बारात में जाना कई कारण से टालता हूँ । मंगल कार्यों में हम जैसी चढ़ी उम्र के कुँवारों का जाना अपशकुन है। महेश बाबू का कहना है, हमें मंगल कार्यों से विधवाओं की तरह ही दूर रहना चाहिये। किसी का अमंगल अपने कारण क्यों हो ! उन्हें पछतावा है कि तीन साल पहले जिनकी शादी में वह गये थे, उनकी तलाक की स्थिति पैदा हो गयी है। उनका यह शोध है कि महाभारत का युद्ध न होता, अगर भीष्म की शादी हो गयी होती। और अगर कृष्णमेनन की शादी हो गयी होती, तो चीन हमला न करता।
सारे युद्ध प्रौढ़ कुंवारों के अहं की तुष्टि के लिए होते हैं। 1948 में तेलंगाना में किसानों का सशस्त्र विद्रोह देश के वरिष्ठ कुंवारे विनोवस भावे के अहं की तुष्टि के लिए हुआ था। उनका अहं भूदान के रूप में तुष्ट हुआ।
अपने पुत्र की सफल बारात से प्रसन्न मायराम के मन में उस दिन नागपुर में बड़ा मौलिक विचार जागा था। कहने लगे, " बस, अब तुमलोगों की बारात में जाने की इच्छा है। " हम लोगों ने कहा - ' अब किशोरों जैसी बारात तो होगी नही। अब तो ऐसी बारात ऐसी होगी- किसी को भगा कर लाने के कारण हथकड़ी पहने हम होंगे और पीछे चलोगे तुम जमानत देने वाले। ऐसी बारात होगी। चाहो तो बैण्ड भी बजवा सकते हो।"
विवाह का दृश्य बड़ा दारुण होता है। विदा के वक्त औरतों के साथ मिलकर रोने को जी करता है। लड़की के बिछुड़ने के कारण नहीं, उसके बाप की हालत देखकर लगता है, इस देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने मे जा रही है। पाव ताकत छिपाने मे जा रही है - शराब पीकर छिपाने में, प्रेम करके छिपाने में, घूस लेकर छिपाने में ... बची पाव ताकत से देश का निर्माण हो रहा है, - तो जितना हो रहा है, बहुत हो रहा है। आखिर एक चौथाई ताकत से कितना होगा।
यह बात मैंने उस दिन एक विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के वार्षिकोत्सव में कही थी। कहा था, “तुम लोग क्रांतिकारी तरुण-तरुणियां बनते हो। तुम इस देश की आधी ताकत को बचा सकते हो। ऐसा करो जितनी लड़कियां विश्वविद्यालय में हैं, उनसे विवाह कर डालो। अपने बाप को मत बताना। वह दहेज मांगने लगेगा। इसके बाद जितने लड़के बचें, वे एक-दूसरे की बहन से शादी कर लें। ऐसा बुनियादी क्रांतिकारी काम कर डालो और फिर जिस सिगड़ी को जमीन पर रखकर तुम्हारी मां रोटी बनाती है, उसे टेबिल पर रख दो, जिससे तुम्हारी पत्नी सीधी खड़ी होकर रोटी बना सके। बीस-बाईस सालों में सिगड़ी ऊपर नहीं रखी जा सकी और न झाडू में चार फुट का डंडा बांधा जा सका। अब तक तुम लोगों ने क्या खाक क्रांति की है।”
छात्र थोड़े चौंके। कुछ ही-ही करते भी पाये गये। मगर कुछ नहीं।
एक तरुण के साथ सालों मेहनत करके मैंने उसके खयालात संवारे थे। वह शादी के मंडप में बैठा तो ससुर से बच्चे की तरह मचलकर बोला, “बाबूजी, हम तो वेस्पा लेंगे, वेस्पा के बिना कौर नहीं उठायेंगे।” लड़की के बाप का चेहरा फक। जी हुआ, जूता उतारकर पांच इस लड़के को मारूं और पच्चीस खुद अपने को। समस्या यों सुलझी कि लड़की के बाप ने साल भर में वेस्पा देने का वादा किया, नेग के लिए बाजार से वेस्पा का खिलौना मंगाकर थाली में रखा, फिर सबा रुपया रखा और दामाद को भेंट किया। सबा रुपया तो मरते वक्त गोदान के निमित्त दिया जाता है न। हां, मेरे उस तरुण दोस्त की प्रगतिशीलता का गोदान हो रहा था।
बारात यात्रा से मैं बहुत घबराता हूँ , खासकर लौटते वक्त जब बाराती बेकार बोझ हो जाता है । अगर जी भर दहेज न मिले, तो वर का बाप बरातियों को दुश्मन समझता है। मैं सावधानी बरतता हूँ कि बारात की विदा के पहले ही कुछ बहाना करके किराया लेकर लौट पड़ता हूँ।
एक बारात की वापसी मुझे याद है।
हम पांच मित्रों ने तय किया कि शाम ४ बजे की बस से वापस चलें। पन्ना से इसी कम्पनी की बस सतना के लिये घण्टे-भर बाद मिलती है, जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुंच जायेंगे। हममें से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था, इसलिये वापसी का यही रास्ता अपनाना ज़रूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं बस डाकिन है।
बस को देखा तो श्रद्धा उभर पड़ी। खूब वयोवृद्ध थी। सदीयों के अनुभव के निशान लिये हुए थी। लोग इसलिए सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है!
बस-कम्पनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमनें उनसे पूछा-यह बस चलती है? वह बोले-चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी। हमनें कहा-वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने-आप चलती है यह? उन्होंने कहा-हां जी और कैसे चलेगी?
गज़ब हो गया। ऐसी बस अपने-आप चलती है!
हम आगा-पीछा करने लगे। पर डाक्टर मित्र ने कहा-डरो मत, चलो! बस अनुभवी है। नई-नवेली बसों से ज़्यादा विशवनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी। हम बैठ गये। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे, जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आखें कह रही थी - आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है सो जायेगा - राजा, रंक, फ़कीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।
इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा लगा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। कांच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे, उनसे हमें बचना था। हम फौरन खिड़की से दूर सरक गये। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था हमारी सीट के नीचे इंजन है।
बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि गांधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदलनों के वक्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दुसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुज़र रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता, सीट बॉडी को छोड़ कर आगे निकल गयी। कभी लगता कि सीट को छोड़ कर बॉडी आगे भागे जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेद-भाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हमपर बैठी है।
एकाएक बस रूक गयी। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकाल कर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस कम्पनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएंगे, जैसे मां बच्चे के मुंह में दूध की शीशी लगाती है।
बस की रफ्तार अब पन्द्रह-बीस मील हो गयी थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फेल हो सकता है, स्टीयरींग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ हरे-हरे पेड़ थे, जिन पर पंछी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इन्तज़ार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।
एकाएक फिर बस रूकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें कीं, पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया था। कम्पनी के हिस्सेदार कह रहे थे - बस तो फर्स्ट क्लास है जी! ये तो इत्तफाक की बात है। क्षीण चांदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गयी हो। हमें ग्लानी हो रही थी कि इस बेचारी पर लदकर हम चले आ रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसकी अन्त्येष्टी करनी पड़ेगी।
हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गयी थी।
धीरे-धीरे वृद्धा की आखों की ज्योति जाने लगी। चांदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती - निकल जाओ बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।
एक पुलिया के उपर पहुंचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। बस बहुत ज़ोर से हिलकर थम गयी। अगर स्पीड में होती तो उछल कर नाले में गिर जाती। मैंने उस कम्पनी के हिस्सेदार की तरफ श्रद्धा भाव से देखा। वह टायरों क हाल जानते हैं, फिर भी जान हथेली पर ले कर इसी बस से सफर करते हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान-भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते, तो देवता बांहें पसारे उसका इन्तज़ार करते। कहते - वह महान आदमी आ रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।
दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक्त पर पन्ना पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी - पन्ना, क्या, कहीं भी, कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, ज़िन्दगी इसी बस में गुज़ारनी है और इससे सीधे उस लोक की ओर प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंज़िल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव खत्म हो गये। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गये। चिन्ता जाती रही। हंसी मज़ाक चालू हो गया।
ठण्ड बढ़ रही थी । खिड़कियाँ खुली ही थीं। डाक्टर ने कहा - ' गलती हो गयी। 'कुछ' पीने को ले आता तो ठीक रहता । ' एक गाँव पर बस रुकी तो डाक्टर फौरन उतरा । ड्राइवर से बोला - 'जरा रोकना ! नारियल ले आऊँ । आगे मढ़िया पर फोड़ना है । डाक्टर झोपड़ियों के पीछे गया और देशी शराब की बोतल ले आया । छागलों मे भर कर हम लोगों ने पीना शुरु किया ।
इसके बाद किसी कष्ट का अनुभव नहीं हुआ। पन्ना से पहले ही सारे मुसाफिर उतर चुके थे । बस कम्पनी के हिस्सेदार शहर के बाहर ही अपने घर पर उतर गये। बस शहर मे अपने ठिकाने पर रुकी। कम्पनी के दो मालिक रजाइयों मे दुबके बैठे थे। रात का एक बजा था। हम पाँचों उतरे। मैं सड़क के किनारे खड़ा रहा। डाक्टर भी मेरे पास खड़ा हो कर बोतल से अंतिम घूँट लेने लगा। बाकि तीन मित्र बस-मालिकों पर झपटे। उनकी गर्म डाँट हम सुन रहे थे। पर वे निराश लौटे। बस-मालिकों ने कह दिया था, सतना की बस तो चार- पाँच घण्टे पहले जा चुकी थी। अब लौटती होगी। अब तो बस सवेरे ही मिलेगी।
आसपास देखा, सारी दुकानें, होटल बन्द। ठण्ड कड़ाके की। भूख भी खूब लग रही थी। तभी डाक्टर बस-मालिकों के पास गया। पाँचेक मिनट मे उनके साथ लौटा तो बदला हुआ था। बड़े अदब से मुझसे कहने लगा," सर, नाराज़ मत होइए। सरदार जी कुछ इंतजाम करेंगे। सर,सर उन्हें अफ़सोस है कि आपको तक़लीफ़ हुई। "
अभी डाक्टर बेतकुल्लफी से बात कर रहा था और अब मुझे 'सर' कह रहा है। बात क्या है? कही ठर्रा ज्यादा असर तो नहीं कर गया। मैने कहा, "यह तुमने क्या 'सर-सर' लगा रखी है ? "
उसने वैसे ही झुक कर कहा, " सर, नाराज़ मत होइए ! सर, कुछ इंतजाम हुआ जाता है। "
मुझे तब भी कुछ समझ में नही आया। डाक्टर भी परेशान था कि मैं कुछ समझ क्यों नही रहा हूँ। वह मुझे अलग ले गया और समझाया, " मैने इन लोगों से कहा है कि तुम संसद सदस्य हो। इधर जांच करने आए हो।मैं एक क्लर्क हूँ, जिसे साहब ने एम. पी. को सतना पहुँचाने के लिए भेजा है। मैने इनसे कहा कि सरदारजी, मुझ गरीब की तो गर्दन कटेगी ही, आपकी भी लेवा-देई हो जायेगी। वह स्पेशल बस से सतना भेजने का इंतजाम कर देगा। ज़रा थोड़ा एम. पी. पन तो दिखाओ। उल्लू की तरह क्यों पेश आ रहे हो। "
मैं समझ गया कि मेरी काली शेरवानी काम आ गयी है। यह काली शेरवानी और ये बड़े बाल मुझे कोई रुप दे देते हैं। नेता भी दिखता हूँ, शायर भी और अगर बाल सूखे -बिखरे हों तो जुम्मन शहनाईवाले का भी धोखा हो जाता है।
मैने मिथ्याचार का आत्मबल बटोरा और लौटा तो ठीक संसद सदस्य की तरह। आते ही सरदारजी से रोब से पूछा, " सरदारजी, आर. टी. ओ. से कब तक इस बस को चलाने का सौदा हो गया है? "
सरदारजी घबरा उठे। डाक्टर खुश कि मैने फर्स्ट क्लास रोल किया है।
रोबदार संसद सदस्य का एक वाक्य काफ़ी है, यह सोंचकर मैं दूर खड़े होकर सिगरेट पीने लगा। सरदारजी ने वहीं मेरे लिये कुर्सी डलवा दी। वह डरे हुए थे और डरा हुआ मैं भी था। मेरा डर यह था कि कहीं पूछताछ होने लगी कि मैं कौन संसद सदस्य हूँ तो क्या कहूँगा। याद आया कि अपने मित्र महेशदत्त मिश्र का नाम धारण कर लूँगा। गाँधीवादी होने के नाते, वह थोड़ा झूठ बोलकर मुझे बचा ही लेंगे।
मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया। झूठ यदि जम जाये तो सत्य से ज्यादा अभय देता है। मैं वहीं बैठे-बैठे डाक्टर से चीखकर बोला, " बाबू , यहाँ क्या कयामत तक बैठे रहना पड़ेगा? इधर कहीं फोन हो तो जरा कलेक्टर को इत्तिला कर दो। वह ग़ाड़ी का इंतजाम कर देंगे। "
डाक्टर वहीं से बोला, " सर, बस एक मिनट! जस्ट ए मिनट सर !" थोड़ी देर बाद सरदारजी ने एक नयी बस निकलवायी। मुझे सादर बैठाया गया। साथियों को बैठाया। बस चल पड़ी।
मुझे एम. पी. पन काफी भाड़ी पड़ रहा था। मैं दोस्तों के बीच अजनबी की तरह अकड़ा बैठा था। डाक्टर बार बार 'सर' कहता था और बस का मालिक 'हुज़ूर'।
सतना में जब रेलवे के मुसाफिरखाने मे पहुँचे तब डाक्टर ने कहा, " अब तीन घण्टे लगातार तुम मुझे 'सर' कहो। मेरी बहुत तौहीन हो चुकी है।"
---हरिशंकर परसाई---
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