रविवार, 10 मार्च 2013

घुन


किर्र...किर्र...किर्र...किर्र...

लकड़ी के दीवान के भीतर घुन अपना काम किए जा रहा था और साहिब सिंह की नींद छिटक कर कोसों दूर जा चुकी थी।

आज उसने तय कर रखा था कि कम-से-कम सात घंटे बेहोशी की हद तक, नींद में डूब जाएगा, और इसका उसने बाकायदा इंतजाम भी किया था। तली मछली, बासमती चावल का वेज पुलाव, दाल तड़का, बटर चिकन और ह्विस्की का क्वार्टर... यानी नींद को घेरने की मजबूत नाकेबंदी। हर पेग के बाद साहिब ने सिगरेट के लंबे-लंबे कश लिए। निकोटिन शराब के नशे को बढ़ा देती है, वह जानता था। उसके बाद आदत के विरुद्ध भारी खाना। नशा बढ़िया हुआ। पलकें डूब रही थीं। नींद की छुअन को वह महसूस कर रहा था। नींद से भारी हुए कदमों को घसीटता हुआ वह बेडरूम में घुसा। बत्ती बंद की। बस नींद के नीले, गुनगुने जल में वह गोता लगाने ही वाला था कि किर्र...किर्र...किर्र...किर्र...

साहिब ने पहलू बदला। गोल तकिए को पैरों के बीच दबाया। ध्यान बँटाने के लिए कई तरह की फैंटेसियों के दरवाजे खटखटाए, लेकिन कोई दरवाजा नहीं खुला। शराब अपना काम कर रही थी, यानी पूरे शरीर को बंधन-मुक्त बनाए दे रही थी, लेकिन नींद थी कि कमबख्त किर्र-किर्र के डर से भागती गई, भागती गई और अंततः ओझल हो गई। साहिब ने एक भद्दी-सी गाली दी और लाइट ऑन कर दी। शराब अब उसके सिर पर चढ़ कर दर्द की गाँठें खोलने लगी थी।

नींद से हार की यह तीसरी रात थी। पिछली तीन रातों से घुन दीवान को ही नहीं, उसके दिमाग को भी चबाए जा रहा था।

उसके पास अपने दिल और दिमाग को बचाने का कोई उपाय नहीं था। यह उपाय तो उसे बताया ही नहीं गया था। उपायों को तलाशने की उसे मोहलत ही नहीं मिली थी। बस अचानक आक्रमण और फिर लगातार आक्रमण...।

साहिब सिंह ने अनमने ढंग से अपना लेपटॉप खोला और दुनिया की चुनिंदा विज्ञापन फिल्मों को देखने लगा। बीस सेकंड से ले कर एक-डेढ़ मिनट की ये फिल्में अपने दर्शकों को उपभोक्ता में बदल देने की काबिलियत रखती थीं। एक कार की फिल्म पर उसकी नजर थम गई। ग्राफिक्स का इतना बेहतरीन इस्तेमाल कम ही फिल्मों में हुआ है। फिल्म में एक कार अचानक एक रोबोट में तब्दील हो कर तेज धुन में थिरकने लगती है और धीरे-धीरे उसका नृत्य उन्माद के चरम पर पहुँच जाता है। ऐसी फिल्में यदि नए उपभोक्ताओं को खींच लाती हैं तो ये तो उनका अधिकार है... अपने काम के पक्ष में साहिब सिंह ने अपना बयान दिया। बिना ऐसे विश्वासपूर्ण बयान के वह अपने काम को खूबसूरती से अंजाम भी नहीं दे सकता था क्योंकि वह भी तो इसी दुनिया का एक चमकता नाम था।

बस, उसे खल रही थी तो एक ही बात, कि नींद उसके साथ क्यों बेवफाई कर रही है? आखिरकार उसने नींद का क्या बिगाड़ा था? नींद की याद आते ही उसकी बेचैनी फिर बढ़ गई।

केवल तीन साल में इतनी तरक्की... विज्ञापन की दुनिया का एक जरूरी नाम... कई तरह के कलाकारों से उत्पाद के अनुसार काम लेनेवाला... एक पॉश इलाके में डबल बेडरूम का बेहतरीन फ्लैट... लेकिन फिलवक्त एक छोटी-सी नींद से बेदखल... नींद क्यों नहीं आती रात भर!

                                                                           ---बसंत त्रिपाठी---

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