कारण वह कुछ भी तो नहीं निकाल सका था। बड़ कठिनाई से वह अपनी बीमार पत्नी और बच्चों के साथ भाग निकला था। अब इस चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे गाँव का जीवन याद आने लगा। एक-एक घटना मानो एक-एक तार थी और इन्हीं तारों की सहायता से समय के जुलाहे ने जीवन की चादर बुन डाली थी। इसी चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे मानो उस मिट्टी की सुगन्ध आने लगी, जिसे वह वर्षों से सूँघता आया था। जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से जबरदस्ती उखाड़कर इतनी दूर फेंक दिया। जाने अब गाड़ी कब चलेगी?

अब यह जन्मभूमि नहीं रह गयी। देश का बँटवारा हो गया। अच्छा चाहे बुरा। जो होना था सो हो गया। अब देश के बँटवारे को झुठलाना सहज नहीं। पर क्या जीवन का बँटवारा भी हो गया?

अपनी बीमार पत्नी के समीप झुककर वह उसे दिलासा देने लगा, ''इतनी चिन्ता नहीं किया करते। नए देश में पहुँचने भर की देर है। एक अच्छे से डाक्टर से तुम्हारा इलाज कराएँगे। मैं फिर किसी स्कूल में पढ़ाने लगूँगा। तुम्हारे लिए फिर से सोने की बालियाँ घड़ा दूँगा।'' कोई और समय होता तो वह अपनी पत्नी से उलझ जाता कि भागते समय इतना भी न हुआ कि चुड़ैल अपनी सोने की बालियाँ ही उठा लाती। बल्कि वह उस कजलौटी तक के लिए झगड़ा खड़ाकर देता, जिसे वह दर्पण के समीप छोड़ आयी थी । कजलौटी, जिसकी सहायता से वह इस अधेड़ आयु में भी कभी-कभी आँखों में बीते सपनों की याद जाता कर लेती थी।

कान्ता ने झुककर शान्ता की आँखों में कुछ देखने का प्रयास किया। जैसे वह पूछना चाहती हो कि बताओ पगली, हम कहाँ जा रहे हैं।

''मेरा झुनझुना?'' शान्ता ने पूछ लिया।

''मेरी गुड़िया!'' कान्ता बोली।

''यहाँ न झुनझुना है, न गुड़िया!'' स्कूल मास्टर ने अपनी आँसू-भरी आँखों से अपनी बच्चियों की ओर देखते हुए कहा, ''मेरी बेटियो! झुनझुने बहुतेरे,गुड़ियाँ बहुतेरी, नए देश में हर चीज मिलेगी।''

पर रह-रहकर उसका मन पीछे की तरफ मुड़ने लगता। यह कैसा आकर्षण है? यह जन्मभूमि पीछे रह गयी। अब नया देश समीप है। गाड़ी चलने भर की देर है। उसने झुँझलाकर इधर-उधर देखा। जैसे वह डिब्बे में बैठे हुए एक-एक व्यक्ति से पूछना चाहता हो कि बताओ गाड़ी कब चलेगी।

''जन्मभूमि हमेशा के लिए छूट रही है!'' उसने अपने कन्धों पर पड़ी हुई चादर को बायें हाथ की उँगलियों से सहलाते हुए कहना चाहा। जैसे इस चादर के भी कान हों, और वह सब सुन सकती हो। खिड़की से सिर निकालकर उसने पीछे की तरफ देखा और उसे यों लगा जैसे जन्मभूमि अपनी बाँहें फैलाकर उसे बुला रही हो। जैसे वह कह रही हो कि मुझे यों छोड़कर चले जाओगे, मेरा आशीर्वाद तो तुम्हारे लिए हमेशा था और हमेशा रहेगा!

स्कूल मास्टर की बीमार पत्नी ने नन्हे ललित से समझौता कर लिया था। इस दूध की एक-एक बूँद पर पचासों रुपये निछावर किए जा सकते थे। यह दूध पचास रुपये गिलास के हिसाब से बिकने वाले दूध से अवश्य महँगा था।

चादर पर दायें हाथ की उँगलियाँ फेरते हुए स्कूल मास्टर को जन्मभूमि की धरती का ध्यान आ गया, जो शताब्दियों से रुई की खेती के लिए विख्यात थी।

उसकी कल्पना में कपास के दूर तक फैले हुए खेत उभरे। यह इसी कपास का जादू ही तो था कि जन्मभूमि रुई के अनगिनत ढेरों पर गर्व कर सकती थी।

जन्मभूमि में रुई से कैसे-कैसे बारीक तार निकाले जाते थे। घर-घर चरखे चलते थे। सजीव चरखा कातने वालियों की रंगीली महफिलें, वे 'त्रिंजन'! वह बढ़-बढ़कर सूत कातने की होड़! वे सूत की अंटियाँ तैयार करने वाले हाथ! वे जुलाहे जो परंपरागत कथाओं में मूर्ख समझे जाते थे, पर जिनकी उँगलियों को महीन-से-महीन कपड़ा बुनने की कला आती थी। जैसे जन्म-भूमि पुकार-पुकारकर कह रही होतुम कद के लम्बे हो और शरीर के गठे हुए। तुम्हारे हाथ-पाँव मजबूत हैं। तुम्हारा सीना कितना चौड़ा है। तुम्हारे जबड़े इतने संख्त हैं कि पत्थर तक चबा जाओ। यह सब मेरे कारण ही तो है। देखो, तुम मुझे छोड़कर मत जाओ...स्कूल मास्टर ने झट खिड़की के बाहर देखना बन्द कर दिया और उसकी आँखें अपनी बीमार पत्नी के चेहरे पर जम गयीं।


पाँच

वह कहना चाहता था कि मुझे वे दिन अभी तक याद हैं, ललित की माँ, जब तुम्हारी आँखें काजल के बिना ही काली-काली और बड़ी-बड़ी नंजर आया करती थीं। मुझे याद हैं वे दिन, जब तुम्हारे शरीर में हिरनी की-सी मस्ती थी। उन दिनों तुम्हारे चेहरे पर चाँद की चाँदनी थी, सितारों की चमक थी। मुस्कान, हँसी,कहकहा तुम्हारे चेहरे पर खुशी के तीनों रंग थिरक उठते थे। तुम पर जन्मभूमि कितनी दयालु थी। तुम्हारे सिर पर वे काले घुँघराले केश! उन सावन के काले-काले मेघों को अपने कन्धों पर सँभाले तुम मटक-मटक कर चला करती थीं गाँव की गलियों में, और पगडंडियों पर! घुर-घुर धाँ-भाँ जैसे मटकी में गिरते समय ताजा दुहे जाने वाला दूध बोल उठे। स्कूल मास्टर को यों लगा, जैसे अभी बहुत कुछ बाकी हो।

जैसे वह वर्षों के घूमते हुए भँवर में चमकती हुई किरन के दिल की बात भाँपकर कह सकता हो कि बीते सपने कल्पना के कला-भवन में सदैव थिरकते रहेंगे। जैसे वह ताक में पड़ी सुराही से कह सकती हो , ओ सुराही, तेरी गरदन टेढ़ी है, भला मैं वे दिन कैसे भूल सकता हँ जब तुम नई-नई इस घर में आयी थी।

वह चाहता था कि गाड़ी जल्द-से-जल्द नए देश की सीमा में प्रवेश कर जाए। फिर उसके सब कष्ट मिट जाएँगे। पत्नी का इलाज भी हो सकेगा। जन्मभूमि पीछे रह जाने के विचार से कुछ उलझन-सी अवश्य महसूस हुई। पर उसने तुरन्त अपने मन को समझा लिया। वह यह प्रयास करने लगा कि नए देश में जन्मभूमि की कल्पना कायम कर सके। आखिर एक गाँव को तो जन्मभूमि नहीं कहते , जन्मभूमि तो बहुत विशाल है, बहुत महान् है। उसकी महिमा का गान तो देवता भी पूरी तरह नहीं कर सकते। जिधर से गाड़ी यहाँ तक आयी थी, और जिधर गाड़ी को जाना था, दोनों तरफ एक-जैसी भूमि दूर तक चली गयी थी। उसे विचार आया कि भूमि तो सब जगह एक-जैसी है। जन्मभूमि और नए देश की भूमि में बहुत अधिक अन्तर तो नहीं हो सकता। वह चाहता था कि जन्मभूमि की वास्तविक कल्पना कायम करे। पौ फटने से पहले का दृश्यदूर तक फैला हुआ क्षितिज किनारे-किनारे पहाड़ियों की झालर आकाश पर बगलों की पंक्ति खुली कैंची के रूप में उड़ती हुई पूरब की ओर उषा का उजाला !...

धरती ऐसी जैसी किसी युवती की गरदन के नीचे ऊँची घाटियों के बीचो-बीच ताजा श्वेत मक्खन दूर तक फैला हुआ हो। वह चिल्लाकर कहना चाहता था कि जन्मभूमि का यह दृश्य नए देश में भी जरूर नजर आएगा। अपने कन्धों पर पड़ी हुई चादर को वह दायें हाथ की उँगलियों से सहलाने लगा।

जैसे वह इस चादर के मुख से अपना समर्थन चाहता हो। लटकती डालियाँ, महकती कलियाँ, इन्द्रधनुष के रंग, आकाश-गंगा का दूधिया-सौन्दर्य, युवतियों के कहकहे, नव कुलवधुओं की लाजजन्मभूमि का रूप इन्हीं पर कायम था।

अपने खमीर पर, अपनी तासीर पर जन्मभूमि मुसकराती आयी है और मुसकराती रहेगी। वह कहना चाहता था कि नए देश में भी जन्मभूमि का रूप किसी से कम थोड़ी होगा, वहाँ भी गेहँ के खेत दूर तक फैले हुए नंजर आएँगे।

जन्मभूमि का यह दृश्य नए देश में भी उसके साथ-साथ जाएगा, उसे विश्वास था।

उसके बायें हाथ की ऍंगुलियाँ बराबर कन्धे पर पड़ी हुई फटी-पुरानी और मैली चादर से खेलती रहीं। जैसे ले-देकर आज यही चादर जन्मभूमि की प्रतीक बन गयीहो।

''फिरंगी ने देश का नक्शा बदल डाला,'' सरदारजी कह रहे थे, पास से कोई बोला, ''यह उसकी पुरानी चाल।''

एक बुढ़िया ने कहा, ''फिरंगी तो बहुत दिनों से इस देश में बस गया था। मैं न कहती थी कि हम बुरा कर रहे हैं जो फिरंगी को उनके बंगलों से निकालने की सोच रहे हैं? मैं न कहती थी कि फिरंगी का सराप लगेगा?''

दूसरी बुढ़िया बोली, ''यह सब फिरंगी का सराप ही तो है, बहिन जी!''

स्कूल मास्टर को पहली बुढ़िया पर बहुत क्रोध आया। उसकी आवांज में जन्मभूमि के सन्देह बोल उठे, उसने सोचा। दूसरी बुढ़िया उससे भी कहीं अधिक मूर्ख थी जो बिना सोचे हाँ में हाँ मिलाये जा रही थी।

परे कोने में एक कन्या चीथड़ों में लिपटी हुई बैठी थी। जैसे उसकी सहमी-सहमी निगाहें इस डिब्बे के प्रत्येक यात्री से पूछना चाहती होंक्या ये मेरे आखिरी घाव हैं? उसके बायीं तरफ उसकी माँ बैठी थी, जो शायद फिरंगी से कहना चाहती थी कि मेरी गुलामी मुझे लौटा दो, क्योंकि गुलामी में मेरी बिटिया की आबरू नहीं लुटी थी।

डिब्बे में बैठे हुए जो लोग भीड़ के कारण बेहद भिंचे हुए थे, उनकी आँखों में भय की यह दशा थी कि वे प्रतिक्षण बड़े वेग से बुङ्ढे हो रहे थे। सरदारजी बोले, ''इतनी लूट तो बाहर से आने वाले हमलावरों ने भी न की होगी।''

पास से किसी ने कहा, ''इतना सोना लूट लिया गया कि सौ-सौ पीढ़ियों तक खत्म नहीं होगा।''

''लूट का सोना ज्यादा दिन नहीं ठहरता।'' एक और यात्री बोल उठा।

सरदारजी का चेहरा तमतमा उठा। बोले, ''पुलिस के सिपाही भी तो सोना लूटने वालों के साथ रहते थे। पर लूट का सोना पुलिस के सिपाहियों के पास भी कितने दिन ठहरेगा? आज भी दुनिया सतगुरु नानक देव जी महाराज की आज्ञा पर चले तो शान्ति हो सकती है।''


छह

छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन इतने घंटों से गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर रुकी खड़ी थी। अब तो प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वालों के तने हुए शरीर भी ढीले पड़ गये थे। किसी में इतनी हिम्मत न थी कि डिब्बे से नीचे जाकर देखे कि आखिर गाड़ी रुकने का कारण क्या है। डिब्बे में हर किसी का दम घुटा जा रहा था, और हर कोई चाहता था कि और नहीं तो इस डिब्बे से निकलकर किसी दूसरे डिब्बे में कोई अच्छी-सी जगह ढूँढ़ ले। पर यह डर भी तो था कि कहीं यह न हो कि न इधर के रहें न उधर के और गाड़ी चल पड़े।

''फिरंगी का सराप खत्म होने पर ही चलेगी गाड़ी!'' बुढ़िया बोली।

''सच है, बहिन जी!'' दूसरी बुढ़िया कह उठीं।

स्कूल मास्टर ने उड़ने वाले पक्षी के समान बाँहें हवा में उछालते हुए कहा, ''फिरंगी को दोष देते रहने से तो न जन्मभूमि का भला होगा न नए देश का।''

पहली बुढ़िया ने रूखी हँसी हँसते हुए कहा, ''फिरंगी चाहे तो गाड़ी अभी चल पड़े।''

कान्ता ने खिड़की सो झाँककर दूसरे डिब्बे की खिड़की में किसी को पानी पीते देख लिया था। वह भी पानी के लिए मचलने लगी। उसकी बीमार माँ ने कराहती हुई आवाज में कहा, ''पानी का तो अकाल पड़ रहा है, बिटिया!''

अब शान्ता भी पानी की रट लगाने लगी। सरदारजी ने जेब में हाथ डाल कर कुछ नोट निकाले और पाँच-पाँच रुपये के पाँच नोट स्कूल मास्टर की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ''इससे आधा गिलास पानी ले लिया जाए।''

स्कूल मास्टर ने झिझकते हाथों से नोट स्वीकार किये। आधा गिलास पानी की कल्पना से उसकी आँखें चमक उठीं। खाली गिलास उठाकर वह पानी की तलाश में नीचे प्लेटफार्म पर उतर गया। अब 'हिन्दू पानी!' और 'मुस्लिम पानी!' का भेद नहीं रह गया था। बड़ी कठिनाई से एक व्यक्ति के पास पानी नंजर आया।

बावन रुपये गिलास के हिसाब से पच्चीस रुपये का पानी आधे गिलास से कुछ कम ही आना चाहिए था। पानी बेचने वाले ने पेशगी रुपये वसूल कर लिए और बड़ी मुश्किल से एक-तिहाई गिलास पानी दिया।

डिब्बे में आकर सरदारजी के गिलास में थोड़ा पानी उड़ेलते समय जल्दी में कोई एक घूँट पानी फर्श पर गिर गया। झट से पानी का गिलास कान्ता के मुँह पर थमाते हुए उसने कहा, ''पी ले बेटा!'' उधर से शान्ता ने हाथ बढ़ाये।

स्कूल मास्टर ने कान्ता के मुँह से गिलास हटाकर उसे शान्ता के मुँह पर थमा दिया।

फिर काँपते हाथों से यह गिलास उसने अपनी बीमार पत्नी के होंठों की तरफ बढ़ाया जिसने आँखों-ही-आँखों में अपने पति से कहा कि पहले आप भी अपने होंठ गीले कर लेते। पर पति इसके लिए तैयार न था।

कान्ता और शान्ता ने मिलकर जोर से गिलास पर हाथ मारे। बीमार माँ के कमजोर हाथों से छूटकर गिलाश फर्श पर गिर पड़ा। स्कूल मास्टर ने झट लपककर गिलास उठा लिया। बड़ी मुश्किल से इसमें एक घूँट पानी बच पाया था। यह एक घूँट पानी उसने झट अपने गले में उँड़ेल लिया।

सरदारजी कह रहे थे, ''इतना कुछ होने पर भी इनसान जिन्दा है और जिन्दा रहेगा।''

स्कूल मास्टर कह उठा, ''इनसानियत जन्मभूमि का सबसे बड़ा वरदान है। जैसे एक पौधे को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर लगाया जाता है, ऐसे ही हम नए देश से जन्मभूमि का पौधा लगाएँगे। हमें इसकी देखभाल करनी पड़ेगी और इस पौधे को नई जमीन में जड़ पकड़ते कुछ समय अवश्य लगेगा।''

यह कहना कठिन था कि बीमार औरत के गले में कितने घूँट पानी गुंजरा होगा। पर इतना तो प्रत्यक्ष था कि पानी पीने के बाद उसकी अवस्था और भी डावाँडोल हो गयी। अब उसमें इतनी शक्ति न थी कि बैठी रह सके। सरदारजी ने न जाने क्या सोचकर कहा, ''दरिया भले ही सूख जाएे, पर दिलों के दरिया तो सदा बहते रहेंगे। दिल दरिया समुन्दरों डूबें!'


सात

स्कूल मास्टर कह उठा, ''कभी ये दिलों के दरिया जन्मभूमि में बहते थे। अब ये दरिया नए देश में बहा करेंगे।''

बीमार स्त्री बुखार से काँपने लगी। सरदारजी बोले, ''यह अच्छा होगा कि इसे थोड़ी देर के लिए नीचे प्लेटफार्म पर लिटा दिया जाए। बाहर की खुली हवा इसके लिए अच्छी रहेगी।''

स्कूल मास्टर ने एहसान-भरी निगाहों से सरदारजी की तरफ देखा और उनकी मदद से बीमार पत्नी को डिब्बे से उतार कर प्लेटफार्म पर लिटा दिया।

सरदारजी फिर अपनी जगह पर जा बैठे और स्कूल मास्टर अपनी पत्नी के चेहरे पर रूमाल से पंखा करने लगा। वह धीरे-धीरे उसे दिलासा देने लगा, ''तुम अच्छी हो जाओगी। हम बहुत जल्द नए देश में पहुँचने वाले हैं। वहाँ मैं अच्छे-अच्छे डाक्टरों से तुम्हारा इलाज करवाऊँगा।''

बीमार औरत के चेहरे पर दबी-दबी-सी मुसकान उभरी। पर उसके मुख से एक भी शब्द न निकला, मानो उसकी खुली-खुली आँखें कह रही होंमैं जन्मभूमि को नहीं छोड़ सकती। मैं नए देश में नहीं जाना चाहती। मैं इस धरती की कोख से जन्मी और इसी में समा जाना चाहती हँ!

उसकी साँस जोर-जोर से चलने लगी। उसकी आँखें पथराने लगीं। स्कूल मास्टर घबराकर बोला, ''यह तुम्हें क्या हो रहा है? गाड़ी अब और नहीं रुकेगी। नया देश समीप ही तो है। अब जन्मभूमि का विचार छोड़ दो। हम आगे जाएँगे।''

खिड़की से कान्ता और शान्ता फटी-फटी आँखों से देख रही थीं, उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सरदारजी ने खिड़की से सिर बाहर निकालकर पूछा, ''अब बहनजी का क्या हाल है?''

स्कूल मास्टर बोला, ''यह अब जन्मभूमि में ही रहेंगी।''

सरदार जी बोले, ''कहो तो थोड़ा पानी खरीद लें।''

बीमार औरत ने बुझते दीप की तरह साँस लिया और उसके प्राण-पखेरू निकल गये।

लाश के समीप खड़े-खड़े स्कूल मास्टर ने बड़े ध्यान से देखा और कहा, ''अब वह पानी नहीं पीएगी।''

उधर इंजन ने सीटी दी और गाड़ी धीरे-धीरे प्लेटफार्म के साथ-साथ रेंगने लगी। उसने एक बार पत्नी की लाश की तरफ देखा फिर उसकी निगाहें गाड़ी की तरफ उठ गयीं। खिड़की से कान्ता और शान्ता उसकी तरफ देख रही थीं। लाश के साथ रह जाएे या लपककर डिब्बे में जा बैठे, यह प्रश्न बिजली के कौंध की तरह उसके हृदय और मस्तिष्क को चीरता चला गया।

उसने अपने कन्धे से झट वह फटी-पुरानी मैली चादर उतारी, जिसे वह जन्मभूमि से बचाकर लाया था और जिसके धागे-धागे में अभी तक जन्मभूमि साँस ले रही थी।

इस चादर को उसने अपने सामने पड़ी हुई लाश पर फैला दिया और गाड़ी की तरफ लपका। कान्ता की आवाज एक क्षण के लिए वातावरण में लहरायीं, ''माँ!''

गाड़ी तेज हो गयी थी, कान्ता की आवाज हवा में उछलकर रह गयी थी। स्कूल मास्टर ने शान्ता को गोद में उठा लिया और पलटकर लाश की तरफ न देखा।

                                                             --देवेन्द्र सत्यार्थी--

चमड़े का अहाता

शहर की सबसे पुरानी हाइड-मार्किट हमारी थी। हमारा अहाता बहुत बड़ा था।

हम चमड़े का व्यापार करते थे।

मरे हुए जानवरों की खालें हम ख़रीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते।

हमारा काम अच्छा चलता था।

हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी ऱहती। कई बार एक ही समय पर एक तरफ. यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ़ तैयार, परतदार चमड़ा एकसाथ छकड़ों में दबवाया जा रहा होता।

ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंज़िला मकान था। मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था।

हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं।

भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे। हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी।

सौतेली माँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी।

मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था। वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं। मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था। पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता।

भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा। उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी। हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज़्ज़त करता। फिर भी पिता उसे कुछ न कहते। मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल का पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से ग़ायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते।

रहस्य हम पर अचानक ही खुला।

भाई ने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे। सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था।

कबूतर छत पर रहते थे।

अहाते में खालों के खमीर व मांस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अकसर मँडराया करते।

भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे। बक्सा बहुत बड़ा था। उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में वे उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते।

भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता। कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता।

सौतेला और मैं अकसर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते। कबूतरों के लिए पानी लगाना हमारे ज़िम्मे रहता। बिना कुछ बोले भाई कबूतरोंवाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते। उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लिया जाता था।

गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत पर लेकर जाते।

आज क्या लिखा? बाल्टी पकड़ाते समय भाई को टोहते।

कुछ नहीं, भाई अकसर हमें टाल देता और हम मन मसोसकर कबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते।

उस दिन हमारे हाथ बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी,

आज यह बड़ी कबूतरी बीमार हैं।

देखें, सौतेला और मैं खुशी से उछल पड़े।

ध्यान से, भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी।

सौतेले की नज़र एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी।

क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ? सौतेले ने भाई से विनती की।

यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है।

मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा।

भाई का डर सही साबित हुआ।

सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुंडेर पर जा बैठा।

भाई उसके पीछे दौड़ा।

ख़तरे से बेख़बर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुंडेर से दूसरी मुंडेर पर विचरने लगा।

तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया।

कबूतर फुर्तीला था। पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया।

चील ने तेज़ी से कबूतर का अनुगमन किया।

भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन ज़रा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली।

देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए।

ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा।

घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा। सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आईं। सौतेले की दुर्दशा उनसे देखी न गई।

इसे छोड़ दे, वे चिल्लाईं, नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी। वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा।

किस टंकी में? भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया।

मैं क्या जानूँ किस टंकी में?

हमारे अहाते के दालान के अंतिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं। एक टंकी में नई आई खालें नमक, नौसागर व गंधक मिले पानी में हफ्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में ख़मीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था।

बोलो, बोलो, भाई ने ठहाका लगाया, तुम चुप क्यों हो गईं?

चल उठ, सौतेली माँ ने सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया।

मैं सब जानता हूँ, भाई फिर हँसा, पर मैं किसी से नहीं डरता। मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं...

तुमने चमगीदड़ी किसे कहा? सौतेली माँ फिर भड़कीं।

चमगीदडी को चमगीदड़ी कहा है, भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी गईं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली। मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया...

तू भी मेरे साथ नीचे चल, खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए जलेबी मँगवाई हैं...

जलेबी मुझे बहुत पसंद थीं, परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी।

तुम जाओ, सौतेली ने अपने आपको अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, हम लोग बाद में आएँगे।

ठीक है, सौतेली माँ ठहरी नहीं, नीचे उतरते हुए कह गईं, जल्दी आ जाना। जलेबी ठंडा हो रही हैं।

लड़कियों को टंकी में क्यों फेंका गया? मैं भाई के नज़दीक- बहुत नज़दीक जा खड़ा हुआ।

क्योंकि वे लड़कियाँ थीं।

लड़की होना क्या ख़राब बात है? सौतेले ने पूछा।

पिता जी सोचते हैं, लड़कियों की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है।

कैसी मुश्किल?

पैसे की मुश्किल। उनकी शादी में बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ता है।

पर हमारे पास तो बहुत पैसा है, मैंने कहा।

पैसा है, तभी तो उसे बचाना ज़रूरी है, भाई हँसा।

माँ कैसे मरीं? मैंने पूछा। माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था। घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी।

छोटी लड़की को लेकर पिता जी ने उससे खूब छीना-झपटी की। उन्हें बहुत मारा-पीटा। पर वे बहुत बहादुर थीं। पूरा ज़ोर लगाकर उन्होंने पिता जी का मुक़ाबला किया, पर पिता जी में ज़्यादा ज़ोर था। उन्होंने ज़बरदस्ती माँ के मुँह में माँ का दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गईं।

तुमने उन्हें छुड़ाया नहीं?

मैंने बहुत कोशिश की थी। पिता जी की बाँह पर, पीठ पर कईं चिकोटी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी, पर एक ज़बरदस्त घूँसा उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत नहीं बैठ गए...

पिता जी को पुलिस ने नहीं पकड़ा?

नहीं! पुलिस को किसी ने बुलाया ही नहीं।

वे कैसी थीं? मुझे जिज्ञासा हुई।

उन्हें मनकों का बहुत शौक था। मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनाईं। बाज़ार से उनकी पसंद के मनके मैं ही उन्हे लाकर देता था।

उन्हें पंछी बहुत अच्छे लगते थे? सौतेले ने पूछा, सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं। घर की लगभग सभी दीवारों पर मूरतें रहीं।

हाँ। कई मोर... कई तोतों में अक्ल भी होती है और वफ़ादारी भी... कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं।

मैं वे कहानियाँ सुनूँगा, मैंने कहा।

मैं भी, सौतेले ने कहा।

पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर था। दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इस मुए चमड़े की सडाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक्त सड़ता रहता है...

मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं लगता, सौतेले ने कहा।

बड़ा होकर मैं अहाता छोड़ दूँगा, भाई मुस्कराया, दूर, किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा। वहाँ जाकर मनकों का कारखाना लगाऊँगा...

उस दिन जलेबी हम तीनों में से किसी ने न खाईं।

                                                                --दीपक शर्मा--

कालिन्दी

रिक्शों के हुजूम में मेरा रिक्शा भी बहुत धीरे ही सही मगर आगे बढता जा रहा है। भीड़ इतनी है कि पैदल चलो तो कंधे छिलें। रिक्शे भी आपस में उलझ रहे हैं। अब तो यहाँ भीड़ और बढ ग़ई है। मैं फिर लौट रहा हूँ वहाँ। उस एक गली में, जिसकी पहचान उसमें रहने वाली उन कुछ औरतों से थी और शायद अब भी है। जिनके सर्वसुलभ जिस्मों की महक हवाओं में सूंघ कर न जाने कहाँ - कहाँ से लोग आते थे। सामान लाद कर मुम्बई आए ट्रक ड्राईवर, सुदूर प्रदेशों से रोजी की तलाश में परिवारों को पीछे छोड़ आए मजदूर - कामगार, निचले तबके के लोग। कुछ मध्यमवर्ग के भी, अपनी औरतों से उकताए लोग। यह गली हमेशा अनजाने चेहरों के हूजूम से घिरी रहती थी। ये चेहरे तरह - तरह का शोर मचाया करते थे। समय कोई भी तय नहीं था। हर वक्त एक भूख में बिलबिलाते चेहरे।

मुझे जहाँ जाना था वह एक तीन मंजिला पीली इमारत थी। ढहती हुई सी। जिसके छज्जे लटके हुए थे।अनैतिकता वहाँ खुले सर घूमती थी। तरह - तरह के गलत - सही कामों में मुब्तिला वहाँ बहुत से परिवार थे। अवैध शराब बेचने वाले। बहुत निचले तबके के स्मगलर। नशीली दवाओं का धन्धा करने वाले। फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करने वाले, आर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली लडक़ियां। ऐसी कुछ औरतें जो खुल कर शरीर का धन्धा करती थीं। कुछ ऐसी जो चुपचाप - चुपचाप अपने बच्चों से छिप कर, पति या पिता की सहमति से दैहिक सुख के बदले में घर का खर्चा चला रही थीं। बहुत कम कीमत पर। आह! इतनी कम कि !

ऐसी पीली इमारतों की एक श्रृंखला थी। पीली इमारतों के आगे दलाल (जो अकसर उनके पति या प्रेमी हुआ करते थे) और ग्राहक वहाँ की औरतों के जिस्मों का भाव - ताव करते। गहरे - अंधरे कमरे। सीलन और बदबुओं से गंधाते। ग्राहकों की प्रतीक्षा में। उन पीले घरों की परछांइयों में एक आतंक और डर भी थरथराता था। कई बार वहाँ चाकू चल जाते। बलात्कार होते।

कभी - कभी मैं हैरान होता हूँ, यह सोच कर कि वह एकदम सही माहौल था जो मुझे नशीली दवाओं का आदी बना सकता था। या फिर मैं किसी 'पैडिफिलिस' यानि बच्चों का यौनशोषण करने वाले आदमी या औरत के हाथों रबर के गुड्डे की तरह तोड़ - मरोड़ दिया जा सकता था। पूरी गुंजाइश थी उस माहौल में कि दुरगा जैसी कामुक औरत मुझे फुसला लेती या डेविड के गोद में बिठाने वाले खेल मुझे बरबाद कर देते। उस चाल के और बच्चों जैसा ही कोमल शिकार था, मैं भी। उस जगह के घातों - प्रतिघातों के प्रति सदा छठी इन्द्रीय जाग्रत रखे हुए 'जमना' मुझे आगाह करती रहती थी। इसके पास मत जा..उसके साथ बात नहीं..इसके कमरे गया तो देखना. ..उसके साथ खेला तो। फिर भी मैं इन भयावह कल्पनाओं में जीने लगता हूं कि ऐसा हुआ होता तो, क्या होता ? मुझे अजीब का पीड़ादायक सुख मिलता है इन कल्पनाओं में। मैं अपने अंतस के खाज भरे कोने खुजला कर लहुलुहान कर लिया करता हूं। मीठा दर्द और मीठा सुख।

'कश्टमर' शब्द उस गली के हमउम्र बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था। एक पिशाच जो औरतों का गला दबाया करता था। औरतें उसकी गिरफ्त में कराहतीं थीं। एक पिशाच जिसके न आने से -- कभी कटोरदान में रोटी कम पड़ ज़ाती थीं या फिर बचती तो सब्जी या शोरबे के बिना ही खानी होती थीं।

किवदंतियां जुड़ी थीं इस शब्द से। पहली बार जब यह कान में पडा तो मेरे अलावा बाकि बच्चों को कुछ भी अटपटा नहीं लगा। हम सब बच्चे रात को साढे दस बजे बिल्डिंग के सामने खेल रहे थे। तभी छोटू दलाल आकर बोला था -- "स्साले रण्डीखाने की औलादों ये कोई खेलने का टैम है। तुम पर तो अफीम भी अब असर नहीं करती। जाओ जाकर सो जाओ। कश्टमरों का टैम है ये।"

मैं ने 'कश्टमर' कभी नहीं देखा था। एक बार मैं स्कूल से लौटा तो देखा वो किसी आदमी को जल्दी - जल्दी कमरे से धकेल रही थी। मैं ने पूछा, '' ये ही कश्टमर था क्या ?'' वह फटी हुई आंखों से मुझे देखती रही और बिना खाना दिए बिस्तर पर धम्म गिर गई। मैं शाम तक भूखा बैठा रहा। उसके संदूक में रखे पुराने एलबम में पीली पड़ी हुई तस्वीरें देखता रहा। सारे चेहरे अजनबी। एक तस्वीर में कुछ औरतें थीं। उनमें से एक उसकी मां थी। एक फटा चित्र था जिसमें वह थी दूसरे की आधी बांह ही दिख रही थी।

वह इस गली की सारी औरतों से अलग थी। ऐसी जो जिन्दगी अपनी तरह से, अपनी शर्त पर जीती हैं। चाहे वह गलत हो कि सही। ऐसे में अनपढ़ होना कोई मायने नहीं रखता। बचपन में भी उसका ऐसा कडक होना मुझे खुशी देता था। वह सबके सामने घुन्नी - सी रहती। अकेले में बहुत बातें करती। वह अपने डर बांटती, जिन्हें मैं बहादुर बच्चे की तरह दूर करने की कोशिश करता। वह झगड़ती अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से। तरह - तरह के काम पकड़ती छोड़ती। कभी कपडा धोने का साबुन घर - घर बेचती। कभी साड़ियों के फाल लगाती रात - रात तक, या फिर मालिश करती औरतों की।

जिन्दगी को दी अपनी संपूर्णता का मोल वह नहीं जानती थी। उसकी नुची - कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी। जिन्दगी के साबुत टुकडे का नोचे - कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ , यह उसकी याददाश्त में धुंधला पड़ चुका है।

अब वह बिस्तर पर पड़ी है। मैं उससे रू - ब - रू हूं। वह मुझसे आंख नहीं मिलाती। मैं अपने मन की खोह में घुस कर खुदाई करके इस औरत से अपने अटूट सम्बन्ध की जड़ खोज रहा हूं। मैं खिडक़ी से बाहर देखता हूं लगातार, बूढ़े पेड़ बेचैनियों में अपनी डालियां हिला रहे हैं। धूल और धुंए से उनकी पत्तियों का हरा रंग सलेटी हो गया है। जड़ें सड़क का कोलतार फोड़ कर बाहर आकर सांस लेना चाहती हैं, भीतर नमी नहीं है न... लवण हैं...प्यासी सी रेत है। अटपटी हालत में हैं पेड़। इस हैरानी में कि वे यहाँ कैसे पहुँचे? उन्होंने जब बीज में से सर उठाया था, तब यहाँ एक जंगल का मुहाना था। अब यहाँ भीड़ है। आस - पास भरे पूरे बाजार हैं और हैं गलियों के गुंजल।

आस - पास की महक से बुरी तरह उकताया - सा मैं उसे देखता हूं। उसकी कुतरी हुई संपूर्णता के साथ उसकी जिजीविषा उसके माथे पर जल - बुझ रही है।

यह औरत जीवंत थी मेरे सपनों में। मेरे बचपन में। वह बचपन अब महज सपना ही तो लगता है। इसकी और मेरी उम्र में महज पन्द्रह सालों का फर्क है। मेरे बचपन में यह भी किशोरी थी। स्कूल का रास्ता उसकी बातों से महकता। मेरा बस्ता थामे वह दो मील चलती थी

मैं उससे कहता कि चाल के और बच्चों की मैं भी वहीं पास के सरकारी स्कूल में पढूंग़ा। इतना चलना नहीं पडेग़ा।

'' तू अलग है उन सब से। और देख मैं भी।'' वह वहीं रुक जाती और चालू हो जाता उसका भाषण ।

भीड़ और धुंए से भरा रास्ता आगे चल कर जंगली फूलों से भरा जंगल बन जाता। उसकी ढेर सारी बातों से वह रास्ता मजेदार हो जाता था। स्कूल की गली आने से पहले ही वह पलट जाती। मैं चीखता कि स्कूल के गेट तक चलो। वह गुर्रा कर मना कर देती, ''मुझे और काम नहीं है क्या?'' उसका मुलायम चेहरा रूखा हो जाता।

मैं पूरे बचपन इस औरत का मुरीद रहा। नायलोन की सस्ती साड़ी और सूती सलवार - कुरते में भी परी लगती। उसका सांवला रंग, घुंघराले बाल, बड़ी आंखों के नीचे के स्याह घेरे, उसकी मांसल पीठ, उघडे पैर और गले की उभरी हड्डी। सब कुछ।

बाद के सालों में, मुझे इस पर बहुत गुस्सा आने लगा था । मुझे स्कूल छोड़ कर पता नहीं कहाँ जाया करती थी वह। उसने साबुन बेचना, वेश्याओं की मालिश करना बन्द कर दिया था। स्कूल से लौटता तो वह कभी कमरे पर नहीं मिलती। शाम को वह मेरी चीख - पुकार सुनती और अपनी मुस्कानों से मेरे बचकाने गुस्से के खारेपन को सोखती जाती। पाव और दूध का कप पकडा कर मुझे प्यार से देखती। वह बहुत खुश रहने लगी थी।

बारह साल का होने तक तो मैं बहुत कुछ बल्कि सब कुछ समझने लगा था। अंग्रेजी स्कूल और यह परिवेश मेरे भीतर विषमता की एक बहुत बड़ी खाई खोद रहा था। मैं घनेरे असमंजस में था, मेरे व्यक्तित्व के भीतर पता नहीं क्या बन - बिगड़ रहा था। स्कूल में किसी बच्चे से झगड़ा होने पर मैं अचानक फाहशा औरतों के मुंह से निकलने वाली भाषा बोलने लगता और फिर पी टी सर के हाथों पिटाई होती। यहाँ चाल के लडक़ों से एकदम अंग्रेजी बोल पड़ ता तो मजाक बनता। वहाँ नन्स और फादर। यहाँ पेटीकोट में घूमती औरतें, दूसरी मंजिल में उसके कमरे तक पहुंचने वाली, पेशाब की मंद गंध वाली सीढियों के बीच ही, देह और उसके गुह्य रहस्यों को लेकर नित नई कक्षा लगी होती। कामुक आवाज़ों, गंधों और गालियों से कमोबेश मैं सुन्न हो चला था।

एक दिन हम दोनों लेटे - लेटे हल्की रोशनी में डूबे कमरे के कोनों में अंधेरे की बनती - बिगड़ती आकृतियों को घूर रहे थे कि वह बोली।
''मुझे पता है तेरे मन में बहुत सवाल उठने लगे हैं आजकल।''
"..."

''आज तू सारे सवाल पूछ ले, जो तेरे मन में उठते हैं।''
मैं बहुत देर चुप रहा फिर एक सवाल जो मेरी आधी आत्मा कुतर चुका था, उसे मैं ने मन के बिल से निकाल फेंका।
''तेरी शादी हुई थी''
''नहीं।''
''सच्ची - सच्ची बताऐगी ना।''
''हं।''
''खा कसम।''
'' खाई।''
'' मेरी कसम खा।''
'' पागल है क्या? कसम कसम है।''
'' तो खा न।''
'' अच्छा तेरी कसम।''
''तेरी शादी नहीं हुई फिर मैं कहाँ से कैसे आया?''
''वैसे ही जैसे और इन्सान आते हैं।''
''फिर मैं कोई कश्टमर की औलाद हूं? ''
'' वो सच नहीं है। नहीं।
'' तूने सच बताने की कसम खाई है।''
''सच है, तू नहीं समझेगा।''
''मैं सब समझता हूं।''
''नहीं समझता।''
''तू बताएगी नहीं पता था। कसम खा के भी पलटेगी।''

'' सच। तेरा बाप है। उसका नाम भी है, तेरे स्कूल के रजिस्टर में। उसने छोड़ दिया मुझे। अब उसकी बात की तो देखना। ये अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर तू कैसे - कैसे सवाल करता है रे। यहीं के सरकारी स्कूल में पढता तो शायद कोई सवाल नहीं करता। चुपचाप समझने की कोशिश करता।''

सच जानने के बाद तो मैं फिल्मों में वेश्याओं, दलालों और ऑर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली औरतों की रिहाइश वाली उस इमारत से निकल भागना चाहता था।
''जमना, यहाँ से कहीं और जाकर रहें।''
''किराया कहाँ से देंगे ?''
''इसका कहाँ से देती है ? इससे छोटा और कच्चा झौंपडा चलेगा पर यह नहीं''
''इसका किराया नहीं देती मैं। ये मेरी मां का कमरा है। खरीदा हुआ।''
''तू तो कहती थी दूर कहीं रत्नागिरी में तेरा घर है। आम के बाग हैं।''
'' ऐसे ही । वो धन्धेवाली थी। उसने ही ये कोठरी खरीदी थी। रत्नागिरी में तेरे बाप का घर है। ''
''....''

'' और तू भी अब।'' उसकी आंखें फिर पथरा गईं और वह बैठे - बैठे दीवार पर सर मारने लगी। पहले हल्के - हल्के फिर ज़ोर - ज़ोर से। मुझे चिढ हुई इस नाटक से।

उस दिन भी मेरे मुंह से 'कश्टमर' शब्द सुनते ही पगला गई थी। शरीफ बनती है स्साली । गली के और बच्चे दिनरात 'कश्टमर' की बात करते हैं, उनको कोई औरत कुछ नहीं कहती। यह है कि नाटक।

तब से मैं ने उसे कुछ भी कहना पूछना छोड़ दिया। मुझे शक नहीं यकीन था, वह मुझे स्कूल छोड़ कर के धन्धा किया करती थी। अगर नहीं करती तो मेरे अंग्रेजी स्कूल की फीस कहाँ से लाती। रात को परियों की कहानियां सुनाते हुए जरूर मुझे अफीम चटाती थी। उसका बटुआ हमेशा दस - दस के नोटों से भरा रहता था। अब एक पासबुक भी रखती थी वह।

एक दिन मैं स्कूल के रास्ते में से ही लौट आया। पीली इमारत के सामने बने एक सस्ते होटल की टेबल पर बस्ता लेकर बैठा रहा। मैं ने देखा वो साड़ी पहने थी। बाल खोले थे, उनमें सेवन्ती के फूल थे। हाथ में पर्स। कहाँ जाती है यह, आज देखना ही होगा। आज अपने सारे भरम तोड कर विषमता के चौडे पाटों के सिरों पर रखे अपने पैरों को आज छोड़ दूंगा और इस बजबजाती खाई में गिर ही जाऊंगा।

बस्ता वहीं भूल कर मैं उसके पीछे लग गया। गली - दर -गली। चौक और मोड। कुछ कच्चे रास्ते और रेल की लाईनें। फिर नौ - पन्द्रह की लोकल। मैं भी बिना टिकट चढ़ ग़या भीड़ में। मुझे लगा उसने मुझे चढ़ते हुए देखा, पर उसने मुंह फेर लिया। मैं एक मोटे आदमी के पीछे छिप गया। जहाँ वो उतरी मैं भी उतर गया। वह फिर चल पड़ी, एक चौड़ी सड़क के फुटपाथ पर....मैं खीज रहा था कितना और चलेगी ? अचानक वह एक चर्च जैसी दिखने वाली इमारत में घुस गई। जब सिक्योरिटी वाला एक आदमी का पास देख रहा था, तभी मैं विकेट गेट से चुपचाप भीतर चला गया। बड़ा - सा हरा - भरा बगीचा सामने पीले - लाल पत्थरों वाली बहुत बड़ी इमारत थी। बड़े - बड़े खम्भे। बड़ी मेहराबों वाले, बड़े दरवाजे। सब कुछ बड़ा और खुला। साफ और खुश्बूदार हवा। सबकुछ भूल कर मेरा मन खुश हो गया। उस बदबूदार नर्क के सामने यह बहुत सुन्दर एक स्वर्ग था। मैं इस स्वर्ग का और सुख लेता कि वह इस खुली - खुली इमारत के गलियारों में घुस गई। जहाँ बड़े - बड़े हॉल थे। सफेद पोश आदमी। साफ - सुन्दर औरतें और पढने वाले लडक़े - लडक़ियां आ - जा रहे थे। क्या यहाँ नौकरी करती है वह ? या उसका कोई सगेवाला!

वह गलियारे के एक हॉल में दाखिल हुई फिर तुरन्त पलट आई। वह सफेद खंभे के पीछे छिप गया। वह मुड़ कर उसी खंभे की तरफ आ रही थी। ''क्या उसने देख लिया ?''मेरा दिल गले तक उछल आया। दौड़- दौड़ कर,चल - चल कर वैसे भी मेरी सांसे काबू में ही नहीं आ रही थीं। उसकी परछांई दिखी लगा वह हल्की उदास मगर बहुत शांत थी। खंभे के जरा पहले उसने एक बड़ा दरवाजा धकेला और अन्दर चली गई। मैं ने चैन की सांस ली और खंभे के पीछे से निकल आया। अब मैं वहाँ एकदम अकेला खडा था, हवा में उडते पत्तों और ठण्डे सन्नाटों के बीच। मैं ने चारों तरफ नजर डाली, गलियारे के दोनों तरफ चित्र टंगे थे। बड़े अजीब। हरी गाय और जामुनी पहाड। ख़ेतों में झुके हुए अधनंगे, हडियल आदमी - औरतों के झुण्ड। पेड़ों में उगे लाल फलों पर कुछ रोते कुछ हंसते चेहरे। कैसे चित्र हैं ये? बड़े भद्दे और डरावने। तभी बहुत से पैरों की धपड़ - धपड़ आहटें सुनाई दीं। कुछ खिलखिलाहटें और बातें, मैं गलियारे के एक खुले हिस्से से बगीचे में कूद गया।

उसे दरवाजे में भीतर घुसे पन्द्रह मिनट से ज्यादा हो गए थे। मैं लगातार उस दरवाजे पर नजर टिकाए रहा। अचानक एक डर पेट में गङ्ढा बनाने लगा। पेट में हल्का - हल्का कंपन हुआ जो आतंक का पूर्वाभास होता है। वह इन गलियारों और बड़े - बड़े कमरों में खो गई तो मैं क्या करुंगा ? वह बेखबर घर जाऐगी और मुझे ढूंढेगी और मैं इस एकदम अजनबी इलाके में खो जाऊंगा। लौटने का रास्ता, ट्रेनका स्टेशन का कुछ भी नहीं पता था मुझे। मैं तो पीली इमारतों से स्कूल और उसके आगे कभी आया ही नहीं। मगर कल तो वह वापस आऐगी वह अगर नौकरी करती है यहाँअगर नहीं करती हो और बस आज किसी काम से आई हो तो क्या करुंगा ? मुझे लगा पन्द्रह साल का होकर भी बच्चे का बच्चा ही रह गया। चाल के बच्चे जो चिढाते हैं वह सही हैकि मैं दूध पीता बच्चा हूँ, उसके पल्ले से चिपका रहता हूं। अब मेरी हथेलियों में पसीना चिपचिपा रहा था। भूख पेट जला रही थी। आंखों में आंसुओं के कण किरकिरा रहे थे। भीषण असुरक्षा मन में भर गई। एक इच्छा हुई कि गेट के पास बैठे चपडासी से जमुना बाईजमुना बाई सलुंके के बारे में पूछे। पर अगर उसने मुझे पकड लियाऔर पूछा 'अन्दर कैसे घुसा' तो ?

मैं सहमा हुआ गलियारे के साथ - साथ नीचे घास पर चलता रहा, आगे गलियारा बन्द हो गया। खिडक़ियां शुरू हो गयीं। एक के बाद एक, कई - कई मैं हर खिडक़ी के नीचे बने एक पतले चबूतरे पर चढ़ - उतर कर खिडक़ी - दर - खिडक़ी झांकता हुआ सरकने लगा। कहीं परदे तो कहीं नहीं। कहीं अन्दर बड़े कमरों में हर दीवार पर चित्र ही चित्र और चित्र बनाते लडक़े - लडक़ी। कहीं छोटी - बड़ी मूर्तियां तो कहीं लोहे और लकड़ी क़ी अजीब सी आकृतियां बनाते लोग। बड़ी - बड़ी लाइटें और कैमरे। भीतर दुबका आतंक अब उत्सुकता में बदल रहा था। एक उम्मीद जागी थी कि अब मैं उसे खोज लूंगा। एक खिडक़ी में मैं ठिठक गया। कमरा खाली था। परदा खुला था। दीवारों पर नंगे मर्द और औरतों के चित्र लगे थे। जवान भी और बूढ़े और बहुत बूढ़े नंगे मर्द और औरतें। मैं बुरी तरह अचकचा गया। तब तक मैं ने नंगी औरतों वाली किताबें देख ली थीं। चाल में वैसी किताबें हर कहीं मिलेंगी और उनके पन्नों पर सफेद, सुन्दर, नंगी - कामुक औरतें। मुझे लगा क्या बकवास है-- ये कैसी हैं किसी के चेहरे पथरीले हैं, किसी की देह ढलकी हुई। लटकी छातियों और मोटे नितम्बों वाली औरतें। मुझे जुगुप्सा होने लगी थी। तभी कुछ लडक़े लडक़ियों का झुण्ड घुसा कमरे में और उनके पीछे 'वह' । मन हुआ कि आवाज दे दूं। पर वह टेबल पर चढ़ कर बैठ गई थी। मुझे हैरानी हुई। इसकी साड़ी कहाँ गई? ये तौलिए का झब्बा क्या पहना है ? अब क्या इस ड्रेस में ये उन लडक़े - लडक़ियों को पढाने ही लगेगी? एक दाढी वाला पेट के बल मेज पर लेटा पैर मोड कर, कूल्हे उठा कर। वैसे ही उसे कुछ कहा और फिर उतर कर गोल टेबल पर बैठ गया। लडक़े - लडक़ी भी उस मेज के दो तरफ बैठ गए। दूसरी लम्बी मेज पर वो थी।कहाँ गई इस मेज पर कूल्हे ऊंचे करके लेटी, यह नंगी औरत कौन है ! ! ! !

मैं सुन्न हो गया था। यह सब क्या था? तुरन्त खिड़की पर से बेजान हो कर नीचे कूद गया। कुछ देर वहीं लेटा रहा। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसा धन्धा है? उन वेश्याओं, सफेद, नंगी औरतों की किताबों और इसकी इस नंगी नुमाइश के बीच क्या कोई फर्क है? यह ऐसा क्यों कर रही है?

मेरे शरीर से जान निकल चुकी थी। दिमाग पर पाला पड़ ग़या था।

फिर मैं घास के लम्बे मैदान को दौड कर पार करके दीवार फांद कर बाहर आ गया और सिक्योरिटी वाले से जरा हट कर उसका इंतजार करने लगा। वह दो घण्टे बाद निकली और चल पड़ी। कुछ देर चल कर उसने जरा सा पीछे मुड़ कर देखा, मैं बेमन से दीवार से सट गया, फिर चल पडा उसके पीछे, शिथिल मगर सजग _ उन्हीं रास्तों पर। मैं उसके घर पहुंचने के दो घण्टे बाद पहुंचा घर गया। इधर - उधर आवारा घूमता रहा भूखा और बहुत से सवालों में घिरा।

उसकी जो नंगी - गीली परछाइयां मेरे सवालों से लिपटी थीं, न जाने कितने सालों तक यूं ही लिपटी रहीं, फिर वक्त के साथ सूख - सूख कर झर गईं। शायद एकाध अब भी हरी हो, लिपटी हो। मैं ने उन बिना जवाब के सवालों को बहुत दिनों से नहीं पलटा था मसलन वह कुछ और भी तो कर सकती थी? आखिरकार नंगे ही होना था क्या?

मेरी नजर उसके चेहरे पर उगे झुर्रियों के एकदम नए जाल पर पड़ती है। उस जाल में बहुत से पुराने सपनों के पंख फंसे हैं। उसकी आंखे मुंदी हैं। आज जब मैं उसके चेहरे में झुर्रियों के जाल को देखता हूं तो हैरान होता हूं क्या सच में यह बहुत चतुर थी? बत्तीस दांतों के बीच अपने मूल्यों के साथ जीभ - सा बचे रहना चतुराई थी? पूरी जिन्दगी अपने वजूद की नंगी परछाइयों को ढकने की कोशिश में मुझसे भागती रही, क्या वह चतुराई थी? यह आज भी वहीं नौकरी करती है। कहती है, रिटायर हो कर ही छोडेग़ी। पेन्शन लेगी। यहीं रहेगी। मैं जानता हूं जिद्दी है।

यह खुद क्या कम जिद्दी है?

प्रोफेसर साहब के फोन करने के बावजूद, ये आर्ट कॉलेज नहीं आया। मुझे पता था नहीं आऐगा। वहाँ उसे डराने वाले भूत छुपे हैं, खंभे के पीछे, टेबल के ऊपर। आज दोपहर हुआ ये कि पोज देते - देते मैं बेहोश हो गयी। शायद घुटना मोडे - मोडे ख़ून का दौरा दिमाग तक जाना बन्द हो गया था। वहीं डॉक्टर आया, दो इंजेक्शन लगे, वहीं ग्लूकोज क़ी बोतल भी चढी। फिर कॉलेज वालों ने ही एम्बुलेन्स में मुझे यहाँ तक छुड़वाया। मगर यह नहीं आया। अब आया है। इसे पता है कि मैं अब भी वही नौकरी वही मॉडलिंग करती हूं। उमर तो हो गयी है। मगर प्रोफेसर साहब कहते हैं कि ''जवान और सधे जिस्म तो कोई भी पेन्ट कर ले असली कला तो वह है जो झुर्रियों के बारीक जाल की सुन्दरता को पकडे।''

(शायद यह बहाना है। ऐसी युवा मॉडल मिलना बहुत मुश्किल होता है, यहाँ इतने बड़े शहर के इतने बड़े और पुराने आर्ट कॉलेज में कॉन्ट्रेक्ट और परमानेन्ट मिला कर छ: हैं बस। उस पर फैकल्टी कितनी सारी, मूर्तिकला, फोटोग्राफी, एब्स्ट्रेक्ट कंटम्प्रेरी, म्यूराल। )

ये दुबला हो गया है। दाढी क्यों बढा ली है? घुन्ना है। चुपचाप बैठा रहेगा। कहेगा नहीं कुछ।आंखे तक नहीं मिलाना चाहता मुझसे। मुझे ही क्या पड़ी है। जाने दो। बाहर पेड़ों को ताक रहा है। ऐसे चुप बैठे रहना है तो आता ही क्यों है? फोन पर हाल पूछ ले। मोह नहीं छूटता इसका मेरे से। अच्छा हुआ 'मेरे साथ चल' की रट अब छोड़ दी है। मुझे नहीं जाना वहाँ उस समाज में। मां इस समाज की थी सर से पांव तक। मैं इस समाज से अपनी जड़ें उखाडने की चाह में, खुली जडे लिए नित जलील होती, सूखती घूमती रही। फिर ये ये भी त्रिशंकु होने की स्थिति में ही रहा। अब इसके बच्चे एकदम मुक्त हो कर उसी समाज में सांस ले वही ठीक है। इसीलिए मैं अपनी खुली, फफूंद लगी जड़ें ले कर वहाँ नहीं जाना चाहती।
कितने दिनों बाद यह इधर आया है। सोचता होगा कि मैं अपनी नंगी सच्चाइयां इससे छुपाती हुई, यहाँ तक चली आई हूं और सोचता होगा कि मैं आंख नहीं मिलाना चाहती। तुझे आंखें चुराते देख कर ही मैं आंखें बन्द कर लेती हूं या फेर लेती हूँ। तुझसे शरम करुंगी तू जो मेरी जांघों से सतमासा ही निकल पडा था।

तू जितना समझता है, उससे कहीं चतुर हूं मैं। बहुत दिनों तक लगातार छुपाने के बाद और तेरी उत्सुकता के एक हद पार कर लेने के बाद ही मैं ने अपने सच तुझ पर उजागर हो जाने दिए और यह भरम भी बना रहने दिया कि तू समझता है कि तूने जो मेरे सच जान लिए हैं , उस बाबत मैं कुछ नहीं जानती। अब तू कुछ भी समझ कि कपडे उतार कर भी वेश्याओं की बस्ती में मैं पवित्रता का ड्रामा किए हुए बैठी हूं। मैं जानती हूं कि तू जानता है मेरा हर सच। वो चाहे पवित्र हो कि न हो। तुझे हक था जानने का उस पहली सांस से जब तू मेरी जांघों के बीच खून के तालाब में अचानक आ गिरा था।

मुझे नहीं पता कि मैं ने इससे कुछ छिपा कर गलती की थी या नहीं लेकिन अपनी मां से कुछ तो बेहतर ही कोशिश रही थी मेरी। वह तो हमारे स्कूल से लौटने के बाद अगर कोई कस्टमर आता तो कहती, दीपू - लाली बिस्तर के नीचे घुस जाओ। हम वहीं स्कूल का काम करते। उपर चलती धपड़ - धपड़ क़े नीचे।

मैं देखती मां के बदन पर तरह - तरह के निशान। सिगरेट के जले सलेटी निशान, नीले - जामुनी निशान और बहुत बुरी तरह डर जाती। मुझे मां पर गुस्सा आता। यह बर्तन - झाडू क्यों नहीं कर लेती। दस - दस रूपए के लिए मर्दों से खुद को कुचलवाती क्यों है। मगर वह तो मुझसे भी यही उम्मीदें लगाने लगी थी।

आठवीं के बाद मेरी मां ने स्कूल छुडा दिया और मुझे मंहगी 'कॉल गर्ल' बनाने की सोचने लगी। एक बाहर के दलाल के बात भी की। मुझे मंहगी या सस्ती कैसी भी वेश्या नहीं बनना था। मैं एक टैक्सी ड्रायवर के साथ भाग गई। प्यार - व्यार का गहरा चक्कर डाला था उसने। बोला था, रत्नागिरी में घर है, थोड़ी ख़ेती है। आम के पेड़ हैं। मगर ये नहीं बताया एक और पत्नी भी है। एक दिन मुझे वापस छोड़ गया अजन्मे बच्चे के साथ। मुझे तब नहीं पता था कि इन पीले मकानों के बाहर का जो समाज है वह दूसरी ही कोई दुनिया है।

मेरे जाने के बाद ही दीपू भी एक ट्रकवाले के साथ खलासी बन कर गया तो फिर कभी नहीं आया। माँ बहुत गुस्से में थी, दोनों बच्चे, जिनकी वजह से खुद को कुचलवाती रही, दोनों के दोनों भाग गए। इसलिए सारा गुस्सा मुझ पर उतरा। मेरे कमरे में घुसते ही मां ने कपड़ों की तरह कूट डाला। इतना कि जांघ से खून गिरने लगा और मैं ने सतमासे बच्चे यानि इसे जनम दिया। मां बीमार रहने लगी थी। 'कश्टमर' कतराते थे। मैं वेश्याओं के नुचे हुए जिस्मों की मालिश करने लगी पांच - पांच रूपए में। एक दिन मां मर गई।

मैं अकेली, दलाल भी कमरे के चक्कर काटने लगे।

तब मैं ने अपनी बचपन की सहेली जोली के साथ सेल्सगर्ल का काम पकडा। क्या नहीं बेचा, सर्फ, साबुन, बरतन. फिर वो ही एक दिन अपने साथ आर्ट कॉलेज ले गई। पहले सिटिंग के हिसाब से पैसा मिलता था। साठ रूपए एक सिटिंग का।

सात साल ऐसे ही चला फिर वहाँ की परमानेन्ट मॉडल की नौकरी मिल गई। अब तक पूरे सतरह साल हो गए वहाँ काम करते हुए।

जब पहली बार गई थी तो बहुत संकोच हुआ था। जोली ने समझाया कि यह गलत काम नहीं है।

''अच्छा, मगर थोड़ा बोल्ड जॉब है जमना! मैं ने बहुत साल किया है। अब शादी करने जा रही हूं न। बेकरी वाले मोजेज़ के वहाँ यह सब नहीं चलेगा। तुझे अपनी जगह रखवा रही हूं।''

अपनी चाल के टाट पडे हुए स्नानघर में भी नहाते हुए कभी कपडे नहीं उतारे तो इतने लडक़े - लडक़ियों के सामने! मैं नहीं जानती वो क्या सोचते होंगे पर उनके चेहरों पर एक सस्ती उत्सुकता नहीं थी, एक धीरज भरा इंतजार था, मैं ने तौलिए का झब्बा उतार दिया था. मन ही मन यह ठानते हुए कि 'वेश्या बनने से यह थोड़ा अच्छा है।'

पहले मैं उनकी फरमाइश पर कठिन पोज दे देती थी। सोचती कुछ नहीं, हो जाऐगा...पर दो मिनट बाद ही समझ आ जाता कि इस पोज में रहना आसान नहीं मगर पूरे 15 मिनट शरीर अकड़ा हुआ रहता और दर्द महसूस करता। मैं दम साधे रहती। हर पन्द्रह मिनट के बाद दस मिनट की छुट्टी और आधे घण्टे बाद एक कप चाय मिलती। बाद में मुझे आसान से आसान पोज समझ आ गए, जिनमें मैं 15 से 20 मिनट बैठ या लेट सकती थी। खुजली की तेज इच्छा को टालना भी आ गया था। दिमाग वैसे ही ढल जाता है। मैं अपने चित्र नहीं देखती। ज्यादातर वो बहुत भद्दे दिखते थे।

कभी - कभी इतनी सारी लाइट के कारण, उमस भरे दिनों में पसीने की बूंदे मेरी छातियों के नीचे जमा होतीं रहतीं फिर इकट्ठी होकर पेट पर बह निकलतीं फिर जांघों में घुस जातीं।

एक बार मैं ने वहीं बैठे - बैठे एक लडक़े के कैनवास पर नजर डाली तो देखा, उसने वो बहती बूंदे बना डाली हैं। छाती से पेट पर फिसलती हुई। फिर वो मुझे देखते हुए देख कर बहुत मीठा - सा मुस्कुराया था। मुझे इसकी याद आ गई। स्कूल से आकर मुझे घर पर देख कर ऐसे ही मुस्कुराता था। न मिलूं तो पूरे दिन मुंह फुला कर रहता।

इतने लम्बे समय में मुझे अपना एक ही चित्र पसन्द आया था। आठ फुट ऊंचा। पूरा शरीर हल्के जामुनिया रंग का और छातियां और कूल्हे का उभार गुलाबी। बालों का रंग पीला उसमें नीली - नीली नदी की लहरें। बड़ी - बड़ी आंखें मंदिर की देवी जैसी। मुझे लगा थकान और अकड़न से खडे हुए रोंगटों वाली, मेरी छाया नहीं है यह। यह कोई और है। प्रोफेसर मोहनीश ने बनाया था वो। बोले - '' जमना तुम्हें पता है तुम्हारे शरीर का रंग सांवला या भूरा - वूरा नहीं है। यह जामुनी है। मैं ने ये तेज रंग कभी इस्तेमाल नहीं किये। आज जब बिना लाइटों के खिडक़ी खोल कर तुम्हें नेचुरल लाईट में देखा तो, मैं ने ये रंग उठाए हैं पहली बार । मैं ने ब्रश के कभी तिरछे स्ट्रोक नहीं इस्तेमाल किए मगर आज तुम्हारे शरीर की काट और ढलान ने मुझे मजबूर किया।''

उनको उस चित्र पर कोई बहुत बड़ाई नाम मिला था। एक किताब में वह चित्र छपा था, प्रोफेसर साहब के फोटो के साथ। उन्होंने वह किताब दिखाई '' देखो 'आर्ट टुडे' में तुम्हारा वाला चित्र छपा है। इस चित्र को मैं ने शीर्षक दिया है कालिन्दी। पढ़ो, अपना नाम, कालिन्दी यानि 'जमना' जमना सलुंके'।'' उन्होंने हजार रूपए की बख्शीश जबरदस्ती पकडाई। कहते थे ''जीवित मॉडल ही कलाकार के 'मास्टरपीस' बनाने के लिए एक बड़ा माध्यम होती है। लेकिन उन्हें वह इज्ज़त नहीं मिलती जो उन्हें मिलना चाहिये।''

प्रोफेसर हर आने वाले नए बैच से कहते -- ''ये कोई फैशन मॉडल्स नहीं हैं। न ये किसी ब्यूटी कान्टेस्ट की देन हैं, ये हर आकार, लिंग और आयु के साधारण लोग हैं, जो यथार्थवादी कला को जन्म देने में हमारी मदद करते हैं। यहाँ नग्नता मायने ही नहीं रखती। आप जब कला की बारीकियों में उलझ जाते हैं, प्रकाश, छाया, कटावों और कोणों के उकेरने की तकनीकी में। उस वक्त आप कला के बारे में सोच रहे होते हो न कि नग्नता के बारे में। यहाँ वे नग्नता के पदर्शन के लिए नहीं बिठाई जाते हैं, ये तो 'सुपर प्रोफेशनल्स' हैं। इनके माध्यम से तुम एक मानव शरीर के सही - सही आकार और आयाम देख पाते हो, जो कि कपड़ों के चलते ठीक से पता नहीं चलते। यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि तुम देह की लचीली मांसपेशियों का विविधता से भरे आयाम, तनाव और आराम के माध्यम से देख पाते हो, उनके आकार और आयाम जैसा कि मैं ने कहा न्यूड मॉडलिंग आसान काम नहीं है। एक अच्छे पोज क़े लिए उनकी मेहनत और एकाग्रता लगती है। बीस मिनट में पैर सो जाता, नितम्ब की हड्डियां दर्द करने लगती हैं, नस पर नस चढ़ ज़ाती है ।''

काश मैं उनकी बातें टेप करके उसे सुना पाती जो उस दिन खुली खिडक़ी से मुझे पोज करते हुए देख गया था एन् इसी मास्टरपीस बनने वाले दिन। जामुनी रंग वाली जमना को।

हाँ, उसे देख लिया था मैं ने। लोकल में चढ़ते हुए। जानती थी, उसके पास पैसे होंगे नहीं इसलिए लोकल से उतर कर रिक्शा भी नहीं किया। पैदल आर्ट कॉलेज पहुंची। ठान लिया था, आज इसके सारे सवालों के उत्तर इसे बिना बोले दे दूं। इसीलिए जब बिना लाईट के सूरज की रोशनी में चित्र बनाने की बात कही प्रोफेसर साहब ने तो मैं चुपचाप मान गई। परदे खोल दिए गए। मैं ने कनखियों से उसे देखा भी, उसका चेहरा लाल हुआ फिर बैंगनी....अंत में काला। फिर वह खिडक़ी से कूद गया।

उस दिन जब वह घर लौटा तो मैं ने बहुत दिनों बाद पास के होटल से मुर्गे का कढाही शोरबा और रोटियां मंगाए थे। शायद भूख तेज थी और गुस्सा नपुंसक। उसने चुपचाप खा लिया। खाकर भी गुस्से में वह होंठ चबाता रहा।

खाने के बाद जब वो हाथ धो रहा था तब वो बोली।
'' स्कूल नहीं क्या आज तू ?''
'' गया तो था।''
सोचा कि पूछूं।
''तू आज मेरे पीछे आया था ! लोकल से उतरते देख लिया था मैं ने। तू क्या सोचता है तू ही शाणा है। और वहाँ आर्ट कोलेज में तुझे सिकोरिटी वाला ऐसेईच घुसने देता !''
लेकिन मैं ने नहीं पूछा क्योंकि फिर वो पूछता कि -- '' तूने फिर मुझे साथ क्यों नहीं लिया ?''
तो क्या कहूंगी ? कह दूंगी कि -- ''नौकरी है वो मेरी।''
फिर वो कहेगा कि -- ''ऐसी गन्दी नौकरी। छोड़ दे वो नौकरी।''
तो कहूंगी कि -- ''काम में गन्दा - अच्छा क्या? मुझे बस ये पता है कि इन ड्राईंग पढने वाले इन बच्चों को मेरी जरूरत है। मेरे काम से इनको सीखने को मिलता है। वहाँ कोई मुझे गन्दी नजर से नहीं देखता। मैं नहीं छोड़ ने वाली ये नौकरी। पूर सात हजार मिलते हैं महीने के। ''
मैं चुप रही। चुपचाप बर्तन समेटे और मांजे। वह उंगलियां चटखाता रहा। देखा! आज भी उंगलियां चटखा रहा है। कितना मना करती रही हूं।
''उंगलियां तोडेग़ा क्या?'' मैं आंखें खोलकर तरेरती हूं । वह हंसता है। बचपन वाली हंसी।
''अब छोड़ दे ये नौकरी जो तू कॉलेज में करती है।''
'' छोड़ दूंगी। रिटायर हो ही जाऊंगी जल्दी ही।''
''पैसा दे के जाऊं।''
''अभी तो है। चाहिएगा तो ले लूंगी। तेरा कैसा चल रहा है ?''
''ठीक ।''
''नौकरी ?''
''बदल ली।''
''अब फोटो नहीं खींचता।''
''खींचता हूं। भूकंप और बम धमाके के नहीं । खून में लथपथ लोगों के फोटो खींच कर भी अखबार में पैसे कम ही मिलते थे।''
''फिर?''
''फिर क्या बच्चे होने के बाद खर्चा बढ ग़या है। एक कमरे में काम नहीं चलता। इसलिए अब फ्रीलांस अपना ही काम करता हूं। एक साथ कई जगह पर।''
'' तभी तू दुबला हो गया है। काम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर झेल सके।''
'' उधर की तरफ यहाँ के जैसे तो नहीं रहा जा सकता है न। थोडे ज्यादा पैसे बन जाते हैं। अब मै विज्ञापनों के लिए भी काम करता हूं। मॉडलों के फोटो खींचता हूं अभी अपने खींचे फोटो की प्रदर्शनी लगाई थी उसका एक किताब में रिव्यू भी आया है।''
''आर्ट टुडे में! 'डिवाइन न्यूडिटी' ? ''
''तुझे कैसे पता ?''
मैं ने आंखे मूंद ली। मुझे पता था उसके भीतर के अहम् की हवा रिस कर उसे पिचका हुआ छोड़ गई है।

                                                          --मनीषा कुलश्रेष्ठ--

अच्छे दिन आने वाले हैं

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंजर दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है

मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छाँट दी गई उन बाँहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पाई गईं

नहीं यह महज खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ

कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टँगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है

मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश

ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुए
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की

कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं...

          --अंजू शर्मा--

ओ हरामजादे

घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खंडहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है।

ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गई।

'भारत से आए हो?' उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुस्कान के साथ पूछा।

मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।

'मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।' और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई।

नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद कर लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आँखें थी। इतनी साफ नीली आँखें किवल छोटे बच्चों की ही होती हैं। इस पर साफ गौरी त्वचा। पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएँ उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगिस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता। अपना खरीदारी का थैला बैंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिए बैठ गई। वह अंग्रेज नहीं थी पर टूटी फूटी अंग्रेजी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी।

'मेरा पति भी भारत का रहने वला है, इस वक्त घर पर है, तुम से मिल कर बहुत खुश होगा।'

मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंग्लैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिंदुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं। वहीं पर सैंकड़ों बस भी गए हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज के इलाके में कोई हिंदुस्तानी क्यों आ कर रहने लगा होगा। कुछ कुतूहलवश, कुछ वक्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया।

'चलिए, जरूर मिलना चाहूँगा।' और हम दोनों उठ खड़े हुए।

सड़क पर चलते हुए मेरी नजर बार बार उस महिला के गोल मटोल शरीर पर जाती रही। उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहाँ इसके साथ बस गया है। संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी। इसकी नीली आँखों ने कहर ढाए होंगे। हिंदुस्तानी मरता ही नीली आँखों और गोरी चमड़ी पर है। पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लगा था। पचास पचपन की रही होगी। थैला उठाए हुए साँस बार बार फूल रहा था। कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में। मैने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे।

'आप भी कभी भारत गई हैं?' मैंने पूछा।

'एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं।'

'लाल साहब तो जाते रहते होंगे?'

महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा 'नहीं, वह भी नहीं गया। इसलिए वह तुम से मिल कर बहुत खुश होगा, यहाँ हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं।'

तंग सीढ़ियाँ चढ़ कर हम एक फ्लैट में पहुँचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दीवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ रखीं थीं। दीवार पर जहाँ कहीं कोई टुकड़ा खाली मिला था, वहाँ तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टाँग दिए गए थे। उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने, साँवले रंग और उड़ते सफेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बाँच रह था।

'लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो। तुम्हारे एक देशवासी को जबर्दस्ती खींच लाई हूँ।' महिला ने हँस कर कहा।

वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया।

'आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई। मुझे लाल कहते हैं, मैं यहाँ इंजीनियर हूँ। मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं।'

ऊँचे, लंबे कद का आदमी निकला। यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है। शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था। दोनों कनपटियों के पास सफेद बालों के गुच्छे से उग आए थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफेद बाल उड़ से रहे थे।

दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि उसने सवालों की झड़ी लगा दी। 'दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?' उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा।

'हाँ। बदल गया है। आप कब थे दिल्ली में?'

'मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूँ। यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूँ। रहने वाला तो मैं पंजाब का हूँ, जालंधर का। जालंधर तो आपने कहाँ देखा होगा।'

'ऐसा तो नहीं, मैं स्वयं पंजाब का रहने वाला हूँ। किसी जमाने में जालंधर में रह चुका हूँ।'

मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाँहों में भर लिया।

'ओ जालम! तू बोलना नहीं एँ जे जलंधर दा रहणवाले?'

मैं सकुचा गया। ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा। पर वह सिर से पाँव तक पुलक उठा था। इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज तेज चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिए अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी।

'हेलेन, यह आदमी जलंधर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं।'

उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आँखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी।

'मैंने ठीक ही किया ना', महिला कमरे में आते हुए बोली। उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी। बड़ी शालीन, स्निग्ध नजर से उसने मेरी और देखा। उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है। वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आ कर बैठ गई।

'लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था। आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे...'

वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बाँधे मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों में वही रूमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहनेवाले हिंदुस्तानी की आँखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है। हिंदुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिंदुस्तानी के लिए तरसने लगता है।

'भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गए, आपकी श्रीमती बता रही थी। भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?'

और मेरी नजर किताबों से ठसाठस भरी आल्मारियों पर पड़ी। दीवारों पर टँगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे।

उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गई थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो।

'लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालंधर में रहते हैं। कभी-कभी उनका खत आ जाता है।' फिर हँस कर बोली, 'उनके खत मुझे पढ़ने के लिए नहीं देता। कमरा अंदर से बंद करके उन्हें पढ़ता है।'

'तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!' लाल ने भावुक होते हुए कहा।

इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई।

'तुम लोग जालंधर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूँ।' उसने हँस कर कहा और उन्हीं कदमों रसोई घर की और घूम गई।

भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचंभा भी हो रहा था। देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था।

'मेरे एक मित्र को भी आप ही की तरह भारत से बड़ा लगाव था', मैंने आवाज को हल्का करते हुए मजाक के से लहजे में कहा, 'वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था। उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पाँव रख पाऊँगा।'

कहते हुए मैं क्षण भर के लिए ठिठका। मैं जो कहने जा रहा हूँ, शायद मुझे नहीं कहना चाहिए। लेकिन फिर भी धृष्टता से बोलता चल गया, ' चुनाँचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवा कर हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जा पहुँचा। उसने खुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था। हवाई जहाज से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ गायब था...'

बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गई थी, जैसे अतीत की अँधियारी खोह में से दो आँखें मुझ पर लगी हों।

'उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है,' उसने धीरे से कहा, 'दिल की साध तो पूरी कर ली।'

मैं सकुचा गया। मुझे अपना व्यवहार भौंड़ा-सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था।

वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था। फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ - ऐसे मौके तो रोज रोज नहीं आते। इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे।' और पीछे जा कर एक आलमारी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया।

जाम में कोन्याक उँड़ेली गई। वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराए।

'आपको चाहिए कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें। इससे मन भरा रहता है।' मैंने कहा।

इसने सिर हिलाया 'एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊँगा।' शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था। मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, 'मैं घर से भाग कर आया था। तब मैं बहुत छोटा था। इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आए हैं', वह थोड़ी देर के लिए पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा दे कर वर्तमान में लौटा लाया। 'जिंदगी में कभी कोई बड़ी घटना जिंदगी का रुख नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनाएँ ही जिंदगी का रुख बदलती हैं। मेरे भाई ने केवल मुझे डाँटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो... और मैं उसी रात घर से भाग गया था।'

कहते हुए उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला 'अब सोचता हूँ, वह एक बार नहीं, दस बार भी मुझे डाँटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता। कम से कम कोई डाँटने वाला तो था।'

कहते कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई, 'बाद में मुझे पता चला कि मेरी माँ जिंदगी के आखिरी दिनों तक मेरा इंतजार करती रही थी। और मेरा बाप, हर रोज सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिए के आने का वक्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आ कर खड़ा हो जाता था। और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊँ, घरवालों को खत नहीं लिखूँगा।'

एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आई और बुझ गई', फिर मैं भारत गया। यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी। मैं बड़े मंसूबे बाँध कर गया था...'

उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुँह खोला ही था कि चाय आ गई। नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाए, मुस्कराती हुई चली आ रही थी। उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला जिंदगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?

चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई।

'जालंधर में हम माई हीराँ के दरवाजे के पास रहते थे। तब तो जालंधर बड़ा टूटा फूटा सा शहर था। क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालंधर में हम कहाँ पर रहे थे?'

'मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियाँ बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी - तब वह डेढ़ साल की थी - मक्खी देख कर डर गई थी। पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी। वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था। गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चड़ गई तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आई थी। ...और क्या था वहाँ?'

'...हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे...'

चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे। भारत की अर्थव्यवस्था की, नए नए उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गति-विधि से बहुत कुछ परिचित है।

'मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हूँ, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।'

उसने मेरी और देखा और हौले से मुस्करा कर बोला, 'तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है।'

मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव सा, इस आदमी के दिल को अंदर ही अंदर चाटता रहता है - एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियाँ और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो।

सहसा उसकी पत्नी बोली, 'लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिए माफ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की।'

'हेलेन...'

मैं अटपटा महसूस करने लगा। मुझे लगा जैसे भारत को ले कर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुढ़ापे की दहलीज तक आ पहुँचे थे। मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूँ ताकि यह सज्जन आपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाएँ लेकिन यह कोशिश बेसूद थी।

'सच कहती हूँ', उसकी पत्नी कहे जा रही थी, 'इसे भारत में शादी करनी चाहिए थी। तब यह खुश रहता। मैं अब भी कहती हूँ कि यह भारत चला जाए, और मैं अलग यहाँ रहती रहूँगी। हमारी दोनो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। मैं अपना ध्यान रख लूँगी...'

वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज में कहे जा रही थी। उसकी आवाज में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का। मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिंतित ढंग से कह रही हो।

'पर मैं जानती हूँ, यह वहाँ पर भी सुख से नहीं रह पाएगा। अब तो वहाँ की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। और वहाँ पर अब इसका कौन बैठा है? माँ रही, न बाप। भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था।'

'हेलेन, प्लीज...' बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा।

अबकी बार मैंने स्वयं इधर उधर की बातें छेड़ दीं। पता चला कि उनकी दो बेटियाँ हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी युनिवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनो बड़ी समझदार और प्रतिभासंपन्न हैं। युवतियाँ हैं।

क्षण भर के लिए मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए, इसे सनक से ज्यादा नहीं समझना चाहिए, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है। मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जाएगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जाएगा।

आखिर चाय का दौर खतम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया। कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े थोड़े वक्त के बाद चल रहा था। कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई।

'हाँ, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी...'

वह क्षण भर के लिए ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, 'तुम अपने देश से ज्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिए नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफियत क्या होती है। पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत की याद रह रह कर मुझे सताने लगी। मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा। मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा। कभी कभी मैं कुर्ता-पायजामा पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिंदुस्तानी हूँ, भारत का रहने वाला हूँ। कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मँगवाई थी, लोग सचमुच बड़े कुतूहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता। मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूँ, धोती पहन कर चलूँ। मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूँ, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूँ। परदेस में रहने वाले हिंदुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लाँघता चला जाए और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ होता है। दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियाँ ला कर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी माँग में लाल रंग भरता। मैं इस बात के लिए तरस तरस जाता कि रक्षा बंधन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बाँधे, और कहे 'मेरा वीर जुग जुग जिए!' मैं 'वीर' शब्द सुन पाने के लिए तरस तरस जाता। आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूँगा और अपनी डेढ़ बरस की बच्ची को भी। हेलेन को भारत की सैर कराऊँगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी मोटी नौकरी करके रह जाऊँगा।'

'पहले तो हम भारत में घूमते-घामते रहे। दिल्ली, आगरा, बनारस... मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आँखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता। इसे कोई जगह पसंद होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता।'

'फिर हम जलंधर गए।' कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा हो कर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा हो गया, मुझे लगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है। पर सहसा उसने कंधे झटक दिए और फर्श की ओर आँखे लगाए ही बोला, 'जालंधर में पहुँचते ही मुझे घोर निराशा हुई। फटीचर सा शहर, लोग जरूरत से ज्यादा काले और दुबले। सड़कें टूटी हुई। सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा। क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूँ? हमारा पुश्तैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा बड़ा और शानदार लगा करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ। माँ बाप बरसों पहले मर चुके थे। भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बाँटने आया हूँ और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा। छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जा कर रहने लगी थी। क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वप्न देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिए बरसों से तरसता रहा हूँ? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे। गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था। अब वह पहले से भी ज्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाय, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूँ बैठा था। गलियाँ बोसीदा, सोई हुई। मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूँ? दो तीन दिन इसी तरह बीत गए। कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चला जाता, कभी गली बाजार में घूमता। पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराए नगर में पहुँच गया हूँ।

तभी एक दिन बाजार में जाते हुए मुझे अचानक ऊँची सी आवाज सुनायी दी - 'ओ हरामजादे!' मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह हमारे शहर की परंपरागत गाली थी जो चौबिसों घंटे हर शहरी की जबान पर रहती थी। केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है।

'ओ हराम जादे! अपने बाप की तरफ देखता भी नहीं?'

मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही संबोधन कर रहा है। मैंने घूम कर देखा। सड़क के उस पार, साइकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था।

मैंने ध्यान से देखा। काली काली फनियर मूँछों, सपाट गंजे सिर और आँखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी। फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया। वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी।

'हरामजादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!' दूसरे क्षण हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे।

'ओ हराम दे! बाहर की गया, साहब बन गया तूँ?' तेरी साहबी विच मैं...' और उसने मुझे जमीन पर से उठा लिया। मुझे डर था कि वह सचमुच ही जमीन पर मुझे पटक न दे। दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियाँ निकाल रहे थे।

मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था। तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालंधर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है। अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था। तिलकराज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा परायापन जाता रहा। मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूँ। मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूँ, झगड़ सकता हूँ। हर इनसान कहीं का बन कर रहना चाहता है। अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था। अपनाया नहीं था। यह गाली मेरे लिए वह तंतु थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था।

तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफी थी। पर उस वक्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इनकार नहीं कर सकता। दिल दुनिया के सच बड़े भौंड़े पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं।

'चल, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं', तिलकराज ने फिर गाली दे कर कहा। 'वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली दे कर, पक्कड़ तोल कर बगलगीर न हो जाए।'

हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, खरामा खरामा माई हीराँ के दरवाजे की ओर जाने लगे। मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया। मैं जालंधर की गलियों में यूँ घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जागीर में घूमता है। मैं पुलक पुलक रहा था। किसी किसी वक्त मन में से आवाज उठती, तुम यहाँ के नहीं हो, पराए हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी जोर से पटक पटक कर चलने लगता।

'चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?'

'और क्या, तू हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया।'

इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी जमाने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे। तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुँच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था।

हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे। वही मक्खियों और मैल से अटा गंदा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालंधर के ढाबे का मेज था। उस वक्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आ कर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ, कि दुनिया में एक कोना ऐसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, यह गंदा ढाबा, यह धुआं भरी फटीचर खोह।

ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहाँ तक कि थक कर चूर हो गए। वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया। जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था।

तभी उसने कहा, 'कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे। अगर इनकार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूँगा।'

'आऊँगा,' मैंने झट से कहा।

'अपनी मेम को भी लाना। आठ बजे मैं तेरी राह देखूँगा। अगर नहीं आया तो साले हराम दे...'

और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जाँघ पर दे मारा। यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था। जो पहले ऐसा कर जाए कर जाए। मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा।

यह स्वाँग था। मेरी जालंधर की सारी यात्रा ही छलावा थी। कोई भावना मुझे हाँके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था।

दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहुँचे। बच्ची को हमने पहले ही खिला कर सुला दिया था। हेलेन ने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंधों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती : 'तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन सँवर कर ही जाना चाहिए ना।'

मैं हाँ कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज्यादा दूर होती जा रही थी। न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालंधर में सही बैठते थे। सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाए। मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, 'वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूँ? फिर तुम मुझे यहाँ लाए ही क्यों हो?'

हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुँच गए लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया। मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवार के साथ खाना खाएँगे। पर जब हम उसके घर पहुँचे तो उसने सारा जालंधर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था। तरह तरह के लोग बुलाए गए थे। मुझे झेंप हुई। अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था। वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही। दोस्त बाहर से आए और वह उसकी खातिरदारी न करे। अपनी जमीन जायदाद बेच कर भी वह मेरी खातिरदारी करता। अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता। पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। जब हम पहुँचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आए और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी।

पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिए मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया। वह चूल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी। वह झट से उठ खड़ी हुई दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आई। उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आई थी। ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हँसमुख। उसे यों उठते देख कर मेरा सारा शरीर झनझना उठा। मेरी भावज भी चूल्हे से ऐसे ही उठ आया करती थी, दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी माँ भी। पंजाबी महिला का सारा बाँकापन, सारी आत्मीयता उसमें जैसे निखर निखर आई थी। किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो। मैं सराबोर हो उठा। वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई।

'भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?'

'इतना आडंबर करने की क्या जरूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आए हैं...'

फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब हो कर कह, 'उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूँ? ... मैं तुझसे निबट लूँगा।'

उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, 'आप आएँ और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है।'

वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियाँ मेहमानों से कहती आ रही हैं।

फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गई। वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो। हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गई। वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी और बेधड़क बोले जा रही थी। हर बार उनकी आँखें मिलतीं तो वह हँस देती। उसके लिए हेलेन तक अपने विचार पहुँचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुँचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।

उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही। कभी अंदर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक-एक करके हेलेन को दिखाने लगती। कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती, और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है। फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लाई और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आई है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी।

इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गई। भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आई। पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गई। जब कभी मेरी नजर हेलेन की ओर उठती तो वह नजर नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इंतजार में बैठी हूँ कि कब तुम मुझे यहाँ से ले चलो।

रात के बारह बजे के करीब पार्टी खत्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुए अपने-अपने घर जाने लगे। उस वक्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे। एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिर कर टूट गया था।

जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा - बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है।

'नहीं यार, अब चलें। देर हो गई है।'

उसने फिर मुझे धक्का दे कर कुर्सी पर फेंक दिया।

कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था। सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाए, चूड़ियाँ खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिए मेरे वतन का मुजस्समा बन गई थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आई थी। मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हँसी गूँजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती। वर्षों से मैं उन बोलों के लिए तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था।

हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। मेरे लिए उसने क्या नहीं किया था। उसने चपाती बनाना सीख लिया था। दाल छौंकना सीख लिया था। शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुँह से सुने गीत-टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी। कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती। रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टाँग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालंधर कहाँ है और दिल्ली कहाँ है और अमृतसर कहाँ है जहाँ मेरी बड़ी बहन रहती थी। भारत संबंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिंदुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती। पर उस समय मेरी नजर में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था - इनसान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?

'फिर?' मैंने आग्रह से पूछा।

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कंपन हुआ। वह मुस्करा कर कहने लगा, 'तुम्हे क्या बताऊँ।' तभी मैं एक भूल कर बैठा। हर इनसान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है... जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियाँ दे कर और कभी धक्का दे कर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाजे पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपक कर रसोईघर की ओर से आई और बोली, 'हाय, आप लोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिए सरसों का साग और मक्के की रोटियाँ बनाई हैं।'

मैं ठिठक गया। सरसों का साग और मक्की की रोटियाँ पंजाबियों का चहेता भोजन है।

'भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंटसंट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो...'

'मैं इतने लोगों के लिए कैसे मक्की की रोटियाँ बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी। मैंने आपके लिए थोड़ी सी बना दी। यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है...'

सरसों का साग और मक्की की रोटी। मैं चहक उठा, और तिलकराज को संबोधन करके कहा, 'ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?' और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, 'आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है। यह तो तुम्हे चखना ही होगा।'

हेलेन खीज उठी। पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, 'मुझे नहीं, तुम्हे चखना होगा।' फिर धीरे से कहने लगी, 'मैं बहुत थक गई हूँ। क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?'

सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था। उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था।

'भाभी ने खास हमारे लिए बनाया है। तुम्हे जरूर अच्छा लगेगा।'

फिर बिना हेलेन के उत्तर का इंतजार किए, साग है तो मैं तो रसोईघर के अंदर बैठ कर खाऊँगा। मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, 'चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास! एक ही थाली में खाएँगे।'

छोटा सा रसोईघर था। हमारे अपने घर में भी ऐसा ही रसोईघर हुआ करता था जहाँ माँ अंगीठी के पास रोटियाँ सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे।

फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आँखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर हो कर उसे देखे जा रहा था। चूल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था। सोने के काँटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है। इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियाँ खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हँसते हुए हमारी थाली में डाल देती।

यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिए किसी स्वप्न से भी अधिक सुंदर और हृदयग्राही था। मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही। मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इंतजार कर रही है। मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वप्न भंग हो जाएगा। यह सुंदरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जाएगा। लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी। वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिए ले गई थी। बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी।

खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आए तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गई थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी। हमारे कदमों की आहट पा कर उसने आँखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई।

विदा ले कर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था। नुक्क्ड़ पर हमें एक ताँगा मिल गया। ताँगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी। पर जब हम लोग ताँगे में बैठ कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, 'कितने दिन और तुम्हारा विचार जालंधर में रहने का है?'

'क्यों अभी से ऊब गईं क्या?' आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई ऐम सारी।'

हेलेन चुप रही, न हूँ, न हाँ।

'हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिए पागल हुए रहते हैं। आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ। तुम्हे कैसे लगा?'

'सुनो, मैं सोचती हूँ मैं यहाँ से लौट जाऊँ, तुम्हारा जब मन आए, चले आना।'

'यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हे मेरे लोग पसंद नहीं हैं?'

भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह खयाल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो मैं खुल कर घूम फिर सकता था। छुट्टी मना सकता था। पर मैं स्वयं ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था। मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी मोटी नौकरी कर लूँ।

हेलेन की शिष्ट, संतुलित आवाज में मुझे रुलाई का भास हुआ। मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की। उसमे धीरे से मेरी बाँह को परे हटा दिया। मुझे दूसरी बार उसके इर्द-गिर्द अपनी बाँह डाल देनी चाहिए थी, लेकिन मैं स्वयं तुनक उठा।

'तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई।'

ताँगे में हिचकोले आ रहे थे। पुराना फटीचर सा ताँगा था, जिसके सब चूल ढीले थे। हेलेन को ताँगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार सँभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी।

'मैं सोचती हूँ, मैं बच्ची को ले कर लौट जाऊँगी। मेरे यहाँ रहते तुम लोगों से खुल कर नहीं मिल सकते।' उसकी आवाज में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ और यहाँ झूठी सद्भावना।

'तुम खुद सारा वक्त गुमसुम बैठी रही हो। मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूँ।'

'तुम अपने दिल की भूख मिटाने आए हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाए', उसने स्थिर, समतल, ठंडी आवाज में कहा, और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है।'

मुझे चाबुक सी लगी।

'इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफरत से उसके बारे में बोल रही हो? हमारा देश गरीब है तो क्या, है तो हमारा अपना।'

'मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा।'

'तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है। जितनी ज्यादा चुप रहती हो उतना ही ज्यादा विष घोलती हो।'

वह चुप हो गई। अंदर ही अंदर मेरा हीनभाव जिससे उन दिनों हम सब हिंदुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था। आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणों में भी मुझे अंदर ही अंदर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था। अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हे अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था। अँधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आँखें भर आई हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है। ताँगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी। आखिर ताँगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ। हमारे घर की बत्ती जलती छोड़ कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे। कमरे मे पहुँच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, 'तुम्हे किसी हिंदुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिए थी। उसके साथ तुम खुश रहते। मेरे साथ तुम बँधे बँधे महसूस करते हो।'

हेलेन ने आँख उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी नीली आँखें मुझे काँच कि बनी लगी, ठंडी, कठोर, भावनाहीन, 'तुम सीधा क्यों नही कहती हो कि तुम्हे एक हिंदुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिए था। मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगाती हो?'

'मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा', बह बोली और पार्टीशन के पीछे कपड़े बदलने चली गई।

दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी। मेरी आवाज सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आई और बच्ची को थपथपा कर सुलाने लगी। बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई। और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई। तभी मैंने पार्टीशन की ओर जा कर गुस्से से कहा, 'जब से भारत आए हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौका मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है। लानत है ऐसी शादी पर!'

मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आएगा। बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पाँव थी। बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।

पर वह उसी समतल आवाज में धीरे से बोली, तुम्हे मेरी क्या परवाह। तुम तो मजे से अपने दोस्त की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे।'

'हेलेन!' मुझे आग लग गई, 'क्या बक रही हो।'

मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुंदर चीज को एक झटके में तोड़ दिया हो।

'तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहा था?'

'मैं क्या जानूँ तुम क्या कर रहे थे। जिस ढंग से तुम सारा वक्त उसकी ओर देख रहे थे...'

दूसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुँचा और हेलेन के मुँह पर सीधा थप्पड़ दे मारा।

उसने दोनो हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया। एक बार उसकी आँखें टेढ़ी हो कर मेरी ओर उठीं। पर वह चिल्लाई नहीं। थप्पड़ पड़ने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था। जिससे उसकी कनपटी पर चोट आई थी।

'मार लो, अपने देश में ला कर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे, मैं नहीं जानती थी।'

उसके मुँह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टाँगें लरज गईं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया। हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिए थे। उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था। पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाए खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था। उसके सुनहरे बाल छितरा कर उसके माथे पर फैले हुए थे।

यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आँखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था। मेरे मुँह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पा कर मात्र क्रंदन में ही छटपटा कर व्यक्त हो पाया हो। मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आँगन में चला गया। यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था...

इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊँगा। उस दिन जो जालंधर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया...

सीढ़ियों पर कदमों की आवाज आई। उसी वक्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आई। सीढ़ियों की ओर से हँसने चहकने और तेज तेज सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आई। जोर से दरवाजा खुला और हाँफती हाँफती दो युवतियाँ - लाल साहब की बेटियाँ - अंदर दाखिल हुईं। बड़ी बेटी ऊँची लंबी थी, उसके बाल काले थे और आँखें किरमिची रंग की थीं। छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ साँवला था, और आँखों में नीली नीली झाइयाँ थीं। दोनो ने बारी बारी से माँ और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपाई पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं। उनकी माँ भी कुर्सी पर बैठ गई और दोनो बेटियाँ दिन भर की छोटी छोटी घटनाएँ अपनी भाषा में सुनाने लगीं। सारा घर उनकी चहकती आवाजों से गूँजने लगा। मैंने लाल की ओर देखा। उसकी आँखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था।

'यह सज्जन भारत से आए हैं। यह भी जालंधर के रहने वाले हैं।'

बड़ी बेटी ने मुस्करा कर मेरा अभिवादन किया। फिर चहक कर बोली, 'जालंधर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा। जब मैं वहाँ गई थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था। क्यों माँ?' और खिलखिला कर हँसने लगी।

लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुंदर था।

वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया। खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे। वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में। वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला। आते जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई। मुझे लगा शहर में उसकी इज्जत है। और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहाँ से आया और कहाँ आ कर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियाँ हासिल कीं?

विदा होते समय उसने मुझे फिर बाँहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अंदर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है।

'यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है। जिंदगी मुझ पर बड़ी मेहरबान रही है। मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से...' फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हँस कर बोला, 'हाँ एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए 'ओ हरामजादे!' और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूँ', कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गई।

                                                                          --भीष्म साहनी--