मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

प्रतिभा का विवाह

पात्र:

प्रतिभा : अठारह वर्ष की बालिका

मोहन : प्रतिभा के पापा

प्रकाश वर्मा : प्रतिभा के साथ विवाहेच्छुक वृद्ध

महेंद्र : प्रतिभा के साथ विवाहेच्छुक युवक

मिस्टर जोशी : एक गृहस्थ

मिसेज जोशी : मिस्टर जोशी की पत्नी



(उत्तरी भारत में एक छोटा-सा रमणीक पर्वतीय स्थान। पत्थर की छोटी-छोटी हवेलियों के मध्य एक अपरिचित के समान लाल डाक बँगला , जिसके उत्तर ओर के बरामदे में सूर्य की मूर्षप्राय किरनों में नहाई एक अठारह वर्ष की बालिका बैठी है। उसकी आकृति में इस समय एक असंगत निरुत्साह और क्षोभ है , अर्थात वह अपने समस्त सौंदर्य के साथ किसी को आकर्षित करने में असमर्थ है। भीतर से एक व्यस्त आवाज आती है)

आवाज : आपकी टिमाटर की चटनी तैयार है। मैं कागजी निचोड़ कर रख दूँ। रोटी भी काटे लेती हूँ।

बालिका : हूँ।

आवाज : क्या बीबी, पथरचटी ही तो गए हैं। न जाने कब आवेंगे?

बालिका : मैं क्या ज्योतिष जानती हूँ! तुम कितनी बातून हो।

आवाज : यहाँ दाल तो गलना जानती ही नहीं, आलू इतने गल गए हैं कि उनका कुछ बन ही नहीं सकता, कोई सीधे मुँह बात ही नहीं करता। न जाने कैसा देश है?

(बालिका खीझ कर टहलने लगती है और बाहर छोटे फाटक तक जा कर लौटना ही चाहती है कि कुछ पदचाप सुन कर ठिठक जाती है। दूसरे ही क्षण दो अधेड़ पुरुष भारी ओवरकोट पहने प्रवेश करते हैं। पहला बालिका को देख कर अप्रतिभ हो जाता है , पर मनोगत विचारों को भरसक दबा कर दूसरी ओर देखने लगता है। दूसरा पास आ कर स्नेह के स्वर में कहता है)

दूसरा पुरुष : क्यों प्रतिभा, इतनी सर्दी में शॉल भी नहीं है?

प्रतिभा : (स्नेह) जी नहीं पापा, मैं आपकी राह देख रही थी।

पहला पुरुष : वहाँ से आ कर हमारा बँगला कितना नीरस दीखता है।

दूसरा पुरुष : बड़ा सुंदर स्थान है मुन्नी! तेरी तबीयत ठीक होते ही हम वहाँ चलेंगे।

प्रतिभा : मुझे अब प्रकृति के हृदयहीन सौंदर्य में तनिक भी रस नहीं है। मानव- प्रकृति कहीं अधिक सुंदर है।

दूसरा पुरुष : अच्छा-अच्छा, इसी तरह तो दिन-रात सोच कर स्वास्थ्य सत्यानाश कर लिया।

पहला पुरुष : अच्‍छा, अब चलिए मिस्टर मोहन, मैं चूर हो गया हूँ। आप तो अभी जवान हैं।

मिस्टर मोहन : (फैशनेबल हँसी हँस कर) खैर, हम बूढ़े ही आजकल के जवानों से अच्छे हैं।

प्रतिभा : अच्छा, पापा, आप यह बात कितनी बार कह चुके हैं।

(तीनों बरामदे की ओर चल देते हें)

मिस्टर मोहन : (सहसा ठिठक कर) हमने आज मिसेज जोशी को क्या समय दिया था?

मिस्टर वर्मा : मुझे तनिक भी ध्यान नहीं है, पर मिसेज जोशी तो आज रानीखेत गई होंगी।

प्रतिभा : नहीं, उन्होंने विचार बदल दिया था।

(बरामदे में पहुँच कर मिस्टर वर्मा कुर्सी पर बैठ जाते हैं। भीतर से एक कुर्सी घसीट कर मिस्टर मोहन ठीक उनके सामने बैठते हैं। प्रतिभा अप्रतिभ बाहर की ओर देखती है)

मिस्टर वर्मा : मिसेज जोशी को मैंने आज बीस वर्ष बाद देखा। पिछली बार जब वह तुम्हारे साथ लखनऊ में थीं...

(मिस्टर मोहन उनको एक विचलित इंगित से रोकते हैं। प्रतिभा मन्थर गति से अंदर चली जाती है)

मिस्टर मोहन : (दयनीय भाव से) यार प्रकाश, तुम कैसे आदमी हो? प्रतिभा भला क्या समझे थी?

मिस्टर वर्मा : आनंद, प्रतिभा इस विषय में जो कुछ समझ सकती थी; समझ चुकी।

मिस्टर मोहन : क्या समझ चुकी?

मिस्टर वर्मा : यही कि एक स्त्री और पुरुष का संबंध या तो आर्थिक है या कामुक।

मिस्टर मोहन : कुछ भी हो, पर मैंने अपना और मिसेज जोशी का संबंध प्रतिभा से प्राणपण से छिपा कर रखा है।

मिस्टर वर्मा : पर तुम नहीं समझते, तुम इस प्रकार मुझे क्षति पहुँचा रहे हो।

मिस्टर मोहन : (आकाश से गिर कर) तुम्हें क्षति!

मिस्टर वर्मा : (अविचलित भाव से) हाँ, क्योंकि मैं प्रतिभा से विवाह करना चाहता हूँ।

मिस्टर मोहन : (जैसे उनका अपने अस्तित्व पर विश्वास न हो) विवाह!

मिस्टर वर्मा : तुम मेरी आयु की ओर देख रहे हो।

मिस्टर मोहन : प्रकाश, तुम मेरे तीस वर्ष से मित्र हो...

मिस्टर वर्मा : फिर अपनी एकमात्र पुत्री के लिए तुम्हें मुझसे अधिक योग्य वर कौन मिलेगा? ...आनंद, मैं प्रतिभा को चाहता हूँ। मैं वास्तव में उसे चाहता हूँ।

मिस्टर मोहन : तुम उसे अपनी पुत्री के समान प्रेम कर सकते हो, वह तुम्हारा कम आदर नहीं करती।

मिस्टर वर्मा : पुत्री के समान! पर मैं तो प्रतिभा से विवाह करना चाहता हूँ...

(मिसेज जोशी का प्रवेश ; अपने आपसे दस वर्ष छाटी , गोल गोरे चेहरे पर विलास की प्रस्फुट विलासिता जो अधरों पर और भी अधिक स्पष्ट और मुखर हो गई है , एक काला चेस्टर पहने तौल-तौल कर पग रखती हुई आती हैं। मिस्टर मोहन खड़े हो कर स्वागत करते हैं और अपनी कुर्सी पर बैठा कर दूसरी कुर्सी लेने भीतर जाते हैं)

मिस्टर वर्मा : आप तो आज रानीखेत जानेवाली थीं?

मिसेज जोशी : (बैठते हुए) हाँ, मैंने अपना विचार बदल दिया था!

(दो क्षण गंभीर नीरवता रहती है)

मिस्टर वर्मा : समय आप लोगों के साथ कितना पक्षपात करता है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपकी आयु पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं जँचती।

मिस्टर मोहन : (एक सामाजिक झेंप के साथ) कम से कम इतने के लिए तो मैं भी सौगंध खा सकता हूँ कि आप भी सौ वर्ष के नहीं दीखते।

मिस्टर वर्मा : (वेग से हँस कर जो उत्तरार्ध में खाँसी हो जाती है) यह सौगंध तो आनंद भी खाने को तैयार है।

(मिस्टर मोहन एक कुर्सी ले कर आते हैं और ठीक मिस्टर वर्मा और मिसेज जोशी के बीच में बैठ जाते हैं।)

मिसेज जोशी : (स्वर को तौल कर) यहाँ आते हुए मैंने आपका अंतिम वाक्य सुना है। मुझे तो बड़ा कुतूहल हो रहा है?

मिस्टर मोहन : (रोना मुँह बना कर) हाँ सरो, मिस्टर वर्मा प्रतिभा से विवाह करना चाहते हैं।

मिसेज जोशी : (मिस्टर वर्मा की दृष्टि को भरसक बचा कर) यदि मैं मिस्टर वर्मा को अप्रतिभ नहीं कर रही हूँ तो ऐसा ही प्रस्ताव उन्होंने मेरे साथ भी किया था।

मिस्टर मोहन : (जैसे स्वप्न में भी इसके लिए प्रस्तुत न हों), तुम्हारे साथ, कब, कहाँ?

(मिस्टर वर्मा , असंबद्ध दूसरी ओर देखते हैं)

मिसेज जोशी : बहुत दिनों की बात है, ज्योती बीमार थे, पर हम लोगों ने आशा का पल्ला न छोड़ा था; पर मैं अजाने भावी वैधव्य के भय और आशंका से तिलमिला उठी थी। एक दिन साँझ को मैं ज्योती को दवा पिला कर बैठी ही थी कि मिस्टर वर्मा ने मुझसे यह प्रस्ताव किया कि मैं उनसे विवाह कर अपने आपको चिंतामुक्त कर सकती हूँ।

मिस्टर वर्मा : देखिए, आपने इसे अत्यंत भावुकता के साथ आनंद के सम्मुख रखा है। सत्य कुछ और ही है। बात यह है कि मैंने देखा, आपका नारी रूप उस समय विलीन हो रहा था। आपका अपना कोई पृथक व्यक्तित्व और अस्तित्व ही न था। मैंने आपको संपूर्ण बनाने का प्रस्ताव किया। मैंने क्या बुरा किया?

मिसेज जोशी : (उत्साह से) पर मैं ज्योती को प्यार करती थी।

मिस्टर वर्मा : पर उस समय एक चतुर और तत्पर नर्स उनके लिए आपसे अधिक महत्व रखती थी।

मिसेज जोशी : खैर, अब आप प्रतिभा से विवाह करना चाहते हैं?

मिस्टर वर्मा : (गंभीरता से) देखिए, मुझमें कुछ है नहीं। मैं कुछ दिनों का मेहमान हूँ। मेरी जमीन-जायदाद, रुपया-पैसा सब प्रतिभा का होगा, समाज में उसका एक विशिष्ट स्थान होगा, वह एक अनस्तित्व गृहिणी या माता नहीं, एक प्रतिष्ठित विधवा होगी। समाज से, जीवन से उसका सीधा संसर्ग होगा, क्योकि समाज में उसका एक अतीत होगा, लोग उसके पति को जानने के लिए उसे जानेंगे...

मिस्टर मोहन : पर क्या तुम समझते हो, प्रतिभा इसमें संतुष्ट रहेगी?

मिस्टर वर्मा : क्या तुम समझते हो, प्रतिभा एक माता या गृहिणी बनने में संतुष्ट रहेगी?

मिसेज जोशी : मातृत्व एक स्त्री का सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट रूप है।

मिस्टर वर्मा : मातृत्व एक पेशा है और आप या प्रतिभा की-सी स्त्री के लिए एक निकृष्ट पेशा है। मैं नहीं चाहता, प्रतिभा जीवन को समझने के लिए अपना शरीर और यौवन बेचे, मैं नहीं चाहता वह अपनी जीविका कमाने के लिए एक माता बने।

मिसेज जोशी : मैं तो वैधव्य को एक अपराध समझती हूँ।

मिस्टर वर्मा : क्योंकि आप स्वयं विधवा हैं और अपने स्वस्थ मन से वैधव्य लाभ नहीं किया है। क्षमा कीजिएगा, क्या आप समझती हैं कि आपका जीवन इतना ही उपादेय और सार्थक होता यदि आज मेरे मित्र मि. ज्योती वल्लभ जोशी जीवित होते और आप एक दर्जन बच्चों की माता, नानी और दादी होतीं...

(एक देवदूत के समान प्रतिभा का प्रवेश)

प्रतिभा : (इठला कर) चलिए, चाय तो आप लोगों ने मिट्टी कर दी। उठिए पापा, आप तो सो रहे हैं।

मिस्टर मोहन : (जैसे वास्तव में स्वप्न से जगे हों) महेंद्र का इंतजार है। महेंद्र से तूने कह दिया था। सबेरे तूने चाय के लिए नहीं कहा, वह रूठ के चला गया।

प्रतिभा : महेंद्र कब से मेरे कमरे में बैठा है पापा! मेरी सब चीजें तितर-बितर कर दीं।

मिसेज जोशी : हाँ, महेंद्र तो मुझसे पहले चल दिया था।

मिस्टर वर्मा : (मनोगत विचारों को सहसा दबा कर) प्रतिभा, तुझे अपनी माता की याद है?

प्रतिभा : (किंचित झेंप कर) कुछ-कुछ।

मिस्टर वर्मा : बिलकुल तेरी ही तरह थी, पर मेरी खातिर तुझसे अधिक करती थी।

मिस्टर मोहन : (झेंप कर) अच्छा, बातों से पेट भरेगा नहीं।

(सबसे आगे मिसेज जोशी और पीछे अन्य लोग भीतर चले जाते हैं। केवल प्रतिभा रह जाती है , जो गुलदाउदी के एक बड़े-से पूर्ण विकसित फूल में अपना मुँह दबा देती है। भीतर से एक व्यस्त आवाज आती है : '' प्रतिभा! '' प्रतिभा त्रस्त-सी भीतर चली जाती है।)



दूसरा दृश्य

(खाने का कमरा पश्चिमी ढंग से सजा। दीवार पर फूलों और फूलों के रंगीन चित्र। एक सुनहरा चित्र अवध के विलासी नवाब वाजिद अली शाह का। बीच में एक गोल मे़ज जिसके चारों ओर चार कुर्सियाँ और एक स्टूल। कमरा छोटा , जो बड़ी-बड़ी आलमारियों से और भी छोटा हो गया है। एक कुर्सी पर बाईस वर्ष का स्वस्थ नवयुवक खाकी नेकर और रंगीन पुलोवर पहने कार्य को व्यस्त चला रहा है)

मिस्टर मोहन : जाए तंगमस्त मर्दुमा बिसियार (जगह कम और लोग ज्यादा), अच्छा, मैं बाद को खा लूँगा)

नवयुवक : (त्रस्त-सा उठ कर) मुझे तनिक भी भूख नहीं है।

प्रतिभा : टॉफी! मेरा सारा टॉफी का डिब्बा खत्म कर दिया है।

मिसेज जोशी : (हँस कर) क्यों महेंद्र, घर पर तो 'टॉफी कृत्रिम भोजन है।'

महेंद्र : किसकी बात का विश्वास करती हैं आप। अभी, सबेरे से शाम तक सारी चट कर गईं और मेरा नाम लगा दिया। भला इतनी मैं कैसे खा पाता?

प्रतिभा : (बढ़ कर) और जेबें वे... और जेबें जो भरी हैं।

मिस्टर मोहन : अच्छा, तुम दोनों बाद को खाना। जाओ, खाना लगाने को कहो। चलो महेंद्र भूखे होंगे तो नियत लगेगी।

प्रतिभा : (पुलकित स्वर में) मैं कसम खाके कहती हूँ, मैं भूखी हूँ पापा।

मिस्टर मोहन : अच्छा! अच्छा!

(दोनों बाहर चले जाते हैं। एक कमरा , दीवारें सादे कागज से मढ़ी , कुछ सोफे अस्त-व्यस्त पड़े हैं। जमीन पर एक शीतलपाटी बिछी है जिस पर कुछ पुस्तकें और कागजात अस्त- व्यस्त पड़े हैं। प्रतिभा एक सोफे पर बैठ जाती है। महेंद्र यह देख कर कि खाने के कमरे में दिखाई नहीं देता , उसके चरणों के पास बैठना चाहता है)

प्रतिभा : (उसे उठा कर धीरे से) उठो, यही तो मुझे अच्छा नहीं लगता।

महेंद्र : क्या प्रतिभा? तुमने मेरा हृदय तोड़ दिया।

प्रतिभा : देखो महेंद्र, हृदय तो टूटने के लिए ही बने हैं। मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी तो यही है कि हमारे हृदय नहीं टूटते, पर तुम कितने नासमझ हो महेंद्र!

महेंद्र : मेरी सोने की लंका राख हो गई। तुम उपदेश दे रही हो निर्दय!

प्रतिभा : फिर वही, लंका यदि जल न गई होती तो उसे कोई सोने की क्यों कहता...

महेंद्र : तुम साफ कह दो, तुम मुझे प्रेम नहीं करती।

प्रतिभा : हाँ, यह हुई बात एक प्रेमी के समान, पर यह मैं कैसे कह दूँ?

महेंद्र : फिर तुम मुझसे विवाह क्यों नहीं करती?

प्रतिभा : (विकल हो कर) क्यों मुँह फोड़ कर कहलवाते हो? मैं तुम्हें प्रेम करती हूँ।

(प्रतिभा और महेंद्र दोनों चुप रहते हैं)

प्रतिभा : तनिक स्वस्थ मन से विचारो, विवाह करने के पश्चात हम दोनों एक-दूसरे को उसके निकृष्ट से निकृष्ट अवसर पर देखेंगे। हमारे बीच में जो विस्मय, जो सरस कुतूहल है, जो कल्पना है, एक ही दो वर्ष में उड़ जाएगी। तुम तनिक- तनिक-सी बात में मुझसे खीजोगे, क्योंकि हममें से कोई एक-दूसरे के लिए न्याय न कर सकेगा।

महेंद्र : तुम मुझे प्रेम ही नहीं करती।

प्रतिभा : अच्छा, मैंने महेंद्र नाम के नटखट लड़के को न कभी प्रेम किया, न करती हूँ और न करूँगी। केवल टॉफी चुराने के अपराध में पुलिस में न दूँगी।

महेंद्र : (निःश्वास ले कर) हँस लो प्रतिभा।

प्रतिभा : (नेत्रों में एक विशेष चमक के साथ) देखो, बिना विवाह किए हुए भी तो हम एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं।

महेंद्र : कैसे?

प्रतिभा : मैं तुम्हें अपना योग्य पुत्र बना लूँ।

महेंद्र : धत! (हँसने की चेष्टा करता है)

प्रतिभा : अच्छा, तुम मेरे भाई हुए। हुई न फैशनेबुल बात (दुलरा कर) मेरा भैया!

महेंद्र : देखो प्रतिभा, भाई-बहन का नाता कहने में तो बड़ा सुंदर लगता है, पर इससे शिथिल नाता कोई संसार में होगा भी नहीं...

प्रतिभा : लोलुप शायलॉक, तुम मेरे सब कुछ हो पति के अतिरिक्त, जाओ ब्लैंक चेक देती हूँ।

महेंद्र : पर प्रतिभा, तुम विवाह क्या सचमुच मिस्टर वर्मा से करोगी?

प्रतिभा : (आँखों में आभा भर कर) हाँ।

(महेंद्र दूसरी ओर अन्यमनस्क देखता है और प्रतिभा की अँगुलियों से खेलता है। द्वार से मिस्टर वर्मा का प्रवेश। दोनों अचकचा के उठ खड़े होते हैं। मि. वर्मा उनकी ओर वात्सल्य से देखते हैं)

                                                                                ---भुवनेश्वर---

वह सपने बेचता था

 कुछ वर्षों बाद जब प्रीप्रेस इंडिया लि. में कोई दूसरा मैनेजर पीटर की पर्सनल फाइल देखेगा तो उसे यह पता भी नहीं चलेगा कि पीटर ने यह इस्तीफा स्वेच्छा से नहीं लिखा था... कि परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया था उसे इस्तीफा देने को।

पीटर जब प्रीप्रेस इंडिया लि. से बाहर आया, उसकी जेब में तीन महीनों की तनख्वाह थी, कंधे पर डीके के आगे न झुकनेवाला सिर था और मन में एक हल्की-सी निराशा कि वह एक बार फिर असफल रहा। पिछली कंपनी में हुई हड़ताल, पैर टूटने के बावजूद बैसाखियों के सहारे दौड़ता उसका उत्साह, अन्याय के खिलाफ धमनियों में दौड़ता आक्रोश और उसके भी पहले छत्तीसगढ़ की जन-जातियों के बीच एक टूटी-सी साइकिल पर मीलों की संघर्ष-यात्रा की स्मृतियाँ और ऐसे ही कई अन्य दृश्य उसकी आँखों में उतर आए थे।

वह आगे बढ़ना चाहता था लेकिन उसके विखंडित स्वप्न जैसे उसके कदमों को पीछे धकेल रहे थे। वह परेशान था, उसकी चाल कभी इतनी मद्धम नहीं हुई, उन दिनों भी नहीं जब अभाव और संघर्ष के बीच उसे कई-कई दिन बीड़ी और काली चाय के सहारे निकालने पड़ते थे। वो सपनों के दिन थे, सपने सिरजने के दिन थे। अँधेरा चाहे लाख गहरा हो, मार्क्स की बूढ़ी आँखों में चमकती जवान रोशनी उसका रास्ता दिखाती थी। लेकिन आज जब दिल्ली जैसे शहर में दो कमरों का अपना फ्लैट है, सरकारी नौकरी करनेवाली बीवी है, पुरानी ही सही लेकिन अपनी गाड़ी है तो फिर उसकी चाल इतनी मद्धम क्यों... तो क्या सिर्फ एक नौकरी छूटने की पीड़ा ने उसे इतना कमजोर बना दिया है... नहीं, उसके सपने मरे नहीं, अब भी जिंदा हैं। वह अपनी लड़ाई जारी रखेगा। इस रास्ते नहीं, किसी और रास्ते सही, उसे उसके सपनों की मंजिल जरूर मिलेगी। उसे किसी कविता की पंक्ति याद हो आई - 'अँधेरा यदि और गहरा हो गया है तो समझो सुबह आने ही वाली है।'

आशा-निराशा और सपनों-संकल्पों की धूपछाँही स्मृतियों से खेलता-जूझता वह दिलशाद गार्डेन जानेवाली बस में अभी बैठा ही था कि उसका मोबाइल बज उठा - 'कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नयना, मेरे नयना मेरे नयना मेरे नयन में छुप के रहना।'

'डोंट वरी, दिस इज नॉट द एंड आफ लाइफ। अ न्यू मार्निंग इज वेटिंग फॉर यू एंड आइ नो, यू विल विन द बैट्ल। और हाँ, आई विल कॉल यू लेट इवनिंग।' उधर नीलिमा थी।

पीटर के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण था। खासकर लड़कियाँ उस तक खिंची चली आती थीं। लेकिन नीलिमा आम लड़कियों से भिन्न थी। पीटर को अच्छा लगता था कि वह उसकी आभा से चौंधियाई कोई गूँगी गुड़िया नहीं थी। वह नए समय की नई लड़की थी... उसके अपने सपने थे और उन सपनों के पक्ष में उसके अपने तर्क। सामाजिक-आर्थिक बदलावों के पर्फ्यूम से महकती नीलिमा पीटर को रोज एक नई बहस के लिए आमंत्रित करती थी। दिलचस्प तो यह था कि हर बहस के बाद दोनों अपने भीतर अपने-अपने तर्कों का दरकना महसूस करते थे, लेकिन अगले दिन वे फिर अपनी उन्हीं जिदों के साथ टकराते थे। नीलिमा कविताएँ लिखने लगी थी और पीटर को अपनी कहानियों के लिए एक नई तरह का पात्र मिल गया था।

मोबाइल जेब में रखते हुए पीटर को यह पता था कि लेट इवनिंग नीलिमा उससे क्या कहनेवाली है... अब तक वह उसके जिन तर्कों को खारिज करता रहा है, पता नहीं क्यों वही उसे अभी भले लग रहे हैं... 'मैनेजमेंट एक साइंस है, एक टूल, एक औजार जो यह बताता है कि अवेलेबल रिसोर्सेस का आप्टिमम यूटिलाइजेशन कैसे हो सकता है... और यही तो सीखना है हमें ताकि दुनिया और बेहतर हो सके।' शब्द-दर-शब्द नीलिमा उसके जेहन में उतरने लगती है - 'जब तक तुम यह तकनीक नहीं सीख लेते, तुम्हारी लड़ाई अधूरी रहेगी। एक तरफ अस्त्र-शस्त्र से लैस पूँजी और दूसरी तरफ निहत्थे तुम ...लड़ाइयाँ सिर्फ विचारों के बल पर नहीं जीती जातीं ...विचारों के साथ अपने विरोधियों की तैयारी का भी ज्ञान होना जरूरी है। मैं तुम्हें मैनेजमेंट ऐज ए साइंस, ऐज ए डिसिप्लीन पढ़ने को कह रही हूँ, ताकि तुम पूँजी की चाल को न सिर्फ समझ सको बल्कि उसके विरुद्ध एक आधुनिक और बराबरी की लड़ाई की स्ट्रेटजी भी तय कर सको...'

उसे लगा नीलिमा ठीक कहती है। वह अब तक इसलिए हारता रहा है कि उसने अपने सीमित संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं किया... कि उसकी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत कम आवश्यक कामों में ज्यादा लगता है। लेट इवनिंग जब नीलिमा ने फोन किया उसे कुछ समझाने-कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पीटर की आवाज में एक नई चमक थी - 'कल हम अमेटी बिजनेस स्कूल चल रहे हैं... एंड वी बोथ विल ज्वाइन एमबीए।' नीलिमा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उसने सोचा यदि नौकरी छोड़ने के बाद ही उसकी बुद्धि खुलनी थी तो उसे बहुत पहले नौकरी छोड़ देनी चाहिए थी।

कामरेड मित्रों के सहयोग से किसी तरह ग्रैजुएशन पास किए पीटर के लिए एमबीए की नई दुनिया किसी जादुई लोक से कम नहीं थी। लेक्चर, असाइनमेंट, प्रजेंटेशन, सर्वे, केस स्टडी जैसी नई चीजें और इन सब में नीलिमा के सहयोग की ऊष्मा... पीटर एक जबर्दस्त परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। यह उन्हीं दिनों की बात है। मैं दफ्तर से पहुँचा ही था कि पीटर का फोन आया।

'आइ वांट टू कम टू यू -'

'आपका घर है, जब जी चाहे आ जाइए।'

'ठीक है, तो आज शाम ही। आप ऑफिस से कब लौट आते हैं?'

'छह बजे तक पहुँच जाता हूँ। आप साढ़े छह बजे के बाद किसी भी समय आ सकते हैं।'

पीटर ने मेरी घड़ी से अपनी घड़ी मिला ली।

शाम को मेरी घड़ी में साढ़े छह बजा और पीटर ने डोर वेल बजाई। क्षण भर को तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया। मैं पहली बार उसे बिना दाढ़ी के देख रहा था। उसने टाई भी बाँध रखी थी। साथ में नीलिमा भी थी। हालाँकि इसमें परेशान होने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन उसका बदला हुलिया रह-रह कर मुझे विचलित कर रहा था।

'बहुत दिनों बाद मेरी याद आई। आप तो बिल्कुल भूल ही गए हैं मुझे। कभी कोई फोन-वोन भी नहीं।'

'यार, एमबीए ने जान ले रखी है और फिर आजकल समर ट्रेनिंग भी चल रही है, बिल्कुल वक्त नहीं मिलता।'

'समर ट्रेनिंग कहाँ कर रहे हैं?'

'आईसीआईसीआई प्रुडेंसियल में। दरअसल इसी क्रम में आज मैं वहाँ के प्रोडक्ट्स की स्टडी कर रहा था और मेरी नजर एक ऐसे प्रोडक्ट पर गई जो आपको बहुत सूट करता है। बस आपकी याद हो आई और मैं नॉस्टालजिक हो गया। सोचा क्यूँ न आप से मिल लूँ और इसी बहाने आपको इस प्रोडक्ट के बारे में भी बता दूँगा।' पीटर बिना मुझे मौका दिए लगातार बोले जा रहा था। 'दरअसल यह पॉलिसी उन लोगों के लिए बेहद फायदेमंद हैं जिनकी छोटी बेटी है। इसमें आपको हर पाँचवें वर्ष आपको इन्श्योर्ड अमाउंट का 25% वापस मिल जाता है। यानी स्कूल में नाम लिखवाने, बोर्ड की परीक्षा देने या फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू करने आदि खर्चों के लिए अलग से चिंता करने की जरूरत नहीं... और फिर पच्चीसवें वर्ष में मैच्योरिटी पर बोनस अलग से यानी कि बेटी की शादी की चिंता से भी आज ही मुक्ति। मुझे तो लगता है हर उस आदमी को जिसकी बेटी दो-एक साल की है, यह पॉलिसी जरूर लेनी चाहिए। कल ही मैंने जयराज को भी इसके बारे में बताया, वह भी लेना चाहता है इसे। और हाँ, सेक्शन 80ब के तहत इनकम टैक्स में भी इस निवेश पर छूट मिलती है।

एक कंप्लीट मार्केटिंग प्रोफेशनल की तरह अपने प्रोडक्ट सेलिंग स्किल का प्रदर्शन करते पीटर का चेहरा मुझे अनचीन्हा लग रहा था। मैं उसके चेहरे में उस पीटर को तलाशने की कोशिश कर रहा था जिसे मैं जानता था। मुझे लगा उसके चेहरे पर फिर से दाढ़ी उग आई है। दाढ़ी, लेकिन बेतरतीब नहीं, करीने से तराशी हुई। प्रीप्रेस इंडिया से लौटते हुए किसी शाम वह हमारे कमरे पर आ गया है। वह चाय में दूध डालने से मना कर रहा है - 'साथी, चाय बिना दूध की बनाना। काली चाय पीते हुए मुँह में पुराने दिनों की मिठास घुल जाती है...' और फिर वह कहानियाँ सुना रहा है उन दिनों की जब वह सीपीआइ एमएल का होलटाइमर हुआ करता था। उसके सपने लगातार उसकी आँखों में तैर रहे हैं... संघर्ष उसके चेहरे का नूर बन गया है और उसकी दाढ़ी का रेशा-रेशा जैसे क्रांति का परचम हुआ जा रहा है... साथी, आपने चाय बिल्कुल वैसी ही बनाई है, बस बीड़ी की कमी है। ऐसी ही चाय और बीड़ी के सहारे हमने कई सर्द रातें बिताई हैं। छत्तीसगढ़ के जंगलों में कई बार सर्द रातों की लंबाई छोटी करने और उसमें एक गर्माहट पैदा करने के लिए हम समवेत स्वर में गीत गाते थे। दरअसल ये गीत हमारी आत्मा में रच-बस गए थे... क्या नहीं था इन गीतों में... संघर्ष की जिजीविषा, जख्म के लिए मरहम और कल के लिए सपने... और पीटर की बुलंद आवाज मेरे कमरे में गूँज रही है- 'ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गाँव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के...

कि तभी नीलिमा की आवाज ने मुझे वर्तमान में ला पटका - 'वी विलीव दिस पॉलिसी इज मेड फॉर यू एंड यू मस्ट टेक इट...' अतीत से वर्तमान में लौटते हुए मैं सकपका-सा गया था, मैंने तो इनकी बात ठीक से सुनी ही नहीं... मैंने किसी तरह खुद को उनसे जोड़ने की कोशिश की - 'इसमें इंश्योरेंस की रकम कितनी है और वह कब मिलेगी?'

कमान फिर से पीटर के हाथ में थी, 'इन फैक्ट जब तक बच्ची आठ साल की नहीं हो जाती इसमें कोई इंश्योरेंस नहीं होता, आप इसे इंश्योरेंस नहीं इनवेस्टमेंट की तरह लीलिए।'

'यदि इस बीच कुछ हुआ तो?' मैंने धीरे से सोफे के हत्थे को छू लिया था।

दोनों चुप रहे। मुझे जैसे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता मिल गया था।

'आप लोग चाय भी तो पीजिए, ठंडी हो जाएगी।' मेरी पत्नी ने पूरी बातचीत में पहली बार कुछ बोला था।

मेरे सवाल ने जैसे उन दोनों के उत्साह पर पानी फेर दिया था। फिर भी पीटर ने नई बात छेड़ी, 'हाऊ ओल्ड योर फादर इज?'

'फिफ्टी प्लस'

'उनकी इनकम?'

'मुझे पूछना होगा।'

'तो आप पूछ कर मुझे फोन कीजिएगा। मैं उनके लिए कोई अच्छी पॉलिसी बताऊँगा। प्रीमियम की रकम थोड़ी ज्यादा होगी लेकिन वह रिस्क कवर करेगा।'

चाय खत्म करते ही दोनों चले गए थे। टैक्स सेविंग, फिर बेटी की पढ़ाई... शादी और अब पिताजी का बीमा... मैं देर तक सोचता रहा पीटर मुझसे मिलने आया था या फिर मुझसे बिजनेस लेने?

पीटर अपने पीछे यादों की पुरानी किताब छोड़ गया था। मैं देर तक उसके पन्ने पलटता रहा, दृश्य मेरी आँखों के आगे बिनते-बिगड़ते रहे, लगातार... एक दृश्य के आगे ठिठका हूँ मैं... मैंने प्रीप्रेस इंडिया छोड़ने का मन बना लिया है। नेहरू प्लेस जा कर कुछ कॉसलटेंट्स को बायोडाटा भी दे आया हूँ। आज मेरा जन्म दिन है। पीटर ने मुझे 'सहमत' का एक खूबसूरत कार्ड दिया है जिस पर पाश की कविता छपी है -

'सबसे खतरनाक होता है

मुर्दा शांति से भर जाना

न होना तड़प का सब सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौट कर घर जाना

सबसे खतरनाक होता है

सपनों का मर जाना...'

कार्ड की दूसरी तरफ की खाली जगह पर पीटर ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में लिखा है - 'साथी, भागो मत, भागना समस्या का समाधान नहीं होता। हमें लड़ना है अपने सपनों के लिए, अपने आनेवाले कल के लिए।' पीटर चाहता था मैं प्रीप्रेस इंडिया में ही रहूँ। हम मिल कर मैनेजमेंट की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाएँ... आखिर हम कितनी नौकरी बदलेंगे, हर जगह कोई नया मैनेजर, नया बॉस अपने मालिक की दलाली करता मिलेगा।

पीटर के दो चेहरे - एक वह जो सपनों की रक्षा के लिए संघर्ष के जज्बे से लबरेज था और एक यह जो आज शाम मिलने के बहाने पॉलिसी बेचना चाहता था बारी-बारी से मेरे दिमाग में आते-जाते रहे। मैं जितना ही उससे बाहर निकलना चाहता उतना ही भीतर धँसता जा रहा था।

रात को लगभग एक बजे मीरा का फोन आया। वह काफी घबराई हुई थी। 'पीटर अभी तक घर नहीं लौटा। उसने कहा था कि आज वह आपके घर जाएगा।'

'हाँ आया था वह शाम को। साथ में नीलिमा भी थी। लेकिन दोनों चले गए थे आठ बजे के आस-पास।'

'पता नहीं क्यों उसका मोबाइल भी ऑफ है।'

'नीलिमा का नंबर ट्राई किया?'

'हाँ, वह भी ऑफ है।'

'मैं अभी पता कर के बताता हूँ।'

दोनों के मोबाइल ऑफ थे। लेकिन लैंड लाइन नीलिमा ने पिक-अप किया।

'पीटर है?'

'हाँ।'

'उससे बात करा दो। वह घर क्यों नहीं गया? मीरा परेशान हो रही है।'

'प्रोजेक्ट बनाते हुए देर हो गई थी। इतनी देर से बस तो मिलती नहीं सो यहीं रह गया।'

'कम से कम फोन तो करना चाहिए था मीरा को। उसे फोन दो प्लीज...'

'अभी थोड़ी ही देर पहले सोया है... मुझे भी नींद आ रही है। इफ यू डोंट माइंड, सुबह में बात करें...?' और नीलिमा ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।

मुझे पीटर पर गुस्सा आ रहा था। वह इतना लापरवाह कैसे हो सकता है, वह भी मीरा के प्रति, जिसके साथ रहने के लिए उसने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी थी। उस दिन ऑफिस से लौटते हुए खुद पीटर ने ही तो सुनाई थी यह कहानी - 'जब मैंने मीरा से शादी की... पार्टी के भीतर हड़कंप मच गया था। एक होलटाइमर पार्टी से बाहर की लड़की से शादी कैसे कर सकता था। उसके लिए जैसे फरमान जारी हो गया था - 'मीरा को भी पार्टी ज्वाइन करनी होगी। यदि वह नहीं समझा सकता मीरा को तो, पार्टी के कामरेड मदद कर सकते हैं इसमें उसकी। लेकिन मीरा को हर हाल में पार्टी में आना होगा।' उसे समझाने-बुझाने के बहाने कामरेड्स अब पीटर के घर आने-जाने लगे थे और उसमें से कइयों की नजर मीरा की सुंदरता पर भी पड़ने लगी थी। पीटर वर्षों से होलटाइमर था। उस जिंदगी की हकीकत उससे ज्यादा कौन जानता... न रहने का ठिकाना... न खाने-पीने की सुध... कई बार जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं होती और फिर मीरा क्या करेगी यह निर्णय लेनेवाला वह कौन होता है। पार्टी के निर्देशों की अवहेलना पीटर को महँगी पड़ने लगी थी। तमाम निष्ठा, लगन और प्रतिबद्धताओं के बावजूद वह उपेक्षाओं, लांछनाओं से घिरने लगा था और उस दिन तो हद ही हो गई जब मीरा को कन्विंस करने आए कुछ कामरेड उससे पीने की जबर्दस्ती करने लगे थे। यही वह दिन था जब न चाहते हुए भी पीटर ने जीवन भर होलटाइमर रहने का अपना निर्णय बदल दिया था और दिल्ली चला आया था मीरा के साथ एक नया जीवन शुरू करने।

पीटर भले ही होलटाइमर न रह गया हो लेकिन दूसरों के आँसू और पसीने में बसा नमक अब भी उसकी आँखों में खारापन घोल देता था। लेकिन आज मीरा के साथ उसकी बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया था। मुझे लगा सब ठीक कहते हैं नीलिमा ने पीटर पर जादू ही कर दिया है।

इस बीच मैंने प्रीप्रेस इंडिया की नौकरी छोड़ दी थी और अपनी नई नौकरी के लिए मुझे पुणे जाना था। उधर पीटर का एमबीए पूरा हो चुका था और वह नीलिमा के साथ मिल कर एक कंपनी शुरू करने की योजना बना रहा था। मेरी नई नौकरी और उनकी नई डिग्री के सेलीब्रेशन की यह संयुक्त शाम थी।

'हमारी कंपनी एक सामान्य प्लेसमेंट एजेंसी नहीं होगी। वी विल प्रोवाइड अ कंप्लीट एच आर सॉल्यूशन टू द कारपोरेट वर्ल्ड। और हाँ, हमारा फोकस ट्रेनिंग पर होगा।'

कारपोरेट ट्रेनिंग की बात सुन कर मुझे प्रीप्रेस इंडिया के जनरल मैनेजर तलवार के ऑफिस में लगे मैनेजमेंट गुरू शिव खेड़ा के एक बहुप्रचारित पोस्टर की याद हो आई जिस पर लिखा था - 'विनर्स डोंट डू डिफरेंट थिंग्स दे डू द थिंग्स डिफरेंटली।' मुझे लगा पीटर के चेहरे पर किसी संभावित विनर की चमक चढ़ गई है।

'लेकिन पीटर, आपको नहीं लगता कि इस तरह आपकी कंपनी उन्हीं लोगों को मजबूत करेगी जिनके खिलाफ आप वर्षों से संघर्ष करते रहे हैं।'

'आई एप्रिसिएट योर कन्सर्नस। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं तलवार और डीके तो कतई नहीं हो सकता। मैंने वर्षों ऐसे बॉस और मैनेजर्स देखे हैं। मैं एक बेहतर और जनतांत्रिक मैनेजर बन कर दिखाऊँगा। मैंने तो सिर्फ माध्यम बदला है, मेरे सपने अब भी वही हैं।'

'विश यू आल द बेस्ट।' मैंने मन ही मन सोचा रातोंरात इस पार से उस पार खड़े हो जाने की अपनी महत्वकांक्षा को भी पीटर उन्हीं सपनों के चमचमाते रैपर में लपेट सकता है। मुझे लगा यह पीटर नहीं उसके अंदर का न्यूली ट्रेंड मार्केटिंग मैनेजर बोल रहा था।

चलते-चलते पीटर ने कहा - 'साथी, जब आपकी जरूरत के दिन आए... आप दिल्ली छोड़ रहे हैं। यही तो समय था जब आपके सीए होने का लाभ हमारी कंपनी को मिलता।'

'दिल्ली ही छोड़ रहा हूँ न, दिल से तो दूर नहीं जा रहा। जब कभी मेरी जरूरत हो, मुझसे निःसंकोच कहिएगा।'

मैं पुणे में रम गया था और इधर पीटर और नीलिमा कंप्लीट हयूमन रिसोर्स सोल्यूशन लि. यानी सीएचआरएसएल के फाउंडिग डायरेक्टर्स बन गए थे। नीलिमा के भाई ने, जो साफ्टवेयर इंजीनियर था और आइबीएम, अमेरिका में नौकरी करता था, न सिर्फ इस नई कंपनी के लिए वेबसाइट डेवलप किया बल्कि नीलिमा को जरूरी पूँजी भी मुहैया कराई। पीटर ने अपना हिस्सा प्राविडेंट फंड में अब तक की संचित राशि से पूरा किया था।

सीएचआरएसएल के शुरुआती दिन बड़े कठिन थे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के डायरेक्टर्स और वाइस-प्रेसिडेंट्स मिलने का समय तो किसी तरह दे देते लेकिन बिजनेस देने के नाम पर पीछे हट जाते थे। शिव खेड़ा और अरिंदम चौधरी जैसे मैनेजमेंट गुरुओं के जमे-जमाए बाजार में पीटर और नीलिमा के लिए घुसना इतना आसान नहीं था। दसवीं कंपनी से लगातार खाली हाथ लौट कर आने के बाद उस शाम पीटर और नीलिमा ने एमबीए में पढ़ाई गई प्रॉब्लम सॉल्यूशन टेकनीक का व्यावहारिक इस्तेमाल किया। रूट कॉज एनालिसिस की और इस नतीजे पर पहुँचे कि अब से क्लाइंट्स से मिलने नीलिमा अकेली जाएगी। मतलब यह कि फ्रंट इंटरफेस नीलिमा और बैक एंड फैसिलीटेटर पीटर। उस दिन पीटर को यह भी समझ में आ गया कि डीके ने कस्टमर केयर डिपार्टमेंट में सिर्फ लड़कियों की भर्ती क्यों की थी। 'राइट मैन टू राइट जॉब' का यह फार्मूला सीएचआरएसएल के लिए चल निकला था। क्लाइंट्स मिलने लगे थे। नीलिमा बिजनेस लाती और पीटर अपनी वक्तृत्व कला से क्लास में समाँ बाँध लेता...

बहुत दिनों के बाद एक शाम अचानक नीलिमा का फोन आया -

'हाय! हाउ आर यू?'

'फाइन। बट यू पीपल हैव कंप्लीटली फॉरगॉटेन मी। नो फोन... नो मेल... नथिंग।'

'नो, नॉट एट आल। हाऊ कैन इट बी। मैंने तो आज फोन भी कर लिया लेकिन आप... खैर, अच्छा लगा कि आप हमें इस लायक समझते है कि हमसे शिकायत कर सकें। पीटर आप से बात करेगा।'

दुआ-सलाम के बाद पीटर ने कहा - 'वी नीड योर हेल्प। एक तो यह कि मुझे एक पार्टटाइम एकाउंटेंट चाहिए, कारण कि फुलटाइम न तो हम अफोर्ड कर सकते हैं और ना ही हमारे पास उतना काम है। आपका कोई दोस्त या परिचित होगा दिल्ली में... प्लीज यू सेंड हिम टू मी। और दूसरी बात यह कि एक एमएनसी में हमें 'फाइनान्स फॉर नॉन-फाइनान्स मैनेजर्स' की ट्रेनिंग का असाइनमेंट मिला है। आइ नो यू आर द बेस्ट मैन टू टीच फाइनान्स विदिन आवर रीच।'

'अकाउंटेंट तो मैं दे दूँगा। रही बात ट्रेनिंग की तो मै सोच कर बताऊँगा।

'सोचना क्या है इसमें? यू विल हैव टू कम। आप पर इतना अधिकार तो है ही हमारा। और हाँ, वी विल ट्राइ आवर बेस्ट टू कांपनसेट फॉर दैट... बाइ द वे, कैन यू लेट मी नो अबाउट योर एक्सपेक्टेशन?'

पीटर और मेरे संबंध दोस्ताना थे। इसमें व्यावसायिकता का नामोनिशान नहीं था। मैं असहज हो गया... 'पीटर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। इन फैक्ट इट विल टेक टाइम टू डेवलप स्टडी मेटीरियल एंड प्रेजेटेशन्स।'

'डोंट वरी, वी हैव एनफ टाइम। इट विल वी समव्हेयर इन नेक्सेट मंथ। सो स्टार्ट योर प्रेपरेशंस एंड आइ विल राइट यू ए मेल अबाउट द शेड्यूल विदिन ए डे ऑर टू।' पीटर ने मुझे कुछ कहने-सुनने का मौका नहीं दिया था। उसने खुद ही प्रस्ताव रखा और खुद ही उसकी स्वीकृति ले ली थी।

अगले ही दिन सीएचआरएसएल के अकाउंट से मेरे नाम एक मेल आया था। अगले महीने के सेकेंड सैटरडे को ट्रेनिंग की तारीख पक्की हो गई थी। उसमें यह भी लिखा गया था कि मैं एसी थ्री की टिकट बुक करा लूँ, जिसका भुगतान सीएचआरएसएल करेगी और इसके अतिरिक्त मुझे पाँच हजार रुपए बतौर टोकन मनी भी दिया जाएगा। गो कि यह रकम मेरी मेहनत और मेधा के हिसाब से उन्हें बहुत कम लग रही थी लेकिन इसे एक शुरुआत भर मानने का आग्रह था और इस बात की उम्मीद जताई गई थी कि आगे और असाइन्मेंट मिलेंगे, यह तो महज एक पाइलट प्रोजेक्ट है। मेल के अंत में नीलिमा का दस्तखत था।

नीलिमा के मेल का बेहद संक्षिप्त जवाब लिखते हुए मेरी उँगलियाँ काँपी थीं 'कहीं यह हमारे रिश्ते के अंत की शुरुआत तो नहीं है?'

दिन में ऑफिस और रात में ट्रेनिंग मेटीरियल और प्रेजेंटेशन की तैयारी, मेरी तो जैसे जान ही निकल गई थी। खैर, मैंने पूरी मेहनत से सब कुछ तैयार किया और पीटर के कहे अनुसार ट्रेनिंग से एक सप्ताह पूर्व उसे मेल कर दिया ताकि वह उसे एक प्रजेंटेबल ले आउट में ढाल कर सारे पार्टिसिपेंट्स के लिए प्रिंट आउट ले सके।

मैं अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार रेलवे स्टेशन से सीधे पीटर के दफ्तर आ गया था। ऑफिस छोटा लेकिन निहायत ही खूबसूरत था। वहाँ की आंतरिक सज्जा में पीटर के जनबोध और नीलिमा की आधुनिकता का एक अद्भुत फ्यूजन था। स्टडी मेटीरियल देख कर तबीयत प्रसन्न हो गई। इसे तैयार करते हुए मैंने इतने आकर्षक आवरण और खूबसूरत प्रिंटिंग, बाइंडिग की कल्पना भी नहीं की थी। मैंने उसे पलटना शुरू किया लेकिन अगले ही पल मेरा मन खट्टा हो गया। कॉपीराइट के आगे 'सीएचआरएसएल' लिखा हुआ था और वहाँ इस बात की सूचना भी छपी थी कि बिना 'सीएचआरएसएल' की लिखित अनुमति के इसका आंशिक या सम्पूर्ण उपयोग अवैध होगा। गो कि इस स्टडी मेटीरियल की मौलिकता का मेरा कोई दावा नहीं था, मैंने भी इसे कई किताबों, जर्नल्स और वेब साइट्स से ही कलेक्ट किया था लेकिन कापीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' मुझे लगातार खटक रहा था। मैंने इसे थूक की तरह गटक लिया। पता नहीं पीटर और नीलिमा ने मेरे चेहरे पर उग आई इस असहजता को पढ़ा या नहीं।

ट्रेनिंग के लिए गुड़गाँव जाना था और मैं पांडव नगर में अपने छोटे भाई के पास ठहरनेवाला था। तय हुआ कि वे दोनों सुबह साढ़े सात बजे अक्षरधाम मंदिर के पासवाले पेट्रोल पंप के अपोजिट, जहाँ समसपुर जागीर बस स्टैंड का बोर्ड लगा हुआ है, मुझे पिक करेंगे।

पीटर के हाथ में एक अतिरिक्त टाई थी जिस पर सीएचआरएसएल का लोगो प्रिंटेड था। वह पूरे रास्ते मुझसे टाई बाँधने को कहता रहा। लेकिन मैंने जैसे टाई न बाँधने की कसम खा रखी थी। मेरी आँखों में अब भी कॉपीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' घूम रहा था, और अब मैं उसे अपने गले से भी नहीं लटकाना चाहता था। पीटर कार्पोरेट कल्चर की दुहाई देता रहा और मैं टाई में असहज होने के बहाने बनाता रहा। हमारी इस बहस को ड्राइविंग सीट पर बैठी नीलिमा ने ही सम पर लाया था - 'पीटर, टाई लगा कर अनकांफर्टेबल होने और फिर परफार्मेंस खराब कर लेने से तो बेहतर है हम टाई के चक्कर में न पड़े। हाँ, अगली बार रजनीश पहले से टाई बाँधने का अभ्यास कर के आएँगे' और पीटर ने अपनी जिद छोड़ दी थी।

पीटर और नीलिमा के कहे अनुसार दुष्यंत के क्रांतिकारी और बशीर बद्र के रूमानी शे'रों की छौंक से मैंने फाइनान्स की नीरसता में भी एक नया रस घोल दिया था। पाइलट प्रोजेक्ट को आशा से ज्यादा सफलता मिली थी। पार्टिसिपेंट्स ने अपने फीड बैक में क्लास की परिकल्पना, प्रस्तुति और ट्रेनिंग मेटीरियल की उपयोगिता को ऐक्सीलेंट रेट किया था।

गुड़गाँव से लौटते हुए पीटर ने मुझे अपनी अंग्रेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद करने का भी प्रस्ताव दिया। वह उन्हें कोटेबल पंच लाइन्स की किताब की शक्ल में छाप कर कार्पोरेट जगत में एक नई शुरुआत करना चाहता था। अनुवाद के प्रस्ताव से मुझे उसकी कहानी 'ग्लोबल विलेज' की याद हो आई जिसमें उसने नई आर्थिक नीति के खतरों के विरुद्ध एक स्वप्नदर्शी प्रतिरोध दर्ज किया था। प्रीप्रेस इंडिया के दिनों में ही मैंने उसका हिंदी अनुवाद किया था जो बाद में 'हंस' में छपी भी थी। मुझे वो तमाम शामें याद आ रही थीं जब हम उस कहानी के अनुवाद के लिए साथ बैठते थे। अपनी कहानी का पैरा-दर-पैरा वह पहले मूल मलयालम में सुनाता था फिर अंग्रेजी में समझाता और तब जा कर मैं उसका हिंदी तर्जुमा करता था। हर शाम के अंत में वह अपनी पसंद की काली चाय पीता और कोई न कोई क्रांति गीत गाता था। तब उसके चेहरे पर संघर्ष की जबर्दस्त आभा चमकती थी। ऐसी ही किसी शाम मैंने पहली बार गोरख पांडे की वह रचना उससे सुनी थी -

'जनता की चले पलटनिया

हिल्ले ले झकझोर दुनिया

हिल्ले ले पहाड़वा रे

हिल्ले नदी-ताल वा

सागर में उठे हिलोर रे...'

...मुझे उसके सपनों की दुनिया बेतरह आकर्षित करती थी। तब वे अनुवाद मैंने अपनी पहल से किए थे, वह तो उन्हें बाहर लाना ही नहीं चाहता था। वही पीटर आज खुद से अपनी कविताओं के अनुवाद की बात कर रहा था। मैं बस हाँ-हूँ करता रहा, कोई अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखा सका।

पुणे पहुँच कर जब मैंने अपना ई मेल चेक किया तो उसमें एक मेल राजकुमार का भी था। राजकुमार मेरे दूर का रिश्तेदार है जिसे मैंने पीटर के पास पार्टटाइम एकाउंटेंट के रूप में भेजा था -

'मैंने पीटर का काम छोड़ दिया है। वह बहुत धूर्त आदमी है। शुरू में तो उसने कहा था कि अभी हमने कंपनी शुरू ही की है और लॉस में है इसलिए आपको कम तनख्वाह दे रहा हूँ, प्राफिट में आते ही तनख्वाह बढ़ा दूँगा। पिछले साल तो एक नंबर में भी प्राफिट हुआ है, फिर भी वह सैलरी नहीं बढ़ा रहा था। बातें तो बड़ी-बड़ी करता है कि आप हमारे इंप्लाई नहीं बिजनेस पार्टनर है और पैसा देने के नाम पर...'

मेल काफी लंबा था मैंने आगे बिना पढ़े ही उसे डिलीट कर दिया।

बहुत दिन हो गए पीटर से कोई बात नहीं हुई है। सुना है कि उसकी कंपनी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। अब तो उसने कई फील्ड में डाइवर्सीफाई कर लिया है... मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई है कि पिछले दिनों उसकी कंपनी ने जनवादी गीतों का एक कैसेट रिलीज किया है... इस कैसेट की चारों तरफ धूम है। आज एक बड़े न्यूज चैनल पर इस म्यूजिक अलबम के गायकों का इंटरव्यू भी आनेवाला है। मैं बहुत उत्साहित हूँ... पीटर के खिलाफ मेरी सारी शिकायतें भीतर ही भीतर घुल रही हैं... इन गायकों का इंटरव्यू अब शुरू ही होनेवाला है... लेकिन यह क्या, उलटी टोपी लगाए हाथ में गिटार लिए ये लड़के क्या गा रहे हैं... बोल तो पहचाने-से हैं लेकिन इसकी धुन मन को एक अजीब-सी कड़वाहट और पागल कर देनेवाले शोर से भर देती है - 'हिल्ले ले... हिल्ले ले... हिल्ले ले झकझोर दुनिया हिल्ले ले हिल्ले ले एशिया रे... हिल्ले अफरीकवा... हिल्ले रे लातिन अमरीकवा... हिल्ले रे...'

अब एंकर उनसे बातचीत कर रहा है - 'आपने जो गाना अभी गया है, इसके बारे में हमारे दर्शकों को कुछ बताएँ...'

'वैसे तो 'हिल्ले ले' अलबम के सारे गीत खास हैं लेकिन यह गीत इसलिए भी विशेष है कि इसमें नए समय की नई रफ्तार मौजूद है। इस गीत से यह पता चलता है कि ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में हमारे इंडिया ने अपने प्रोग्रेस से कैसे पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है...'

मैं अपना माथा ठोंक लेता हूँ... गोरख पांडे ने यदि तब आत्महत्या नहीं की होती तो आज इस इंटरव्यू को सुन कर जरूर कर लेते... एक बार फिर से मेरे भीतर पीटर के खिलाफ आक्रोश उमड़ने लगा है... मैं पूछना चाहता हूँ क्या यही थे वे सपने जिनका मरना सबसे खतरनाक होता है... लेकिन फोन नीलिमा ने उठाया है -

'पीटर अभी बिजी है। हमने 'हिल्ले ले' का जो आडियो अलबम लांच किया था उसे जबर्दस्त सक्सेस मिली है। नाउ वी हैव प्लैंड टू ब्रिंग इट्स विडियो टू। विदिन ए फ्यू मिनट्स वी आर गोइंग टू साइन ए कांट्रैक्ट विद मल्लिका सेहरावत फॉर द सेम। इस मीटिंग के बाद पीटर आप को फोन कर लेगा...'

मुझ में कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं रही, मैं फोन बीच में ही काट देता हूँ।

'हिल्ले ले' के गायकों का इंटरव्यू अब भी जारी है मैं टीवी ऑफ कर देता हूँ। वे सपने जो मैंने कभी पीटर की आँखों में देखे थे मेरा मुँह चिढ़ा रहे हैं...

                                                                               ---राकेश बिहारी---

एक लड़की पहेली सी

 पहली मुलाकात

टाइपिंग कोचिंग सेंटर में विजय का पहला दिन था। वह अपनी सीट पर बैठा टाइप सीखने के लिए नियमावली पुस्तिका पढ़ रहा था। तभी उसकी निगाह अपने केबिन के गेट की तरफ गई। गाय की आँख जैसी कजरारे नयनों वाली एक साँवली उसी केबिन में आ रही थी। वह देखता ही रह गया। लड़की उसकी बगल वाली सीट पर आ कर बैठ गई। टाइपराइटर को ठीक किया और टाइप करने में मशगूल हो गई। लेकिन विजय का मन टाइप करने में नहीं लगा। वह किसी भी हालत में लड़की से बातें करना चाह रहा था। वह टाइपराइटर पर कागज लगाकर बैठ गया और लड़की को निहारने लगा। लड़की की अँगुलियाँ टाइपराइटर के की-बोर्ड पर ऐसे पड़ रही थीं जैसे वह हारमोनियम बजा रही हो। थोड़ी देर बाद लड़की को विजय की इस हरकत का एहसास हुआ तो वह गुस्से में बोली।

क्या देख रहे हो?

आपको टाइप करते हुए देख रहा हूँ।

यहाँ क्या करने आए हो? उसका स्वर तल्ख था।

टाइप सीखने। बिल्कुल सहज जवाब था विजय का।

ऐसे सीखोगे? लड़की के स्वर में तल्खी बरकरार थी।

मेरा आज पहला दिन है न, इसलिए मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। आप टाइप कर रही थीं तो मैं देखने लगा कि आपकी अँगुलियाँ कैसे पड़ती हैं की-बोर्ड पर।

कैसे पड़ती हैं?

लगता है जैसे आप हारमोनियम बजा रही हों। आपको टाइप करते देखकर लगा कि मैं भी सीख जाऊँगा।

यदि इसी तरह मुझे ही देखते रहे तो आपकी यह मनोकामना कभी पूरी नहीं होगी।

लड़की फिर टाइप करने में जुट गई। विजय भी की-बोर्ड देखकर टाइप करने लगा। टाइप करने में उसका मन नहीं लग रहा था। वह बेचैनी महसूस कर रहा था। उसका मन लड़की को निहारने को ही कह रहा था। वह चोर निगाहों से उसे देख भी लेता। दस मिनट बाद ही उसने टाइपराइटर का रिबन फँसा दिया। वह उसे ठीक करने लगा पर ठीक नहीं कर पाया। हार कर बैठ गया।

क्या हुआ?

रिबन फँस गया।

रिबन तो फँसेगा ही जब ध्यान कहीं और हाथ कहीं और होगा तो।

मैं तो टाइप ही कर रहा था।

लड़की उसके टाइपराइटर को थोड़ा अपनी ओर खींचकर रिबन ठीक करने लगी। इसी बीच रिबन नीचे गिर गया। वह उसे उठाने के लिए झुकी तो उसके गले से चुन्नी गिर गई। रिबन उठाने के लिए विजय भी झुका था। उसकी निगाह अकस्मात ही लड़की के उरोजों पर चली गई। लड़की ने भी विजय की इस हरकत को देखा और उठकर फिर से रिबन ठीक करने लगी। विजय के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया।

लो, ठीक हो गया। लड़की ने कहा तो उसकी चेतना लौटी।

लड़की फिर टाइप करने में लग गई। लेकिन विजय का मन टाइप में बिल्कुल भी नहीं लगा। वह लड़की से बात करने की ताक में ही लगा रहा।

मन नहीं लग रहा है? अचानक लड़की ने उससे पूछा तो उसकी बाँछें खिल गईं। उसने सोचा कि आप जैसी खूबसूरत लड़की बगल में बैठी हो तो टाइप करने में किसका मन लगेगा, लेकिन वह सोचकर ही रह गया।

नहीं और लगता है कि सीख भी नहीं पाऊँगा।

आसार तो कुछ ऐसे ही दिखते हैं।

आपका नाम?

सरिता।

अच्छा नाम है।

लेकिन मुझे इस नाम से नफरत है।

क्यों?

कोई एक कारण हो तो बताएँ। यह कहते हुए सरिता अपनी सीट से उठी और पर्स कंधे पर टाँगते हुए केबिन से बाहर निकल गई। विजय उसे जाते हुए देखता रहा।

सरिता के जाने के बाद उसने एक निगाह उसके टाइपराइटर पर डाली। टाइपराइटर उसे उदास लगा। विजय को लगा कि उसकी उदासी उस पर भी तारी होती जा रही है।

और दुनिया बदल गई

इसी दिन से विजय हवा में उड़ने लगा। रातों को छत पर घूमने लगा। तारे गिनता और आसमान से बातें करता। चाँदनी रात अच्छी लगने लगी और उसमें बैठकर कविताएँ लिखता। गर्मी की धूप उसे गुनगनी लगने लगी। दुनिया गुलाबी हो गई तो जिंदगी गुलाब का फूल। आँखों से नींद गायब हो गई। वह ख्यालों ही ख्यालों में पैदल ही कई कई किलोमीटर घूम आता। अपनी इस स्थिति के बारे में उसने अपने एक दोस्त को बताया तो उसने कहा गुरु, तुम्हें प्यार हो गया है। दोस्त की बात सुनकर उसे लगा कि दोस्त ने उसके दिल की बात कह दी। उसे अच्छा लगा। वह दोस्त को देखकर मुस्कराने लगा और बड़ी देर तक मुस्कराता रहा।

अगले दिन विजय ने सरिता से कहा कि आप पर एक कविता लिखी है। चाहता हूँ कि आप इसे पढ़ें।

यह भी खूब रही। जान न पहचान। तू मेरा मेहमान। कितना जानते हैं आप मुझे?

जो भी जानता हूँ उसी के आधार पर लिखा हूँ।

सरिता उसकी लिखी कविता पढ़ने लगी।

सरिता

कलकल करके बहने वाली जलधारा

लोगों की प्यास बुझाती है

किसानों के खेतों को सींचती है

राह में आती हैं बहुत बाधाएँ

फिर भी मिलती है सागर से

उसके प्रेम में सागर

साहिल पर पटकता है सिर

उनके प्रेम की प्रगाढ़ता का प्रमाण है

पूर्णमासी की रात में

उठने वाला ज्वार-भाटा

सरिता है तो सागर है

सरिता के बिना रेगिस्तान हो जाएगा सागर

सागर के प्रेम में

सरिता लाँघती है पहाड़, पठार

और मानव निर्मित बाधाओं को

कविता के नीचे उसने विजय की जगह सागर लिखा था। सरिता ने उसे देखा और मुस्कराते हुए कागज विजय की तरफ बढ़ा दिया। विजय ने उसके चेहरे को देखते हुए कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप इसे टाइप कर दें। इसे छपने के लिए भेजना है। सरिता कुछ नहीं बोली। कागज को सामने रखकर टाइप करने लगी। विजय उसे देखता रहा। इस बात का आभास सरिता को भी था कि विजय उसे ही देख रहा है, लेकिन उसने कोई विरोध करने के बजाय पूछा कि आप कवि हैं?

बनने की कोशिश कर रहा हूँ।

कवि भगोड़े होते हैं। सरिता ने उसकी ओर देखते हुए कहा। उसकी इस टिप्पणी से विजय सकपका गया।

मैं समझा नहीं।

कवि अपने सुख के लिए कविता का सृजन करता है। रचते समय वह कविता के बारे में सोचता है। उसके बाद वह कविता को उसके हाल पर छोड़ देता है। कविता जब संकट में होती है तो कवि कविता के पक्ष में खड़ा नहीं होता है। वह भाग खड़ा होता है दूसरी कविता की रचना करने के लिए।

यह आप कैसे कह सकती हैं?

मैं समझती हूँ कि आदमी की जिंदगी भी एक कविता है। मेरी जिंदगी एक कविता है। मेरी जिंदगी मुझे अच्छी नहीं लगती। इसलिए कविता भी मुझे अच्छी नहीं लगती।

विजय अवाक। सरिता चुप हुई तो उसने कहा अरे वाह, आप तो कवि हैं। अभी आपने जो कहा वह तो कविता है।

कविता नहीं, कविता का प्रलाप है, उसकी वेदना है।

कवि वेदना ही तो व्यक्त करता है।

लेकिन यह कविता की वेदना है। जो उस कवि के कारण उपजी है, जिसने मेरी जिंदगी की रचना की। इतना कह कर सरिता केबिन से बाहर चली गई। कैसी है यह?

विजय ने सरिता के टाइपराइटर को देखा। कुछ देर पहले जहाँ से उसे संगीत की सरिता बह रही थी, अब वहाँ मुर्दानी शांति पसर गई थी। लगा जैसे टाइपराइटर किसी शोक गीत की रचना में मशगूल है।

प्यार की खुशबू

आज उन्होंने बातें अधिक कीं। उनके वार्तालाप को देखकर टाइपिंग इंस्टीट्यूट चलाने वाली मैडम ने उनके पास आकर कहा आजकल तो तुम काफी खुश हो सरिता। बदले में सरिता केवल मुस्कराई। विजय भी मुस्कराया। तो क्या मेरे प्यार की गंध इसे भी लग गई। प्यार होता ही ऐसा है। जब महकता है तो सारी सीमाएँ तोड़कर पूरे परिवेश में अपनी खुशबू बिखेर देता है। विजय ने सोचा।

अगले दिन सरिता जब टाइपिंग इंस्टीट्यूट आई तो काफी सजी धजी थी। नया गुलाबी सूट पहने थी। बालों की स्टाइल भी बदली हुई थी। विजय को सरिता का यह बदला रूप बेहद प्यारा लगा। वह अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाया। बोला, काफी सुंदर लग रही हो। जवाब में जब सरिता ने मुस्कराते हुए थैंक्यू का फूल उसकी तरफ फेंका तो उसकी इच्छा हुई कि वह खड़ा होकर नाचने लगे और जोर जोर से चिल्लाए कि उसे प्यार हो गया है। अपनी इस इच्छा पर उसने बड़ी ही मुश्किल से काबू पाया।

ग्रह नक्षत्रों की चाल

आदमी जब निराश होता है या फिर लक्ष्य के प्रति उसकी स्थितियाँ साफ नहीं होती हैं तो वह धर्म और ज्योतिषी की शरण में चला जाता है। विजय की भी हालत कुछ ऐसी ही थी। वह सरिता को चाहने लगा था, लेकिन सरिता भी उसे चाहती है यह स्पष्ट नहीं था। वह अपनी बेरोजगारी से भी परेशान था। घर वाले शादी के लिए अलग से दबाव डाल रहे थे। लिहाजा एक दिन विजय ज्योतिषी के पास चला गया। नौकरी पाने के लिए वह ज्योतिषी से नुस्खे पूछता रहता है। उसने सोचा कि प्रेम पाने के लिए भी ग्रह नक्षत्रों की चाल जान ली जाए। नौकरी के लिए तो ज्योतिषी कभी कहता है कि आपकी कुंडली में काल सर्प दोष है, जो आपके शुभ कार्यों में बाधक है। इसकी शांति के लिए घर में मोर पंख रखें और प्रतिदिन उन्हें दो तीन बार अपने शरीर पर घुमाएँ। सोमवार के दिन चाँदी से बना सर्प का जोड़ा शिवलिंग पर चढ़ाएँ। नित्य श्री गणेश जी की उपासना करें। धैर्य पूर्वक ऐसा करने पर ही रोजगार प्राप्ति की संभावना बनेगी।

विजय ने अभी तक उसके बताए हर नुस्खे को आजमाया, लेकिन आज तक कोई संभावना नहीं बनी। शिकायत करने पर वह कह देता है कि आप पर भाग्येश शुक्र की महादशा चल रही है। शुक्र के बलवर्द्धन के लिए शुक्रवार के दिन साढ़े पाँच रत्ती का ओपल चाँदी में जड़वाकर दाहिनी मध्यमा में धारण करें।

पंडित जी मेरी कुंडली में प्रेम है कि नहीं?

है न, बहुत है। कुंडली पर सरसरी नजर डालते हुए ज्योतिषी ने कहा।

प्रेम विवाह का योग है या अरेंज्ड?

दोनों का, लेकिन दोनों में छोटी छोटी बाधाएँ हैं।

प्रेम विवाह में क्या लफड़ा है?

आप पर शुक्र की महादशा चल रही है, जो अशुभ फलप्रद है। गोचर में भी आपकी राशि पर शनि की साढ़े साती चल रही है। शनि शांति के लिए प्रत्येक शनिवार कुत्ते को सरसों के तेल से बना मीठा पराठा खिलाएं। ग्रह शांति के उपरांत ही प्रेम में सफलता की संभावना बन सकती है।

सब ढकोसला है। इतने दिनों से आप एक अदद नौकरी के लिए मुझसे क्या क्या नहीं करवाते रहे। मिली नौकरी? साला चपरासी भी कोई रखने को तैयार नहीं है।

भन्नाया हुआ विजय ज्योतिषी के कमरे से निकल गया। घर पहुँचते ही मम्मी कहने लगीं तुम्हारे पिता ने लड़की पसंद कर ली है। उनके दोस्त की बेटी है। बीए करके नौकरी कर रही है।

तो मैं क्या करूँ?

शादी कर लो।

बिना नौकरी मिले यह नहीं हो पाएगा।

फिर तो पूरी जिंदगी कुँआरे ही रह जाओगे।

बीवी की कमाई खाने से तो कुँआरा रहना ही अच्छा है। कहते हुए विजय अपने कमरे में चला गया।

जिदंगी आसान नहीं

एक सप्ताह तक सरिता टाइपिंग स्कूल नहीं आई। विजय रोज आता रहा और निराश होकर घर वापस जाता रहा। आठवें दिन सरिता के आते ही वह पूछ बैठा कि एक सप्ताह आई नहीं?

जिंदगी में बहुत दिक्कतें हैं। कहते हुए सरिता अपनी सीट पर बैठ गई।

क्या हो गया?

मेरी बहन जो बीए कर रही है घर से किसी लड़के के साथ चली गई। दोनों बिना शादी के ही एक साथ रह रहे हैं।

ऐसा क्यों किया?

उसका कहना है कि यदि वह ऐसा न करती तो उसकी शादी ही नहीं हो पाती।

मतलब?

हमारे घर के आर्थिक हालात। इतना कहकर सरिता चुप हो गई।

मुझे नहीं लगता कि आपकी बहन ने गलत किया है। आज की युवा पीढ़ी विद्रोही हो गई है। वह परंपराओं को तोड़कर नई नैतिकता गढ़ रही है। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।

पर माँ तो नहीं समझतीं।

हाँ, उनके लिए समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन आजकल सब चलता है। हमारा समाज बदल रहा है। बिना शादी के एक साथ रहना पश्चिमी परंपरा है, लेकिन अब ऐसा हमारे यहाँ भी होने लगा है।

हाँ, बैठकर सपनों के राजकुमार का इंतजार करने से तो बेहतर ही है न कि जो हाथ थाम ले उसके साथ चल दिया जाए। चाहे चार दिन ही सही, जिंदगी में बहार तो आ जाएगी।

विजय को लगा कि वह कह दे कि फिर तुम मेरे साथ क्यों नहीं चली चलती। हम शादी कर लेते हैं पर वह कह नहीं पाया।

जानते हो मेरी एक बहन 12वीं में पढ़ रही है। उसका भी एक लड़के से प्रेम चल रहा है। वे दोनों एक दूसरे से शादी करने को तैयार हैं। अगले साल बालिग होते ही शादी कर लेंगे। सरिता ने कहा।

विजय के मन में आया कि कह दे कि अच्छा ही है। वह अपने आप वर खोज लें तो तुम्हें परेशानी नहीं होगी। वैसे भी तीन हजार रुपये प्रति माह की नौकरी में तुम कौन सा राजकुमार उन्हें दे दोगी। अच्छा है कि वह अपने अपने प्रेमियों के साथ भाग जाएँ।

बातों बातों में एक दिन सरिता ने उसे बताया था कि उसके पिता की मौत हो चुकी है और वह तीन बहन है। उसका कोई भाई नहीं है। बहनों में वही सबसे बड़ी है। वह एक आफिस में काम करती है और उसे तीन हजार रुपये मासिक वेतन मिलते हैं। दूसरी जगह काम पाने के लिए टाइपिंग सीख रही है।

विजय को अपने एक दोस्त के साथ घटी ऐसी ही घटना की याद आ गई। उसके दोस्त की एक बहन अपनी बड़ी बहन के अधेड़ से ब्याह देने के बाद अपने प्रेमी के साथ भाग गई। इसके बाद उसका दोस्त गुस्से में उबल रहा था। कह रहा था कि दोनों को काट डालूँगा। तब विजय ने कहा था कि शांत रहो यार। वे दोनों जहाँ हों कुशल से रहें। उसने जो किया अच्छा ही किया। तुम कौन सा उसे राजकुमार से ब्याह देते। किसी अधेड़ के पल्ले बाँधते, इससे तो अच्छा ही है कि वह अपने पसंद के लड़के के साथ जीवन गुजारे। आखिकार जिंदगी उसकी है। जीना उसे है इसलिए निर्णय भी उसे ही लेना चाहिए। तुझे तो उसके निर्णय का स्वागत करना चाहिए। दोस्त के बड़े भाई ने भी विजय की बात का समर्थन किया था। लेकिन थोड़ा दार्शनिक अंदाज में कहा था कि होनी को यही मंजूर था। उसकी कुंडली में भी यही लिखा है।

मैं भी सोचती हूँ कि एक बहन ने जो किया ठीक ही है। दूसरी जो करेगी वह भी अच्छा ही है। जीवन यदि संघर्ष है तो संघर्ष करो। प्रेमी से पति बना व्यक्ति भी धोखा दे सकता है। जीवन नरक बना सकता है और माता पिता का खोजा राजकुमार भी यही करता है। लेकिन माँ नहीं मानतीं। सोचती बहुत हैं और तबीयत खराब कर लेती हैं।

पुराने जमाने की हैं न।

हद तो यह हो गई कि वह मुझसे कहने लगी हैं कि तू भी किसी के साथ भाग जा। मैं उन्हें इस हाल में छोड़कर किसके साथ... रो पड़ी सरिता। उस केबिन में तीन चार लड़के और टाइप सीख रहे थे। वह पहले ही उनकी बातों से तंग थे।

सरिता के रोने से वह भौंचक्क रह गए और उसकी तरफ देखने लगे। विजय की समझ में नहीं आया कि क्या कहे और क्या करे। स्थिति को सरिता समझ गई तो खुद पर काबू किया और फिर से टाइप करने लगी। उसके बाद सभी टाइप करने लगे। केबिन में टाइपराइटर के की-बोर्ड की आवाज गूँजने लगी। इसके दस मिनट बाद सरिता उठी और बिना बोले ही चली गई। विजय की इच्छा हुई कि वह उसके पीछे पीछे चला जाए, लेकिन वह बैठा रहा और उसे जाते देखता रहा। उसके जाने के बाद उसका मन टाइप करने में नहीं लगा और दस मिनट बाद ही वह भी चला गया।

मूसलाधार बारिश में बिजली का का गिरना

आसमान में काले बादल घिर आए थे। इस कारण परिवेश में अँधेरा पसर गया था। रह रह कर आसमान में बिजली चमकती और बादल गरजते। ऐसे मौसम में भी विजय टाइपिंग स्कूल जाने के लिए तैयार था। वह सरिता से मिलना चाहता था। एक बार तो उसे लगा कि ऐसे मौसम में सरिता नहीं आएगी। लेकिन फिर उसे लगा कि नहीं, सरिता जरूर आएगी। यदि मैं मौसम से डर कर नहीं गया तो वह क्या सोचेगी। कहेगी कि जरा सा मौसम क्या खराब हुआ साहब डर गए। यही है प्यार। उसने तय किया कि वह जरूर जाएगा।

जब वह घर से बाहर निकला तो बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। फिर भी वह तेज कदमों से टाइपिंग स्कूल की तरफ बढ़ने लगा। कुछ ही दूर गया होगा कि बारिश तेज हो गई। सड़क पर चल रहे लोग भाग कर किसी छाँव में खड़े हो गए पर वह अपनी मस्ती में भीगता हुआ चलता रहा। उसे भीगने में मजा आ रहा था...। वह आनंदित था कि वह सरिता से मिलने के लिए जा रहा है।

टाइप स्कूल पहुँचा तो मैडम उसे देखकर मुस्कराई। वह भी मुस्कराया। उसने इधर उधर नजर दौड़ाई कहीं कोई नहीं था। सरिता नहीं आई। उसने अपने आप से सवाल किया।

इतनी बारिश में आने की क्या जरूरत थी? मैडम ने विजय से कहा।

आप नहीं समझेंगी।

सब समझती हूँ, लेकिन अब सरिता यहाँ कभी नहीं आएगी।

क्यों? आपको कैसे पता? अचानक मिली इस सूचना से वह अनियंत्रित सा हो गया।

उसका फोन आया था। उसने कहा कि यदि आप आओ तो बता दूँ।

वह कभी नहीं आएगी? विजय की आवाज किसी कुएँ में से आती लगी। उसकी हालत उस दीपक के समान हो गई थी जिसका तेल खत्म हो गया हो और लौ बुझने वाली हो...।

वह पैर घसीटता टाइपिंग स्कूल से बाहर आया। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। जैसे ही उसने जीने से नीचे कदम रखा जोर से बिजली चमकी और बादल गरजने लगे...। लगा कहीं बिजली गिर गई...। विजय संज्ञाशून्य सा भीगता हुआ घर की तरफ चल पड़ा।

वह सरिता के घर जाएगा। यह खयाल आते ही उसे याद आया कि वह तो सरिता के घर का पता ही नहीं जानता। वह फिर टाइपिंग स्कूल की तरफ भागा। वहाँ पहुँचा तो दरवाजे पर ताला लगा था। वह गिरते गिरते बचा। उसके कदम उठ नहीं रहे थे। उसे ठंड लगने लगी थी। उसे लगा कि वह बीमार हो गया है।

भीगते हुए घर पहुँचा। तब तक उसका शरीर बुखार में तपने लगा। लगभग पंद्रह दिन वह चारपाई पर पड़ा रहा। जब कुछ ठीक हुआ तो लगा की उसके शरीर में जान ही नहीं है। बीसवें दिन वह टाइपिंग स्कूल गया। मैडम नहीं मिली। यह सिलसिला 15 दिन तक चलता रहा। 16वें दिन उसे मैडम मिली। उसे देखते ही बोल पड़ीं कि काफी कमजोर हो गए हो?

उस दिन बारिश में भीगा तो बीमार हो गया।

विजय ने मैडम से सरिता के घर का पता माँगा तो उसने एक कागज पर सरिता का पता लिखा और विजय को थमा दिया। विजय उसे पढ़ता रहा। फिर मैडम को धन्यवाद बोलकर चल पड़ा। उसने तय किया कि वह आज ही सरिता से मिलेगा।

जब वह मैडम के बताए पते पर पहुँचा तो उस मकान में ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि सरिता यहीं रहती थी, लेकिन अब मकान बेचकर चली गई है। कई लोगों से पूछने के बाद भी विजय को उसका नया पता नहीं मिला। निराश होकर वह घर लौट आया। सरिता के इस व्यवहार से उसे काफी धक्का लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि सरिता ने ऐसा क्यों किया?

वह सरिता की याद में कविताएँ लिखने लगा। एक दिन उसने एक सपना देखा और उसके भावों को कविता के रूप में कागज पर लिखा...।

सरिता, जो निकली

अपने उद्गम स्थल से

कलकल करते हुए

सागर की चाह में चली

द्रुतगति से

सामने आ गया पहाड़

टकराने के बाद बदल दिया

अपना मार्ग।

यह तो शुरुआत थी

मार्ग था लंबा

पहाड़ों की श्रृंखला थी

पठार और पथरीली जमीन भी

आदमी भी खड़ा था

फावड़ा लिए

बाँध बनाने को तत्पर

खेत सींचने के लिए

चाहिए उसे पानी

पीने के लिए भी

बिजली भी तो चाहिए

घर रोशन करने के लिए

कारखाने चलाने के लिए

कारखानों के कचरे को बहाने

के लिए भी चाहिए उसे नदी।

प्रकृति से लड़ते नहीं थकी वह

बहती रही अविरल

दिल में सागर से मिलने

की चाह लिए।

भारी पड़ा प्यार

अवरोधों पर

पहुँच गई वह साहिल पर

लेकिन मानव ने बना बाँध

रोक दी उसकी धारा

कारखानों की गंदगी उड़ेल

सड़ा दिया उसकी आत्मा को।

अपने आँसुओं से

धोती रही वह अपना बदन

निर्मलता से मिलना चाहती थी सागर से

विकास उन्मादी मानव ने

रौंद दिया उसकी आत्मा को

जिंदा लाश हो गई वह।

उसके लिए तड़पता है सागर

साहिल पर पटकता है अपने सिर को

उसने तो दम तोड़ दिया

मानव के विकास में

सागर भेजता है बादलों को

उसे पुनर्जीवित करने के लिए

वह जानता है बेवफा नहीं है वह

सच्चा है उसका प्यार

कैद है वह मानव के विकास में

बरसते हैं बादल

उफनती है नदी

मानव को दिखाती है अपना विकराल रूप

मिलते ही प्यार की ताकत

तबाह कर देना चाहती है वह

मानव सृष्टि को

बदला लेना उसकी प्रकृति नहीं

भागती है तेज गति से

सागर की ओर

बाँहें फैलाए स्वागत करता है सागर

बताना चाहती है अपने कष्टों को वह

लेकिन कुछ भी नहीं जानना चाहता सागर

जानता है वह मानव स्वभाव को

उसका भी तो पाला पड़ा है

इस स्वार्थी प्राणी से...।

विजय की इस कविता को पत्रिका में छपे एक माह से अधिक हो गया है, लेकिन उसके पास इस बार भी अब तक सरिता का कोई पत्र या फोन नहीं आया है। उसे उम्मीद है कि एक न एक दिन सरिता उससे संपर्क जरूर करेगी। जब से यह कविता प्रकाशित हुई है तब से वह फोन की प्रत्येक घंटी पर चौंक जाता है। यही नहीं हर रोज पोस्टमैन का बेसब्री से इंतजार करता है और जब उसके आने का समय खत्म हो जाता है तो वह उदासी के गहरे समुद्र में डूब जाता है...।
                                                                     ---ओमप्रकाश तिवारी---

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

चालीस के बाद प्रेम


श्‍यामलाल एक क्षण ठिठके, फिर नाले में उतर पड़े। नाले में कीचड़ नहीं था; उसमें सूखी पत्तियाँ, अद्धे, गुम्‍मे, चीथड़े और एक खास तरह की धूल थी जो मोहल्‍ले के लोगों ने अपने-अपने घरों से बुहार कर सरकारी नाली में धकेल दी थी। पायँचे चढ़ा कर, दामन समेट कर वह उठकुरवाँ बैठ गए और पुलिया के नीचे झाँकने के लिए अपना सिर नाले की उसी अज्ञात गन्‍दगी के इतने करीब ले आए कि विनम्रता का एक बिल्‍कुल नया उनुभव उन्‍हें हुआ। पुलिया का मोखा जितना चौड़ा नगरपालिका ने बनवाया था उतना नहीं रह गया था - कचरे ने स्‍वाभाविक रूप से उसमें घर कर लिया था और सिर्फ एक छोटा-सा छेद रह गया था जिसके भीतर श्‍यामलालजी को अँधेरा ही दिखाई दिया, क्‍योंकि पुलिया का दूसरा छोर तो कचरे से बिल्‍कुल ही ताया हुआ था।

वह अपनी बिल्‍ली को खोज रहे थे। इतवार का दिन था। जरा देर में पटरी पर चार-छह लड़के जमा हो गए। श्‍यामलाल के दो लड़के जो अपने बाप को देखते खड़े थे, इसी भीड़ में मिल गए था। गए थे। एक-एक कर कई चकित सम्‍भ्रान्‍त अधेड़ लोग तरकारी का झोला लिए चकित-से उनके पास से गुजर गए : एक नौजवान, जिसका स्‍वास्‍थ्‍य आतंककारी और चेहरा विज्ञापनों जैसा था, अधिकारपूर्वक पास आ कर खड़ा हो गया। श्‍यामलाल को रँगे हाथों पकड़ने की नीयत जैसा कुछ दिखा कर उसने पूछा, ''क्‍या है?''

श्‍यामलालजी ने कहा, "बिल्‍ली है।"

"आप की बिल्‍ली है?" नौजवान ने पूछा। उत्तर प्रदेश के निवासी श्‍यामलाल को पंजाबी लहजे में सवाल सुन कर लगा कि 'आपकी' पर इतना जोर दिया गया है कि जैसे बिल्‍ली का किसी-न-किसी का होना तय हो और सवाल इतना ही रह गया हो कि वाकई आप की है या किसी और की? सच पूछिए तो सवाल का इतना बारीक अर्थ न था। पंजाब में पूछा ही ऐसे जाता है और उसमें भ्रम भी ऐसा ही होता है। जैसे पूछा जाए कि "सात बजे हैं?" तो सुनाई पड़ेगा कि क्‍या कहते हो। अभी सात कहाँ से बज गए?

श्‍यामलाल ने कहा, "जी हाँ, मेरी बिल्‍ली है।"

"पुलिया के नीचे चली गई है?"

श्‍यामलाल ने कोई जवाब न दिया। वह पंजाब के धाकड़पन से ही नहीं, विज्ञापनी चेहरेवाली कुल नई पीढ़ी के ठसपने से भी एक साथ जूझने की हिम्‍मत न कर सके। उन्‍होंने और भी झुक कर मानो नाक रगड़ते हुए कोशिश की कि पुलिया के भीतर अँधेरे में बिल्‍ली की चमकती आँखें दिख जाएँ और आवाज दी, "मुनमुन, मुनमुन !"

नौजवान ने सोचा होगा, मुझे यकीन दिलाने के लिए बिल्‍ली का नाम ले कर पुकार रहे हैं। परन्‍तु यह सोचना भी एक निर्दय व्‍यंग्‍य होता। मुनमुन श्‍यामलाल से ऐसे डरती थी जैसे कुत्ते से भी न डरती होगी। वह उन्‍हें देखते ही भागती। मगर इस वक्‍त श्‍यामलाल ने न जाने क्‍यों मान लिया था कि यह रिश्‍ता टूट गया है। वह एक संकट में थे और उन्‍हें विश्‍वास था कि बिल्‍ली भी एक संकट में है।

नौजवान ने एक दोस्‍त और बुला लिया था। अबकी उसने पूछा, "यह बाहर क्‍यों नहीं निकल रही?"

श्‍यामलाल को अचानक दो चमकती हरी बिंदियाँ दिखाई दे गईं। मुनमुन की आँखों के अलावा वे और क्‍या हो सकती थीं? मुनमुन ऐसे देखती थी जैसे कोई बहुत गम्‍भीर व्‍यक्ति हो जबकि थी वह अपनी उम्र के हिसाब से भी अधिक गावदू। वही उजबक आँखें थीं। जरा देर में उसका सफेद थूथन भी नजर आने लगा। पर उस चेहरे पर इस वक्‍त वह भय न था जिसे देखने के श्‍यामलाल आदी थे। उस पर भरोसा था कि मैं जब तक यहाँ से न निकलूँ, सुरक्षित हूँ। जानवर इससे आगे सोच नहीं पा रहा था - कि जब कभी निकलेगी तो क्‍या होगा!

एकाएक श्‍यामलाल को इतना गुस्‍सा आया कि उन्‍होंने जवाब दिया, "जब बाहर निकलेगी तो पूछ कर आपको बताऊँगा।" यह कहते ही उन्‍हें चेत हुआ कि उन्‍होंने अपने आपको उस लड़के के बराबर गिरा लिया है। इस बेवकूफ अमीर का तिरस्‍कार करने के लिए मुझे यह भी मंजूर है, उन्‍होंने सोचा। लड़के का दोस्‍त मामूली हैसियत का आदमी था। खुशामदाना तौर पर अपने दोस्‍त की आड़ करते हुए उसने पूछा, "बताती है?"

श्‍यामलाल इतने उम्‍दा आदमी थे कि उन्‍हें तुर्की-बतुर्की नागवार न गुजरी। मगर वह इतने उथले न थे कि हर ऐसे मजाक को पसन्‍द करें जिसमें कोई हमदर्दी न हो। ज्‍यादातर मजाक आजकल इसी किस्‍म के होते हैं, उन्‍होंने अपने मन में कहा, और यह भी मेरे जैसे आदमियों के लिए आसान नहीं रह गया है कि मैं हँस सकूँ।

यह खयाल आते ही वह चौकन्‍ने हो गए। वह अपने पर तरस खा रहे थे जो कि उन्‍होंने जवानी से ले कर अब तक सचेत रह कर अपने को नहीं करने दिया था। कुछ दिनों से वह देखते आ रहे थे कि वह बदल रहे हैं; चालीस पार करते-करते आदमी का गैर-मामूलीपन खत्‍म होने लगता है, यह उन्‍होंने सुन रखा था। वह अपने अन्‍दर ऐसा न होने देंगे। यह उनका दृढ़ निश्‍चय था। मगर कुछ ऐसा तो हो ही रहा था। जैसे उन्‍हें जानवर से प्‍यार हो चला था जो इस उम्र में बहुतों को अक्‍सर होता है। वह जानते थे कि यह उनके और उनकी पत्‍नी के जिन्‍दगी से थक चले होने का एक नतीजा है। मगर वह यह सोच कर खुश होते थे कि उनके बच्‍चे जो कि वास्‍तव में जानवर को पालने के लिए घर लाए थे, औरों से अच्‍छे इंसान बनेंगे। सिर्फ उस वक्‍त जब उन्‍हें खबरों से राजनीति की निर्दयता का क्षणिक अनुभव होता वह यह सोच कर सहम जाते कि उनके बच्‍चे अपने प्‍यार-भरे दिल से, जो उन्‍हें जानवर की बदौलत मिलेगा, कैसे आनेवाले हकिमों का सामना करेंगे? स्‍वार्थ के कारण जवानी के प्रेम-व्‍यापारों में उन्‍होंने गच्‍चा खाया था। वही स्‍वार्थभाव वह अब अपने जानवर पर थोप रहे हों तो क्‍या अजब है! पर उनके मन को तो इसका पता भी न था - और जानवर को पता चला भी हो तो वह कर ही क्‍या सकता था। हाँ, बिल्‍ली की बात थोड़ी-सी और थी। वह आदमी को उतने ही पास आने देती है जितनी उसे जरूरत हो और कुत्ते की तरह आदमी की खुदगर्जी का शिकार बनने के लिए अपने को समर्पित नहीं करती।

मुनमुन की माँ ने जब छह महीने हुए तीन बच्‍चे दिए थे तो घर के मानवों को एक नई परिस्थिति का अनुभव हुआ था। टीना अपने बच्‍चों की सुरक्षा का अपना जंगली तरीका अपनाना चाहती थी जिसे सात घर दिखाने का नाम मनुष्‍यों ने दिया है, मगर वह भी इतनी आश्रित हो चुकी थी कि उसके लिए सात घर का मतलब हो गया था श्‍यामलाल के ही घर में सात जगह। और इसका मतलब था कि बच्‍चों को बिलौटे से बचाने में हर आदमी को बिल्‍ली की मदद करनी थी। श्‍यामलाल के बच्‍चे और उनकी माँ बिल्‍ली के बच्‍चों को अलमारी में, बंद कमरे में, गोद में, बिस्‍तर में रह कर अपनी समझ से बिल्‍ली के पक्ष में अपना काम करते रहे, मगर बिल्‍ली के तरीकों और उनके तरीकों में लगातार एक मतभेद चलता रहा। जिसे वे सुरक्षित समझते, टीना उसे सूँघ कर नामंजूर कर देती और जिस जगह को वे बिलौटे के लिए सबसे अधिक सुगम समझते टीना उसे पसन्‍द करके, खँखोड़ कर उसकी शक्‍ल इस तरह बदलने की जिद पकड़ लेती कि जिससे वह उसे काफी प्राकृतिक मालूम हो सके। यह किस्‍सा चलता रहा। गर्मियों की रात में जब सारा घर बाहर सो रहा था, बिलौटे ने रोशनदान से घुस कर एक बच्‍चे को खत्‍म कर दिया। टीना की हिंसक फुँफकार से जग कर जब सारा घर भीतर आया तो लाश जमीन पर पड़ी थी और कमरा टीना और बिलौटे के पेशाब की बदबू से भरा हुआ था जो क्रोध के क्षणों में हो गया था। कुछ दिन बाद एक और बच्‍चे को बिलौटे ने गुसलखाने की ठंड में आराम करती माँ को लड़ने का मौका दिए बिना बिल्‍कुल उसके सामने खत्‍म किया। इस बार बच्‍चे को वे लोग उठा कर लाए तो उसमें जान थी। श्‍यामलाल की बड़ी लड़की उसे अस्‍पताल ले गई। शरीर पर कहीं खून न था। मगर उसकी नट्टी बिलौटे ने भीतर-ही-भीतर कुरमुरा दी थी। अस्‍पताल में उसने वह सब दूध और ब्रांडी उगल दी जो घर पर बच्‍चों ने उसे बचाने की कोशिश में पिलाई थी और मर गया।

तब सारी गर्मियाँ श्‍यामलाल मुनमुन को बन्‍द टोकरी में सिरहाने रख कर सोए और सारा घर टीना से एक नई किस्‍म का संवाद सीखने में लगा रहा, क्‍योंकि टीना जब उसकी अक्‍ल में आता मुनमुन की टोकरी में घुस जाना चाहती और जब मन होता उसमें से निकल आना चाहती - उसको चुपचाप बैठने का हुक्‍म देना बेकार था - रात में कई बार उसके लिए जागना हर एक को बिलौटे के खिलाफ कार्रवाई की खातिर इतना जरूरी मालूम होने लगा कि जैसे वे सब बिल्लियाँ हों।

श्‍यामलाल ने छेद में हाथ डाल कर मुनमुन को पकड़ने का इरादा किया। भीतर कोई कनखजूरा या बिच्‍छू हो सकता था, उन्‍होंने डर और इंसानियत के विरोधी भावों का यह अजब मिला-जुला अनुभव किया। फिर उन्‍होंने ऊपर देखा। वह ठस दिमाग आदमी मय अपने खुशामदी साहब के जा चुका था - छोकरे भी। सिर्फ उनके अपने दो लड़के थे। उनका तनाव जाता रहा। यदि उन पर कुछ बुरी गुजरे तो वह तमाशा तो न बनेंगे। उन्‍होंने निर्मल मन से हाथ भीतर कर दिया। भीतर की ठंडी नम जमीन, जो छूने से ही साफ मालूम होती थी, उनकी हथेली से लगी। तत्‍काल उस मिट्टी की खुशबू उन्‍हें आने लगी। "मुनमुन, मुनमुन," उन्‍होंने आवाज दी। वह अब इस तरह बैठे थे कि भीतर झाँक नहीं सकते थे, मगर समझ सकते थे कि मुनमुन उनके हाथ की पहुँच से काफी दूर है।

एकाएक उन्‍हें गोगी की महीन आवाज सुनाई दी। वह टीना के तीन नए बच्‍चों में से एक और सबसे दलिद्दर थी। आवाज के सहारे उनके हाथ ने गोगी को दबोच लिया और वह लटके हुए चारों पंजों को फैलाए और उनके नाखून निकाले गर्दन से टँगी हुई बाहर आ गई।

लड़कों ने चिन्‍ता से कुछ कहा, मगर वह आवाज उस सड़क के यातायात की तरह स्‍वाभाविक थी जो कि श्‍यामलाल से कुछ दूर थी और ज्‍यादा चल नहीं रही थी। वह मुड़े और उन्‍होंने लड़कों से एक वाक्‍य कहा जो कि न उपदेश था, न आदेश, वह बराबर के लोगों से बोला गया एक वाक्‍य था : "मुश्‍तू और टीमा और टीना भी इसी सुरंग में होंगे," जो कि लड़के उनसे पहले ही समझ चुके थे।

मुनमुन के होने के पाँच महीने बाद टीना ने तीन बच्‍चे और पैदा किए थे। इस बार ये तीनों आजादी से पले और बढ़े। बिलौटा कहीं दिखाई न देता था। एक मत यह था कि वह पालतू था और अपने मालिक के मद्रास तबादले के साथ वहीं चला गया है। टीना बच्‍चों को बहुत थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ती, जबकि उन्‍हें इतनी पहरेदारी की जरूरत न रह गई थी। वह सोती भी बहुत, और अपनी पहलौठी की मुनमुन को जो कि कद में लगभग उसके जितनी हो चली थी, अपना दूध बाकी तीनों के साथ पीने देती। मुनमुन टीना की गैरहाजिरी में चुपचाप आ कर बच्‍चों को इस तरह सूँघती जैसे वे कोई नई और विचित्र चीजें हों। एक दिन उसने उन्‍हें चाटना भी शुरू कर दिया और जब वह कूदने-फाँदनेवाले हुए तो उन्‍हें अपनी दुम भी खेलने को देने लगी। ये तीनों माँ की तरह काले और सफेद थे, मुनमुन की तरह भूरेमायल नहीं। वे इतने सुन्‍दर और मुलायम भी नहीं थे। मुनमुन दिन-ब-दिन खिलौने की तरह खूबसूरत और साथ ही जाहिल बनती जा रही थी। उसने एक मरतबा एक ही दिन में तीन बार घर के तीन कोनों में गंदगी करके रख दी।

श्‍यामलाल ने सोचा, इसे सजा की जरूरत है। उन्‍होंने कहीं पढ़ रखा था कि बिल्‍ली कितने ऊँचे से भी क्‍यों न गिरे जमीन पर आते-आते अपनी मांसपेशियों को इस तरह ढील दे देती है कि पंजों के बल सुरक्षित ही गिरे। उन्‍होंने अपना गुस्‍सा तौला और ठंडे दिमाग से मुनमुन को उठा कर उसी के हगे के सामने पटक दिया। वह पंजों के ही बल गिरी : श्‍यामलाल आश्‍वस्‍त हुए कि यह सजा सफल होगी। मुनमुन सीधे घर से बाहर भागी और रात-भर नहीं आई। सवेरे वह लौटी तो पिछली दाहिनी टाँग जमीन पर रख नहीं पा रही थी। श्‍यामलाल के बच्‍चे फिर अस्‍पताल गए। टाँग की हड्डी बच गई थी, मगर वे तन्‍तु जिनके बारे में श्‍यामलाल ने पढ़ रखा था टूट गए थे। लम्‍बे इलाज के बाद वह जिस दिन पहली बार फिर से पेड़ पर चढ़ी, श्‍यामलाल ने उसे फिर प्‍यार करना चाहा। वह पकड़ में तो आ गई क्‍योंकि उसकी टाँग हमेशा के लिए कमजोर हो गई थी, मगर उसने प्‍यार ऐसे कबूल किया जैसे वह बनी ही इसलिए है और कोई एहसान नहीं मान रही है। इसके बाद वह और भी प्‍यारपसन्‍द और आरामतलब हो गई। उसने कभी न कोई चिड़िया पकड़ी, न चूहा। अधिक-से-अधिक तितली को देख कर वह उठ बैठती और कान खड़े करके अपनी नजर से उसका पीछा करती रहती। एक ही और काम था जिसमें वह फुर्ती दिखलाती थी। जैसे ही तीनों बच्‍चे टीना का दूध पीने जुटते, वह भी दौड़ी हुई आती और ठेलठाल कर अपने मुँह के लिए उनके बीच में जगह बना लेती। उस वक्‍त घर के सब लोगों को उसकी चाल पर राय देने का मौका मिलता - "मैंने देखा कि टाँग चला रही है," कोई कहता। कोई कहता, "नहीं, अभी थोड़ा-सा-बस थोड़ा सा जमीन पर छुआती है।"

न जाने किस तरह वह बहस अपनी शक्‍ल बदलने लगी और विषय यह हो गया कि आखिर कब तक टीना और उसके बच्‍चे घर में पलते रहेंगे? कोई साफ-साफ यह नहीं कहता था कि इन्‍हें हम नहीं रखना चाहते। यह कहना कि इनके खाने पर बहुत खर्च हो रहा है, और भी अप्रिय सत्‍य था। टीना रहेगी, यह भी बिल्‍कुल निर्विवाद था। प्रश्‍न इतना ही था कि इन बच्‍चों को कोई पालने के लिए माँग क्‍यों नहीं ले जा रहा है। एक अजब इंसानी तर्क से श्‍यामलाल सोच रहे थे कि अगर ये इतने बड़े न होने पाएँ कि टीना के लिए इनसे बिछ़ड़ना बहुत दुखद हो जाए तो इन्‍हें किसी को दे दिया जा सकता है। इतने बड़े वह किस वक्‍त तक होंगे, यह जानने का कोई वैज्ञानिक आधार उनके पास न था। बस उन्‍होंने मान लिया था कि ऐसा कोई वक्‍त होता होगा। जहाँ तक टीना का सवाल था वह इतना ही जानती थी कि तीनों बच्‍चे इस बार बिलौटे से बच गए हैं और जिस घर में वह रहती है उसमें ये भी रह रहे हैं। एक दिन श्‍यामलाल ने अपने बच्‍चों को समझाया कि जानवर बहुत समय तक अपने बच्‍चों को आदमियों की तरह माँ पर निर्भर नहीं रखते, वे उन्‍हें आत्‍मनिर्भर बनने को छोड़ दिया करते हैं। बच्‍चों ने पूछा, "मगर मुनमुन क्‍यों अब तक माँ का दूध पीती है?" और यह प्रसंग वहीं समाप्‍त हो गया।

पिछले तीन दिन से श्‍यामलाल के दिमाग में कई तर्क उपज रहे थे जैसे यह कि प्रकृति जानवरों की संख्‍या का नियन्‍त्रण करती है… वह नवजात शिशुओं की मृत्‍यु का प्रबन्‍ध कर देती है नहीं तो दुनिया साँपों और घड़ियालों से भर जाए… जानवर को पल कर उसे पराधीन बना देना कितना निर्दय है… उसे अपनी आजादी का कुछ हिस्‍सा अपने पास रखने देना चाहिए… इसके पहले कि वह बिल्‍कुल असहाय हो जाए उसे स्‍वतन्‍त्र कर देना चाहिए। अन्‍त में वह किसी नतीजे पर न आते। किसी ने जब यह सुझाव दिया कि जानवर पालने के तरीकों के अनुसार बिल्‍ली के फालतू बच्‍चों को पैदा होते ही बाल्‍टी में डुबो कर खत्‍म कर दिया जाता है तो सारे घर ने इसका घोर विरोध किया और श्‍यामलाल सोचने लगे कि क्‍या इंसान के दिमाग ने बस इतनी ही तरक्‍की की है जो इतना सीधा और ठोस तरीका निकाला?

उन्‍हें एकाएक सूझा कि तीनों बच्‍चों को सिखाना चाहिए कि आदमी से वे सिर्फ एक हद तक रिश्‍ता रखें। जैसे वे रहें बाहर और घर में जितनी बार चाहें आ जाया करें। क्षण-भर के लिए इस खयाल में छिपी हुई चालाकी भी उन्‍हें दिखाई दे गई। यह प्रमाण था कि वह चालीस पार करने पर भी अपने को ईमानदारी से समझना भूले नहीं हैं। मगर मूलत: यह एक सही विचार है, उन्‍होंने सोचा और सीधे इस नतीजे पर आ गए कि अगर इससे मेरा जाती फायदा हो भी जाए तो भी मूलत: यह जानवर के हित में होगा। वह दरअसल चालीस के हो चुके थे। उस रात को वह मुनमुन को गोद में ले कर घर से सौ गज दूर गए। इससे ज्‍यादा उनकी हिम्‍मत न पड़ी।

लँगड़ी बिल्‍ली को उन्‍होंने वहीं छोड़ दिया और वह दुम दबा कर सर्र से सबसे नजदीक की झाड़ी में गायब हो गई।

आधी रात को काँपती हुई वह खिड़की से घर में दाखिल हुई। उसकी आलसी आदतों को जो जानते थे उन्‍हें खिड़की के जँगले से गुजरने की उसकी कोशिश देख कर इस मुसीबत में भी हँसी आती।

वह घर तो आ गई थी मगर हक्‍की-बक्‍की रह गई थी। जैसे यह भाव उसके चेहरे पर छप गया और फिर जब कभी वह सामने आ पड़ती उसका हक्‍का-बक्‍कापन ही दिखाई देता। धीरे-धीरे वह अच्‍छा लगने लगा और घर-भर ने उसे उसकी सुन्‍दरता की पहचान बना लिया।

अपने प्रयोग की प्रौढ़ बुद्धि से संतुष्‍ट होक दूसरे दिन शाम होने पर श्‍यामलाल अपने बच्‍चों से बोले, "इन तीनों को हम ले चलें और घर के सामनेवाले मैदान में छोड़ दें। यह अपने आप वापस आ जाएँगे।"

बच्‍चे उन्‍हें मैदान में खेलते हुए देखने की कल्‍पना कर खुश हुए - उन्‍हें घर में ही देखते-देखते वे ऊबे जा रहे थे। वे बिलौटे को भूल चुके थे। "मगर चिट्टी के घर के सामने मत छोड़िएगा, उससे हमारी बोलचाल बन्‍द है," उन्‍होंने कहा।

श्‍यामलालजी ने और रात होने का इंतजार किया। उन्‍होंने अपने को भरोसा दिलाया कि चाँदनी है, इससे जो वह करने जा रहे हैं उसमें जानवर के लिए खतरा कुछ कम हो जाता है। वह तीनों को उठा कर ले गए और सूने मैदान में उन्‍हें गोद से उतार दिया। मुनमुन को उन्‍होंने जहाँ अकेले रहने की शिक्षा दी थी, वहाँ से यह जगह उनके घर के और नजदीक थी। तब वह वहाँ से ले कर अपने घर तक चहलकदमी करने लगे। दो-तीन फेरियों तक तो उन्‍हें बच्‍चों की चीं-चीं सुनाई देती रही, उसके बाद आवाजें बन्‍द हो गईं। वह अगली फेरी में बच्‍चों के और नजदीक तक गए। दो बच्‍चे एक घर के बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे, एक का पता न था।

सवेरे आएगा वह भी, उन्‍होंने कहा और घर लौट आए। हस्‍बमामूल सब के सो जाने का इंतजार करते रहे, क्‍योंकि उनको कुछ देर अकेले जाग कर सोने की आदत थी।

पर जब नींद के ठीक पहले का शून्‍य उनको हँस-हँस कर डुबोने लगा तो वह चौंक कर उठ बैठे और उन्‍होंने बच्‍चों को एक बार फिर देख आने का निश्‍चय किया।

उन्‍होंने हर मकान के बरामदे में झाँकना शुरू किया। जाड़ा पड़ने लगा था, लोग अन्‍दर सो रहे थे। कोई भी जाग पड़ता तो जवाबतलब करता। वह दबे पाँव हर बरामदे में एक कदम रख कर निगाहें चारों और दौड़ाते और वही एक कदम दबे पाँव वापस ला कर अगले मकान को चल देते। आखिरकार एक बरामदे में दो बच्‍चे मिल गए। दोनों गहरी नींद में सिकुड़े एक-दूसरे से पैबस्‍त पड़े थे। उन्‍होंने चार कदम और बढ़ कर उन्‍हें उठा लिया - चाहे कोई जाग ही जाए। लौटते हुए उन्‍हें कहीं से तीसरे की डरी हुई धीमी-धीमी चीं-चीं सुनाई दी। इस बार सहज भाव से वह दूसरी मंजिल के एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए और पहले बरामदे में उन्‍हें तीसरा बच्‍चा भी मिल गया।

घर वापस आ कर वह लेटे और फौरन सो गए। अगले दिन इतवार था। उठते ही श्‍यामलाल के बच्‍चों ने टीना के पास जा कर उसके बच्‍चों को देखा। जब उन्‍हें बताया गया कि ये तीनों अपने आप नहीं आए, इन्‍हें लाया गया था तो उन्‍होंने कहा तो कुछ नहीं, मगर श्‍यामलाल को मालूम हो गया कि उन पर सब का विश्‍वास कुछ कम हो गया है।

उनको कुछ बहुत दुख न हुआ। वह जानते थे कि उन्‍हें अपने स्‍वभाव की यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। वह कोई गलत काम नहीं कर रहे थे, कोई निर्दयता, कोई क्षुद्रता नहीं कर रहे थे - वह सिर्फ एक निर्भीक प्रयोग कर रहे थे जिसमें जोखिम था तो, पर नपा-तुला। वह चाहते थे कि उन्‍हें बस एक और मौका दिया जाए जैसा जिन्‍दगी में हर बार वह उनसे माँगते आए थे जिन्‍होंने उन्‍हें प्‍यार दिया था।

उन्‍होंने कहा, अगर हम टीना और मुनमुन को भी साथ ले जाएँ और पाँचों को घर से कुछ और दूर छोड़ें तो टीना इनको अपने साथ वापस ले आएगी। यह भी हो सकता है कि एक-दो बच्‍चे रास्‍ते में किसी घर में रह ही जाएँ - रह जाएँ तो अच्‍छा ही है, वहीं पल जाएँगे। यह भी हो सकता है कि कोई रास्‍ते से खुद इन्‍हें उठा कर अपने घर ले जाए…

और फिर सबकी सहमति ले कर जो किसी ने उन्‍हें खुलेआम नहीं दी, उन्‍होंने बिल्‍ली के परिवार को एक-एक करके अपनी खचड़ा मोटरकार में भर लिया। यह निहायत मुश्किल काम था। टीना ने और उसके हर बच्‍चे ने विरोध किया। श्‍यामलाल के बच्‍चे पहले तो सकपकाए खड़े देखते रहे, फिर उन्‍होंने बिल्लियों की गिरफ्तारी में मदद की जिससे बिल्लियों को तकलीफ न हो और एक ने कहा कि आप वहाँ किसी को पटक मत दीजिएगा।

जब कार चली तो टीना घबरा कर इस गद्दी से उस पर टहलने और अपने बच्‍चों को उसी तरह बुलाने लगी जैसे दूध पिलाने के लिए बुलाती थी। शायद वह कोई और आवाज थी जिसकी ममता में दूध पिलाने को बुलानेवाली पुकार से सूक्ष्‍म भेद था। श्‍यामलाल बाजार को मुड़नेवाली सड़क छोड़ कर सीधे बढ़ते गए। इतना घर से बहुत दूर होगा, उन्‍होंने सोचा और लौट पड़े। एक जगह और रुके, पर वह भी उन्‍हें घर से बहुत दूर जान पड़ी। सब निर्णय उन्‍हीं के थे और उन्‍हें संतोष न मिल रहा था। आखिर बाजारवाले मोड़ पर आ कर उन्‍होंने सड़क के एक किनारे एक भलेमानस आदमी को पेड़ के नीचे सुस्‍ताते देखा। यहीं ठीक है। आदमी ने गाड़ी रुकते और बिल्लियों को दरवाजे से कूद कर बाहर आते देखा और वैसे ही बैठा रहा। मगर श्‍यामलाल जो कर रहे थे उसमें उसे चुपचाप अपना साझी मान चुके थे। टीना सड़क पर आते ही चारों ओर देख कर चौकन्‍नी हुई। फिर कान खड़े करके और दुम दबा कर सीधे सड़क के उस पार भागी। मुनमुन उसके पीछे-पीछे दौड़ गई और दोनों सड़क के पार की पटरी पर बैठ कर एक बार इधर और एक बार उधर देखने लगीं। वे सर साथ-साथ घुमातीं। उनके कान खड़े थे और मुँह खिंच कर आगे को निकल आया था। टीना के सफेद पैरों और सफेद सीनेवाला जिस्‍म तना हुआ था। यह देख कर श्‍यामलाल को धक्‍का-सा लगा। "टीना-टीना!" उन्‍होंने पुकारा। मगर टीना वापस आना नहीं अपने बाकी बच्‍चों को इस पार ले जाना चाहती थी। श्‍यामलाल ने उन्‍हें उठाया और टीना की तरफ ले चले। वह तेजी से आगे बढ़ी और बच्‍चों को पुकार कर वापस मुड़ कर वहीं जा बैठी जहाँ पहले थी।

शायद यह जगह भी घर से ज्‍यादा दूर है। मगर नहीं। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि इन्‍हें वह घुमा-फिरा कर यहाँ से घर की तरफ ले जाएगी… और फिर जो होगा वह स्‍वाभाविक तौर पर होगा। जो भी हो, हो। मैं इन्‍हें मारने के लिए नहीं छोड़ रहा हूँ। उनकी माँ उनके साथ है। उन्‍होंने कई बार हल्‍के से और एक बार जोर से अपने मन में कहा और वापस आ गए।

किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। थोड़ी देर बाद जब घर का काम खत्‍म हो चुका तो उनकी पत्‍नी आ कर कमरे में बैठीं। धीरे से बोलीं, "कहाँ छोड़ा है उनको?"

श्‍यामलाल ने बताया कि बाजारवाले मोड़ पर। वह चुप रहीं। श्‍यामलाल ने कहा, "दूर नहीं है। टीना आ जाएगी।" उन्‍होंने बच्‍चों का नाम नहीं लिया।

"टीना पिछवाड़े के स्‍कूल से आगे आज तक नहीं गई है," वह कहकर चुप हो गईं। फिर काफी देर बाद बोलीं, "टीना दो-तीन दिन के पहले नहीं आ सकती।" वह आँखें मूँदें बैठी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान तनी हुई थी। वह बिल्‍ली के साथ किए गए प्रयोग की बेदर्दी और अपना पुराना सिर-दर्द साथ-साथ सह रही थीं।

थोड़ी देर बाद श्‍यामलाल ने पूछा, "दो-तीन दिन कहाँ रहेगी?"

पत्‍नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती, परंतु वह बच्‍चों को अकेला छोड़ेगी नहीं, जहाँ वे रहेंगे वहीं वह रहेगी।"

श्‍यामलाल बोले, "तो क्‍या यह भी हो सकता है कि वह लौट कर न आए?"

पत्‍नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर वह आएगी तो दो-तीन दिन बाद ही आएगी। हफ्ते-भर बाद भी आ सकती है।"

श्‍यामलाल ने कहा, "नहीं, इतने दिन तो बहुत होते हैं।"

अपने हाथ से अपना सिर दबाते हुए पत्‍नी ने कहा, "तुम बाजार से खाना ले आओ। मैंने पकाया नहीं है।"

श्‍यामलाला के साथ बाजार जाने के लिए उनके दो बच्‍चे फौरन तैयार हो गए। वे घर से निकले तो श्‍यामलाल ने कहा, "हम गली-गली जाएँगे।"

एक बच्‍चे ने कहा, "सड़क-सड़क चलिए क्‍योंकि वह सीधे रास्‍ते से घर आ रही होगी।" श्‍यामलाल ने कहा, "नहीं, हो सकता है वे लोग किसी घर में दुबक गए हों, हम गलियों से हो कर जाएँगे और सड़क से हो कर आएँगे।"

गलियों में उन्‍हें कई बिल्लियाँ मिलीं - छोटी, बड़ी, चोरों की तरह दुम दबा कर सरकती हुई और बेखबर घूरे को देख कर कुरेदती हुई। वे सब दूसरी बिल्लियाँ थीं। वे पास आते ही कितनी अजनबी लगती थीं और कितनी पराई भी।

गोगी को पकड़ कर खींच निकालने के बाद श्‍यामलाल को विश्‍वास हो गया था कि टीना और उसके सब बच्‍चे इसी सुरंग में हैं। वह इतनी सँकरी और नीची थी कि यह विश्‍वास सिर्फ वही कर सकता था जो बिल्लियों की सिकुड़ सकने की क्षमता जानता हो। श्‍यामलाल ने वहीं जा कर पूछताछ की थी जहाँ वह सवेरे उन्‍हें त्‍याग गए थे। वह नहीं जानते थे कि जब वह अकेले घर वापस जा रहे थे तो इतवार को छज्‍जों पर खामख्‍वाह खड़े बहुत-से लोगों ने उन्‍हें देखा था। हर छज्‍जे पर बातचीत हुई थी कि यह आदमी कर क्‍या रहा है। निश्‍चय ही कुछ लोग बिल्‍कुल बोदे रहे होंगे। उनमें से कुछ ने श्‍यामलाल का बहुत राजदाँ बनते हुए कहा कि उन्‍होंने समझा था कि श्‍यामलाल अपनी बिल्लियों को छोड़ने नहीं अपनी बिल्लियों को पकड़ने आए हैं। "क्‍या अभी तक मिली नहीं?" उन्‍होंने पूछा। यह पर्दादारी लोग बिना माँगे कर रहे थे जिससे वह श्‍यामलाल को भय की तरह रहस्‍यमय लगी। उन लोगों के सामने जो उन्‍हें इतना गलत समझ रहे थे सच बोलना कितना निराशाजनक होता। "हाँ, मगर आप ने उन्‍हें जाते किधर देखा था?" उन्‍होंने जैसे डकैतों के सामने मीठी बोली से काम निकालना चाहा।

एक बड़ी सींक-सी औरत बोली, "इधर तो वे आ ही नहीं सकतीं, हाँ। मेरा कुत्ता बिल्लियों को फाड़के रख देता है। डरिए नहीं, मैंने इसलिए उसे बाँध दिया है। वे वहीं नाले में कहीं होंगीं।"

सुरंग का दरवाजा उन्‍होंने एक गुस्‍से से ढाँक दिया। गोगी को गोद में ले कर वह घर की तरफ दौड़े। वह अपनी बड़ी लड़की को बुलाने जा रहे थे जिसकी आवाज सुन कर मुनमुन बोला करती थी और वह अपनी पत्‍नी को भी बुलाने जा रहे थे जो रोज उनके घर लौटने पर उन्‍हें बताया करती थी कि आज टीना ने क्‍या किया।

सब कोई आए। लड़की ने मुनमुन को दो बार बुलकारा तो उसने सिर बाहर किया और पकड़ ली गई। मुश्‍तू आदतन मुनमुन के पीछे-पीछे निकल आया। मगर टीना अपनी सुरंग के दरवाजे तक आ कर फिर भीतर चली गई। उसके पास अभी शीमा थी।

भीड़ लग गई थी। जैसे वे दोनों दर्शकों के लिए संवाद बोल रहे हों, श्‍यामलाल ने पत्‍नी से कहा, "तुम बुलाओ।"

स्‍त्री ने आवाज दी, "टीना, टीना!"

तब भीड़ में से एक सूखा-सा आदमी जोर से बोला, "इसके बच्‍चे को दिखाओ तो बाहर आएगी।" कह कर उसने गोगी को श्‍यामलाल के हाथ से ले लिया। श्‍यामलाल और उनकी पत्‍नी दो सिलबिल आदमियों की तरह खड़े देखते रह गए। उसने गोगी को जोर से दबाया। और वह चीख कर रोई। श्‍यामलाल के बच्‍चों ने एक स्‍वर से कहा, "नहीं, नहीं, क्‍या करते हो !" तभी टीना परेशान बाहर आ गई। बड़ी लड़की ने उसे फौरन उठा कर गोद में दबा लिया।

वह भौंचक थी और उसका बदन नम हो रहा था। उसने गरदन उठा कर चारों तरफ देखा और निश्चिंत हो गई। अपने ऊपर थोपी हुई मुसीबत से उसने जो संघर्ष किया था उसका कोई घमंड उसकी आँखों में नहीं था। वह न तो कुरकुराने लगी, न उसने अपनी दुम फुलाई, न उसने ऐसी और कोई हरकत की जिनसे आदमी बिल्लियों को पहचानते हैं। बस, उसने एक बार आँखें मींच कर खोल दीं।

श्‍यामलाल ने उसे गौर से देखा। वह समझ रहे थे कि उन्‍होंने उसके साथ क्‍या किया है और यह भी जान रहे थे कि वह नहीं समझ सकती कि खुद उनके साथ क्‍या हुआ है ! एकाएक वह अपनी असहायता से छटपटा उठे। हालाँकि उनके दिल में प्‍यार-ही-प्‍यार था, मगर बिल्‍ली को किसी तरह यह बताने का तरीका वह नहीं जानते थे। चालीस बरस तक वह हर बार एक मौका और माँग चुके हैं, मगर आज फिर माँग रहे हैं।

                                                                          ---रघुवीर सहाय---

स्नेह भरी उँगली


थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना पिताजी से ही सीखा पर उन पर कभी कुछ लिखा नहीं। उन्हें गए आज 27 बरस हो रहे हैं, लेकिन उनके बारे में कभी 27 शब्द भी नहीं लिखे।

कारण कई थे। पहला तो वे खुद थे। कुछ के लिए वे जरूर 'गीतफरोश' रहे होंगे, पर हमारे लिए तो वे बस पिता थे। हर पिता पर उसके बेटे-बेटी कुछ लिखें - यह उन्हें पसंद नहीं था। कुल मिला कर हम सब के मन में भी यह बात ठीक उतर गई थी। मन्ना ने एकाध बार बहुत ही मजे-मजे में हमें बताया था कि कोई भी पिता अमर नहीं होता। पिता के मरते ही उसके बेटे-बेटी उनकी याद में कोई स्मारिका छाप बैठें, खुद लेख लिखें, दूसरों से लिखाते फिरें, उनकी स्मृति को स्थायी रूप देने हेतु उनके नाम से कोई संस्था, संगठन खड़ा कर दें - यह सब बिलकुल जरूरी नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद हमने इस बात को पूरी तरह निभाया, न खुद लिखा, न लिखवाया।

दूसरा कारण उनकी एक कविता थी - 'कलम अपनी साध, मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध।' तो मन की बात ठीक एकाध कभी सूझी नहीं। सूझी भी तो मन्ना की शर्त 'तेरी भर न हो' लागू करने के बाद कभी कुछ ऐसा बचता नहीं था लिखने लायक।

हम सब उन्हें मन्ना कहते थे। भाषा को बिगाड़ने का कुछ पाप जिन संबोधनों से लगता हो, वैसे संबोधन पिता के लिए तब प्रचलित नहीं हुए थे। लेकिन तब के नाम बाबूजी, पिताजी, बाबा आदि से भी हम और वे बच गए थे। खूब बड़े भरे-पूरे परिवार में मँझले भाई थे। पिताजी के बड़े भाई उन्हें प्यार से सिर्फ 'मँझले' कहते और फिर दादा-दादी से ले कर सभी छोटे बहन-भाई, यानी हमारे चाचा, बुआ आदि भी उन्हें आदर से 'मँझले भैया' ही कहने लगे थे। मुझसे बड़े दो भाई सन 1942 में जब पिताजी को पुकारने लायक उम्र में आ रहे थे कि वे जेल चले गए। जेल में लिखी उनकी कविता 'घर की याद' में इस भरे-पूरे परिवार का, उसके स्नेह का, आँखें गीली करने लायक वर्णन है। दो-तीन बरस बाद जब वे जेल से छूट कर लौटनेवाले थे, तब ये दोनों बेटे अपने पिता को किस नाम से पुकारेंगे - इस बारे में नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश) के घर में बुआओं, चाचाओं में कुछ बहस चली थी। पर जब पिता सामने आ कर अचानक खड़े हुए, संबोधन कूद के पार कर लिए थे और सहज ही 'मँझले भैया' कह कर उनकी तरफ दौड़ पड़े थे। दोनों बच्चों को कुछ सलाह, निर्देश भी दिए गए थे। बेटों के लिए भी वे 'मँझले भैया' बने रहे।

फिर जन्म हुआ मुझसे बड़ी बहन नंदिता का। जीजी से 'मँझले भैया' कहते बना नहीं, उनने उसे अपनी सुविधा के लिए 'मन्ने भैया' किया। फिर मन्ने भैया और थोड़ा घिस कर चमकते-चमकते 'मन्ने' और अंत में 'मन्ना' हो गया। जब मेरा जन्म 1948 में वर्धा में हुआ तब तक पिताजी जगत मन्ना बन चुके थे - सिर्फ हमारे ही नहीं, आस-पड़ोस और बाहर के छोटे-से लेकिन आत्मीय जगत के।

बचपन की यादें कोई खास नहीं। शायद घटनाएँ भी खास नहीं रही होंगी - उस दौर में एक साधारण पिता के जो संबंध साधारण तौर पर अपने बच्चों से रहते हैं, ठीक वैसे ही संबंध हमारे परिवार में रहे होंगे।

मेरे जन्म के बाद हम सब वर्धा से हैदराबाद आ गए थे। वे दिन हमारे लिए यह सब जानने-समझने के थे नहीं कि मन्ना कहाँ क्या काम करते हैं। पर एक बार वे घर से कुछ ज्यादा दिनों के लिए बाहर कहीं चले गए थे। तब शायद मैं पहली कक्षा में पढ़ता था। वे तब मद्रास गए थे। लौटे तो उनके साथ एक सुंदर चमकीला चाकू आया था। मन्ना को सब्जी काटने का खूब शौक था। सब्जी खरीदने का भी यह शौक कभी-कभी अम्मा की परेशानी में बदल जाता। ढेर के ढेर उठा लाते क्योंकि बेचनेवाली का बच्चा छोटा था, वह सब कुछ बेच जल्दी घर लौट सकती थी। बचपन में हम ने उन्हें न तो कविता लिखते देखा, न पढ़ते-सुनाते। मद्रास के उस स्टील के चाकू से खूब मजा ले कर सब्जी काटते थे - इसकी हमें याद बराबर है।

यह दौर था जब वे मद्रास में ए.वी.एम. फिल्म कंपनी के लिए कुछ गीत और संवाद लिखने गए थे। सब्जी खरीदने में बहुत ही प्रेम से भाव-ताव करनेवाले मन्ना ए.वी.एम. के मालिक चेट्टियार साहब से अपने गीत बेचते समय कोई भाव-ताव नहीं कर पाए थे। गीत बेचने की इस उतावली में उनका लक्ष्य पैसा कमाना नहीं बल्कि कुछ पैसा जुटा लेना भर था। बड़े परिवार में दो-तीन बुआओं का विवाह करना था। रजतपट के उस प्रसंग में उन पर कुछ कीचड़ भी उछला होगा। उसी दौर में उन्होंने 'गीतफरोश' कविता लिखी थी। हमने तब घर में रजतपट के चमकीले किस्से कभी सुने नहीं। किस्से सुने ए.वी.एम. के होटल के जहाँ रोज इतनी सब्जी कटती थी कि अच्छे से अच्छे चाकू कुछ ही दिनों में घिस जाते थे, फिर फिंका जाते थे। रजतपट की सारी चमक हमारे घर में इसी चाकू में समा कर आई थी मद्रास से।

चेट्टियार साहब से किसी विवाद के बाद वे गीत बेचने की दुकान बढ़ा कर घर लौट आए। 'गीतफरोश' में किसिम-किसिम के गीतों में एक गीत 'दुकान से घर जाने' का भी है। शायद जब वे तरह-तरह के गीत बेच रहे थे, तब उनके मन में घर आने का गीत 'ग्राहक' की मर्जी से बँधा नहीं था।

ए.वी.एम. की वे फिल्में, जिनमें मन्ना ने गीत और संवाद लिखे थे, डिब्बे में बंद नहीं हुईं। वे हैदराबाद के सिनेमाघरों में भी आई होंगी, पर मन्ना ने उन्हें अपनी उपलब्धि नहीं माना। हम लोगों को, अम्मा को सजधज कर उन्हें दिखा लाने का कभी प्रस्ताव नहीं रखा। शायद उनके लिए ये गीत 'मरण' के थे, फिल्मी दुनिया में रमने के नहीं, मरने के गीत थे।

साहित्य में रुचि रखनेवालों के लिए मन्ना का वह दौर प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'कल्पना' का दौर था। पर हम बच्चों की कल्पना कुछ और ही थी। घर में कभी शराब नहीं आई पर हैदराबाद में हम शराब के ही घर में, मुहल्ले में रहते थे। मुहल्ले का नाम था, टकेरवाड़ी। चारों तरफ अवैध शराब बनती थी। उसे चुआने की बड़ी-बड़ी नादें यहाँ-वहाँ रखी रहती थीं। यों हमारे मकान मालिक जिन्हें हम बच्चे शीतल भैया मानते थे, खुद इस धंधे से एकदम अलग थे पर चारों तरफ इसी धंधे में लगे लोग छापा पड़ने के डर से कभी-कभी कुछ सामान, नाद आदि हमारे घर के पिछवाड़े में पटक जाते। चार-पाँच बरस के हम भाई-बहनों की क्या ऊँचाई रही होगी तब। हम इन नादों में छिपकर तब की ताजा कहानी 'अली बाबा और चालीस चोर' का नाटक खेल डालते थे।

कभी-कभी मन्ना हमें बदरी चाचा (श्री बदरीविशाल पित्ती) के घर ले जाते। घर क्या, विशाल महल था। शतरंज के दो बित्ते के बोर्ड पर सफेद-काले रंग का जो सुंदर मेल हमने कभी अपने घर में देखा, वह यहाँ बदरी चाचा के पूरे घर में, आँगन में, कमरों के फर्श में सभी जगह पूरी भव्यता से फैला मिलता। बदरी चाचा के घर ऐसे मौकों पर बड़े-बड़े लोग जुटते थे, पर हम उन सबको उस रूप में पहचानते नहीं थे। बदरी चाचा सचमुच विशाल थे हम सब के लिए। कभी-कभी वे हम सब को हैदराबाद से थोड़ी दूर बसे शिवरामपल्ली गाँव ले जाते। वहाँ तब विनोबा का भूदान आंदोलन शुरू हुआ था। बदरी चाचा अच्छे फोटोग्राफर भी थे। उस दौर में उनके द्वारा खींचे गए चित्र आज भी हमारे मन पर ज्यों के त्यों अंकित हैं - कागजवाले प्रिंट जरूर कुछ पीले-भूरे और धुँधले पड़ गए हैं।

मन्ना कविता लिखते थे, पढ़ने भी लगे थे, शायद रेडियो पर भी। लेकिन हमें घर में कभी इसकी जानकारी मिली हो - ऐसा याद नहीं आता। तब तक घर में रेडियो नहीं आया था। हैदराबाद रेडियो स्टेशन से हर इतवार सुबह बच्चों का एक कार्यक्रम प्रसारित होता था। हम एकाध बार वहाँ मन्ना के साथ गए थे। ऐसे ही किसी इतवार को नन्दी जीजी ने लकड़हारे की कहानी माइक के सामने सुना दी थी। जिस दिन उसे प्रसारित होना था, उसके एक दिन पहले मन्ना एक रेडियो खरीद लाए थे। रेडियो सेट मन्ना की कविता के लिए नहीं, जीजी की कहानी सुनाने के लिए घर में आया था - इसे आज रेडियो में ही काम करनेवाली नंदिता मिश्र भूली नहीं हैं।

हैदराबाद से मन्ना आकाशवाणी के बंबई केंद्र में आ गए थे। तब मैं तीसरी कक्षा में भर्ती किया गया था। उस स्कूल में हमें दूसरों से, अध्यापकों के व्यवहार से पता चला था कि हमारे पिताजी को घर से बाहर के लोग भी जानते हैं। क्यों जानते हैं? क्योंकि वे कविताएँ लिखते हैं। हमारे मन्ना कवि हैं!

कवि कालदर्शी होता है? हमें नहीं मालूम था। कल क्या होगा बच्चों का, उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी करनी है - बहुत ही बड़े माने गए ऐसे प्रश्न हमारे कवि पिता ने कभी सोचे नहीं होंगे। जब एक शाम मैं और नन्दी स्कूल से घर लौटे थे तो मन्ना ने हमें बताया कि अगले दिन हम सब बंबई से बेमेतरा जाएँगे। बड़े भैया के पास। मन्ना के बड़े भैया मध्य प्रदेश के दुर्ग जिले की एक छोटी-सी तहसील बेमेतरा में तब तहसीलदार थे। हम सब बेमेतरा जा पहुँचे। दो-चार दिन बाद पता चला कि मन्ना और अम्मा वापस बंबई लौट रहे हैं और अब हम यहीं बेमेतरा में बड़े भैया के पास रह कर पढ़ेंगे। हैदराबाद में एक बार सीढ़ियों से गिरने पर काफी चोट लगने से मैं खूब रोया था। तब के बाद अब की याद है - बेमेतरा में खूब रोया, उनके साथ वापस बंबई लौटने को। आँखें तो उनकी भी गीली हुई थीं पर हम वहीं रह गए, मन्ना-अम्मा लौट गए। ताऊजी यानी बड़े भैया का प्यार मन्ना से बड़ा ही निकाला। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि बड़े पिताजी के छह में से पाँच बेटे बड़े हो कर कॉलेज हॉस्टल आदि में चले गए थे और उन्हें अपना घर सूना लगने लगा था, इसलिए उस सूने घर में रौनक लाने के लिए मँझले भाई मन्ना ने हम दोनों को उन्हें सौंप दिया था।

बंबई से मन्ना दिल्ली आकाशवाणी आ गए। तब हम भी एक गर्मी में बेमेतरा से शायद चौथी-पाँचवीं की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली बुला लिए गए। हैदराबाद, बंबई की यादें धुँधली-सी ही थीं। बेमेतरा छोटा कस्बा था और बड़े भैया सरकार के बड़े अधिकारी थे, इसलिए बाजार आना-जाना, खरीददारी, डबलरोटी - ऐसे विचित्र अनुभवों से हम गुजरे नहीं थे। दिल्ली आने पर मन्ना के साथ घूमने, खुद चीजें खरीदने के अनुभव भी जुड़े। एक साधारण, ठीक माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भरती किया। सातवीं-आठवीं-नौवीं में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मुहल्ले में मिल गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मन्ना ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया - नए मुहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलनेवाले एक छोटे-से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्ली की ठंड-गर्मी में आठ-दस मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरे' यह उन्हें पसंद नहीं था। यहाँ विज्ञान भी नहीं था। मैं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्या खोते हैं - पाते हैं। यहीं नौवीं में हिन्दी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिन्दी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानी प्रसाद मिश्र का बेटा हूँ तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते हो' कह दिया था। बाद में उनने मुझसे भी लगभग उसी तेज आवाज में पिता का नाम पूछा था। घर का पता पूछा था, फिर किसी शाम वे घर भी आए। अपनी कविताएँ भी मन्ना को सुनाईं। मन्ना ने भी कुछ सुनाया था। उस टेंटवाले स्कूल में ऐसे कवि का बेटा? मन्ना की प्रसिद्धि हमें इन्हीं मापदण्डों, प्रसंगों से जानने मिली थीं।

श्री मोहनलाल वाजपेयी यानी लालजी कक्कू मन्ना के पुराने मित्र थे। मन्ना ने उनके नाम एक पूरी पत्रनुमा कविता लिखी भी। बड़ा भव्य व्यक्तित्व। शांति निकेतन में हिन्दी पढ़ाते थे। शायद सन 1957 में वे रोम विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना करने बुलाए गए थे। वहाँ से जब वे दिल्ली आए, एक बार तो एक बहुत ही सुंदर छोटा-सा टेपरिकॉर्डर लाए थे मन्ना के लिए। नाम था जैलेसी। जैली यानी ईर्ष्या। उसमें छोटे स्पूल लगते थे। उन दिनों कैसेटवाले टेप चले नहीं थे। शहर का न सही, शायद मुहल्ले का तो यह पहला टेपरिकॉर्डर रहा ही होगा! इसका हमारे मन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। विज्ञान के आगे मैंने तो माथा ही टेक दिया था। क्या गजब की मशीन थी। हर किसी की आवाज कैद कर ले, फिर उसे ज्यों का त्यों वापस सुना दे! शायद लालजी कक्कू ने यह यंत्र इसलिए दिया था कि मन्ना इस पर कभी-कभी अपना काव्य पाठ रिकार्ड करेंगे। पर वैसा कभी हो नहीं पाया। एक तो ऐसे यंत्र चलाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी, और फिर अपनी कविता खुद बटन दबा कर रिकार्ड करना, उसे खुद सुनना, दूसरों को सुनाना - उन्हें पसंद नहीं था। बाद में हमारे एक बड़े भाई बंबई से वास्तुशास्त्र पढ़ कर जब दिल्ली आए तो जैलेसी पर मुकेश, किशोर कुमार और लता के गाने जरूर जम गए थे। आज भी हमारे घर में मन्ना की एक भी कविता का पाठ रिकार्ड नहीं है। कभी-कभी नितांत अपिरिचित परिवार में परिचय होने के बाद सन्नाटा, गीतफरोश, घर की याद, सतपुड़ा के घने जंगल आदि कविताओं के पाठ की रिकार्डिंग हमें सुनने मिल जाती हैं। ये कविताएँ उन शहरों में मन्ना ने पढ़ी होंगी। वहीं वे रिकार्ड कर ली गईं। हमें ऐसे मौकों पर लालजी कक्कू के जैलेसी की याद जरूर आ जाती है, पर ईर्ष्या नहीं होती।

कविकर्म जैसे शब्दों से हम घर में कभी कहीं टकराए नहीं। मन्ना कब कहाँ बैठ कर कविता लिख लेंगे - यह तय नहीं था। अक्सर अपने बिस्तरे पर, किसी भी कुर्सी पर एक तख्ती के सहारे उन्होंने साधारण से साधारण चिट्ठों पर, पीठ कोरे (एक तरफ छपे) कागजों पर कविताएँ लिखीं थीं। उनके मित्र और कुछ रिश्तेदार उन्हें हर वर्ष नए साल पर सुंदर, महँगी डायरी भी भेंट करते थे। पर प्रायः उनके दो-चार पन्ने भर कर वे उन्हें कहीं रख बैठते थे। बाद में उनमें कविताओं के बदले दूध का, सब्जी का हिसाब भी दर्ज हो जाता, कविता छूट जाती। भेंट मिले कविता संग्रह उन्हें खाली नई डायरी से शायद ज्यादा खींचते थे। हमें थोड़ा अटपटा भी लगता था पर उनकी कई कविताएँ दूसरों के कविता संग्रहों के पन्नों की खाली जगह पर मिलती थीं। पीठ कोरे पन्नों से मन्ना का मोह इतना था कि कभी बाजार से कागज खरीद कर घर में आया हो - इसकी हमें याद नहीं। फिर यह हम सब ने भी सीख लिया था। आज भी हमारे घर में कोरा कागज नहीं आता।

परिचित-अपरिचित, पाठक, श्रोता, रिश्तेदार - उनकी दुनिया बड़ी थी। इस दुनिया से वे छोटे-से पोस्टकार्ड से जुड़े रहते। पत्र आते ही उसका उत्तर देते। कार्ड पूरा होते ही उसे डाक के डिब्बे में डल जाना चाहिए। हम आसपास नहीं होते तो वे खुद उसे डालने चल देते। फोन घर में बहुत ही बाद में आया। शायद सन 1968 में। इन्हीं पोस्टकार्डों पर वे संपादकों को कविताएँ तक भेज देते।

बचपन से ले कर बड़े होने तक मन्ना को किसी से भी अंग्रेजी में बात करते नहीं देखा, सुना। जबलपुर में शायद किसी अंग्रेज प्रिंसिपलवाले तब के प्रसिद्ध कालेज राबर्टसन से उन्होंने बी.ए. किया था। फिर आगे पढ़े नहीं। लेकिन अंग्रेजी खूब अच्छी थी। घर में अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी कविताओं की पुस्तकें भी उनके छोटे-से संग्रह में मिल जाती थीं। पर अंग्रेजी का उपयोग हमें याद नहीं आता। बस एक बार संपूर्ण गांधी वांङ्मय के मुख्य संपादक किसी प्रसंग में घर आए। वे दक्षिण के थे और हिन्दी बिलकुल नहीं आती थी उन्हें। मन्ना उनसे काफी देर तक अंग्रेजी में बात कर रहे थे - हमारे लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। दस्तखत, खत-किताबत सब कुछ बिना किसी नारेबाजी के, आंदोलन के - उनका हिन्दी में ही था और हम सब पर इसका खूब असर पड़ा। घर में, परिवार में प्रायः बुंदेलखंडी और बाहर हिन्दी - हमें भी इसके अलावा कभी कुछ सूझा भी नहीं। हमने कभी कहीं भी हचक कर, उचक कर अंग्रेजी नहीं बोली, अंग्रेजी नहीं लिखी।

कोई भी पतन, गड्ढा इतना गहरा नहीं होता, जिसमें गिरे हुए को स्नेह की उँगुली से उठाया न जा सके - एक कविता में कुछ ऐसा ही मन्ना ने लिखा था। उन्हें क्रोध करते, कड़वी बात करते हमने सुना नहीं। हिन्दी साहित्य में मन्ना की कविता छोटी है कि बड़ी है, टिकेगी या पिटेगी, इसमें उन्हें बहुत फँसते हमने देखा नहीं। हां अंतिम वर्षों में कुछ वक्तव्य वगैरह लोग माँगने लगे थे। तब मन्ना इन वक्तव्यों में कहीं-कहीं कुछ कटु भी हुए थे। एक बार मैं चाय देने उनके कमरे में गया था तो सुना कि वे किसी से कह रहे थे, 'मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं!'

हम उनके स्नेह की उँगली पकड़ कर पले-बढ़े थे। इसलिए ऐसे प्रसंग में हमें उन्हीं की सीख से खासी कड़वाहट दिखी थी। पर उन्हें एक दौर में गांधी का कवि तक तो ठीक, बनिए का कवि भी कहा गया तो ऐसे अप्रिय प्रसंग उनके संग जुड़ ही गए एकाध। फिर अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा है कि 'दूध किसी का धोबी नहीं हैं। किसी की भी जिन्दगी दूध की धोई नहीं है। आदमकद कोई नहीं है।' कवि के नाते उनका कद क्या था - यह तो उनके पाठक, आलोचक ही जानें। हम बच्चों के लिए तो वे एक ठीक आदमकद पिता थे। उनकी स्नेह भरी उँगली हमें आज भी गिरने से बचाती हैं।

                                                                        ---अनुपम मिश्र---