अनाज की पैदावार बढ़ी या नहीं यह तो ईश्वर जाने या मंहगाई, मगर हाकिमों की पैदावार का क्या कहना है। कोई ए.ओ., बी.ओ., सी.ओ. हैं तो कोई ए.बी.ओ., बी.सी.ओ, सी.डी.ओ. और न जाने कितने 'ओ' हैं कि अंग्रेजी की वर्णमाला के भी होश गुम हैं कि अब 'ओ' के साथ कौन-कौन-से अक्षर जोड़े जाएं। उस पर उसे यह भी परेशानी है कि सुनने वाले किस 'ओ' परिवार का कौन-सा मतलब निकालेंगे। जैसे एम.ओ. ही को ले लीजिए। इससे मेडिकल ऑफिसर भी हो सकता है और म्यूनिसिपल आफिसर, मलेरिया आफिसर, और मारकेटिंग आफिसर भी और घाते में मनीआर्डर भी समझना चाहें तो मजे में समझ सकते हैं।
खैर, समझने वाले जो चाहें समझा करें। इसकी फिक्र मिस्टर सी.एम गादुर को न थी जिन्हें लोग अपनी आसानी के मारे मिस्टर चिमगादर ही कहते थे।
वे थे तो वकील मगर जिस दिन से वे 'ओथ आफिसर' (शपथनामा अफसर) बना दिए गए, वे अपने नाम के आगे एक 'ओ' नहीं, डबल 'ओ' अर्थात 'ओ.ओ.' निहायत शान से लिखने लगे।
एक 'ओ' का नशा तो संभालना मुश्किल होता है तब भला डबल 'ओ' का नशा, जिसके आगे 'डबल एक्स' भी पानी-पानी हो जाता है, भला कैसे संभाला जा सकता है?
इसका नशा जो चढ़ा तो हजरत की आंखें ऐसी चढ़ गईं कि वह दुनिया अछूत बनकर इनकी निगाह में रसातल से भी नीचे गिर गई।
जब दुनिया ही नहीं तब मनुष्य कहां? इसलिए वे अब अपने को उस जाति का समझने लगे जो मनुष्यों से पृथक कभी देवताओं की थी और आकाश में रहती थी।
इनके लिए आकाश में रहना तो असंभव था इसलिए वे अपने दिमाग को आसमान में पहुंचाकर अपनी उच्च जातीयता का परिचय देने लगे। इस उच्चता को बनाए रखने के लिए मनुष्यों के सारे गुणों से - जैसे संवेदना, सहानुभूति, आत्मीयता, मधुरता, कोमलता, मिलनसारी, हंसना-बोलना, सबसे बुरी तरह घृणा करने लगे ताकि ऐसा न हो कि भूल से भी इन्हें कोई मनुष्य समझ ले। सलाम करना तो एकदम भूल गए। मगर सलाम लेना नहीं। क्योंकि यह तो उनका जातीय अधिकार था। चेहरे पर गंभीरता की इतनी मोटी पलस्तर चढ़ा ली कि कोशिश करने पर शायद जानवर भी हंस दें, मगर इनके मुंह पर हंसने के लिए सिकुड़न पड़ना बिलकुल असंभव था।
इसकी ट्रेनिंग की ये सब तपस्याएं झेल चुकने पर भी जिस किसी के पास अपनी बिरादरी का सदस्य समझकर वे बड़े उत्साह से लपकते थे वह इन्हें मुंह नहीं लगाता था। इस तरह वे न घर के रहे न घाट के। बस सचमुच चिमगादर ही बनकर रह गए।
इस साल एक नेताजी का लड़का वकालत पास किया था। नेताजी दुनिया को चराना खूब जानते थे। अपने लड़के को तुरंत ऊपर उछाल देने के लिए उन्होंने नगर के बड़े-बड़े लोगों की चाय-पार्टी कर दी जिसमें अधिकतर अफसरान ही थे।
मिस्टर सी.एम. गादुर अपने 'ओ ओ' के रक्षार्थ बिना बुलाए ही फटक पड़े और लगे नेताजी से शिकायत करने, 'वाह नेताजी! जब आपने सब अफसरों को निमंत्रित किया तब आप मुझे कैसे भूल गए? शायद आप नहीं जानते कि मैं ही अकेला इस नगर का 'ओ.ओ.' हूं।'
नेताजी रंग ताड़ते ही तपाक से बोले, 'अरे! वाह साहब, वह कुर्सी देखिए, मैंने खास तौर से आप ही के लिए लगवा रखी है। यह और बात है कि निमंत्रण बांटने वाले को आप न मिले हों।'
खैर, बात बन गई। मान न मान मैं तेरा मेहमान बनकर वे अपनी बिरादरी में शामिल हो गए।
पार्टी में इनके साथी दो-चार वकील भी थे। मगर उन लोगों ने मेहमानों की खातिरदारी का भार ले रखा था। दौड़-दौड़कर सब मेजों पर सामग्री की कमी पूरी करते थे। मिस्टर सी.एम. गादुर अपनी उच्चता का प्रदर्शन करने के लिए उन्हें 'ए मिस्टर' कह कर कोई तश्तरी लाने को कहते थे जैसे वे उन्हें पहचानते ही न थे।
चाय-पानी की समाप्ति पर नेताजी अपने लड़के को साथ लिए एक-एक से इस तरह मिलाने लगे, 'देखो बेटा, आपका आशीर्वाद लो। आप एस.ओ. हैं - सप्लाई अफसर। आप ही की कृपा से दो सौ बोरी सीमेंट नसीब हुई थी। जिससे तुम्हारा वकालतखाना बना सका। आपका आशीर्वाद लो। आप एफ.ओ. हैं - फारेस्ट आफिसर। आप ही की कोशिशों से दस दरख्त शीशम के मिले थे जिनसे तुम्हारे फर्नीचर बनवाए हैं। आपका आशीर्वाद लो। आप सी.ओ. हैं - चकबंदी अफसर। आपका इजलास हर वक्त गर्म रहता है, आधी रात को भी चाहो मुकदमा करो...'
मिस्टर सी.एम गादुर बार-बार अपनी गर्दन उठा-उठाकर टाई ठीक करते हुए नेता जी को घूरते ही रहे। मगर सारे मेहमानों से मिलाने पर भी उनकी नजर इन पर न पड़ सकी। तब तो इनसे न रहा गया। कुर्सी खड़बड़ाकर इस तरह उठ खड़े हुए मानो जाने की तैयारी कर रहे हैं।
नेताजी ने चौंककर उनकी तरफ देखा और वहीं से बोले, 'अरे! आप कहां छिपे थे? मैं आप ही को ढूंढ़ रहा था। देखो बेटा, आप भी 'ओ' हैं।'
मिस्टर सी.एम. गादुर खड़े तो थे ही, जोरों से बोल उठे ताकि सब लोग सुन सकें, 'मैं खाली 'ओ' नहीं, मैं 'ओ.ओ.ओ.' हूं। इस नगर का आनली ओथ आफिसर (एकमात्र शपथनामा हाकिम)।'
कहीं से आवाज आई, 'अख्खा आप तीन हर्फ वाले हैं।' इसी के साथ एक प्रश्न भी गूंज उठा, 'तीन हर्फ कौन?'
जब तक कुछ स्कूली लड़के हाते के बाहर रुककर यह तमाशा देख रहे थे, एकाएक चिल्ला उठे, 'अरे! वही चे गैन दाल - चुगद।'
पार्टी इतने जोरों से खिलखिलाकर हंस पड़ी कि मिस्टर गादुर को मुंह छिपाकर वहां से भागने ही में कुशलता दिखाई पड़ी।
---जी.पी. श्रीवास्तव---
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