मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

चालीस के बाद प्रेम


श्‍यामलाल एक क्षण ठिठके, फिर नाले में उतर पड़े। नाले में कीचड़ नहीं था; उसमें सूखी पत्तियाँ, अद्धे, गुम्‍मे, चीथड़े और एक खास तरह की धूल थी जो मोहल्‍ले के लोगों ने अपने-अपने घरों से बुहार कर सरकारी नाली में धकेल दी थी। पायँचे चढ़ा कर, दामन समेट कर वह उठकुरवाँ बैठ गए और पुलिया के नीचे झाँकने के लिए अपना सिर नाले की उसी अज्ञात गन्‍दगी के इतने करीब ले आए कि विनम्रता का एक बिल्‍कुल नया उनुभव उन्‍हें हुआ। पुलिया का मोखा जितना चौड़ा नगरपालिका ने बनवाया था उतना नहीं रह गया था - कचरे ने स्‍वाभाविक रूप से उसमें घर कर लिया था और सिर्फ एक छोटा-सा छेद रह गया था जिसके भीतर श्‍यामलालजी को अँधेरा ही दिखाई दिया, क्‍योंकि पुलिया का दूसरा छोर तो कचरे से बिल्‍कुल ही ताया हुआ था।

वह अपनी बिल्‍ली को खोज रहे थे। इतवार का दिन था। जरा देर में पटरी पर चार-छह लड़के जमा हो गए। श्‍यामलाल के दो लड़के जो अपने बाप को देखते खड़े थे, इसी भीड़ में मिल गए था। गए थे। एक-एक कर कई चकित सम्‍भ्रान्‍त अधेड़ लोग तरकारी का झोला लिए चकित-से उनके पास से गुजर गए : एक नौजवान, जिसका स्‍वास्‍थ्‍य आतंककारी और चेहरा विज्ञापनों जैसा था, अधिकारपूर्वक पास आ कर खड़ा हो गया। श्‍यामलाल को रँगे हाथों पकड़ने की नीयत जैसा कुछ दिखा कर उसने पूछा, ''क्‍या है?''

श्‍यामलालजी ने कहा, "बिल्‍ली है।"

"आप की बिल्‍ली है?" नौजवान ने पूछा। उत्तर प्रदेश के निवासी श्‍यामलाल को पंजाबी लहजे में सवाल सुन कर लगा कि 'आपकी' पर इतना जोर दिया गया है कि जैसे बिल्‍ली का किसी-न-किसी का होना तय हो और सवाल इतना ही रह गया हो कि वाकई आप की है या किसी और की? सच पूछिए तो सवाल का इतना बारीक अर्थ न था। पंजाब में पूछा ही ऐसे जाता है और उसमें भ्रम भी ऐसा ही होता है। जैसे पूछा जाए कि "सात बजे हैं?" तो सुनाई पड़ेगा कि क्‍या कहते हो। अभी सात कहाँ से बज गए?

श्‍यामलाल ने कहा, "जी हाँ, मेरी बिल्‍ली है।"

"पुलिया के नीचे चली गई है?"

श्‍यामलाल ने कोई जवाब न दिया। वह पंजाब के धाकड़पन से ही नहीं, विज्ञापनी चेहरेवाली कुल नई पीढ़ी के ठसपने से भी एक साथ जूझने की हिम्‍मत न कर सके। उन्‍होंने और भी झुक कर मानो नाक रगड़ते हुए कोशिश की कि पुलिया के भीतर अँधेरे में बिल्‍ली की चमकती आँखें दिख जाएँ और आवाज दी, "मुनमुन, मुनमुन !"

नौजवान ने सोचा होगा, मुझे यकीन दिलाने के लिए बिल्‍ली का नाम ले कर पुकार रहे हैं। परन्‍तु यह सोचना भी एक निर्दय व्‍यंग्‍य होता। मुनमुन श्‍यामलाल से ऐसे डरती थी जैसे कुत्ते से भी न डरती होगी। वह उन्‍हें देखते ही भागती। मगर इस वक्‍त श्‍यामलाल ने न जाने क्‍यों मान लिया था कि यह रिश्‍ता टूट गया है। वह एक संकट में थे और उन्‍हें विश्‍वास था कि बिल्‍ली भी एक संकट में है।

नौजवान ने एक दोस्‍त और बुला लिया था। अबकी उसने पूछा, "यह बाहर क्‍यों नहीं निकल रही?"

श्‍यामलाल को अचानक दो चमकती हरी बिंदियाँ दिखाई दे गईं। मुनमुन की आँखों के अलावा वे और क्‍या हो सकती थीं? मुनमुन ऐसे देखती थी जैसे कोई बहुत गम्‍भीर व्‍यक्ति हो जबकि थी वह अपनी उम्र के हिसाब से भी अधिक गावदू। वही उजबक आँखें थीं। जरा देर में उसका सफेद थूथन भी नजर आने लगा। पर उस चेहरे पर इस वक्‍त वह भय न था जिसे देखने के श्‍यामलाल आदी थे। उस पर भरोसा था कि मैं जब तक यहाँ से न निकलूँ, सुरक्षित हूँ। जानवर इससे आगे सोच नहीं पा रहा था - कि जब कभी निकलेगी तो क्‍या होगा!

एकाएक श्‍यामलाल को इतना गुस्‍सा आया कि उन्‍होंने जवाब दिया, "जब बाहर निकलेगी तो पूछ कर आपको बताऊँगा।" यह कहते ही उन्‍हें चेत हुआ कि उन्‍होंने अपने आपको उस लड़के के बराबर गिरा लिया है। इस बेवकूफ अमीर का तिरस्‍कार करने के लिए मुझे यह भी मंजूर है, उन्‍होंने सोचा। लड़के का दोस्‍त मामूली हैसियत का आदमी था। खुशामदाना तौर पर अपने दोस्‍त की आड़ करते हुए उसने पूछा, "बताती है?"

श्‍यामलाल इतने उम्‍दा आदमी थे कि उन्‍हें तुर्की-बतुर्की नागवार न गुजरी। मगर वह इतने उथले न थे कि हर ऐसे मजाक को पसन्‍द करें जिसमें कोई हमदर्दी न हो। ज्‍यादातर मजाक आजकल इसी किस्‍म के होते हैं, उन्‍होंने अपने मन में कहा, और यह भी मेरे जैसे आदमियों के लिए आसान नहीं रह गया है कि मैं हँस सकूँ।

यह खयाल आते ही वह चौकन्‍ने हो गए। वह अपने पर तरस खा रहे थे जो कि उन्‍होंने जवानी से ले कर अब तक सचेत रह कर अपने को नहीं करने दिया था। कुछ दिनों से वह देखते आ रहे थे कि वह बदल रहे हैं; चालीस पार करते-करते आदमी का गैर-मामूलीपन खत्‍म होने लगता है, यह उन्‍होंने सुन रखा था। वह अपने अन्‍दर ऐसा न होने देंगे। यह उनका दृढ़ निश्‍चय था। मगर कुछ ऐसा तो हो ही रहा था। जैसे उन्‍हें जानवर से प्‍यार हो चला था जो इस उम्र में बहुतों को अक्‍सर होता है। वह जानते थे कि यह उनके और उनकी पत्‍नी के जिन्‍दगी से थक चले होने का एक नतीजा है। मगर वह यह सोच कर खुश होते थे कि उनके बच्‍चे जो कि वास्‍तव में जानवर को पालने के लिए घर लाए थे, औरों से अच्‍छे इंसान बनेंगे। सिर्फ उस वक्‍त जब उन्‍हें खबरों से राजनीति की निर्दयता का क्षणिक अनुभव होता वह यह सोच कर सहम जाते कि उनके बच्‍चे अपने प्‍यार-भरे दिल से, जो उन्‍हें जानवर की बदौलत मिलेगा, कैसे आनेवाले हकिमों का सामना करेंगे? स्‍वार्थ के कारण जवानी के प्रेम-व्‍यापारों में उन्‍होंने गच्‍चा खाया था। वही स्‍वार्थभाव वह अब अपने जानवर पर थोप रहे हों तो क्‍या अजब है! पर उनके मन को तो इसका पता भी न था - और जानवर को पता चला भी हो तो वह कर ही क्‍या सकता था। हाँ, बिल्‍ली की बात थोड़ी-सी और थी। वह आदमी को उतने ही पास आने देती है जितनी उसे जरूरत हो और कुत्ते की तरह आदमी की खुदगर्जी का शिकार बनने के लिए अपने को समर्पित नहीं करती।

मुनमुन की माँ ने जब छह महीने हुए तीन बच्‍चे दिए थे तो घर के मानवों को एक नई परिस्थिति का अनुभव हुआ था। टीना अपने बच्‍चों की सुरक्षा का अपना जंगली तरीका अपनाना चाहती थी जिसे सात घर दिखाने का नाम मनुष्‍यों ने दिया है, मगर वह भी इतनी आश्रित हो चुकी थी कि उसके लिए सात घर का मतलब हो गया था श्‍यामलाल के ही घर में सात जगह। और इसका मतलब था कि बच्‍चों को बिलौटे से बचाने में हर आदमी को बिल्‍ली की मदद करनी थी। श्‍यामलाल के बच्‍चे और उनकी माँ बिल्‍ली के बच्‍चों को अलमारी में, बंद कमरे में, गोद में, बिस्‍तर में रह कर अपनी समझ से बिल्‍ली के पक्ष में अपना काम करते रहे, मगर बिल्‍ली के तरीकों और उनके तरीकों में लगातार एक मतभेद चलता रहा। जिसे वे सुरक्षित समझते, टीना उसे सूँघ कर नामंजूर कर देती और जिस जगह को वे बिलौटे के लिए सबसे अधिक सुगम समझते टीना उसे पसन्‍द करके, खँखोड़ कर उसकी शक्‍ल इस तरह बदलने की जिद पकड़ लेती कि जिससे वह उसे काफी प्राकृतिक मालूम हो सके। यह किस्‍सा चलता रहा। गर्मियों की रात में जब सारा घर बाहर सो रहा था, बिलौटे ने रोशनदान से घुस कर एक बच्‍चे को खत्‍म कर दिया। टीना की हिंसक फुँफकार से जग कर जब सारा घर भीतर आया तो लाश जमीन पर पड़ी थी और कमरा टीना और बिलौटे के पेशाब की बदबू से भरा हुआ था जो क्रोध के क्षणों में हो गया था। कुछ दिन बाद एक और बच्‍चे को बिलौटे ने गुसलखाने की ठंड में आराम करती माँ को लड़ने का मौका दिए बिना बिल्‍कुल उसके सामने खत्‍म किया। इस बार बच्‍चे को वे लोग उठा कर लाए तो उसमें जान थी। श्‍यामलाल की बड़ी लड़की उसे अस्‍पताल ले गई। शरीर पर कहीं खून न था। मगर उसकी नट्टी बिलौटे ने भीतर-ही-भीतर कुरमुरा दी थी। अस्‍पताल में उसने वह सब दूध और ब्रांडी उगल दी जो घर पर बच्‍चों ने उसे बचाने की कोशिश में पिलाई थी और मर गया।

तब सारी गर्मियाँ श्‍यामलाल मुनमुन को बन्‍द टोकरी में सिरहाने रख कर सोए और सारा घर टीना से एक नई किस्‍म का संवाद सीखने में लगा रहा, क्‍योंकि टीना जब उसकी अक्‍ल में आता मुनमुन की टोकरी में घुस जाना चाहती और जब मन होता उसमें से निकल आना चाहती - उसको चुपचाप बैठने का हुक्‍म देना बेकार था - रात में कई बार उसके लिए जागना हर एक को बिलौटे के खिलाफ कार्रवाई की खातिर इतना जरूरी मालूम होने लगा कि जैसे वे सब बिल्लियाँ हों।

श्‍यामलाल ने छेद में हाथ डाल कर मुनमुन को पकड़ने का इरादा किया। भीतर कोई कनखजूरा या बिच्‍छू हो सकता था, उन्‍होंने डर और इंसानियत के विरोधी भावों का यह अजब मिला-जुला अनुभव किया। फिर उन्‍होंने ऊपर देखा। वह ठस दिमाग आदमी मय अपने खुशामदी साहब के जा चुका था - छोकरे भी। सिर्फ उनके अपने दो लड़के थे। उनका तनाव जाता रहा। यदि उन पर कुछ बुरी गुजरे तो वह तमाशा तो न बनेंगे। उन्‍होंने निर्मल मन से हाथ भीतर कर दिया। भीतर की ठंडी नम जमीन, जो छूने से ही साफ मालूम होती थी, उनकी हथेली से लगी। तत्‍काल उस मिट्टी की खुशबू उन्‍हें आने लगी। "मुनमुन, मुनमुन," उन्‍होंने आवाज दी। वह अब इस तरह बैठे थे कि भीतर झाँक नहीं सकते थे, मगर समझ सकते थे कि मुनमुन उनके हाथ की पहुँच से काफी दूर है।

एकाएक उन्‍हें गोगी की महीन आवाज सुनाई दी। वह टीना के तीन नए बच्‍चों में से एक और सबसे दलिद्दर थी। आवाज के सहारे उनके हाथ ने गोगी को दबोच लिया और वह लटके हुए चारों पंजों को फैलाए और उनके नाखून निकाले गर्दन से टँगी हुई बाहर आ गई।

लड़कों ने चिन्‍ता से कुछ कहा, मगर वह आवाज उस सड़क के यातायात की तरह स्‍वाभाविक थी जो कि श्‍यामलाल से कुछ दूर थी और ज्‍यादा चल नहीं रही थी। वह मुड़े और उन्‍होंने लड़कों से एक वाक्‍य कहा जो कि न उपदेश था, न आदेश, वह बराबर के लोगों से बोला गया एक वाक्‍य था : "मुश्‍तू और टीमा और टीना भी इसी सुरंग में होंगे," जो कि लड़के उनसे पहले ही समझ चुके थे।

मुनमुन के होने के पाँच महीने बाद टीना ने तीन बच्‍चे और पैदा किए थे। इस बार ये तीनों आजादी से पले और बढ़े। बिलौटा कहीं दिखाई न देता था। एक मत यह था कि वह पालतू था और अपने मालिक के मद्रास तबादले के साथ वहीं चला गया है। टीना बच्‍चों को बहुत थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ती, जबकि उन्‍हें इतनी पहरेदारी की जरूरत न रह गई थी। वह सोती भी बहुत, और अपनी पहलौठी की मुनमुन को जो कि कद में लगभग उसके जितनी हो चली थी, अपना दूध बाकी तीनों के साथ पीने देती। मुनमुन टीना की गैरहाजिरी में चुपचाप आ कर बच्‍चों को इस तरह सूँघती जैसे वे कोई नई और विचित्र चीजें हों। एक दिन उसने उन्‍हें चाटना भी शुरू कर दिया और जब वह कूदने-फाँदनेवाले हुए तो उन्‍हें अपनी दुम भी खेलने को देने लगी। ये तीनों माँ की तरह काले और सफेद थे, मुनमुन की तरह भूरेमायल नहीं। वे इतने सुन्‍दर और मुलायम भी नहीं थे। मुनमुन दिन-ब-दिन खिलौने की तरह खूबसूरत और साथ ही जाहिल बनती जा रही थी। उसने एक मरतबा एक ही दिन में तीन बार घर के तीन कोनों में गंदगी करके रख दी।

श्‍यामलाल ने सोचा, इसे सजा की जरूरत है। उन्‍होंने कहीं पढ़ रखा था कि बिल्‍ली कितने ऊँचे से भी क्‍यों न गिरे जमीन पर आते-आते अपनी मांसपेशियों को इस तरह ढील दे देती है कि पंजों के बल सुरक्षित ही गिरे। उन्‍होंने अपना गुस्‍सा तौला और ठंडे दिमाग से मुनमुन को उठा कर उसी के हगे के सामने पटक दिया। वह पंजों के ही बल गिरी : श्‍यामलाल आश्‍वस्‍त हुए कि यह सजा सफल होगी। मुनमुन सीधे घर से बाहर भागी और रात-भर नहीं आई। सवेरे वह लौटी तो पिछली दाहिनी टाँग जमीन पर रख नहीं पा रही थी। श्‍यामलाल के बच्‍चे फिर अस्‍पताल गए। टाँग की हड्डी बच गई थी, मगर वे तन्‍तु जिनके बारे में श्‍यामलाल ने पढ़ रखा था टूट गए थे। लम्‍बे इलाज के बाद वह जिस दिन पहली बार फिर से पेड़ पर चढ़ी, श्‍यामलाल ने उसे फिर प्‍यार करना चाहा। वह पकड़ में तो आ गई क्‍योंकि उसकी टाँग हमेशा के लिए कमजोर हो गई थी, मगर उसने प्‍यार ऐसे कबूल किया जैसे वह बनी ही इसलिए है और कोई एहसान नहीं मान रही है। इसके बाद वह और भी प्‍यारपसन्‍द और आरामतलब हो गई। उसने कभी न कोई चिड़िया पकड़ी, न चूहा। अधिक-से-अधिक तितली को देख कर वह उठ बैठती और कान खड़े करके अपनी नजर से उसका पीछा करती रहती। एक ही और काम था जिसमें वह फुर्ती दिखलाती थी। जैसे ही तीनों बच्‍चे टीना का दूध पीने जुटते, वह भी दौड़ी हुई आती और ठेलठाल कर अपने मुँह के लिए उनके बीच में जगह बना लेती। उस वक्‍त घर के सब लोगों को उसकी चाल पर राय देने का मौका मिलता - "मैंने देखा कि टाँग चला रही है," कोई कहता। कोई कहता, "नहीं, अभी थोड़ा-सा-बस थोड़ा सा जमीन पर छुआती है।"

न जाने किस तरह वह बहस अपनी शक्‍ल बदलने लगी और विषय यह हो गया कि आखिर कब तक टीना और उसके बच्‍चे घर में पलते रहेंगे? कोई साफ-साफ यह नहीं कहता था कि इन्‍हें हम नहीं रखना चाहते। यह कहना कि इनके खाने पर बहुत खर्च हो रहा है, और भी अप्रिय सत्‍य था। टीना रहेगी, यह भी बिल्‍कुल निर्विवाद था। प्रश्‍न इतना ही था कि इन बच्‍चों को कोई पालने के लिए माँग क्‍यों नहीं ले जा रहा है। एक अजब इंसानी तर्क से श्‍यामलाल सोच रहे थे कि अगर ये इतने बड़े न होने पाएँ कि टीना के लिए इनसे बिछ़ड़ना बहुत दुखद हो जाए तो इन्‍हें किसी को दे दिया जा सकता है। इतने बड़े वह किस वक्‍त तक होंगे, यह जानने का कोई वैज्ञानिक आधार उनके पास न था। बस उन्‍होंने मान लिया था कि ऐसा कोई वक्‍त होता होगा। जहाँ तक टीना का सवाल था वह इतना ही जानती थी कि तीनों बच्‍चे इस बार बिलौटे से बच गए हैं और जिस घर में वह रहती है उसमें ये भी रह रहे हैं। एक दिन श्‍यामलाल ने अपने बच्‍चों को समझाया कि जानवर बहुत समय तक अपने बच्‍चों को आदमियों की तरह माँ पर निर्भर नहीं रखते, वे उन्‍हें आत्‍मनिर्भर बनने को छोड़ दिया करते हैं। बच्‍चों ने पूछा, "मगर मुनमुन क्‍यों अब तक माँ का दूध पीती है?" और यह प्रसंग वहीं समाप्‍त हो गया।

पिछले तीन दिन से श्‍यामलाल के दिमाग में कई तर्क उपज रहे थे जैसे यह कि प्रकृति जानवरों की संख्‍या का नियन्‍त्रण करती है… वह नवजात शिशुओं की मृत्‍यु का प्रबन्‍ध कर देती है नहीं तो दुनिया साँपों और घड़ियालों से भर जाए… जानवर को पल कर उसे पराधीन बना देना कितना निर्दय है… उसे अपनी आजादी का कुछ हिस्‍सा अपने पास रखने देना चाहिए… इसके पहले कि वह बिल्‍कुल असहाय हो जाए उसे स्‍वतन्‍त्र कर देना चाहिए। अन्‍त में वह किसी नतीजे पर न आते। किसी ने जब यह सुझाव दिया कि जानवर पालने के तरीकों के अनुसार बिल्‍ली के फालतू बच्‍चों को पैदा होते ही बाल्‍टी में डुबो कर खत्‍म कर दिया जाता है तो सारे घर ने इसका घोर विरोध किया और श्‍यामलाल सोचने लगे कि क्‍या इंसान के दिमाग ने बस इतनी ही तरक्‍की की है जो इतना सीधा और ठोस तरीका निकाला?

उन्‍हें एकाएक सूझा कि तीनों बच्‍चों को सिखाना चाहिए कि आदमी से वे सिर्फ एक हद तक रिश्‍ता रखें। जैसे वे रहें बाहर और घर में जितनी बार चाहें आ जाया करें। क्षण-भर के लिए इस खयाल में छिपी हुई चालाकी भी उन्‍हें दिखाई दे गई। यह प्रमाण था कि वह चालीस पार करने पर भी अपने को ईमानदारी से समझना भूले नहीं हैं। मगर मूलत: यह एक सही विचार है, उन्‍होंने सोचा और सीधे इस नतीजे पर आ गए कि अगर इससे मेरा जाती फायदा हो भी जाए तो भी मूलत: यह जानवर के हित में होगा। वह दरअसल चालीस के हो चुके थे। उस रात को वह मुनमुन को गोद में ले कर घर से सौ गज दूर गए। इससे ज्‍यादा उनकी हिम्‍मत न पड़ी।

लँगड़ी बिल्‍ली को उन्‍होंने वहीं छोड़ दिया और वह दुम दबा कर सर्र से सबसे नजदीक की झाड़ी में गायब हो गई।

आधी रात को काँपती हुई वह खिड़की से घर में दाखिल हुई। उसकी आलसी आदतों को जो जानते थे उन्‍हें खिड़की के जँगले से गुजरने की उसकी कोशिश देख कर इस मुसीबत में भी हँसी आती।

वह घर तो आ गई थी मगर हक्‍की-बक्‍की रह गई थी। जैसे यह भाव उसके चेहरे पर छप गया और फिर जब कभी वह सामने आ पड़ती उसका हक्‍का-बक्‍कापन ही दिखाई देता। धीरे-धीरे वह अच्‍छा लगने लगा और घर-भर ने उसे उसकी सुन्‍दरता की पहचान बना लिया।

अपने प्रयोग की प्रौढ़ बुद्धि से संतुष्‍ट होक दूसरे दिन शाम होने पर श्‍यामलाल अपने बच्‍चों से बोले, "इन तीनों को हम ले चलें और घर के सामनेवाले मैदान में छोड़ दें। यह अपने आप वापस आ जाएँगे।"

बच्‍चे उन्‍हें मैदान में खेलते हुए देखने की कल्‍पना कर खुश हुए - उन्‍हें घर में ही देखते-देखते वे ऊबे जा रहे थे। वे बिलौटे को भूल चुके थे। "मगर चिट्टी के घर के सामने मत छोड़िएगा, उससे हमारी बोलचाल बन्‍द है," उन्‍होंने कहा।

श्‍यामलालजी ने और रात होने का इंतजार किया। उन्‍होंने अपने को भरोसा दिलाया कि चाँदनी है, इससे जो वह करने जा रहे हैं उसमें जानवर के लिए खतरा कुछ कम हो जाता है। वह तीनों को उठा कर ले गए और सूने मैदान में उन्‍हें गोद से उतार दिया। मुनमुन को उन्‍होंने जहाँ अकेले रहने की शिक्षा दी थी, वहाँ से यह जगह उनके घर के और नजदीक थी। तब वह वहाँ से ले कर अपने घर तक चहलकदमी करने लगे। दो-तीन फेरियों तक तो उन्‍हें बच्‍चों की चीं-चीं सुनाई देती रही, उसके बाद आवाजें बन्‍द हो गईं। वह अगली फेरी में बच्‍चों के और नजदीक तक गए। दो बच्‍चे एक घर के बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे, एक का पता न था।

सवेरे आएगा वह भी, उन्‍होंने कहा और घर लौट आए। हस्‍बमामूल सब के सो जाने का इंतजार करते रहे, क्‍योंकि उनको कुछ देर अकेले जाग कर सोने की आदत थी।

पर जब नींद के ठीक पहले का शून्‍य उनको हँस-हँस कर डुबोने लगा तो वह चौंक कर उठ बैठे और उन्‍होंने बच्‍चों को एक बार फिर देख आने का निश्‍चय किया।

उन्‍होंने हर मकान के बरामदे में झाँकना शुरू किया। जाड़ा पड़ने लगा था, लोग अन्‍दर सो रहे थे। कोई भी जाग पड़ता तो जवाबतलब करता। वह दबे पाँव हर बरामदे में एक कदम रख कर निगाहें चारों और दौड़ाते और वही एक कदम दबे पाँव वापस ला कर अगले मकान को चल देते। आखिरकार एक बरामदे में दो बच्‍चे मिल गए। दोनों गहरी नींद में सिकुड़े एक-दूसरे से पैबस्‍त पड़े थे। उन्‍होंने चार कदम और बढ़ कर उन्‍हें उठा लिया - चाहे कोई जाग ही जाए। लौटते हुए उन्‍हें कहीं से तीसरे की डरी हुई धीमी-धीमी चीं-चीं सुनाई दी। इस बार सहज भाव से वह दूसरी मंजिल के एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए और पहले बरामदे में उन्‍हें तीसरा बच्‍चा भी मिल गया।

घर वापस आ कर वह लेटे और फौरन सो गए। अगले दिन इतवार था। उठते ही श्‍यामलाल के बच्‍चों ने टीना के पास जा कर उसके बच्‍चों को देखा। जब उन्‍हें बताया गया कि ये तीनों अपने आप नहीं आए, इन्‍हें लाया गया था तो उन्‍होंने कहा तो कुछ नहीं, मगर श्‍यामलाल को मालूम हो गया कि उन पर सब का विश्‍वास कुछ कम हो गया है।

उनको कुछ बहुत दुख न हुआ। वह जानते थे कि उन्‍हें अपने स्‍वभाव की यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। वह कोई गलत काम नहीं कर रहे थे, कोई निर्दयता, कोई क्षुद्रता नहीं कर रहे थे - वह सिर्फ एक निर्भीक प्रयोग कर रहे थे जिसमें जोखिम था तो, पर नपा-तुला। वह चाहते थे कि उन्‍हें बस एक और मौका दिया जाए जैसा जिन्‍दगी में हर बार वह उनसे माँगते आए थे जिन्‍होंने उन्‍हें प्‍यार दिया था।

उन्‍होंने कहा, अगर हम टीना और मुनमुन को भी साथ ले जाएँ और पाँचों को घर से कुछ और दूर छोड़ें तो टीना इनको अपने साथ वापस ले आएगी। यह भी हो सकता है कि एक-दो बच्‍चे रास्‍ते में किसी घर में रह ही जाएँ - रह जाएँ तो अच्‍छा ही है, वहीं पल जाएँगे। यह भी हो सकता है कि कोई रास्‍ते से खुद इन्‍हें उठा कर अपने घर ले जाए…

और फिर सबकी सहमति ले कर जो किसी ने उन्‍हें खुलेआम नहीं दी, उन्‍होंने बिल्‍ली के परिवार को एक-एक करके अपनी खचड़ा मोटरकार में भर लिया। यह निहायत मुश्किल काम था। टीना ने और उसके हर बच्‍चे ने विरोध किया। श्‍यामलाल के बच्‍चे पहले तो सकपकाए खड़े देखते रहे, फिर उन्‍होंने बिल्लियों की गिरफ्तारी में मदद की जिससे बिल्लियों को तकलीफ न हो और एक ने कहा कि आप वहाँ किसी को पटक मत दीजिएगा।

जब कार चली तो टीना घबरा कर इस गद्दी से उस पर टहलने और अपने बच्‍चों को उसी तरह बुलाने लगी जैसे दूध पिलाने के लिए बुलाती थी। शायद वह कोई और आवाज थी जिसकी ममता में दूध पिलाने को बुलानेवाली पुकार से सूक्ष्‍म भेद था। श्‍यामलाल बाजार को मुड़नेवाली सड़क छोड़ कर सीधे बढ़ते गए। इतना घर से बहुत दूर होगा, उन्‍होंने सोचा और लौट पड़े। एक जगह और रुके, पर वह भी उन्‍हें घर से बहुत दूर जान पड़ी। सब निर्णय उन्‍हीं के थे और उन्‍हें संतोष न मिल रहा था। आखिर बाजारवाले मोड़ पर आ कर उन्‍होंने सड़क के एक किनारे एक भलेमानस आदमी को पेड़ के नीचे सुस्‍ताते देखा। यहीं ठीक है। आदमी ने गाड़ी रुकते और बिल्लियों को दरवाजे से कूद कर बाहर आते देखा और वैसे ही बैठा रहा। मगर श्‍यामलाल जो कर रहे थे उसमें उसे चुपचाप अपना साझी मान चुके थे। टीना सड़क पर आते ही चारों ओर देख कर चौकन्‍नी हुई। फिर कान खड़े करके और दुम दबा कर सीधे सड़क के उस पार भागी। मुनमुन उसके पीछे-पीछे दौड़ गई और दोनों सड़क के पार की पटरी पर बैठ कर एक बार इधर और एक बार उधर देखने लगीं। वे सर साथ-साथ घुमातीं। उनके कान खड़े थे और मुँह खिंच कर आगे को निकल आया था। टीना के सफेद पैरों और सफेद सीनेवाला जिस्‍म तना हुआ था। यह देख कर श्‍यामलाल को धक्‍का-सा लगा। "टीना-टीना!" उन्‍होंने पुकारा। मगर टीना वापस आना नहीं अपने बाकी बच्‍चों को इस पार ले जाना चाहती थी। श्‍यामलाल ने उन्‍हें उठाया और टीना की तरफ ले चले। वह तेजी से आगे बढ़ी और बच्‍चों को पुकार कर वापस मुड़ कर वहीं जा बैठी जहाँ पहले थी।

शायद यह जगह भी घर से ज्‍यादा दूर है। मगर नहीं। मुझे पूरी उम्‍मीद है कि इन्‍हें वह घुमा-फिरा कर यहाँ से घर की तरफ ले जाएगी… और फिर जो होगा वह स्‍वाभाविक तौर पर होगा। जो भी हो, हो। मैं इन्‍हें मारने के लिए नहीं छोड़ रहा हूँ। उनकी माँ उनके साथ है। उन्‍होंने कई बार हल्‍के से और एक बार जोर से अपने मन में कहा और वापस आ गए।

किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। थोड़ी देर बाद जब घर का काम खत्‍म हो चुका तो उनकी पत्‍नी आ कर कमरे में बैठीं। धीरे से बोलीं, "कहाँ छोड़ा है उनको?"

श्‍यामलाल ने बताया कि बाजारवाले मोड़ पर। वह चुप रहीं। श्‍यामलाल ने कहा, "दूर नहीं है। टीना आ जाएगी।" उन्‍होंने बच्‍चों का नाम नहीं लिया।

"टीना पिछवाड़े के स्‍कूल से आगे आज तक नहीं गई है," वह कहकर चुप हो गईं। फिर काफी देर बाद बोलीं, "टीना दो-तीन दिन के पहले नहीं आ सकती।" वह आँखें मूँदें बैठी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान तनी हुई थी। वह बिल्‍ली के साथ किए गए प्रयोग की बेदर्दी और अपना पुराना सिर-दर्द साथ-साथ सह रही थीं।

थोड़ी देर बाद श्‍यामलाल ने पूछा, "दो-तीन दिन कहाँ रहेगी?"

पत्‍नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती, परंतु वह बच्‍चों को अकेला छोड़ेगी नहीं, जहाँ वे रहेंगे वहीं वह रहेगी।"

श्‍यामलाल बोले, "तो क्‍या यह भी हो सकता है कि वह लौट कर न आए?"

पत्‍नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर वह आएगी तो दो-तीन दिन बाद ही आएगी। हफ्ते-भर बाद भी आ सकती है।"

श्‍यामलाल ने कहा, "नहीं, इतने दिन तो बहुत होते हैं।"

अपने हाथ से अपना सिर दबाते हुए पत्‍नी ने कहा, "तुम बाजार से खाना ले आओ। मैंने पकाया नहीं है।"

श्‍यामलाला के साथ बाजार जाने के लिए उनके दो बच्‍चे फौरन तैयार हो गए। वे घर से निकले तो श्‍यामलाल ने कहा, "हम गली-गली जाएँगे।"

एक बच्‍चे ने कहा, "सड़क-सड़क चलिए क्‍योंकि वह सीधे रास्‍ते से घर आ रही होगी।" श्‍यामलाल ने कहा, "नहीं, हो सकता है वे लोग किसी घर में दुबक गए हों, हम गलियों से हो कर जाएँगे और सड़क से हो कर आएँगे।"

गलियों में उन्‍हें कई बिल्लियाँ मिलीं - छोटी, बड़ी, चोरों की तरह दुम दबा कर सरकती हुई और बेखबर घूरे को देख कर कुरेदती हुई। वे सब दूसरी बिल्लियाँ थीं। वे पास आते ही कितनी अजनबी लगती थीं और कितनी पराई भी।

गोगी को पकड़ कर खींच निकालने के बाद श्‍यामलाल को विश्‍वास हो गया था कि टीना और उसके सब बच्‍चे इसी सुरंग में हैं। वह इतनी सँकरी और नीची थी कि यह विश्‍वास सिर्फ वही कर सकता था जो बिल्लियों की सिकुड़ सकने की क्षमता जानता हो। श्‍यामलाल ने वहीं जा कर पूछताछ की थी जहाँ वह सवेरे उन्‍हें त्‍याग गए थे। वह नहीं जानते थे कि जब वह अकेले घर वापस जा रहे थे तो इतवार को छज्‍जों पर खामख्‍वाह खड़े बहुत-से लोगों ने उन्‍हें देखा था। हर छज्‍जे पर बातचीत हुई थी कि यह आदमी कर क्‍या रहा है। निश्‍चय ही कुछ लोग बिल्‍कुल बोदे रहे होंगे। उनमें से कुछ ने श्‍यामलाल का बहुत राजदाँ बनते हुए कहा कि उन्‍होंने समझा था कि श्‍यामलाल अपनी बिल्लियों को छोड़ने नहीं अपनी बिल्लियों को पकड़ने आए हैं। "क्‍या अभी तक मिली नहीं?" उन्‍होंने पूछा। यह पर्दादारी लोग बिना माँगे कर रहे थे जिससे वह श्‍यामलाल को भय की तरह रहस्‍यमय लगी। उन लोगों के सामने जो उन्‍हें इतना गलत समझ रहे थे सच बोलना कितना निराशाजनक होता। "हाँ, मगर आप ने उन्‍हें जाते किधर देखा था?" उन्‍होंने जैसे डकैतों के सामने मीठी बोली से काम निकालना चाहा।

एक बड़ी सींक-सी औरत बोली, "इधर तो वे आ ही नहीं सकतीं, हाँ। मेरा कुत्ता बिल्लियों को फाड़के रख देता है। डरिए नहीं, मैंने इसलिए उसे बाँध दिया है। वे वहीं नाले में कहीं होंगीं।"

सुरंग का दरवाजा उन्‍होंने एक गुस्‍से से ढाँक दिया। गोगी को गोद में ले कर वह घर की तरफ दौड़े। वह अपनी बड़ी लड़की को बुलाने जा रहे थे जिसकी आवाज सुन कर मुनमुन बोला करती थी और वह अपनी पत्‍नी को भी बुलाने जा रहे थे जो रोज उनके घर लौटने पर उन्‍हें बताया करती थी कि आज टीना ने क्‍या किया।

सब कोई आए। लड़की ने मुनमुन को दो बार बुलकारा तो उसने सिर बाहर किया और पकड़ ली गई। मुश्‍तू आदतन मुनमुन के पीछे-पीछे निकल आया। मगर टीना अपनी सुरंग के दरवाजे तक आ कर फिर भीतर चली गई। उसके पास अभी शीमा थी।

भीड़ लग गई थी। जैसे वे दोनों दर्शकों के लिए संवाद बोल रहे हों, श्‍यामलाल ने पत्‍नी से कहा, "तुम बुलाओ।"

स्‍त्री ने आवाज दी, "टीना, टीना!"

तब भीड़ में से एक सूखा-सा आदमी जोर से बोला, "इसके बच्‍चे को दिखाओ तो बाहर आएगी।" कह कर उसने गोगी को श्‍यामलाल के हाथ से ले लिया। श्‍यामलाल और उनकी पत्‍नी दो सिलबिल आदमियों की तरह खड़े देखते रह गए। उसने गोगी को जोर से दबाया। और वह चीख कर रोई। श्‍यामलाल के बच्‍चों ने एक स्‍वर से कहा, "नहीं, नहीं, क्‍या करते हो !" तभी टीना परेशान बाहर आ गई। बड़ी लड़की ने उसे फौरन उठा कर गोद में दबा लिया।

वह भौंचक थी और उसका बदन नम हो रहा था। उसने गरदन उठा कर चारों तरफ देखा और निश्चिंत हो गई। अपने ऊपर थोपी हुई मुसीबत से उसने जो संघर्ष किया था उसका कोई घमंड उसकी आँखों में नहीं था। वह न तो कुरकुराने लगी, न उसने अपनी दुम फुलाई, न उसने ऐसी और कोई हरकत की जिनसे आदमी बिल्लियों को पहचानते हैं। बस, उसने एक बार आँखें मींच कर खोल दीं।

श्‍यामलाल ने उसे गौर से देखा। वह समझ रहे थे कि उन्‍होंने उसके साथ क्‍या किया है और यह भी जान रहे थे कि वह नहीं समझ सकती कि खुद उनके साथ क्‍या हुआ है ! एकाएक वह अपनी असहायता से छटपटा उठे। हालाँकि उनके दिल में प्‍यार-ही-प्‍यार था, मगर बिल्‍ली को किसी तरह यह बताने का तरीका वह नहीं जानते थे। चालीस बरस तक वह हर बार एक मौका और माँग चुके हैं, मगर आज फिर माँग रहे हैं।

                                                                          ---रघुवीर सहाय---

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