सोमवार, 11 अगस्त 2014

कवि का जीवन

जब आँखें रीत जाती हैं
बहाकर सब आँसू, जो बचा रह जाता है
तो वह दुख है;
जो बचता है हृदय में
जब सब भावनाएँ पिरोई जाती हैं
शब्दों और पंक्तियों में
तो वह कविता है

दुख की तरह
कविता अनंत है

जब भी गोली चलती है,
या कोई नन्हा यतीम भूख से बिलखता है,
दुख हृदय से सिर उठाता है
गोली से घायल सैनिक के रक्त की तरह
कविता भी बहती है;
गाढ़ी और सख्त होकर
अंत में जम जाती है
फूल पुष्पित होकर फल बन जाता है;
शुष्क, मुरझाया पंखुड़ीरहित;
इसी तरह खून, सूखकर काला पड़ जाता है,
पपड़ियाँ बनकर खुरचा जाता है
वह फिर बहता है
खामोश अँधेरे की तरह भीतर ही भीतर थक्का बन जाता है,
और उस दर्द से
कोई रक्तपिपासु उत्पन्न होता है
और घाव को चाटने लगता है

पुराना घाव हरा हो जाता है -
रक्तिम और मुलायम,
और फिर बहने लगता है

इस तरह दुख जिंदा रहता है,
जैसे हो कवि का जीना
और मर जाना

समुद्र तट पर रात में
रात की अँधेरी सड़कों पर पाँव चलते हैं
रात के फहराते पंख
इंजन की चिंघाड़
असहाय कदम बढ़ते हुए
आगे ही आगे सड़कें
घिसटती हैं पंखुड़ियों
और पवन का स्पंदन
लहरें आती और जाती हैं, पदप्रक्षालन करती
पाँव तले रेत गुदगुदी करके फिसल जाता है
हाथों की अँजुली में भरा जल
भागते पैरों की आवाज, शायद
नहीं अब कोई आवाज नहीं
थके पेड़ थके और स्तब्ध
भगवान जगन्नाथ का मंदिर, कोणार्क और
मंदिर का नीला बैनर
नर्तकियों के ठहरे हुए आसन

निशांत के आगमन की बेला का अँधेरा
पैर अब उनींदे हैं समुद्री हवा
तट पर पेड़ों और नीले बैनर के
के परे बहती है

      --शुभेंदु मुंड--
(अनुवाद : सरिता शर्मा)

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