शनिवार, 23 मार्च 2013

शरणागत


रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुखार हो आया था, रकम पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में खर्च ज्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।

परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर खरीद कर ले जा चुका था।

अपने व्यवहारियों से उसने रात भर के बसेरे के लायक स्थान की याचना की। किसी ने भी मंजूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छुपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की खबरें फैलती, इसलिए सबों ने इन्कार कर दिया।

गाँव में एक गरीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी जमीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसके गाँववाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते, और ठाकुर को डरके मारे 'राजा' शब्द संबोधन करते थे।

शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाजे पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को ले कर पहुँचा।

ठाकुर पौर में बैठा हुक्का पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम कर के कहा 'दाऊजू, एक बिनती है।'

ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा - "क्या?"

रज्जब बोला - "दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हुँ। मेरी औरत को जोर से बुखार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जायगी, इसलिए रात भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाय।"

"कौन लोग हो?" ठाकुर ने प्रश्न किया।

"हूँ तो कसाई।" रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।

ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"

रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ है।"

तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता गायब हो गई। जरा नरम स्वर में बोला - "किसी ने तुमको बसेरा नहीं दिया?"

"नहीं महाराज," रज्जब ने उत्तर दिया - "बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।" वह दरवाजे के बाहर ही एक कोने से चिपट कर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बन कर सिमट गई।

ठाकुर ने कहा- "तुम अपनी चिलम लिए हो?"

"हाँ, सरकार।" रज्जब ने उत्तर दिया।

ठाकुर बोला- "तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।

जब वह दोनों भीतर आ गए, तो ठाकुर ने पूछा - "तुम कब यहाँ से उठ कर चले जाओगे?" जवाब मिला- "अँधेरे में ही महाराज। खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हूँ इसलिए पकाने की जरूरत न पड़ेगी।"

"तुम्हारा नाम?"

"रज्जब।"

थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा - "कहाँ से आ रहे हो?" रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।

"वहाँ किसलिए गए थे?"

"अपने रोजगार के लिए।"

"काम तुम्हारा बहुत बुरा है।"

"क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोजगार नियत किया है, वहीं उसको करना पड़ता है।"

"क्या नफा हुआ?" प्रश्न करने में ठाकुर को जरा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़ कर।

रज्जब ने जवाब दिया- "महाराज, पेट के लायक कुछ मिल गया है। यों ही।" ठाकुर ने इस पर कोई जिद नहीं की।

रज्जब एक क्षण बाद बोला- "बड़े भोर उठ कर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबीयत भी अच्छी हो जायगी।"

इसके बाद दिन भर के थके हुए पति-पत्नी सो गए। काफी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रजाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।

आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा - "दाऊजू, आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।"

ठाकुर ने कहा - "आज जरूरत थी। खैर, कल देखा जायगा। क्या कोई उपाय किया था?"

"हाँ", आगंतुक बोला - "एक कसाई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग जरा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। जरा जल्दी।"

ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा - "कसाई का पैसा न छुएँगे।"

"क्यों?"

"बुरी कमाई है।"

"उसके रुपए पर कसाई थोड़े लिखा है।"

"परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।"

"रुपया तो दूसरों का ही है। कसाई के हाथ आने से रुपया कसाई नहीं हुया।"

"मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।"

"हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।"

ज्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोच कर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।

भीतर देखा कसाई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी। ठाकुर भी सो गया।

सबेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुखार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर भर में पीड़ा थी, और वह एक कदम भी नहीं चल सकती थी।

ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देख कर कुपित हो गया। रज्जब से बोला - "मैंने खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देख कर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ इसी समय।"

रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अव्यक्त लोकमत का दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक, एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।

उसे आशा थी कि पहर - आध पहर में उसकी पत्नी की तबीयत इतनी स्वस्थ हो जायगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।

मुश्किल से एक चमार काफी किराया ले कर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राजी हुआ। इतने में दोपहर हो गई। उसकी पत्नी को जोर का बुखार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थीं, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम से कम कँपकँपी बंद न हो जाय।

घंटे-डेढ़-घंटे बाद उसकी कँपकँपी बंद तो हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।

गाड़ीवान बोला - "दिन भर तो यहीं लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो।"

रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा।

वह बोला - "इतने किराए में काम नहीं चलेगा, अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।"

रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत हो कर कहने लगा - "भाई, 
आफत सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।"

कसाई को दया पर व्याख्यान देते सुन कर गाड़ीवान को हँसी आ गई। उसको टस से मस न होता देख कर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।

पाँच-छ: मील चले के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुखार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रकम सुरक्षित बँधी पड़ी थी।

रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुखार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है - और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।

बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया -

"गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।"

"बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।"

"किसके यहाँ?"

"किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सबेरे ललितपुर चलेंगे।"

................................

"कल को फिर पैसा माँग उठना।"

"कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हूँ। अब फिर कैसे माँगूँगा?"

"जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता !"

"क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?"

"क्यों बे, क्या रुपया दे कर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक को यहीं छुरे से काट कर फेंक दूँगा और गाड़ी ले कर ललितपुर चल दूँगा।"

रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।

गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुन कर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छूरी छू रही है।

गाड़ीवान चुपचाप बैलों को हाँकने लगा। उसने सोचा - गाँव आते ही गाड़ी छोड़ कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँववालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुड़ाऊँगा। रुपए-पैसे भली ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले !

गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठक कर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इललिए जरा कड़क कर गाड़ीवान से बोला - "क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?"

अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला, "खबरदार, जो आगे बढ़ा।"

रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँध कर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आ कर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।

गाड़ीवान गाड़ी छोड़ कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला - "मालिक, मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।"

"यह कौन है?" एक ने गरज कर पूछा।

गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।

रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा - "मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।"

उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।

अब उसका मुँह खुला। बोला - "महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।"

"और यह कौन है? बतला।" उन लोगों में से एक ने पुछा।

गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया - "ललितपुर का एक कसाई।"

रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला - "तुम कसाई हो? सच बताओ !"

"हाँ, महाराज!" रज्जब ने सहसा उत्तर दिया - "मैं बहुत गरीब हुँ। हाथ जोड़ता हूँ मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है।"

औरत जोर से कराही ।

लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा - "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।"

उसने न माना। बोला- "इसका खोपड़ा चकनाचुर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-कसाई हम कुछ नहीं मानते।"

"छोड़ना ही पड़ेगा," उसने कहा - "इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।"

दूसरा बोला- "क्या कसाई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ!" और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ा कर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े उस व्यक्ति ने जरा तीव्र स्वर में कहा - "नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।"

"हो, मेरी बला से," गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया - "मैं कसाइयों की दवा हूँ।" और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।

नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।"

गाड़ीवाला लठैत झख-सी मार कर नीचे उतर आया।

नीचेवाले व्यक्ति ने कहा - "सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।" फिर गाड़ीवान से बोला - "जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँच आना, तब लौटना, नहीं तो अपनी खैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी, इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जला कर खाक कर दूँगा।"

गाड़ीवान गाड़ी ले कर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़ कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा - "दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।"

दाऊजू ने कहा - "न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुजरता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।"

                                                                        ---वृंदावनलाल वर्मा---

मेरा दुश्मन

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज मिला दी थी कि खाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई खास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोर-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीग कर दमक उठती हैं, होंठों का जहर और उजागर हो जाता है, और बस - होशोहवास बदस्‍तूर कायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्‍यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोच कर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोच कर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में जायका पहचान कर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास खत्‍म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्‍पना से दिल दहल कर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुजदिल आदमी की कल्‍पना बहुत तेज होती है, हमेशा उसे हर खतरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्‍मत बाँध कर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा जरूर था। इतना भी क्‍या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

खैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़क कर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्‍त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देख कर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूजी किसी भी क्षण उछल कर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताकत उसकी खामोशी में है। बातें वह उस जमाने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।

उसकी गूँगी अवहेलना की कल्‍पना-मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न, कि मैं एक बुजदिल इंसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अर्से की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफहमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते-मटकते तंदुरुस्‍त बच्‍चों और आरास्‍ता-पैरास्‍ता अलीशान कोठी को देख कर खुद ही मैदान छोड़ कर भाग जाएगा और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवार हद तक मैंने अपनी जिंदगी को सँभाल-सँवार लिया है।

लेकिन ये सब लँगड़े बहाने हैं। हकीकत शायद यह है कि उस रोज मैं उसे अपने साथ नहीं लाया था, बल्कि वह खुद ही मेरे साथ चला आया था, जैसे मैं उसे नहीं बल्कि वह मुझे नीचा दिखाना चाहता हो। जाहिर है कि उस समय यह बारीक बात मेरी समझ में नहीं आई होगी। मौके पर ठीक बात मैं कभी नहीं सोच पाता। यही तो मुसीबत है। वैसे मुसीबतें और भी बहुत हैं, लेकिन उन सबका जिक्र यहाँ बेकार होगा।

खैर, माला के सामने उस रोज मैंने इसी किस्‍म की कोई लँगड़ी सफाई पेश करने की कोशिश की थी और उस पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसे देखते ही बिफर उठी थी। सबसे पहले अपनी बेवकूफी और सारी स्थिति का एहसास शायद मुझे उसी क्षण हुआ था। मुझे उस कमबख्त से वहीं घर से दूर, उस सड़क के किनारे किसी-न-किसी तरह निबट लेना चाहिए था। अगर अपनी उस सहमी हुई खामोशी को तोड़ कर मैंने अपनी तमाम मजबूरियाँ उसके सामने रख दी होतीं, माला का एक खाका-सा खींच दिया होता, साफ-साफ उससे कह दिया होता - देखो गुरु, मुझ पर दया करो और मेरा पीछा छोड़ दो - तो शायद वहीं हम किसी समझौते पर पहुँच जाते। और नहीं तो वह मुझे कुछ मोहलत तो दे ही देता। छूटते ही दो मोरचों को एक साथ सँभालने की दिक्‍कत तो पेश न आती। कुछ भी हो, मुझे अपने घर नहीं लाना चाहिए था। लेकिन अब यह सारी समझदारी बेकार थी। माला और वह एक-दूसरे को यूँ घूर रहे थे जैसे दो पुराने और जानी दुश्‍मन हों। एक क्षण के लिए मैं यह सोच कर आश्‍वस्‍त हुआ था कि माला सारी स्थिति खुद सँभाल लेगी और फिर दूसरे ही क्षण मैं माला की लानत-मुलामत की कल्‍पना कर सहम गया था। बात को मजाक में घोल देने की कोशिश में मैंने एक खास गिलगिले लहजे में - जो मेरे पास ऐसे नाजुक मौकों के लिए सुरक्षित रहता है - कहा था, डार्लिंग, जरा रास्‍ता तो छोड़ो, कि हम बहुत लंबी सैर से लौटे हैं, जरा बैठ जाएँ तो जो सजा जी में आए, दे देना।

वह रास्‍ते से तो हट गई थी, लेकिन उसके तनाव में कोई कमी नहीं हुई थी, और न ही उसने मुझे बैठने दिया था। साथ ही उस मुरदार ने मेरी तरफ यूँ देखा था जैसे कह रहा हो - तो तुम वाकई इस औरत के गुलाम बन कर रह गए हो। और खुद मैं उन दोनों की तरफ यूँ देख रहा था जैसे एक की नजर बचा कर दूसरे से कोई साजिशी संबंध पैदा कर लेने की ख्‍वाहिश हो।

फिर माला ने मौका पाते ही मुझे अलग ले जा कर डाँटना-डपटना शुरू कर दिया था - मैं पूछती हूँ कि यह तुम किस आवारागर्द को पकड़ कर साथ ले आए हो? जरूर कोई तुम्‍हारा पुराना दोस्‍त होगा? है न? इत्‍ते बरस शादी को हो चले लेकिन तुम अभी तक वैसे-के-वैसे ही रहे। मेरे बच्‍चे उसे देख कर क्‍या कहेंगे? पड़ोसी क्‍या सेाचेंगे? अब कुछ बोलोगे भी?

मैं हैरान था कि क्‍या बोलूँ! माला के सामने में बोलता कम हूँ, ज्‍यादा समय तोलने में ही बीत जाता है और उसका मिजाज और बिगड़ जाता है। वैसे उसका गुस्‍सा वजा था। उसका गुस्‍सा हमेशा वजा होता है। हमारी कामयाब शादी की बुनियाद भी इसी पर कायम है - उसकी हर बात हमेशा सही होती है और मैं अपनी हर गलती को चुपचाप और फौरन कबूल कर लेता हूँ। बीच-बीच में महज मुझे खुश कर देने के खयाल से वह इस किस्‍म की शि‍कायतें जरूर कर दिया करती है - तुम्‍हें न जाने हर मामूली-से-मामूली बात पर मेरे खिलाफ डट जाने में क्‍या मजा आता है? मानती हूँ कि तुम मुझसे कहीं ज्‍यादा समझदार हो, लेकिन कभी-कभी मेरी बात रखने के लिए ही सही... वगैर-वगैरा।

मुझे उसके ये झूठे उलाहने बहुत पसंद हैं, गो मैं उनसे ज्‍यादा खुश नहीं हो पाता। फिर भी वह समझती है कि इनसे मेरा भ्रम बना रहता है और मैं जानता हूँ कि बागडोर उसी के हाथ में रहती है और यह ठीक ही है।

तो माला दाँत पीस कर कह रही थी - अब कुछ बोलोगे भी? मेरे बच्‍चे पार्क से लौट कर इस मनहूस आदमी को बैठक में बैठा देखेंगे, तो क्‍या कहेंगे? उन पर क्‍या असर होगा? उफ, इतना गंदा आदमी! सारा घर महक रहा है। बताओ न, मैं अपने बच्‍चों से क्‍या कहूँगी?

अब जाहिर है कि माला को कुछ भी नहीं बता सकता था। सो मैं सर झुकाए खड़ा रहा और वह मुँह उठाए बहुत देर तक बरसती रही।

वैसे यहाँ यह साफ कर दूँ कि वे बच्‍चे माला अपने साथ नहीं लाई थी। वे मेरे भी उतने ही हैं जितने कि उसके, लेकिन ऐसे मौकों पर वह हमेशा 'मेरे बच्‍चे' कह कर मुझसे उन्‍हें यूँ अलग कर लिया करती है, जैसे कोई कीचड़ से लाल निकाल रहा हो। कभी-कभी मुझे इस बात पर बहुत दुख भी होता था, लेकिन फिर ठंडे दिल से सोचने पर महसूस होता है कि शारीरिक सचाई कुछ भी हो, रूहानी तौर पर हमारे सभी बच्‍चे माला के ही है, उनके रंग-ढंग में मेरा हिस्‍सा बहुत कम है। और यह ठीक ही है, क्योंकि अगर वे मुझ पर जाते तो उन्‍हें भी मेरी तरह सीधा होने में न जाने कितनी देर लग जाती। मैं खुश हूँ कि उनका कानूनी और शायद जिस्‍मानी, बाप हूँ, उनके लिए पैसे कमाता हूँ, और दिलोजान से उनकी माँ की सेवा में दिन-रात जुटा रहता हूँ।

खैर! कुछ देर यूँ ही सर नीचा किए खड़े रहने के बाद आखिर मैंने निहायत आजिजाना आवाज में कहना शुरू किया था - अरे भई, मैं तो उस कमबख्‍त को ठीक तरह से पहचानता भी नहीं, उससे दोस्‍ती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अब अगर रास्‍ते में कोई आदमी मिल जाए तो...।

न जाने मेरे फिकरे का अंत क्‍योंकर होता। शायद होता भी कि नहीं, लेकिन माला ने बीच में ही पाँव पटक कर कह दिया - झूठ, सरासर झूठ।

यह कह कर वह अंदर चली गई और मैं कुछ देर तक और वहीं सर नीचा किए खड़ा रहने के बाद वापस उस कमरे में लौट आया, जहाँ बैठा वह बीड़ी पी रहा था और मुस्‍करा रहा था, जैसे सब जानता हो कि मैं किस मरहले से गुजर कर आ रहा हूँ।

अब हुआ दरअसल यह था कि उस शाम माला से, कुछ दूर अकेला घूम आने की इजाजत माँग कर मैं यूँ ही बिना मतलब घर से बाहर निकल गया था। आम तौर पर वह ऐसी इजाजतें आसानी से नहीं देती और न ही मैं माँगने की हिम्‍मत कर पाता हूँ। बिना मतलब घूमना उसे बहुत बुरा लगता है। कहीं भी जाना हो, किसी से भी मिलना हो, कुछ भी करना या न करना हो, मतलब का साफ और सही फैसला वह पहले से ही कर लेती है। ठीक ही करती है। मैं उसकी समझदारी की दाद देता हूँ। वैसे घर से दूर अकेला मैं किसी मतलब से भी नहीं आ पाता। माला की सोहबत की कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है, कि उसके बगैर सब सूना-सूना-सा लगता है। जब वह साथ रहती है तो किसी किस्‍म का कोई ऊल-जलूल विचार मन में उठ ही नहीं पाता, हर चीज ठोस और बामतलब दिखाई देती है। अंदर की हालत ऐसी रहती है, जैसे माला के हाथों सजाया हुआ कोई कमरा हो, जिसमें हर चीज करीने से पड़ी हो, बेकायदगी की कोई गुंजाइश न हो। और जब वह साथ नहीं होती, तो वही होता है जो उस शाम हुआ, या फिर उसी किस्‍म का कोई और हादसा, क्योंकि उससे पहले वैसी बात कभी नहीं हुई थी।

तो उस शाम न जाने किस धुन में मैं बहुत देर निकल गया था। आम तौर पर घर से दूर होने पर भी मैं घर ही के बारे में सोचता रहता हूँ - इसलिए नहीं कि घर में किसी किस्‍म की कोई परेशानी है। गाड़ी न सिर्फ चल रही है, बल्कि खूब चल रही है। बागडोर जब माला-जैसी औरत के हाथ हो, तो चलेगी नहीं तो और करेगी भी क्‍या? नहीं, घर में कोई परेशानी नहीं - अच्‍छी तनख्‍वाह, अच्‍छी बीवी, अच्‍छे बच्‍चे, अच्‍छे बा-रसूख दोस्‍त, उनकी बीवियाँ भी खूब हट्टी-कट्टी और अच्‍छी, अच्‍छा सरकारी मकान, अच्‍छा खुशनुमा लॉन, पास-पड़ोस भी अच्‍छा, महँगाई के बावजूद दोनों वक्‍त अच्‍छा खाना, अच्‍छा बिस्‍तर और अच्‍छी बिस्‍तरी जिंदगी। मैं पूछता हूँ, इस सबके अलावा और चाहिए भी क्‍या एक अच्‍छे इंसान को? फिर भी अकेला होने पर घरेलू मामलों को बार-बार उलट-पलट कर देखने से वैसा ही इत्‍मीनान मिलता है, जैसा किसी भी सेहतमंद आदमी को बार-बार आईने में अपनी सूरत देख कर मिलता होगा। मेरा मतलब है कि वक्‍त अच्‍छी तरह से कट जाता है, ऊब नहीं होती। यह भी माला के ही सुप्रभाव का फल है, नहीं तो एक जमाना था कि मैं हरदम ऊब का शिकार रहा करता था।

हो सकता है कि उस शाम दिमाग कुछ देर के लिए उसी गुजरे हुए जमाने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।

महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देख कर घात में बैठे हुए किसी खतरनाक अजनबी ने ही रास्‍ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठक कर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसल कर मेरी निगाह उसकी मुस्‍कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद जमाने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़ कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सर इस पेशी के खयाल से दब कर झुक गया था।

कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रूबरू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता, तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं, या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।

वैसे यह सच है कि उसे पहचानते ही मैंने माला को याद करना शुरू कर दिया था, कि हर संकट में मैं हमेशा उसी का नाम लेता हूँ। साथ ही यहाँ से दुम दबा कर भाग उठने की ख्‍वाहिश भी मन में उठती रही थी। एक उड़ती हुई-सी तमन्‍ना यह भी हुई थी कि वापस घर लौटने के बजाय चुपचाप उस कमबख्‍त के साथ हो लूँ, जहाँ वह ले जाना चाहे चला जाऊँ और माला को खबर तक न हो। इस विचार पर तब भी मैं बहुत चौंका था और अभी तक हैरान हूँ, क्‍योंकि आखिर उसी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर आज से कुछ बरस पहले मैंने उसके खिलाफ बगावत न की होती तो। लेकिन उस भागने को बगावत का नाम दे कर मैं अपने-आपको धोखा दे रहा हूँ, मैंने सोचा था और मेरा मुँह शर्म के मारे जल उठा था।

उस हरामजादे ने जरूर मेरी सारी परेशानी को भाँप लिया होगा। उससे मेरी कोई कमजोरी छिपी नहीं और उससे भाग कर माला की गोद में पनाह लेने की एक बड़ी वजह यही थी। उसकी हँसी मुझे सूखे पत्‍तों की हैबतनाक खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और उस खड़खडाहाट में उसके साए में गुजारे हुए जमाने की बेशुमार बातें आपस में टकरा रही थीं। बड़ी ही मुश्किल से आँख उठा कर उसकी ओर देख था। उसका हाथ मेरी तरफ बढ़ा हुआ था। कसे हुए दाँतों से मैंने उसकी आँखों का सामना किया था। अपना हाथ उसके खुरदरे हाथ में देते हुए और उसकी साँसों की बदबूदार हरारत अपने चेहरे पर झेलते हुए मैंने महसूस किया था जैसे इतनी मुद्दत आजाद रह लेने के बाद फिर अपने-आपको उसके हवाले कर दिया हो। अजीब बात है, एहसास से जितनी तकलीफ मुझे होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी। शायद हर भगोड़ा मुजरिम दिल से यही चाहता है कि उसे कोई पकड़ ले।

घर पहुँचने तक कोई बात नहीं हुई थी। अपनी-अपनी खामोशी में लिपटे हुए हम धीमे-धीमे चल रहे थे, जैसे कंधों पर कोई लाश उठाए हुए हों।

सो, जब माला की डाँट-डपट सुन लेने के बाद, मुँह बनाए, मैं वापस बैठक में लौटा, तो वह बदजात मजे में बैठा बीड़ी पी रहा था। एक क्षण के लिए भ्रम हुआ, जैसे वह कमरा उसी का हो। फिर कुछ सँभल कर, उससे नजर मिलाए बगैर, मैंने कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, पंखे को और तेज कर दिया, एक झुँझलाई हुई ठोकर से उसके जूतों को सोफे के नीचे धकेल दिया, रेडियो चलाना ही चाहता था कि उसकी फटी हुई हँसी सुनाई दी और मैं बेबस हो, उससे दूर हट कर चुपचाप बैठ गया।

जी में आया कि हाथ बाँध कर उसके सामने खड़ा हो जाऊँ, सारी हकीकत सुना कर कह दूँ - देखो दोस्‍त, अब मेरे हाल पर रहम करो और माला के आने से पहले चुपचाप यहाँ से चले जाओ, वरना नतीजा बुरा होगा।

लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। कहा भी होता तो सिवाय एक और जहरीली हँसी के उसने मेरी अपील का कोई जवाब न दिया होता। वह बहुत जालिम है, हर बात की तह तक पहुँचने का कायल, और भावुकता से उसे सख्‍त नफरत है।

उसे कमरे का जायजा लेते देख मैंने दबी निगाह से उसकी ओर देखना शुरू कर दिया। टाँगे समेटे वह सोफे पर बैठा हुआ एक जानवर-सा दिखाई दिया। उसकी हालत बहुत खस्‍ता दिखाई दी, लेकिन उसकी शक्‍ल अब भी मुझसे कुछ-कुछ मिलती थी। इस विचार से मुझे कोफ्त भी हुई और एक अजीब किस्‍म की खुशी भी महसूस हुई। एक जमाना था जब वही एक मात्र मेरा आदर्श हुआ करता था, जब हम दोनों घंटों एक साथ घूमा करते थे, जब हमने बार-बार कई नौकरियों से एक साथ इस्‍तीफे दिए थे, कुछ-एक से एक साथ निकाले भी गए थे, जब हम अपने-आपको उन तमाम लोगों से बेहतर और ऊँचा समझते थे जो पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हुए अपनी सारी जिंदगी एक बदनुमा और रवायती घरौंदे की तामीर में बरबाद कर देते हैं, जिनके दिमाग हमेशा उस घरौंदे की चहारदीवारी में कैद रहते है, जिनके दिल सिर्फ अपने बच्चों की किलकारियों पर ही झूमते हैं, जिनकी बेवकूफ बीवियाँ दिन-रात उन्‍हें तिगनी का नाच नचाती हैं, और जिन्‍हें अपनी सफेदपोशी के अलावा और किसी बात का कोई गम नहीं होता। कुछ देर मैं उस जमाने की याद में डूबा रहा। महसूस हुआ, जैसे वह फिर उसी दुनिया से एक पैगाम लाया हो, फिर मुझे उन्‍हीं रोमानी वीरानों में भटका देने की कोशिश करना चाहता हो, जिनसे भाग कर मैने अपने लिए एक फूलों की सेज सँवार ली है, और जहाँ मैं बहुत सुखी हूँ।

वह मुस्‍करा रहा था, जैसे उसने मेरे अंदर झाँक लिया हो। उसे इस तरह आसानी से अपने ऊपर काबिज होते देख, मैंने बात बदलने के लिए कहा - कितने रोज यहाँ ठहरोगे?

उसकी हँसी से एक बार फिर हमारे घर की सजी-सँवारी फि़जा दहक गई, और मुझे खतरा हुआ कि माला उसी दम वहाँ पहुँच कर उसका मुँह नोच लेगी। लेकिन यह खतरा इस बात का गवाह है कि इतने बरसों की दासता के बावजूद मैं अभी तक माला को पहचान नहीं पाया। थोड़ी ही देर में वह एक बहुत खूबसूरत साड़ी पहने मुस्‍कराती-इठलाती हुई हमारे सामने आ खड़ी हुई। हाथ जोड़ कर बड़े दिलफरेब अंदाज में नमस्‍कार करती हुई बोली, 'आप बहुत थके हुए दिखाई देते हैं, मैंने गरम पानी रखवा दिया है, आप 'वाश' कर लें, तो कुछ पी कर ताजादम हो जाएँ। खाना तो हम लोग देर से ही खाएँगे।'

मैं बहुत खुश हुआ। अब मामला माला ने अपने हाथ में ले लिया था और मैं यूँ ही परेशान हो रहा था। मन हुआ कि उठ कर माला को चूम लूँ, मैंने कनखियों से उस हरामजादे की तरफ देखा। वह वाकई सहमा हुआ-सा दिखाई दिया। मैंने सोचा, अब अगर वह खुद-ब-खुद ही न भाग उठा तो मैं समझूँगा कि माला की सारी समझ-सीख और रंग-रूप बेकार है। कितना लुत्‍फ आए अगर वह कमबख्‍त भी भाग खड़ा होने के बजाय माला के दाँव में फँस जाए और फिर मैं उससे पूछूँ - अब बता, साले, अब बात समझ में आई? मैंने आँखें बंद कर लीं और उसे माला के इर्द-गिर्द नचाते हुए, उस पर फिदा होते हुए, उसके साथ लेटे हुए देखा। एक अजीब राहत का ए‍हसास हुआ। आँखें खोलीं तो वह गुसलखाने में जा चुका था और माला झुकी हुई सोफे को ठीक कर रही थी। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसकी तनी हुई सूरत से घबरा कर नजरें झुका लीं। जाहिर था कि उसने अभी मुझे माफ नहीं किया था।

नहा कर वह बाहर निकला, तो उसने मेरे कपड़े पहने हुए थे। इस बीच माला ने बीअर निकाल ली थी और उसका गिलास भरते हुए पूछ रही थी - 'आप खाने में मिर्च कम लेते हैं या ज्यादा?' मैंने बहुत मुश्किल से हँसी पर काबू किया - उस साले को तो खाना ही कब मिलता होता, मैं सोच रहा था और माला की होशियारी पर खुश हो रहा था।

कुछ देर हम बैठे पीते रहे, माला उससे घुल-मिल कर बातें करती रही, उससे छोटे-छोटे सवाल पूछती रही - आपको यह शहर कैसा लगा? बीअर ठंडी तो है न? आप अपना सामान कहाँ छोड़ आए? - और वह बगलें झाँकता रहा। हमारे बच्‍चों ने आ कर अपने 'अंकल' को ग्रीट किया, बारी-बारी उसके घुटनों पर बैठ कर अपना नाम वगैरा बताया, एक-दो गाने गाए और फिर 'गुड नाइट' कह कर अपने कमरे में चले गए। माला की मीठी बातों से यूँ लग रहा था जैसे हमारे अपने ही हलके का कोई बेतकल्‍लुफ दोस्‍त कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ ठहरा हो, और उसकी बड़ी-सी गाड़ी हमारे दरवाजे़ के सामने खड़ी हो।

मैं बहुत खुश था और जब माला खाना लगवाने के लिए बाहर गई, तो उस शाम पहली बार मैंने बेधड़क उस कमीने की तरफ देखा। वह तीन-चार गिलास बीअर के पी चुका था और उसके चेहरे की जर्दी कुछ कम हो चुकी थी। लेकिन उसकी मुस्कराहट में माला के बाहर जाते ही फिर वही जहर और चैलेंज आ गया था और मुझे महसूस हुआ जैसे वह कह रहा हो - बीवी तुम्‍हारी मुझे पसंद है, लेकिन बेटे! उसे खबरदार कर दो, मैं इतना पिलपिला नहीं जितना वह समझती है।

एक क्षण के लिए फिर मेरा जोश कुछ ढीला पड़ गया। लगा जैसे बात इतनी आसानी से सुलझनेवाली नहीं। याद आया कि खूबसूरत और शोख औरतें उस जमाने में भी उसे बहुत पसंद थीं, लेकिन उनका जादू ज्‍यादा देर तक नहीं चलता था। फिर भी, मैंने सोचा, बात अब मेरे हाथ से निकल गई है और सिवाय इंतजार के मैं और कुछ नहीं कर सकता था।

खाना उस रोज बहुत उम्‍दा बना था और खाने के बाद माला खुद उसे उसके कमरे तक छोड़ने गई थी। लेकिन उस रात मेरे साथ माला ने कोई बात नहीं की। मैंने कई मजाक किए, कहा - नहा-धो कर वह काफी अच्‍छा लग रहा था, क्‍यों? बहुत छेड़-छाड़ की, कई कोशिशें कीं कि सुल‍हनामा हो जाए, लेकिन उसने मुझे अपने पास फटकने नहीं दिया। नींद उस रात मुझे नहीं आई, फिर भी अंदर से मुझे इत्‍मीनान था कि किसी-न-किसी तरह माला दूसरे रोज उसे भगा सकने में जरूर कामयाब हो जाएगी।

लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। माना कि माला बहुत चालाक है, बहुत समझदार है, बहुत मनमोहिनी है, लेकिन उस हरामजादे की ढिठाई का भी कोई मुकाबला नहीं। तीन दिन तक माला उसकी खातिर-तबाजा करती रही। मेरे कपड़ों में वह अब बिलकुल मुझ जैसा हो गया था और नजर यूँ आता था जैसे माला के दो पति हों। मैं तो सुबह-सबेरे गाड़ी ले कर दफ्तर को निकल जाता था, पीछे उन दोनों में न जाने क्‍या बातें होती थीं। लेकिन जब कभी उसे मौका मिलता वह मुझे अंदर ले जा कर डाँटने लगती -अब यह मुरदार यहाँ से निकलेगा भी कि नहीं। जब तक यह घर में है, हम किसी को न तो बुला सकते हैं, न किसी के यहाँ जा सकते हैं। मेरे बच्‍चे कहते हैं कि इसे बात करने तक की तमीज नहीं। आखिर यह चाहता क्‍या है?

मैं उसे क्‍या बताता कि वह क्‍या चाहता है? कभी कहता - थोड़ा सब्र और करो अब जाने की सोच रहा होगा। कभी कहता - क्‍या बताऊँ, मैं तो खु़द शर्मिंदा हूँ। कभी कहता - तुमने खु़द ही तो सर पर चढ़ा लिया है। अगर तुम्‍हारा बर्ताव रूखा होता तो...

माला ने अपना बर्ताव तो नहीं बदला, लेकिन चौथे रोज अपने बच्‍चों-सहित घर छोड़ कर अपने भाई के यहाँ चली गई। मैंने बहुतेरा रोका, लेकिन वह नहीं मानी। उस रोज वह कमबख्‍त बहुत हँसा था, जोर-जोर से, बार-बार।

आज माला को गए पाँच रोज हो गए हैं। मैंने दफ्तर जाना छोड़ दिया है। वह फिर अपने असली रंग में आ गया है। मेरे कपड़े उतार कर उसने फिर अपना वह मैला-सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया है। कहता कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि क्‍या चाहता है - वह मौका फिर हाथ नहीं आएगा! वह चली गई है। बेहतर यही है कि उसके लौटने से पहले तुम भी यहाँ से भाग चलो। उसकी चिंता मत करो, वह अपना इंतजाम खुद कर लेगी।

और आज आखिर मैं उसे थोड़ी देर के लिए बेहोश कर देने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो रास्‍ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले मैं उसे जान से मार डालूँ। और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बाँध कर तैयार हो जाऊँ और ज्‍यूँ ही उसे होश आए, हम दोनों फिर उसी रास्‍ते पर चल दें, जिससे भाग कर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर माला इस समय यहाँ होती तो कोई तीसरा रास्‍ता भी निकाल लेती। लेकिन वह नहीं है और मैं नहीं जानता कि मैं क्या करूँ?

                                                                         ---कृष्ण बलदेव वैद---

सोमवार, 18 मार्च 2013

रक्षा में हत्या


केशव के घर में एक कार्निस के ऊपर एक पंडुक ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्‍यामा दोनों बड़े गौर से पंडुक को वहाँ आते-जाते देखा करते। प्रात:काल दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और पंडुक या पंडुकी या दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बालकों को न जाने क्‍या मजा मिलता था। दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के मन में भाँति-भाँति के प्रश्‍न उठते - अंडे कितने बड़े होंगे, किस रंग के होंगे, कितने होंगे, क्‍या खाते होंगे, उनमें से बच्‍चे कैसे निकल आवेंगे, बच्‍चों के पंख कैसे निकलेंगे, घोंसला कैसा है, पर इन प्रश्‍नों का उत्‍तर देनेवाला कोई न था। अम्मा को घर के काम-धंधों से फुरसत न थी - बाबूजी को पढ़ने-लिखने से। दोनों आपस ही में प्रश्‍नोत्‍तर करके अपने मन को संतुष्‍ट कर लिया करते थे।

श्‍यामा कहती - क्‍यों भैया, बच्‍चे निकल कर फुर्र से उड़ जाएँगे? केशव पंडिताई भरे अभिमान से कहता - नहीं री पगली, पहले पंख निकलेंगे। बिना परों के बिचारे कैसे उड़ेंगे।

श्‍यामा - बच्‍चों को क्‍या खिलाएगी बिचारी?

केशव इस जटिल प्रश्‍न का उत्‍तर कुछ न दे सकता।

इस भाँति तीन-चार दिन बीत गए। दोनों बालकों की जिज्ञासा दिन-दिन प्रबल होती जाती थी। अंडों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्‍होंने अनुमान किया, अब अवश्‍य बच्‍चे निकल आए होंगे। बच्‍चों के चारे की समस्‍या अब उनके सामने आ खड़ी हुई। पंडुकी बिचारी इतना दान कहाँ पावेगी कि सारे बच्‍चों का पेट भरे। गरीब बच्‍चे भूख के मारे चूँ-चूँ कर मर जाएँगे।

इस विपत्ति की कल्‍पना करके दोनों व्‍याकुल हो गए। दोनों ने निश्‍चय किया कि कार्निस पर थोड़ा-सा दाना रख दिया जाए। श्‍यामा प्रसन्‍न होकर बोली - तब तो चिडि़यों को चारे के लिए कहीं उड़ कर न जाना पड़ेगा न?

केशव - नहीं, तब क्‍यों जाएगी।

श्‍यामा - क्‍यों भैया, बच्‍चों को धूप न लगती होगी?

केशव का ध्‍यान इस कष्‍ट की ओर न गया था - अवश्‍य कष्‍ट हो रहा होगा। बिचारे प्‍यास के मारे तड़पते होंगे, ऊपर कोई साया भी तो नहीं।

आखिर यही निश्‍चय हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देना चाहिए। पानी की प्‍याली और थोड़ा-सा चावल रख देने का प्रस्‍ताव भी पास हुआ।

दोनों बालक बड़े उत्‍साह से काम करने लगे। श्‍यामा माता की आँख बचा कर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्‍थर की प्‍याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमें पानी भरा।

अब चाँदनी के लिए कपड़ा कहाँ से आए? फिर, ऊपर बिना तीलियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और तीलियाँ खड़ी कैसे होंगी?

केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। अंत को उसने यह समस्‍या भी हल कर ली। श्‍यामा से बोला - जा कर कूड़ा फेंकनेवाली टोकरी उठा ला। अम्माजी को मत दिखाना।

श्‍यामा - वह तो बीच से फटी हुई है, उसमें से धूप न जाएगी?

केशव ने झुँझला कर कहा - तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूँगा न।

श्‍यामा दौड़ कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला - देख, ऐसे ही घोंसले पर इसकी आड़ कर दूँगा। तब कैसे धूप जाएगी? श्‍यामा ने मन में सोचा - भैया कितने चतुर हैं!

गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ्तर गए हुए थे। माता दोनों बालकों को कमरे में सुला कर खुद सो गई थी, पर बालकों की आँखों में आज नींद कहाँ? अम्माजी को बहलाने के लिए दोनों दम साधे, आँखें बंद किए, मौके का इंतजार कर रहे थे। ज्‍यों ही मालूम हुआ कि अम्माजी अच्‍छी तरह सो गईं, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से द्वार की सिटकनी खोल कर बाहर निकल आए। अंडों की रक्षा करने की तैयारियाँ होने लगीं।

केशव कमरे से एक स्‍टूल उठा लाया, पर जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी ला कर स्‍टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्‍टूल पर चढ़ा। श्‍यामा दोनों हाथों से स्‍टूल को पकड़े हुई थी। स्‍टूल चारों पाए बराबर न होने के कारण, जिस ओर ज्‍यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस समय केशव को कितना संयम करना पड़ता था, यह उसी का दिल जानता थ। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्‍यामा को दबी आवाज से डाँटता - अच्‍छी तरह पकड़, नहीं उतर कर बहुत मारूँगा। मगर बिचारी श्‍यामा का मन तो ऊपर कार्निस पर था, बार-बार उसका ध्‍यान इधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते। केशव ने ज्‍यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों पंडुक उड़ गए। केशव ने देखा कि कार्निस पर थोड़े-से तिनके बिछे हुए हैं और उस पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले पर देखे थे, ऐसा कोई घोंसला नहीं है।

श्‍यामा ने नीचे से पूछा - कै बच्‍चे हैं भैया?

केशव - तीन अंडे हैं। अभी बच्‍चे नहीं निकले।

श्‍यामा - जरा हमें दिखा दो भैया, कितने बड़े हैं?

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा चीथड़े ले आ, नीचे बिछा दूँ। बिचारे अंडे तिनकों पर पड़े हुए हैं।

श्‍यामा दौड़ कर अपनी पुरानी धोती फाड़ कर एक टुकड़ा लाई और केशव ने झुक कर कपड़ा ले लिया। उसके कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछा कर तीनों अंडे धीरे से उस पर रख दिए।

श्‍यामा ने फिर कहा - हमको भी दिखा दो भैया?

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो, ऊपर साया कर दूँ।

श्‍यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली - अब तुम उतर आओ, तो मैं भी देखूँ। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा - जा दाना और पानी की प्‍याली ले आ। मैं उतर जाऊँ, तो तुझे दिखा दूँगा।

श्‍यामा प्‍याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दीं और धीरे से उतर आया।

श्‍यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा - अब हमको भी चढ़ा दो भैया।

केशव - तू गिर पड़ेगी।

श्‍यामा - न गिरूँगी भैया, तुम नीचे से पकड़े रहना।

केशव - ना भैया, कहीं तू गिर-गिरा पड़े, तो अम्माजी मेरी चटनी ही बना डालें कि तूने ही चढ़ाया था। क्‍या करेगी देख कर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्‍चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।

दोनों पक्षी बार-बार कार्निस पर आते थे और बिना बैठे ही उड़ जाते थे। केशव ने सोचा, हम लोगों के भय से यह नहीं बैठते। स्‍टूल उठा कर कमरे में रख आया। चौकी जहाँ-की-तहाँ रख दी।

श्‍यामा ने आँखों में आँसू भर कर कहा - तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माजी से कह दूँगी।

केशव - अम्माजी से कहेगी, तो बहुत मारूँगा, कहे देता हूँ।

श्‍यामा - तो तुमने मुझे दिखाया क्‍यों नहीं?

केशव - और गिर पड़ती तो चार सिर न हो जाते?

श्‍यामा - हो जाते, हो जाते। देख लेना, मैं कह दूँगी।

इतने में कोठरी का द्वार खुला और माता ने धूप से आँखों को बचाते हुए कहा - तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने मना किया था कि दोपहर को न निकलना, किसने किवाड़ खोला?

किवाड़ केशव ने खोला था, पर श्‍यामा ने माता से यह बात नहीं की। उसे भय हुआ भैया पिट जाएँगे। केशव दिल में काँप रहा था कि कहीं श्‍यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब इसको श्‍यामा पर विश्‍वास न था। श्‍यामा केवल प्रेमवश चुप थी या इस अपराध में सहयोग के कारण, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।

माता ने दोनों बालकों को डाँट-डपट कर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्‍हें पंखा झलने लगी। अभी केवल दो बजे थे। तेज लू चल रही थी। अबकी दोनों बालकों को नींद आ गई।

चार बजे एकाएक श्‍यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की ओर ताकने लगी। पंडुकों का पता न था। सहसा उसकी निगाह नीचे गई और वह उलटे पाँव बेतहाशा दौड़ती हुई कमरे में जा कर जोर से बोली - भैया, अंडे तो नीचे पड़े हैं। बच्‍चे उड़ गए?

केशव घबरा कर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया, तो क्‍या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनमें से कोई चूने की-सी चीज बाहर निकल आई है। पानी की प्‍याली भी एक तरफ टूटी पड़ी है।

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। डरे हुए नेत्रों से भूमि की ओर ताकने लगा। श्‍यामा ने पूछा - बच्‍चे कहाँ उड़ गए भैया?

केशव ने रुँधे स्‍वर में कहा - अंडे तो फूट गए!

श्‍यामा - और बच्‍चे कहाँ गए?

केशव - तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दो-चार दिन में बच्‍चे बन जाते।

माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा - तुम दोनों वहाँ धूप में क्‍या कर रहे हो?

श्‍यामा ने कहा - अम्माजी, चिड़िया के अंडे टूटे पड़े हैं।

माता ने आ कर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्‍से से बोली - तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।

अबकी श्‍यामा को भैया पर जरा भी दया न आई - उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए। बोली - इन्‍हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।

माता ने केशव से पूछा- क्‍यों रे?

केशव भीगी बिल्‍ली बना खड़ा रहा।

माता - तो वहाँ पहुँचा कैसे?

श्‍यामा - चौकी पर स्‍टूल रख कर चढ़े थे अम्माजी।

माता - इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।

श्‍यामा - यही ऊपर चढ़े थे अम्माजी।

केशव - तू स्‍टूल थामे नहीं खड़ी थी।

श्‍याम - तुम्‍हीं ने तो कहा था।

माता - तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडि़यों के अंडे गंदे हो जाते हैं - चिडि़याँ फिर उन्‍हें नहीं सेतीं।

श्‍यामा ने डरते-डरते पूछा - तो क्‍या इसीलिए चिड़िया ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?

माता - और क्‍या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हाँ-हाँ तीन जानें ले लीं दुष्‍ट ने!

केशव रुआँसा होकर बोला - मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!

माता को हँसी आ गई।

मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्‍चात्ताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।

दोनों चिड़ियाँ वहाँ फिर न दिखाई दीं!

                                                                            ---प्रेमचंद---

अंधकार


लाला रामनारायण अमृतसर के प्रसिद्ध व्‍यापारी थे, मिट्टी को भी हाथ लगाते तो सोना हो जाता। उन पर लक्ष्‍मी की विशेष कृपा थी - उनकी दो दुकानें थीं, एक कपड़े की, दूसरी अंग्रेजी दवाइयों की। उन्‍हें दोनों से मुनाफा होता था। किसी वस्‍तु का टोटा न था। भगवान ने सब कुछ दिया था, मगर कुछ भी न था। उनके लड़कियाँ कई थीं, लड़का एक भी न था। यह पुत्र अभाव उन्‍हें खाए जाता था, हर समय उदास रहते थे। बाहर जा कर तो कदाचित हँस-बोल भी लेते, पर घर में आते ही उनकी आँखें अग्निमय हो जाती थीं। पार्वती समझती थी, इसमें मेरा कोई दोष नहीं। अब लड़के-लड़कियाँ पैदा करना किसी के अपने बस की बात थोड़े ही है? परंतु इस पर भी उसमें इतना साहस न था कि पति के सामने मुस्‍कराते हुए खड़ी हो जाए। वह घर में आते थे तो थर-थर काँपती रहती कि कहीं गरज न उठें। सोचती, मेरे ही भाग्‍य में आग लगी है, इसमें किसी का दोष नहीं। लोगों के यहाँ कई-कई लड़के पैदा होते हैं, पत्‍थरों के लिए मैं ही रह गई हूँ। सास कहती, मेरे मोती जैसे बेटे को अभागिन मिल गई। चेहरा कैसा दमकता था, जैसे अनार का लाल दाना हो। पर अब वह बात ही नहीं। न होंठों पर वह मुस्‍कान है, न आँखों में वह ज्‍योति। देह पहले से आधी भी नहीं रही। अंदर-ही-अंदर घुला जाता है। रामनारायण यह बातें सुनते तो और भी दुखी हो जाते। कहते - "माँ! तुम ऐसी बातें न किया करो। जो वस्‍तु भाग्‍य में न लिखी हो, उसके लिए रोना निष्‍फल है। मैंने समझ लिया है, हमारे वंश का नाम-निशान मिट के रहेगा, हमारे भाग्‍य में पुत्र-सुख नहीं लिखा। तुम कुढ़ती हो, मुझे रोना आता है।"

पार्वती यह बातें सुनती तो उसके दिल में तीर चुभ जाते। पहरों रोती और प्रारब्‍ध को गालियाँ देती रहती। वह भागवान घर में आई थी, पर अभागिन बन कर, जैसे खीर के थाल में लाल मर्च पड़ जाए। उसे और सारे सुख थे, एक यही न था। उसने इलाज किया, साधु - संतों से भस्‍म की चुटकी ली, व्रत रखे मगर भाग्‍यरेखा न बदली। यहाँ तक कि कई वर्ष बीत गए, परंतु पार्वती का आशा अंक पुत्र-मणि से न भरा। लड़कियाँ चार थीं, लड़का एक भी न था।

2

एक दिन गली में एक ज्‍योतिषी आया। बच्‍चों के लिए रीछ और स्त्रियों के लिए ज्‍योतिषी दोनों समान हैं। स्त्रियों को तमाशा हाथ लग गया। बढ़-चढ़ कर हाथ दिखाने लगीं। ज्‍योतिषी बातें बनाता था, पैसे बटोरता था। कैसा अच्‍छा व्‍यापार है! किसी का माल नहीं बिकता, किसी की बातें बिकती हैं। स्त्रियाँ पैसे देती थीं और हँसती थीं। मगर पार्वती घर बैठी अपने दुर्भाग्‍य को रो रही थी।

इतने में उसकी सास ने कहा - "पार्वती! जरा इधर आ कर तू भी पंडितजी को हाथ दिखा ले।"

पार्वती ने नैराश्‍य भाव से उत्‍तर दिया - "हाथ दिखाने से क्‍या होगा?"

"मगर हर्ज ही क्‍या है? दिखा ले।"

पार्वती का जी न चाहता था कि हाथ दिखाए, परंतु सास के भय से उसने उठ कर हाथ ज्‍योतिषी के सामने कर दिया। सब स्त्रियाँ चुपचाप खड़ी हो गईं। यह हस्‍त-निरीक्षण न था, भाग्‍य-निरीक्षण था। ज्‍योतिषी ने हाथ की रेखाओं को देखा और कहा - "तुम्‍हारे मन में हमेशा क्‍लेश रहता है।"

पार्वती की सास ने सिर हिला कर कहा - "ठीक है पंडितजी।"

ज्‍योतिषी - "पर यह क्‍लेश मन का है, शरीर का नहीं।

सास - "यह भी सच है।"

ज्‍योतिषी - "इसके कन्‍याएँ होती हैं, लड़का नहीं होता।"

स्त्रियों ने कहा - "देखा! यह विद्या की बातें हैं। जो चार अच्‍छर पढ़ जाते हैं, वह कहते हैं, जोतस-सासतर सब झूठ हैं। अब कहो, सच बताया या नहीं?"

ज्‍योतिषी - "इसका पति भी बहुत दुखी रहता है।"

सास - "महाराज, यह भी सच है।"

ज्‍योतिषी - "इसके लिए नच्‍छत्‍तर तो सब अच्‍छे हैं, केवल एक नच्‍छतर अशुभ है। यह सब उसका फल है।"

सास - "महाराज तो अंतरजामी हैं। अब यह देखें इसके भाग में बेटा है या नहीं।"

ज्‍योतिषी ने अच्‍छी तरह देख कर उँगलियों पर हिसाब किया और इसके बाद शोक से सिर हिला कर कहा - "नहीं।"

उत्‍तर साधारण था, पर पार्वती का दिल दहल गया। उसकी देह से पसीना छूटने लगा, जैसे जीवन की सकल आशाएँ और उमंगें प्रस्‍थान कर गई हों। उसने हतभागों की तरह भूमि की ओर देखा और रुक-रुक कर पूछा - "इसका कुछ उपाय भी है, या नहीं?"

ज्‍योतिषी - "उपाय तो है, परंतु बड़ा कठिन है।"

पार्वती - "मैं सब कुछ कर लूँगी।"

ज्‍योतिषी - "रात को श्‍मशान में बैठ कर जाप करना होगा। कर सकोगी?"

पार्वती का चेहरा फीका पड़ गया। आशा सामने आई थी, ओझल हो गई। पार्वती फिर उदास हो गई, जैसे कोई बाजी जीतते-जीतते हार गई।

ज्‍योतिषी - "तुम उदास न हो। तुम्‍हारी खातिर यह काम मैं कर दूँगा। भय बहुत है, सिद्धि के समय भूत सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। अनजान आदमी सहम कर मर जाए। परंतु भूत हमारा क्‍या बिगाड़ लेंगे, चाहें तो पल-भर में भस्‍म कर दें। हमारे शब्‍दों में आग है। एक मंत्र पढ़ें तो चिल्‍ला कर भाग निकलें।"

पार्वती की आँखें आशापूर्ण हो गईं, जैसे देवी का वरदान मिल गया हो। सास का चेहरा आशा की आभा से लाल था। उसे विश्‍वास हो गया कि अब जरूर लड़का होगा। करामाती पंडित रेख में मेख मार सकता है। ज्‍योतिषी जी की खातिर होने लगी। उसने जो कुछ माँगा वही दिया। पार्वती और उसकी सास न नहीं करती थीं। कभी काले बकरे के लिए रुपए माँगता, कभी सोने-चाँदी के लिए। उसे आज तक न ऐसा अमीर घर मिला था, न ऐसे अंधे श्रद्धालु। दोनों हाथों से लूटता था। और वह लुटवाते थे। हर मंगलवार को गरीबों में रोटियाँ बाँटी जाती थीं। ज्‍योतिषी जी ने पार्वती को एक मंत्र सिखा दिया था। वह नहा कर पंद्रह मिनट जाप करती थी। खाना भूल सकता था, मगर इस मंत्र का जाप न भूल सकता था। अब इस मंत्र ही पर जीवन की सारी अभिलाषाएँ अवलंबित थीं। सदा शंका लगी रहती कहीं यह कच्‍चा तागा टूट न जाए। वह इसे प्राणपण से बचा कर रखती थी, यहाँ तक कि मंत्र की परीक्षा का दिन समीप आ गया। अब कुछ दिन बाकी थे।

3

पार्वती की रात-दिन खातिरदारियाँ होने लगीं। घर के लोग उसे कोई काम न करने देते थे, कहते आराम से बैठी रहो, सब कुछ हो जाएगा। लाला रामनारायण ने कभी उससे सीधे मुँह बात न की थी। अब हँस-हँस कर बोलने लगे, जैसे उससे मन-मुटाव था ही नहीं। मुँह हर समय खिला रहता। पार्वती को कभी ताँगे की सैर कराने ले जाते, कभी थियेटर दिखाने। कहते, जो जी में आए माँग लिया करो, मन मान कर रह जाना स्‍वास्‍थ्‍य को खराब कर देता है। पार्वती को यह नौ महीने गुजरते मालूम न हुए। संसार के सारे सुख, सारे आराम पर्याप्‍त थे। जो कहती, वही हो जाता। किसी को दम मारने की मजाल न थी। पहले दासी थी अब रानी बनी। सास, जो दिन-रात हृदय-बेधी ताने मारती थी, अब ऊँची आवाज से बोलते हुए भी डरती थी। कहीं पार्वती क्रोध न कर बैठे, कहीं उसका जी न खराब हो जाए। पार्वती की ऐसी खातिर, ऐसी खुशामद कभी न हुई।

एक दिन रामनारायण बोले - "ज्‍योतिषी कहता है, सौ रुपए से एक भी पैसा कम न लूँगा।"

पार्वती - "वह समय तो आ ले, देखा जाएगा।"

रामनारायण - "मेरा दिल कहता है, अब के लड़का ही होगा।"

पार्वती - "लच्‍छन तो मुझे भी अच्‍छे मालूम होते हैं। दिल में ऐसे-ऐसे विचार आते हैं कि तुमसे क्‍या कहूँ?"

रामनाराण - "बस, ठीक है। लड़का ही होगा।"

पार्वती - "जी चाहता है, फल और मिठाइयाँ ही खाती रहूँ। रोटी की तरफ देखने से भी घृणा होती है।"

रामनारायण - "खटाई पर तो दिल नहीं दौड़ता?"

पार्वती - "कभी खयाल भी नहीं आता।"

रामनारायण - "जी कैसा रहता है?"

पार्वती - "बहुत प्रसन्‍न। पहले सदा उदासी छाई रहती थी। अब सुस्‍ती नाम को नहीं। जी चाहता है, सारा दिन सैर किया करूँ। ऐसी दशा मेरी आज तक कभी न हुई थी।"

रामनाराण - "मेरा दिल भी यही कहता है कि अब की जरूर लड़का ही होगा।"

पार्वती - (हँस कर) "अगर लड़का हुआ तो मुझे क्‍या दोगे?"

रामनारायण - "जो माँगोगी, वही दँगा। तुमसे बाहर थोड़े हूँ।"

पार्वती - "हीरे का हार मँगवा दोगे?"

रामनारायण - "अरे! हीरे का हार?"

पार्वती - "बस, बस! इतना ही देखना था देख लिया।"

रामनारायण - "तुम तो वकीलों की तरह जिरह करती हों।"

पार्वती - "चलो रहने दो। मैं तुम्‍हारा दिल देखती थी। मुझे हार की क्‍या पड़ी है? तुम्‍हारी खुशी मिल जाए, यही सब कुछ है।"

रामनारायण - "मैं तुमसे कभी नाराज नहीं हुआ।"

पार्वती - "क्‍यों झूठ बोलते हो? तुम्‍हारी तो आँखें ही बदल गई थीं। मैं अनपढ़ हूँ, पर अंधी नहीं हूँ। आँखें पहचानती हूँ।"

रामनारायण - "तुम्‍हें धोखा हुआ होगा।"

पार्वती - "खैर! यह भी देखा जाएगा।"

इसी तरह नौ महीने बीत गए। प्रसव-काल आ पहुँचा। रामनारायण बाहर बैठे घबराते थे, उनकी माँ अंदर घबराती थीं। ज्‍यों-ज्‍यों समय गुजरता जाता था, उसकी उत्‍सुकता बढ़ती जाती थी। देखें क्‍या हो, क्‍या न हो? चेहरे का रंग क्षण-क्षण में बदल रहा था। कभी आशा, कभी निराशा, कभी व्‍याकुलता। उनकी सकल इच्‍छाएँ, समस्‍त उल्‍लास, सारे उद्गार आँखों में आ बैठे थे। उनके जीवन का आधार अब केवल एक शब्‍द पर था। यह खेती एक छींटे की प्‍यासी थी। यह लता एक झोंके की भूखी थी।

सहसा अंदर से नवजात बालक के रोने की आवाज आई। रामनारायण चौंक कर खड़े हो गए और सवेग अंदर को चले। वे अभी आँगन ही में पहुँचे थे कि माँ बाहर निकल आई। इस समय उसकी आँखों में आँसू थे, मुँह पर क्रोध, जैसे अग्नि की ज्‍वाला में पानी की बूँदें जल रही हों। रामनाराण के पाँव वहीं रुक गए। अब उनमें आगे बढ़ने की शक्ति न थी। यह लंबा सफर, यह सुदूर यात्रा कितनी आशाओं को ले कर तय की थी। सब निराशा की भेंट हो गई। हृदय क्षेत्र को पानी का छींटा न मिला। आशालता को वायु का झोंका प्राप्‍त न हुआ।

4

फिर लड़की। रामनारायण का सिर चकराने लगा। निराशा जब चरम-सीमा पर पहुँच जाती है तो हमारी जीभ बंद हो जाती है। रामनारायण भी चुप हो गए। बहुत देर के बाद बोले - "अब तो जी चाहता है, कहीं निकल जाऊँ, यहाँ मेरे दिल को शांति न मिलेगी।"

माँ - "धीरज धरो। घबराने से क्‍या होता है?"

रामनारायण - "वह ज्‍योतिषी मिल जाए तो मुँह नोच लूँ। मुझे तो उस पर पहले ही विश्‍वास न था, मगर तुम्‍हारे खयाल से चुप रहा। हजारों पर पानी फिर गया।"

माँ - "मुझे क्‍या पता था, धोखा ही धोखा है।"

रामनारायण - "कहता था, जाप करूँगा तो लड़का हो जाएगा। सब वाहियात ढकोसले हैं। ऐसे महात्‍मा होते तो माँगते क्‍यों फिरते? घर बैठे पाँव पुजवाते।"

माँ - "बेटा! जब अपने ही कर्मों में न हो तो कोई क्या करे? आदमी तो बुरा न था। जो-जो बात थी, खोल कर कह दी। सारा मुहल्‍ला वाह-वाह करता था। एक यह बात झूठ निकली। बाकी सब सच निकला।"

रामनारायण - "हमारे भाग ही खोटे हैं। अब मुझे आज्ञा दो, साधु हो कर कहीं निकल जाऊँ। घर में रहा तो पागल हो जाऊँगा।"

माँ - "कैसी बातें मुँह से निकालते हो तुम? भाग तुम्‍हारे क्‍यों खोटे होने लगे? भाग उस अभागिनी के खोटे हैं, जिसे राज-सिंहासन पर बैठ कर भी आराम न मिला। मेरी मानो तो अब दूसरा ब्‍याह कर लो, इससे लड़का न होगा। बहुत बरदाश्‍त किया, अब नहीं सहा जाता।"

रामनारायण - "मैं मर जाऊँगा, पर यह न करूँगा। मैं आदमी हूँ, राक्षस नहीं हूँ।"

माँ - "अरे! मैं उसे घर से निकाल देने को थोड़ा कहती हूँ। यह भी पड़ी रहेगी। लोग दूसरा ब्‍याह लड़के के लिए करते हैं, शौक के लिए नहीं करते। अगर इससे लड़का हो जाता तो हमारा क्‍या सिर फिरा हुआ था।"

रामनारायण - "अब जो प्रारब्‍ध ही में न हो तो क्‍या किया जाए?"

माँ - "इसीलिए तो कहती हूँ, दूसरा ब्‍याह कर लो। परमेश्‍वर कृपा करेगा।" यह बातचीत पार्वती ने सौर-गृह में लेटे-लेटे सुनी। वह पहले ही मर रही थी, यह बातचीत सुन कर और भी मर गई। उसे विश्‍वास हो गया कि अब यह ब्‍याह कभी न रुकेगा। आनेवाले दिन आँखों तले फिर गए। सोचने लगी क्‍या होगा? अभी यह हाल है तो ब्‍याह के बाद क्‍या होगा? सभी दुतकारेंगे। सब नई बहू को पूछेंगे। मुझे कोई भी न पूछेगा। यह अनादर, यह अपमान, यह तिरस्‍कार कैसे सहूँगी? पार्वती ने अपने सिर पर जोर से थप्‍पड़ मारा और रो कर कहा - "परमात्‍मा! अब तो उठा लो। यह सहा नहीं जाता।"

हम रोते हैं इसलिए कि दूसरे हमें चुप कराएँ, इसलिए नहीं कि हमें और भी रुलाएँ। पार्वती इसी खयाल से रोई थी। लेकिन उसकी सास ने जब शब्‍द सुना तो वे और भी लाल-पीली हो गईं और उच्‍च स्‍वर में सुना कर बोलीं - "तेरे भाग में मौत नहीं, मौत तो हमारे भाग में है। बैठी राज करती है और छाती पर मूँग दलती है।"

यह शब्‍द नहीं थे, जहर में बुझे हुए तीर थे। पार्वती की आँखें अग्निमय हो गईं। उसकी सारी देह जलने लगी। रगों का रुधिर इस तरह खौलता था, जैसे कढ़ाई में तेल खौलता हो। सहसा रामनारायण अंदर आ गए और प्‍यार से बोले - "पार्वती। धीरज धरो। लड़के-लड़कियाँ दोनों बराबर हैं। माताजी जोश में आ कर जो जी में आता है, कह देती हैं। मगर उनकी नीयत खोटी नहीं। भोली हैं, इतना नहीं समझतीं कि जिनके यहाँ बेटे नहीं होते, वह मर थोड़ा ही जाती हैं। तुम ऐसी बातों की चिंता न किया करो, नहीं तो बीमार हो जाओगी।"

पार्वती चौंक पड़ी। उसे आश्‍चर्य था कि यह मीठे शब्‍द रामनारायण के मुँह से कैसे निकले? वह आज तक यही समझती थी कि यह बेटे का मुँह देखने को तरस रहे हैं। अभी-अभी माँ-बेटे में जो-जो बातें हो रही थीं, उनसे भी यही प्रकट होता था। एकाएक यह परिवर्तन क्‍यों? पार्वती ने बहुत सोचा, मगर कोई बात उसकी समझ में न आई। उसे आश्‍चर्य हुआ। पर इस आश्‍चर्य से बढ़ कर प्रसन्‍नता हुई। उसने कातर दृष्टि से अपने पति की तरफ देखा और आँखें बंद कर लीं। उसके सब पराए थे, केवल पति अपना था। मगर उसके लिए यही सब कुछ था।

5

परंतु कुछ दिन के बाद पति भी अपना न रहा। रामनारायण ने दूसरा ब्‍याह कर लिया। पार्वती पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। उससे कोई सीधे मुँह बात भी न करता था, सब नई दुलहिन की सेवा में लगे रहते थे। अब नई दुलहिन घर की सब कुछ थी, पार्वती कुछ भी न थी। यहाँ तक कि उसका मान दासियों के बराबर भी न था। अब वह किसी काम में दखल न देती। चुपचाप अपनी कोठरी में पड़ी रहती। जो मिलता, खा लेती, जो हाथ आता पहन लेती। अब उसे किसी की कड़वी बात पर क्रोध न आता था, न जली-कटी बातें सुन कर आँखें सजल होती थीं। कभी जरा से कटु भाषण पर उसके शरीर में आग लग जाती थी। उस समय वह घर की रानी थी, मरग अब उसका सिंहासन छिन चुका था। अब उसके पति ने उसे अपने मन-मंदिर से निकाल दिया था। अब वह रानी नहीं थी, भिखारिन थी। भिखारिन को क्रोध करने का अधिकार किसने दिया है? परमात्‍मा ने भी नहीं। भिखारिन कुछ दिन मुफ्त की रोटियाँ फाड़ती रही, फिर काम करने लगी। पहले रानी से भिखारिन बनी थी, अब भिखारिन से दासी बनी।

उधर दयावती सारे घर पर शासन करती थी। वह हँसती थी, तो घर के सारे लोग हँसते थे। उदास होती, तो घर के लोग उदास हो जाते। जरा तेज चलती तो सास कहती, बेटी! सँभल कर चलो, नहीं पाँव दुखने लगेंगे। ऊपर से नीचे उतरती तो कहती, कमर दर्द करने लगेगी। उसका जरा-सा सिर दुखता तो रामनारायण की जान पर बन जाती। भागे-भागे डॉक्‍टर के पास जाते और दवाओं की शीशियाँ उठा लाते। ननदें दयावती पर प्राण देती थीं। क्‍या मजाल जो उसकी इच्‍छा के विरुद्ध एक शब्‍द भी मुँह से निकल जाए। परंतु इतना कुछ होने के पर भी दयावती खुश न थी। उसे दिल में हर समय बुरी-बुरी भावनाएँ उठा करतीं। एकांत में बैठती तो फूट-फूट कर रोया करती। उसे हँसते-मुस्‍कराते देख कर किसी को संदेह भी न हो सकता था कि उसके दिल में कोई प्राणघातक जलन, कोई दुखदायक पीड़ा होगी। ऊपर ठंडा पानी लहरें मारता था, नीचे आग सुलगती थी।

रात का समय था। पार्वती ने बर्तन साफ किए, रसोईघर धोया और छोटी लड़की को ले कर अपनी कोठरी में चली गई। मगर उसके शरीर का एक-एक अंग दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जागी तो सारा शरीर तप रहा था और सिर उठाए न उठता था। पार्वती चुपचाप लेटी रही। उसमें हिलने की हिम्‍मत न थी, यहाँ तक कि नौ बज गए, और चूल्‍हा गरम न हुआ। लड़कियाँ रोटी माँगती थीं और रोती थीं। पार्वती उनकी तरफ देखती थी और कराहती थी। यह हृदय-विदारक दृश्‍य देख कर दयावती का दिल पसीज गया। वह दयावती थी, उसमें दया का अभाव न था। उसने मुँह से कुछ न कहा, परंतु रसोईघर में जा कर रसोई बनाने लगी।

इतने में पार्वती की सास ने पार्वती की कोठरी के बाहर आ कर कहा - "परमात्‍मा करे, ऐसी बहू किसी को न मिले। खाने को हर घड़ी तैयार है, काम का ध्‍यान ही नहीं। नई दुलहन बैठी काम करती है। यह रानी सेज पर लेटी है, कोई देखे तो क्‍या कहे?"

पार्वती ने कराह कर उत्‍तर दिया - "क्‍या करूँ? बुखार हो रहा है।"

सास - "यह सब बहाने मैं खूब जानती हूँ। बुखार-उखार कुछ नहीं है। बहाना है, बहाना।"

पार्वती - "माँजी! बहाना तो मैंने आज तक कभी नहीं किया।"

सास - "बड़ी सतवंती है न तू। बहाना क्‍यों करने लगी? कल साँझ तक बुखार न था। अब कैसे हो गया?"

पार्वती - "अब यह मैं क्‍या जानूँ? रात को देह दर्द करती थी।"

सास - "देखना! कहीं निमोनिया न हो जाए।"

पार्वती - "हो जाए तो क्‍या कहना! मगर निमोनिया भाग्‍यवानों को होता है। अभागों को वह भी नहीं होता।

सास - "भाग्‍यवान तो मैं ही हँ, अब मुझे मार। मुरदार गालियाँ देती है।"

पार्वती - "आप तो लड़ती हैं। मैंने यह कब कहा है?"

सास - "मेरा सिर फिरा हुआ है न?"

पार्वती - "शायद फिरा ही हो।"

आग पर तेल पड़ गया। सास ने गरज कर कहा - "अगर फिरा हुआ न होता तो तेरे जैसी कमजात लड़की को कैसे ब्‍याह लाती? परनाले का पत्‍थर चौबारे में लग गया।"

पार्वती कमजात का शब्‍द सुन कर क्रोध न रोक सकी। बोली - "जाओ! भीतर जा कर बको, मैं तो यों ही मर रही हूँ। इलाज का ध्‍यान नहीं, लड़ने की धुन सवार हो गई। परमात्‍मा ऐसी सास दुश्‍मन को भी न दे।"

अब सहन करना संभव न था। पार्वती की सास रोने लगी और इतने जोर से रोई कि सारा मुहल्‍ला जमा हो गया। चीख-चीख कर कहती थी - "बहनो! इस निर्लज्‍ज बहू ने मेरी पत उतार दी। मेरा जरा-सा लिहाज नहीं किया। रात को कहीं बुखार हो गया था। मैंने आ कर पूछा, हकीम को बुला हूँ। बस, इतनी-सी बात पर गालियाँ देने लगीं। बोली, तुम्‍हें मेरे बुखार की क्‍या परवाह है? तुम्‍हें उस समय मालूम होगा जब तुम्‍हारे बेटे को और उसकी बेगम को बुखार चढ़ेगा। तब पूछूँगी क्‍यों माँ! अब हकीम को बुलवाऊँ। मैंने कहा - मुझे गालियाँ दे लो, पर उस गऊ ने तुम्‍हारा क्‍या बिगाड़ा है? इस पर नाम ले ले कर रोने लगी, और मुझे कोसने लगी। वह गरीब न लेने में न देने में। अब तुम ही कहो, मैंने क्‍या बुरा किया?"

मुहल्‍ले की स्त्रियाँ चुप थीं। वह जानती थीं, पार्वती ऐसी स्‍त्री नहीं। परंतु उन्‍होंने मुँह से कुछ नहीं कहा। हम दुखिया के पक्ष में होते हुए भी उसकी सहायता नहीं करते। उलटा बाज वक्‍त उसके विरुद्ध बोल देते हैं। यही दशा स्त्रियों की थी। उनके दिल कहते थे, पार्वती निर्दोष है। सारा महाभारत बुढ़िया का मचाया हुआ है, मगर फिर भी उनमें सच बोलने का साहस न था। हम अपने लिए झूठ बोल सकते हैं पर दूसरों के लिए सच भी नहीं बोल सकते।

सारा दिन बीत गया, पार्वती को कोई दवा न मिली। न उसके पास जा कर किसी ने देखा कि गरीब जीती है, या मरती। रामनारायण खाना खाने आए और दुकान चले गए। सास धूप में लेटी रही। ननदें क्रोशिया लिए रूमाल बुनती रहीं। केवल पार्वती की अबोध लड़कियाँ थीं जो कभी उसके पास जा बैठती थीं, कभी बाहर निकल आती थीं। इनके अतिरिक्‍त एक और प्राणी भी था जो उसका सुख-दुख अनुभव करता था। और वह दयावती थी।

6

हाँ, दयावती थी - पार्वती की सौत। वह पार्वती के लिए तड़पती थी, पार्वती के लिए रोती थी, मगर कुछ कर न सकती थी। वह इस घर में नई थी। उसे कोई कुछ कहता न था, वह स्‍वयं लज्‍जा से चुप रहती थी। उसे भय न मारता था, संकोच मारता। हमारा दिल सब से बड़ा दुश्‍मन है।

रात के दो बजे का समय था। पार्वती अपनी कोठरी में बेसुध पड़ी थी। एक ओर एक धुँधला-सा दीया टिमटिमा रहा था, मगर उसका तेल समाप्‍त हो चुका था और उसका प्रकाश धीरे-धीरे मर रहा था। यह मिट्टी का दीया न था, पार्वती के भाग्‍य का दीया था। कैसा तुच्‍छ, कितना छोटा! इसका प्रकाश अंधकार में किस तरह विलीन हो रहा था? इसका जीवन मृत्‍यु के मुँह में किस तरह भागता हुआ जा रहा था?

इतने में दरवाजा खुला और दयावती धीरे-धीरे अंदर आई। उसने पार्वती के चेहरे को देखा और ठंडी आह भर कर उसके सिरहाने बैठ गई। इसके बाद उसने पार्वती का सिर अपनी जंघा पर रख लिया और उसके बालों में प्‍यार से उँगलियाँ फेरने लगी।

पार्वती ने घबरा कर आँखें खोल दीं और कहा - "कौन?" उसको आशा थी, यह रामनारायण होंगे। दिन में माँ के खयाल से नहीं आए, अब आए हैं। अपना फिर भी अपना है, पराया कैसे हो जाएगा? मगर मुँह मोड़ कर देखा तो सन्‍नाटे में आ गई। यह रामनाराण न थे, दयावती थी। पार्वती की आँखों में पानी आ गया। उसने एक क्षण तक दयावती के मुँह की तरफ ताका और फिर उसके गले से लिपट गई। उसने जिन्‍हें अपना समझा था, वह पराए निकले। मगर जो पराया था, वह अपना बन गया। दुनिया के रास्‍ते कैसे निराले, कितने अद्भुत हैं।

दयावती ने पार्वती को चारपाई पर लिटा कर कहा - "कोई दवा नहीं खाई?"

पार्वती - "नहीं, मेरी परवाह किसे है, जो दवा खाऊँ?

दयावती - "तो बुखार कैसे उतरेगा?"

पार्वती - "भगवान उतार देगा।"

दयावती - "नहीं। तुम्‍हें दवा खानी होगी। इस घर के आदमी सभी राक्षस हैं। बहन! तुम्‍हें विश्‍वास न होगा, मैं तुम्‍हारे लिए सारा दिन कुढ़ती रही हूँ। तुम्‍हारे साथ सख्‍ती होती है, तो मेरा दिल रोने लगता है। जी चाहता है, तुम्‍हारे गले से लिपट जाऊँ, पर घरवालों का खयाल रास्‍ते में खड़ा हो जाता है। सोचती हूँ, क्‍या कहेंगे। सौ-सौ बातें बनाएँगे। मगर अब यह बेपरवाई न होगी।"

पार्वनी ने धुँधले दीए की तरफ देखते हुए कहा - "बहन! अब तो जी चाहता है, कुछ खा कर सो रहूँ। सब कुछ देख लिया और क्‍या देखूँगी? अब यह अधोगति नहीं सही जाती। अब तो मौत ही आ जाए।"

दयावती - "अधीर क्‍यों होती हो? यह दिन भी गुजर जाएँगे।"

पार्वती - "प्रारब्‍ध में यह लिखा है, यह मालूम न था। मालूम होता तो जोगिन बन जाती।"

दयावती - "जोगिन बनना इतना आसान होता तो आज संसार में चारों तरफ जोगिनें ही जोगिनें नजर आतीं।"

पार्वती - "आज का हाल तो तुमने स्‍वयं देख लिया होगा। बताओ, मेरा क्‍या दोष है?"

दयावती - "खूब देख लिया, ज्‍यादती सारी उनकी है। तुम्‍हारा दोष नहीं है, इसे सारा जहान जानता है।"

पार्वती - "कहने लगीं, गालियाँ देती है।"

दयावती - "अब लड़कियाँ होती हैं, तो इसमें तुम्‍हारा क्‍या दोष? यह कोई अपने बस की बात थोड़े ही है।"

पार्वती - "वह तो समझते हैं कि यह जान-बूझ कर लड़कियाँ जनती है।"

दयावती - "आदमी को कुछ तो समझना-सोचना भी चाहिए।"

पार्वती - "जब देखो, तने रहते हैं।"

दयावती - "और तुम्‍हारा कोई दोष नहीं।"

पार्वती - "जीना दूभर हो गया। हर समय सहमी रहती हूँ।"

दयावती - "पर मेरी तरफ से मन साफ कर लो। मैं तुम्‍हें बड़ी समझती हूँ।"

पार्वती - "मेरा मन तुमसे पहले ही साफ है।"

दयावती - "मेरे कारण तुम्‍हें जरा भी कष्‍ट न होगा।"

पार्वती ने दयावती को गले लगा लिया और स्‍नेहपूर्ण स्‍वर में कहा - "तूने मुझे बचा लिया। मैं समझती थी, इस घर में मेरे दुश्‍मन ही दुश्‍मन हैं, हितचिंतक कोई नहीं। परंतु तूने मेरा विचार बदल दिया। अब मुझे इतनी शांति है कि कम-से-कम मुझे तू तो बेगुनाह समझती है।"

सहासा दीया बुझ गया। चारों तरफ अंधकार फैल गया। इस अंधकार में पार्वती और दयावती दोनों छिप गईं। क्‍या उनके भाग्य का दीया भी बुझ गया?

7

पार्वती महीना भर बीमार रही। दयावती ने सेवा-सुश्रूषा में दिन-रात एक कर दिया। उसे हर समय वही चिंता रहती थी कि पार्वती किसी तरह बच जाए। वह उसके सिरहाने से न उठती। नियत समय पर दवा देती, समय पर दूध। रात को सोते-सोते चौंक उठती और उसे देखती कि सोती है या जागती है। ऐसी चिंता, ऐसी व्‍यग्रता, ऐसी उत्‍सुकता से किसी माँ ने अपने बच्‍चे का इलाज भी कम किया होगा। उसे सास समझाती थी, पति रोकता था, मगर वह किसी की न सुनती थी। कहती, इसकी सेवा मैं करूँगी। य‍ह दुखिया है। इसके मन-मंदिर में प्रेम की जोत जलती है। इसने मेरा मन मोह लिया है। पार्वती की लड़कियाँ दयावती की आवाज सुनतीं तो उनकी तबीयत हरी हो जाती और इस तरह लपक कर आतीं, जैसे वह उनकी माँ हो। उनके रहने-सहने का, खाने-पीने का सब प्रबंध वही करती थी। यह स्‍वर्गीय प्रेम, यह विशुद्ध, निर्मल, पवित्र दृश्‍य देख कर सारा मुहल्‍ला चकित था। ऐसी उदारता, ऐसी श्रद्धा, ऐसी प्रीति इस स्‍वार्थमय संसार में, इस द्वेषपूर्ण दुनिया में उन्‍होंने पहले न देखी थी। सौत को देख कर स्‍त्री के शरीर में आग लग जाती है, उसकी आँखों में क्रोध की चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। यहाँ वही सौत सौत की सेवा करती थी। यह प्रेम कितना महान, कितना स्‍वच्‍छ था! इसमें आत्‍मसमर्पण था, विषय-वासना न थी, सेवा का शौक था, फल की इच्‍छा न थी। यह पति-पत्नी का प्रेम न था, दो महिलाओं का स्‍नेह था। यह दो सौतों का प्‍यार न था, दो सखियों की प्रीति थी।

धीरे-धीरे पार्वती की देह में ताकत आने लगी। दयावती ऐसी खुश थी, जैसे कोई राज्‍य जीत लिया हो। अब वह दो सखियाँ थीं, सारा दिन एक जगह बैठी रहीं और बातें करतीं। दयावती सोचती, यह दुखिया है, इससे अन्‍याय हो रहा है। पार्वती सोचती, मेरी सौत है तो क्‍या हुआ, पर इसका दिल प्रेम का सागर है। मुझे देख कर खुश हो जाती है। मेल ने दोनों को प्रेम-सूत्र में बाँध दिया। कुछ देर सखियाँ बनी रहीं, फिर बहनें बन गईं। पार्वती से सास का व्‍यवहार वैसे ही कठोर था, परंतु रामनारायण कभी-कभी हँस कर भी बोल लेते थे। और दयावती सबकी आँखों की पुतली थी।

इसी तरह एक वर्ष बीत गया। पार्वती कुछ महीनों के लिए मायके गई। लौटी तो दयावती की अवस्‍था ही और थी। न गालों पर वह मोहनी थी न आँखों में वह जादू। ऐसा मालूम होता था जैसे दयावती वह दयावती ही नहीं। पार्वती सोलह साल की सुकुमारी को छोड़ गई थी, अब उसे चालीस साल की बुढ़िया मिली। पार्वती पर वज्राघात हुआ। उसने दयावती का हाथ पकड़ा और उसे एकांत में ले गई। वहाँ जाते ही बोली - "यह तुझे क्या हो गया?"

दयावती - "हुआ तो कुछ भी नहीं।"

पार्वती - "पहचानी नहीं जाती। तेरी सूरत ही बदल गई।"

दयावती - "चल झूठी! मुझे छेड़ती है। तेरी आँखें बदल गई होंगी।"

पार्वती - "गालियाँ देती है। जबान भी बदल गई।"

दयावती - "अब तुमसे बातों की बाजी में तो मैं कभी न जीतूँगी।"

पार्वती - "अच्‍छा तो ठीक-ठीक बता दे, छिपाने से कुछ न होगा।"

दयावती - "तुम्‍हारे वहम का इलाज कौन करे?"

पार्वती - "सास से लड़ाई तो नहीं हो गई?"

दयावती - "बिलकुल नहीं। वह मुझे माँ से ज्‍यादा चाहती हैं।"

पार्वती - "उनसे झगड़ा हो गया है?"

दयावती - "वह ऐसे आदमी ही नहीं।"

पार्वती - "बीमार रही है क्‍या?"

दयावती - (हँस कर) "हाँ, बुखार चढ़ता रहा है।"

पार्वती - "तो मालूम हुआ, मुझसे छिपाती है। अब न पूछूँगी।"

दयावती रोने लगी। उसका ऐसा मालूम हुआ कि उसके शरीर को तोड़ कर प्राण-पंछी बाहर निकल जाएगा। सिसकियाँ भरते हुए बोली - "बहन! मुझे कोई रोग नहीं है। मुझसे किसी ने दुर्व्‍यवहार नहीं किया। मुझे चिंता रोग खा रहा है। मुझे भय हो रहा हैं कि यह आदर, प्‍यार, आनंद के दिन कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। इस सावन की धूप पर कोई विश्‍वास नहीं। इसकी आयु बहुत थोड़ी है। आज मुझे सब सिर-आँखों पर बैठाते हैं लेकिन यह मान, यह सत्‍कार मेरे लिए नहीं, लड़के के लिए है। उनको लड़के की चाह ने दीवाना बना रखा है। सोचती हूँ अगर मेरे भी लड़की हो गई तो फिर क्‍या होगा? सबकी आँखें बदल जाएँगी। यह चिंता है जो मुझे अंदर-ही-अंदर खा रही है। मैं इस दुख से घुली जा रही हूँ और मुझे विश्‍वास हो गया है कि मेरे लड़की ही होगी और मैं न बचूँगी।"

यह कह कर दयावती रोने लगी। पार्वती के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। उसके मुँह से कुछ न निकला, एक शब्‍द भी नहीं, न हाँ, न ना। उसने दयावती का सिर खींच कर अपने गले से लगा लिया और रोने लगी। मगर उसका दिल कह रहा था - "अगर तू मरी तो मैं भी जीती न रहूँगी।"

आखिर वह दिन आ गया, जिसकी सबको प्रतीक्षा थी। रामनारायण ने दोनों बहनों को बुला भेजा था। एक दाई रखी, एक लेडी डॉक्‍टर। खाना बनाने के लिए एक स्‍त्री अलग थी। लेडी डॉक्‍टर ने कह दिया था लड़का होगा। रामनारायण ऐसे खुश थे जैसे किसी भिखारी को राज-सिंहासन मिल जाए, उछलते फिरते थे। उनके पाँव धरती पर न पड़ते थे। नौकरों से कहा - इनाम मिलेगा। मुहल्‍लेवालों से कहा, मिठाई बाँटेंगे। इष्‍ट मित्रों से भोजन देने की प्रतीक्षा की।

संध्‍या का समय था। रामनारायण के घर में स्त्रियाँ दौड़ती फिरती थीं। कानों पड़ी आवाज सुनाई न देती थी। लेड़ी डॉक्‍टर सख्‍ती के साथ हुक्‍म देती थी और लड़ती थी। मगर कोई बुरा न मानता था। कहीं गरम पानी पड़ा था, कहीं रूई के फाहे कतरे जा रहे थे। पार्वती उड़ी फिरती थी। दिल में प्रार्थना करती थी कि दयावती को लड़का हो, लड़की न हो। अगर लड़की हुई तो हम दोनों की मौत है। अब तो केवल मैं ही अभागिन हॅू, फिर दयावती को भी न पूछेगा। अभी उसकी खातिर कभी-कभी कोई मेरी भी सुध ले लेता है, फिर यह बात भी न रहेगी।

रामनारायण दरवाजे में बैठे माला फेरते थे और प्रार्थना करते थे‍ कि प्रभु! यह नैया पार लगा दे। कभी-कभी यह विचार आता था कि पार्वती से अन्‍याय हुआ है। लड़का हो जाए तो उसके साथ जरा सख्‍ती न करूँ। ऐसी एकाग्रता, ऐसी लगन, ऐसी श्रद्धा से उन्‍होंने कभी प्रार्थना न की थी। संकट हमें परमात्‍मा का भक्‍त बना देता है। वैभव में परमात्‍मा का कभी ध्‍यान ही नहीं आता। एकाएक अंदर से कुछ आवाजें आईं। रामनारायण ने माला के मनके जोर-जोर से फेरने शुरू कर दिए। घबराए हुए कहते थे, परमात्‍मा! कृपा करो। तुम्‍हारे बिना और किसी का सहारा नहीं। इतने में रामनारायण की माँ आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गई। रामनारायण ने कहा - "क्‍या हुआ?"

माँ ने धीरे से जवाब दिया - "लड़की।"

रामनारायण की उठती हुई उमंगें बैठ गईं। जैसे कबूतर उड़ना चाहता है और बाज को ऊपर मँडराते देख कर फिर वहीं बैठ जाता है। उन्‍होंने माला धरती पर पटक दी और निराशा से इधर-उधर टहलने लगे। किसी सेठ को अपना सर्वस्‍व लुट जाने पर इतना दुख न होता।

थोड़ी देर बाद दयावती के पास लेडी डॉक्‍टर और पार्वती के सिवा कोई भी न था। सब रामनारायण के गिर्द जमा थे। कोई शोक प्रकट करता था, कोई सांत्‍वना देता था। मगर रामनारायण बिल्‍कुल चुप थे। चारों तरफ देखते थे और ठंडी साँसें भरते थे। दयावती का किसी को भी खयाल न था।

सहसा पार्वती कमरे में आई और बोली - "दयावती मर गई।"

रामनारायण बैठे थे, "नवजात लड़की की भी कोई आशा नहीं।"

सारे घर में कुहराम मच गया। रामनारायण, उनकी माँ, उनकी बहनें सब रोने लगीं। उनके आर्तनाद से दुश्‍मनों के कलेजे भी छलनी होते थे। इस तरह रोती थीं जैसे उनका लड़का मर गया है। केवल पार्वती की आँख में पानी न था। वह कहती थी, कैसे छलिए हैं। दिल में दया नहीं, आँख में आँसू हैं। परमात्‍मा करे, ऐस धोखेबाजों के यहाँ कभी संतान न हो।

दूसरे दिन दयावती और उसकी लड़की दोनों की अर्थी उठी। घर के सब लोग साथ थे, केवल पार्वती न थी। उसे रात ही बुखार हो गया था। रामनारायण ने लड़कियों को उसके पास छोड़ा और स्‍वयं अर्थी के साथ चले गए।

दाह-कार्य करके लौटे तो घर में पार्वती की लाश पड़ी थी। और उसके पास उसकी अबोध कन्‍याएँ बैठी फूट-फूट कर रो रही थीं। उसने दयावती से कहा था, एकसाथ जिएँगी, एकसाथ मरेंगी। उसका वचन झूठा न निकला। वह दाह-कर्म के समय पछड़ गई थी, परंतु परलोक यात्रा में पीछे न रही। दोनों विपदाग्रस्‍त स्त्रियाँ एक ही दिन दुनिया से रवाना हुईं।

                                                                         ---सुदर्शन---

बकरशास्त्र के बारे में यत्किचित


सर्वप्रथम इस बात की घोषणा कर देना अहम है कि यह व्यक्ति केंद्रित शास्त्र है, यहाँ व्यक्ति का महत्व किसी भी अन्य वाद से कहीं अधिक है। अब इस प्रश्न का निवारण करना अति आवश्यक प्रतीत होता है कि संक्षिप्त घोषणापत्र क्यों, वृहद क्यों नहीं? कारण सीधा और एकदम सरल है। बकरशास्त्र आज तक एक अलिखित शास्त्र है जिसकी वृहद व्याख्या लिखित क्या मौखिक रूप से भी संभव नहीं है। कारण? इसका विषय इतना ज्यादा व्यापक है कि इसे पूरे का पूरा लिख पाना किसी भी इंसान, देवता, दानव ( अगर यह सब अस्तित्व में हैं तो ) के बस की बात ही नहीं। बची-खुची कमी बकर का मूल चरित्र पूरा कर देता है। इस शास्त्र का मूल चरित्र ही ऐसा है कि हर व्यक्ति अपने लिए अपना शास्त्र खुद गढ़े और उसे अपनी सुविधानुसार जैसे चाहे वैसे प्रतिपादित करे। किसी और के गढ़े-गढ़ाए सिद्धांत पर अमल करना एवं किसी से प्रभावित होकर अपनी राय बनाना इस शास्त्र में सर्वथा वर्जित है। किसी और के बनाए सिद्धांत पर अमल करनेवाला व्यक्ति कभी भी बकर फैला ही नहीं सकता। हाँ, किसी और की मान्यता को सामने रखने की खुजली अगर बर्दाश्त के बाहर होने लगे तो बकर करनेवाले को उस विचार को दुनिया के सामने कुछ इस तरह रखने का अधिकार जन्म से ही प्राप्त है कि वह इस बात को कुछ इस अंदाज से प्रस्तुत करे जैसे यह खयाल बकर करनेवाले के दिमाग के परकोटे में अभी-अभी पनपा है। मसलन, एकदम ताजा-तरीन खयाल की उत्पत्ति एक बकरवाले द्वारा अभी-अभी की गई है।

बकरशास्त्र में बकर का मुद्दा उतना ही महत्व रखता है जितना लोकतंत्र में जनता। जनता का काम सरकार बनाना है या कम से कम यह भ्रम बनायह रखना है कि यह उसकी चुनी हुई सरकार है। उसी तरह दुनिया का कोई भी मुद्दा चाहे वह कितना भी संवेदनशील क्यों न हो उसका काम केवल यह है कि उससे बकर की शुरुआत भर हो जाती है। श्रेष्ठ बकर फैलानेवाला कभी केवल मुद्दे की बात नहीं करता। यहाँ न समय का कोई बंधन काम करता है न विचार और धारा की सीमा। यहाँ ज्ञान का आतंक भी नहीं चलता। संसार में केवल यही एक धारा है जहाँ ऐसा हो सकता है कि समाज जिसे अज्ञानी कहता हो वह बकर का मास्टर हो। यहाँ ज्ञान का महत्व उतना ही है जितना किसी चौबीस घंटे चलनेवाले समाचार चैनल में ब्रेकिंग न्यूज का जो किसी अमीर की छींक के साथ ही बदलती रहती है। यहाँ पूरी जानकारी के साथ बकर करनेवाला मूरख माना जाता है। ज्ञान की ललक बकर के लिए उतनी ही खतरनाक है जितनी कि एक पेट-खराब इंसान के लिए उड़द की दाल। ज्ञान अच्छे-खासे बकरवादी को बीमार कर सकता है। ज्ञान समाज पर एक अभिशाप की तरह है जिससे जितनी जल्दी हो सके बकरवादी को ऊपर उठ जाना चाहिए। श्रेष्ठ बकर तभी हो सकती है जब आप केवल उतनी ही जानकारी रखें जितनी कि किसी रद्दी अखबार के हेडलाइन पढ़ कर मिलती है। बकर कौम का मूल मन्त्र होना चाहिए यह पुरानी कहावत - "अधजल गगरी छलकत जाय।" लोगों ने आज तक इस कहावत की गलत व्याख्या की है। सही व्याख्या यह है कि गगरी आधी भरी हुई है, फिर भी वह छलकती जा रही है, ताकि किसी और को प्यास लगी हो तो बिना संकोच के अपनी प्यास बुझा सके। किसी की गगरी पूरी भरी है और वह छलक ही नहीं रही, तो उससे दूसरे किसी को कोई फायदा है क्या? नहीं न? तो जरा खुद ही सोचा जाय कि इससे ज्यादा सेवा भाव क्या किसी और सिद्धांत में बता सकता है कोई ? यह विश्व का इकलौता और एकमात्र जनवादी एवं समतामूलक सिद्धांत है। यहाँ न कोई नेता होता है न जनता। सब के समान अधिकार, समान कर्तव्य, समान अवसर। यहाँ इंसान चाहे किसी भी वर्ग, वर्ण, गोत्र आदि का हो, सब एक ही उद्देश्य के लिए दिन-रात लगे रहते हैं कि बकर की महान परम्परा अपनी अवध गति से चलती रहे।

सबसे मूल बात यह कि अगर सारे समुद्र को स्याही मान लिया जाय और सारी धरती को कागज और दुनिया का हर जीव लिखने लग जाय फिर भी इसकी गुणवत्ता अपनी "इम्प्रोवाइजेशनल क्वालिटी" की वजह से इतनी विशाल है कि कम से कम लिखित रूप से बकरशास्त्र की रचना संभव ही नहीं है। यह उसी वक्त गढ़ा और गढ़ते हुए जिया जानेवाला शास्त्र है।

बकरशास्त्र अपने आपमें सारे मान्य शास्त्रों से ज्यादा लोकप्रिय, सुलभ तथा सर्वमान्य महाशास्त्र है। हर बात पर संदेह करनेवाला व्यक्ति और उस पर तर्क-वितर्क करनेवाला व्यक्ति बकर कौम का महापंडित माना जाता है। यह अवधारणा मार्क्स की अवधारणा "डाउट एवरीथिंग" की अवधारणा से कहीं ज्यादा आगे की सोच है!

बकरशास्त्र की उत्पत्ति सृष्टि में मानव की भाषा की उत्पत्ति के साथ ही साथ मानी जानी चाहिए। हालाँकि कोई यह साबित नहीं कर सकता कि भाषा से पहले बकर का कोई अस्तित्व नहीं था। एक बार जब बकरशास्त्र अस्तित्व में आ गया अर्थात मानव ने भाषा नामक चामत्कारिक चीज की रचना कर ली, फिर तो यह मानव के नैसर्गिक गुणों में अपने-आप ही शामिल हो गया। हम यह कह सकते हैं कि आज इस विधा में इंसान जन्म से ही कमोबेश पारंगत होता है। जिस प्रकार जीवन में होता है कि कुछ लोग किसी कारणवश पीछे छूट जाते हैं ठीक वैसे ही कुछ लोग दुनियावी उलझनों तथा सही-गलत, तर्क- कुतर्क के घनचक्कर में पड़ कर इस शास्त्र में भी पीछे छूट जाते हैं। ऐसे लोग "बेचारे भले आदमी" माने जाते हैं और इनकी गणना केवल भीड़ के रूप में होती है। जिस प्रकार किसी भी कार्य में महारत हासिल करने के लिए कठोर परिश्रम करना अनिवार्य माना जाता है ठीक वही सिद्धांत यहाँ भी लागू होता है। अंतर केवल इतना है कि यहाँ यह प्रक्रिया थोड़ी उल्टी है। यहाँ धारा के साथ नहीं, धारा के विपरीत बहना होता है। कहने का तात्पर्य यह कि जो कुछ भी कोमल है, सुन्दर है, तार्किक है उसे संदेहास्पद माना जाना चाहिए। यहाँ तर्क से कई गुना ज्यादा जरूरी वह चीज है जिसे बेचारे लोग कुतर्क कहते हैं। जो कोई भी कुतर्क को गलत मानता है उसका सामाजिक बहिष्कार करना हर बकर प्रेमी का परम कर्तव्य होना चाहिए। ऐसे पापियों का नाश धर्म और मर्यादासंगत बात है और अपने धर्म की रक्षा करना हर इंसान का कर्तव्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बकर अपने आपमें एक धर्म है।

बकर करनेवाला इंसान किसी योगी से कम नहीं होता। जिस प्रकार एक सच्चा योगी तमाम सांसारिक मोह-माया त्याग कर हमेशा योग की साधना में लगे रहना चाहता है उसी प्रकार एक बकर करनेवाला इंसान हर परिस्थिति में केवल और केवल बकर ही करना चाहता है। उसकी यह तीव्र चाहत किसी प्रह्लाद की चाहत से कम नहीं होती। एक बकर फैलाने वाला इंसान किसी कारणवश अगर बकर न फैला सके तो उसे अपना और संसार का अस्तित्व ही निरर्थक लगने लगता है। किसी कार्य में उसका दिल नहीं लगता। छप्पन भोग भी उसके किसी काम नहीं आते। ऐसी अवस्था में उसे तब तक शांति नहीं मिलती जब तक वह जी भरके बकर न फैला ले। एक बकर फैलानेवाले इंसान को बकर फैलाने से बलात अर्थात बलपूर्वक रोका जाना उसके प्राण खतरे में डालने के समान है। किसी भी सज्जन पुरुष को ऐसा कृत्य शोभा नहीं देता। हालाँकि यहाँ सज्जन- दुर्जन की बनी-बनाई परिभाषा भी संदेहास्पद है। संदेह ही एक अच्छे बकर-कर्ता की सबसे बड़ी पूँजी है। यही वह कुंजी है जिसके बल पर एक अच्छा-खासा इंसान बकर की दुनिया का शहंशाह बनाने की ओर अग्रसर होता है।

सत्य-असत्य एक भ्रम ही तो है। एक का सत्य दूसरे का असत्य हो सकता है। इसीलिए बकरशास्त्र इस सत्य-असत्य के जंजाल से परे एक ऐसा जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शास्त्र है जिसमें राग की प्रधानता साफ-साफ देखी जा सकती है। यहाँ राग का अर्थ गायन से नहीं बल्कि कहावत से समझा जाना चाहिए। कहावत है - अपनी डफली, अपना राग। यही वह बात है जो इसे दुनिया की किसी भी चीज से अलग करती है।

बकरशास्त्र अपने उत्तम चरम पर तब होता है जब कई लोग, एक स्थान पर, दीन-दुनिया से बेखबर, एक ही विषय पर, पूरे जोशो-खरोश के साथ, बिना एक-दूसरे से तनिक भी प्रभावित हुए, अपना-अपना राग मूलाधार से आलाप रहे हों। ऐसी स्थिति में पूर्वाग्रह सबसे बड़ा हथियार साबित होता है। यह एक बकर फैलानेवाले इंसान के लिए ठीक वैसे ही काम करता है जैसे नाव में पतवार।

बकर कोई मामूली विद्या नहीं कि किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी विद्यालय अथवा महाविद्यालय में रटा दिया जाय। यह एक तपस्या है जो केवल तप के ताप से ही प्राप्त की जा सकती है। सीखने-सिखाने की विधा है ही नहीं बल्कि स्वयं अपनी अंतर-आत्मा की आवाज पर कठोर परिश्रम कर परम पद को प्राप्त कर लेने की विधा है। एक बार इंसान इस परम पद को प्राप्त हो गया तो फिर दुनिया की तमाम चीजें महज माया हैं - मूल बात है बकर। बकर करनेवाला एक अदना-सा इंसान भी समय और मर्यादा की तमाम बाधाओं को पार कर बड़े-बड़े महात्माओं से श्रेष्ठ हो जाता है। यहाँ किसी के मानने या न मानने से किसी भी प्रकार का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी भी बात को मानना या न मानना भी एक प्रकार का भ्रम ही तो है।

हम जिसे मानते हैं उसे कितना जानते हैं और जिसे जानते हैं उसे कितना मानते हैं और अगर जानते-मानते भी हैं तो कितने दिनों तक कायम रख पाते हैं ?

बकर विद्या में पारंगत होने के लिए किसी मठ, मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा जंगल, पहाड़ आदि-आदि के चक्कर लगाने की जरूरत नहीं। न ही आँख बंद करके किसी बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर धूल-मिट्टी ही फाँकने और अपने सुन्दर बालों को किसी चिड़िया के घोसले में परिवर्तित करने की ही जरूरत है। यह मानव समाज के बीच रह कर समाज पर अपनी बोलाँठपने को स्थापित करने की कला है। यहाँ तर्क-कुतर्क, उचित-अनुचित, प्रासंगिक-अप्रासंगिक सबका दायरा सामान है। बल्कि यहाँ जो चीज जितनी ज्यादा कुतार्किक, अनुचित, अप्रासंगिक हो वह उतनी ही तार्किक, उचित और प्रासंगिक होती है। यहाँ सामनेवाले को प्रभावित करना या अपनी बौद्धिकता का आतंक फैला कर अपनी बात मनवा लेना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है हर परिस्थिति में बकर को सुचारु रूप से चालू रखना। सालों से केवल एक ही व्यक्ति बकबका रहा हो और सुननेवाले कुढ़न और मजबूरी से लबरेज हों, सुने जा रहे हो, कोई कुछ बोलना भी चाहे तो केवल पहला शब्द ही बोल पाए और पुनः श्रोता बनने को बाध्य कर दिया जाए, यह बकरशास्त्र की भाषा में बकर कौम के लिए एक आदर्श स्थिति मानी गई है। इसे ही तो कहतें है बकरशास्त्र की चरम अवस्था को प्राप्त कर जाना। बकर कौम का एक सच्चा सिपाही किसी भी देश, काल, परिस्थिति में बकर फैलाने के लिए ठीक उसी प्रकार तत्पर रहता है जैसे भूखा शेर शिकार पर झपटने को।

                                                                           ---पुंज प्रकाश---