कुछ वर्षों बाद जब प्रीप्रेस इंडिया लि. में कोई दूसरा मैनेजर पीटर की पर्सनल फाइल देखेगा तो उसे यह पता भी नहीं चलेगा कि पीटर ने यह इस्तीफा स्वेच्छा से नहीं लिखा था... कि परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया था उसे इस्तीफा देने को।
पीटर जब प्रीप्रेस इंडिया लि. से बाहर आया, उसकी जेब में तीन महीनों की तनख्वाह थी, कंधे पर डीके के आगे न झुकनेवाला सिर था और मन में एक हल्की-सी निराशा कि वह एक बार फिर असफल रहा। पिछली कंपनी में हुई हड़ताल, पैर टूटने के बावजूद बैसाखियों के सहारे दौड़ता उसका उत्साह, अन्याय के खिलाफ धमनियों में दौड़ता आक्रोश और उसके भी पहले छत्तीसगढ़ की जन-जातियों के बीच एक टूटी-सी साइकिल पर मीलों की संघर्ष-यात्रा की स्मृतियाँ और ऐसे ही कई अन्य दृश्य उसकी आँखों में उतर आए थे।
वह आगे बढ़ना चाहता था लेकिन उसके विखंडित स्वप्न जैसे उसके कदमों को पीछे धकेल रहे थे। वह परेशान था, उसकी चाल कभी इतनी मद्धम नहीं हुई, उन दिनों भी नहीं जब अभाव और संघर्ष के बीच उसे कई-कई दिन बीड़ी और काली चाय के सहारे निकालने पड़ते थे। वो सपनों के दिन थे, सपने सिरजने के दिन थे। अँधेरा चाहे लाख गहरा हो, मार्क्स की बूढ़ी आँखों में चमकती जवान रोशनी उसका रास्ता दिखाती थी। लेकिन आज जब दिल्ली जैसे शहर में दो कमरों का अपना फ्लैट है, सरकारी नौकरी करनेवाली बीवी है, पुरानी ही सही लेकिन अपनी गाड़ी है तो फिर उसकी चाल इतनी मद्धम क्यों... तो क्या सिर्फ एक नौकरी छूटने की पीड़ा ने उसे इतना कमजोर बना दिया है... नहीं, उसके सपने मरे नहीं, अब भी जिंदा हैं। वह अपनी लड़ाई जारी रखेगा। इस रास्ते नहीं, किसी और रास्ते सही, उसे उसके सपनों की मंजिल जरूर मिलेगी। उसे किसी कविता की पंक्ति याद हो आई - 'अँधेरा यदि और गहरा हो गया है तो समझो सुबह आने ही वाली है।'
आशा-निराशा और सपनों-संकल्पों की धूपछाँही स्मृतियों से खेलता-जूझता वह दिलशाद गार्डेन जानेवाली बस में अभी बैठा ही था कि उसका मोबाइल बज उठा - 'कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नयना, मेरे नयना मेरे नयना मेरे नयन में छुप के रहना।'
'डोंट वरी, दिस इज नॉट द एंड आफ लाइफ। अ न्यू मार्निंग इज वेटिंग फॉर यू एंड आइ नो, यू विल विन द बैट्ल। और हाँ, आई विल कॉल यू लेट इवनिंग।' उधर नीलिमा थी।
पीटर के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण था। खासकर लड़कियाँ उस तक खिंची चली आती थीं। लेकिन नीलिमा आम लड़कियों से भिन्न थी। पीटर को अच्छा लगता था कि वह उसकी आभा से चौंधियाई कोई गूँगी गुड़िया नहीं थी। वह नए समय की नई लड़की थी... उसके अपने सपने थे और उन सपनों के पक्ष में उसके अपने तर्क। सामाजिक-आर्थिक बदलावों के पर्फ्यूम से महकती नीलिमा पीटर को रोज एक नई बहस के लिए आमंत्रित करती थी। दिलचस्प तो यह था कि हर बहस के बाद दोनों अपने भीतर अपने-अपने तर्कों का दरकना महसूस करते थे, लेकिन अगले दिन वे फिर अपनी उन्हीं जिदों के साथ टकराते थे। नीलिमा कविताएँ लिखने लगी थी और पीटर को अपनी कहानियों के लिए एक नई तरह का पात्र मिल गया था।
मोबाइल जेब में रखते हुए पीटर को यह पता था कि लेट इवनिंग नीलिमा उससे क्या कहनेवाली है... अब तक वह उसके जिन तर्कों को खारिज करता रहा है, पता नहीं क्यों वही उसे अभी भले लग रहे हैं... 'मैनेजमेंट एक साइंस है, एक टूल, एक औजार जो यह बताता है कि अवेलेबल रिसोर्सेस का आप्टिमम यूटिलाइजेशन कैसे हो सकता है... और यही तो सीखना है हमें ताकि दुनिया और बेहतर हो सके।' शब्द-दर-शब्द नीलिमा उसके जेहन में उतरने लगती है - 'जब तक तुम यह तकनीक नहीं सीख लेते, तुम्हारी लड़ाई अधूरी रहेगी। एक तरफ अस्त्र-शस्त्र से लैस पूँजी और दूसरी तरफ निहत्थे तुम ...लड़ाइयाँ सिर्फ विचारों के बल पर नहीं जीती जातीं ...विचारों के साथ अपने विरोधियों की तैयारी का भी ज्ञान होना जरूरी है। मैं तुम्हें मैनेजमेंट ऐज ए साइंस, ऐज ए डिसिप्लीन पढ़ने को कह रही हूँ, ताकि तुम पूँजी की चाल को न सिर्फ समझ सको बल्कि उसके विरुद्ध एक आधुनिक और बराबरी की लड़ाई की स्ट्रेटजी भी तय कर सको...'
उसे लगा नीलिमा ठीक कहती है। वह अब तक इसलिए हारता रहा है कि उसने अपने सीमित संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं किया... कि उसकी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत कम आवश्यक कामों में ज्यादा लगता है। लेट इवनिंग जब नीलिमा ने फोन किया उसे कुछ समझाने-कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पीटर की आवाज में एक नई चमक थी - 'कल हम अमेटी बिजनेस स्कूल चल रहे हैं... एंड वी बोथ विल ज्वाइन एमबीए।' नीलिमा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उसने सोचा यदि नौकरी छोड़ने के बाद ही उसकी बुद्धि खुलनी थी तो उसे बहुत पहले नौकरी छोड़ देनी चाहिए थी।
कामरेड मित्रों के सहयोग से किसी तरह ग्रैजुएशन पास किए पीटर के लिए एमबीए की नई दुनिया किसी जादुई लोक से कम नहीं थी। लेक्चर, असाइनमेंट, प्रजेंटेशन, सर्वे, केस स्टडी जैसी नई चीजें और इन सब में नीलिमा के सहयोग की ऊष्मा... पीटर एक जबर्दस्त परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। यह उन्हीं दिनों की बात है। मैं दफ्तर से पहुँचा ही था कि पीटर का फोन आया।
'आइ वांट टू कम टू यू -'
'आपका घर है, जब जी चाहे आ जाइए।'
'ठीक है, तो आज शाम ही। आप ऑफिस से कब लौट आते हैं?'
'छह बजे तक पहुँच जाता हूँ। आप साढ़े छह बजे के बाद किसी भी समय आ सकते हैं।'
पीटर ने मेरी घड़ी से अपनी घड़ी मिला ली।
शाम को मेरी घड़ी में साढ़े छह बजा और पीटर ने डोर वेल बजाई। क्षण भर को तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया। मैं पहली बार उसे बिना दाढ़ी के देख रहा था। उसने टाई भी बाँध रखी थी। साथ में नीलिमा भी थी। हालाँकि इसमें परेशान होने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन उसका बदला हुलिया रह-रह कर मुझे विचलित कर रहा था।
'बहुत दिनों बाद मेरी याद आई। आप तो बिल्कुल भूल ही गए हैं मुझे। कभी कोई फोन-वोन भी नहीं।'
'यार, एमबीए ने जान ले रखी है और फिर आजकल समर ट्रेनिंग भी चल रही है, बिल्कुल वक्त नहीं मिलता।'
'समर ट्रेनिंग कहाँ कर रहे हैं?'
'आईसीआईसीआई प्रुडेंसियल में। दरअसल इसी क्रम में आज मैं वहाँ के प्रोडक्ट्स की स्टडी कर रहा था और मेरी नजर एक ऐसे प्रोडक्ट पर गई जो आपको बहुत सूट करता है। बस आपकी याद हो आई और मैं नॉस्टालजिक हो गया। सोचा क्यूँ न आप से मिल लूँ और इसी बहाने आपको इस प्रोडक्ट के बारे में भी बता दूँगा।' पीटर बिना मुझे मौका दिए लगातार बोले जा रहा था। 'दरअसल यह पॉलिसी उन लोगों के लिए बेहद फायदेमंद हैं जिनकी छोटी बेटी है। इसमें आपको हर पाँचवें वर्ष आपको इन्श्योर्ड अमाउंट का 25% वापस मिल जाता है। यानी स्कूल में नाम लिखवाने, बोर्ड की परीक्षा देने या फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू करने आदि खर्चों के लिए अलग से चिंता करने की जरूरत नहीं... और फिर पच्चीसवें वर्ष में मैच्योरिटी पर बोनस अलग से यानी कि बेटी की शादी की चिंता से भी आज ही मुक्ति। मुझे तो लगता है हर उस आदमी को जिसकी बेटी दो-एक साल की है, यह पॉलिसी जरूर लेनी चाहिए। कल ही मैंने जयराज को भी इसके बारे में बताया, वह भी लेना चाहता है इसे। और हाँ, सेक्शन 80ब के तहत इनकम टैक्स में भी इस निवेश पर छूट मिलती है।
एक कंप्लीट मार्केटिंग प्रोफेशनल की तरह अपने प्रोडक्ट सेलिंग स्किल का प्रदर्शन करते पीटर का चेहरा मुझे अनचीन्हा लग रहा था। मैं उसके चेहरे में उस पीटर को तलाशने की कोशिश कर रहा था जिसे मैं जानता था। मुझे लगा उसके चेहरे पर फिर से दाढ़ी उग आई है। दाढ़ी, लेकिन बेतरतीब नहीं, करीने से तराशी हुई। प्रीप्रेस इंडिया से लौटते हुए किसी शाम वह हमारे कमरे पर आ गया है। वह चाय में दूध डालने से मना कर रहा है - 'साथी, चाय बिना दूध की बनाना। काली चाय पीते हुए मुँह में पुराने दिनों की मिठास घुल जाती है...' और फिर वह कहानियाँ सुना रहा है उन दिनों की जब वह सीपीआइ एमएल का होलटाइमर हुआ करता था। उसके सपने लगातार उसकी आँखों में तैर रहे हैं... संघर्ष उसके चेहरे का नूर बन गया है और उसकी दाढ़ी का रेशा-रेशा जैसे क्रांति का परचम हुआ जा रहा है... साथी, आपने चाय बिल्कुल वैसी ही बनाई है, बस बीड़ी की कमी है। ऐसी ही चाय और बीड़ी के सहारे हमने कई सर्द रातें बिताई हैं। छत्तीसगढ़ के जंगलों में कई बार सर्द रातों की लंबाई छोटी करने और उसमें एक गर्माहट पैदा करने के लिए हम समवेत स्वर में गीत गाते थे। दरअसल ये गीत हमारी आत्मा में रच-बस गए थे... क्या नहीं था इन गीतों में... संघर्ष की जिजीविषा, जख्म के लिए मरहम और कल के लिए सपने... और पीटर की बुलंद आवाज मेरे कमरे में गूँज रही है- 'ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गाँव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के...
कि तभी नीलिमा की आवाज ने मुझे वर्तमान में ला पटका - 'वी विलीव दिस पॉलिसी इज मेड फॉर यू एंड यू मस्ट टेक इट...' अतीत से वर्तमान में लौटते हुए मैं सकपका-सा गया था, मैंने तो इनकी बात ठीक से सुनी ही नहीं... मैंने किसी तरह खुद को उनसे जोड़ने की कोशिश की - 'इसमें इंश्योरेंस की रकम कितनी है और वह कब मिलेगी?'
कमान फिर से पीटर के हाथ में थी, 'इन फैक्ट जब तक बच्ची आठ साल की नहीं हो जाती इसमें कोई इंश्योरेंस नहीं होता, आप इसे इंश्योरेंस नहीं इनवेस्टमेंट की तरह लीलिए।'
'यदि इस बीच कुछ हुआ तो?' मैंने धीरे से सोफे के हत्थे को छू लिया था।
दोनों चुप रहे। मुझे जैसे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता मिल गया था।
'आप लोग चाय भी तो पीजिए, ठंडी हो जाएगी।' मेरी पत्नी ने पूरी बातचीत में पहली बार कुछ बोला था।
मेरे सवाल ने जैसे उन दोनों के उत्साह पर पानी फेर दिया था। फिर भी पीटर ने नई बात छेड़ी, 'हाऊ ओल्ड योर फादर इज?'
'फिफ्टी प्लस'
'उनकी इनकम?'
'मुझे पूछना होगा।'
'तो आप पूछ कर मुझे फोन कीजिएगा। मैं उनके लिए कोई अच्छी पॉलिसी बताऊँगा। प्रीमियम की रकम थोड़ी ज्यादा होगी लेकिन वह रिस्क कवर करेगा।'
चाय खत्म करते ही दोनों चले गए थे। टैक्स सेविंग, फिर बेटी की पढ़ाई... शादी और अब पिताजी का बीमा... मैं देर तक सोचता रहा पीटर मुझसे मिलने आया था या फिर मुझसे बिजनेस लेने?
पीटर अपने पीछे यादों की पुरानी किताब छोड़ गया था। मैं देर तक उसके पन्ने पलटता रहा, दृश्य मेरी आँखों के आगे बिनते-बिगड़ते रहे, लगातार... एक दृश्य के आगे ठिठका हूँ मैं... मैंने प्रीप्रेस इंडिया छोड़ने का मन बना लिया है। नेहरू प्लेस जा कर कुछ कॉसलटेंट्स को बायोडाटा भी दे आया हूँ। आज मेरा जन्म दिन है। पीटर ने मुझे 'सहमत' का एक खूबसूरत कार्ड दिया है जिस पर पाश की कविता छपी है -
'सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
सपनों का मर जाना...'
कार्ड की दूसरी तरफ की खाली जगह पर पीटर ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में लिखा है - 'साथी, भागो मत, भागना समस्या का समाधान नहीं होता। हमें लड़ना है अपने सपनों के लिए, अपने आनेवाले कल के लिए।' पीटर चाहता था मैं प्रीप्रेस इंडिया में ही रहूँ। हम मिल कर मैनेजमेंट की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाएँ... आखिर हम कितनी नौकरी बदलेंगे, हर जगह कोई नया मैनेजर, नया बॉस अपने मालिक की दलाली करता मिलेगा।
पीटर के दो चेहरे - एक वह जो सपनों की रक्षा के लिए संघर्ष के जज्बे से लबरेज था और एक यह जो आज शाम मिलने के बहाने पॉलिसी बेचना चाहता था बारी-बारी से मेरे दिमाग में आते-जाते रहे। मैं जितना ही उससे बाहर निकलना चाहता उतना ही भीतर धँसता जा रहा था।
रात को लगभग एक बजे मीरा का फोन आया। वह काफी घबराई हुई थी। 'पीटर अभी तक घर नहीं लौटा। उसने कहा था कि आज वह आपके घर जाएगा।'
'हाँ आया था वह शाम को। साथ में नीलिमा भी थी। लेकिन दोनों चले गए थे आठ बजे के आस-पास।'
'पता नहीं क्यों उसका मोबाइल भी ऑफ है।'
'नीलिमा का नंबर ट्राई किया?'
'हाँ, वह भी ऑफ है।'
'मैं अभी पता कर के बताता हूँ।'
दोनों के मोबाइल ऑफ थे। लेकिन लैंड लाइन नीलिमा ने पिक-अप किया।
'पीटर है?'
'हाँ।'
'उससे बात करा दो। वह घर क्यों नहीं गया? मीरा परेशान हो रही है।'
'प्रोजेक्ट बनाते हुए देर हो गई थी। इतनी देर से बस तो मिलती नहीं सो यहीं रह गया।'
'कम से कम फोन तो करना चाहिए था मीरा को। उसे फोन दो प्लीज...'
'अभी थोड़ी ही देर पहले सोया है... मुझे भी नींद आ रही है। इफ यू डोंट माइंड, सुबह में बात करें...?' और नीलिमा ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।
मुझे पीटर पर गुस्सा आ रहा था। वह इतना लापरवाह कैसे हो सकता है, वह भी मीरा के प्रति, जिसके साथ रहने के लिए उसने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी थी। उस दिन ऑफिस से लौटते हुए खुद पीटर ने ही तो सुनाई थी यह कहानी - 'जब मैंने मीरा से शादी की... पार्टी के भीतर हड़कंप मच गया था। एक होलटाइमर पार्टी से बाहर की लड़की से शादी कैसे कर सकता था। उसके लिए जैसे फरमान जारी हो गया था - 'मीरा को भी पार्टी ज्वाइन करनी होगी। यदि वह नहीं समझा सकता मीरा को तो, पार्टी के कामरेड मदद कर सकते हैं इसमें उसकी। लेकिन मीरा को हर हाल में पार्टी में आना होगा।' उसे समझाने-बुझाने के बहाने कामरेड्स अब पीटर के घर आने-जाने लगे थे और उसमें से कइयों की नजर मीरा की सुंदरता पर भी पड़ने लगी थी। पीटर वर्षों से होलटाइमर था। उस जिंदगी की हकीकत उससे ज्यादा कौन जानता... न रहने का ठिकाना... न खाने-पीने की सुध... कई बार जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं होती और फिर मीरा क्या करेगी यह निर्णय लेनेवाला वह कौन होता है। पार्टी के निर्देशों की अवहेलना पीटर को महँगी पड़ने लगी थी। तमाम निष्ठा, लगन और प्रतिबद्धताओं के बावजूद वह उपेक्षाओं, लांछनाओं से घिरने लगा था और उस दिन तो हद ही हो गई जब मीरा को कन्विंस करने आए कुछ कामरेड उससे पीने की जबर्दस्ती करने लगे थे। यही वह दिन था जब न चाहते हुए भी पीटर ने जीवन भर होलटाइमर रहने का अपना निर्णय बदल दिया था और दिल्ली चला आया था मीरा के साथ एक नया जीवन शुरू करने।
पीटर भले ही होलटाइमर न रह गया हो लेकिन दूसरों के आँसू और पसीने में बसा नमक अब भी उसकी आँखों में खारापन घोल देता था। लेकिन आज मीरा के साथ उसकी बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया था। मुझे लगा सब ठीक कहते हैं नीलिमा ने पीटर पर जादू ही कर दिया है।
इस बीच मैंने प्रीप्रेस इंडिया की नौकरी छोड़ दी थी और अपनी नई नौकरी के लिए मुझे पुणे जाना था। उधर पीटर का एमबीए पूरा हो चुका था और वह नीलिमा के साथ मिल कर एक कंपनी शुरू करने की योजना बना रहा था। मेरी नई नौकरी और उनकी नई डिग्री के सेलीब्रेशन की यह संयुक्त शाम थी।
'हमारी कंपनी एक सामान्य प्लेसमेंट एजेंसी नहीं होगी। वी विल प्रोवाइड अ कंप्लीट एच आर सॉल्यूशन टू द कारपोरेट वर्ल्ड। और हाँ, हमारा फोकस ट्रेनिंग पर होगा।'
कारपोरेट ट्रेनिंग की बात सुन कर मुझे प्रीप्रेस इंडिया के जनरल मैनेजर तलवार के ऑफिस में लगे मैनेजमेंट गुरू शिव खेड़ा के एक बहुप्रचारित पोस्टर की याद हो आई जिस पर लिखा था - 'विनर्स डोंट डू डिफरेंट थिंग्स दे डू द थिंग्स डिफरेंटली।' मुझे लगा पीटर के चेहरे पर किसी संभावित विनर की चमक चढ़ गई है।
'लेकिन पीटर, आपको नहीं लगता कि इस तरह आपकी कंपनी उन्हीं लोगों को मजबूत करेगी जिनके खिलाफ आप वर्षों से संघर्ष करते रहे हैं।'
'आई एप्रिसिएट योर कन्सर्नस। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं तलवार और डीके तो कतई नहीं हो सकता। मैंने वर्षों ऐसे बॉस और मैनेजर्स देखे हैं। मैं एक बेहतर और जनतांत्रिक मैनेजर बन कर दिखाऊँगा। मैंने तो सिर्फ माध्यम बदला है, मेरे सपने अब भी वही हैं।'
'विश यू आल द बेस्ट।' मैंने मन ही मन सोचा रातोंरात इस पार से उस पार खड़े हो जाने की अपनी महत्वकांक्षा को भी पीटर उन्हीं सपनों के चमचमाते रैपर में लपेट सकता है। मुझे लगा यह पीटर नहीं उसके अंदर का न्यूली ट्रेंड मार्केटिंग मैनेजर बोल रहा था।
चलते-चलते पीटर ने कहा - 'साथी, जब आपकी जरूरत के दिन आए... आप दिल्ली छोड़ रहे हैं। यही तो समय था जब आपके सीए होने का लाभ हमारी कंपनी को मिलता।'
'दिल्ली ही छोड़ रहा हूँ न, दिल से तो दूर नहीं जा रहा। जब कभी मेरी जरूरत हो, मुझसे निःसंकोच कहिएगा।'
मैं पुणे में रम गया था और इधर पीटर और नीलिमा कंप्लीट हयूमन रिसोर्स सोल्यूशन लि. यानी सीएचआरएसएल के फाउंडिग डायरेक्टर्स बन गए थे। नीलिमा के भाई ने, जो साफ्टवेयर इंजीनियर था और आइबीएम, अमेरिका में नौकरी करता था, न सिर्फ इस नई कंपनी के लिए वेबसाइट डेवलप किया बल्कि नीलिमा को जरूरी पूँजी भी मुहैया कराई। पीटर ने अपना हिस्सा प्राविडेंट फंड में अब तक की संचित राशि से पूरा किया था।
सीएचआरएसएल के शुरुआती दिन बड़े कठिन थे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के डायरेक्टर्स और वाइस-प्रेसिडेंट्स मिलने का समय तो किसी तरह दे देते लेकिन बिजनेस देने के नाम पर पीछे हट जाते थे। शिव खेड़ा और अरिंदम चौधरी जैसे मैनेजमेंट गुरुओं के जमे-जमाए बाजार में पीटर और नीलिमा के लिए घुसना इतना आसान नहीं था। दसवीं कंपनी से लगातार खाली हाथ लौट कर आने के बाद उस शाम पीटर और नीलिमा ने एमबीए में पढ़ाई गई प्रॉब्लम सॉल्यूशन टेकनीक का व्यावहारिक इस्तेमाल किया। रूट कॉज एनालिसिस की और इस नतीजे पर पहुँचे कि अब से क्लाइंट्स से मिलने नीलिमा अकेली जाएगी। मतलब यह कि फ्रंट इंटरफेस नीलिमा और बैक एंड फैसिलीटेटर पीटर। उस दिन पीटर को यह भी समझ में आ गया कि डीके ने कस्टमर केयर डिपार्टमेंट में सिर्फ लड़कियों की भर्ती क्यों की थी। 'राइट मैन टू राइट जॉब' का यह फार्मूला सीएचआरएसएल के लिए चल निकला था। क्लाइंट्स मिलने लगे थे। नीलिमा बिजनेस लाती और पीटर अपनी वक्तृत्व कला से क्लास में समाँ बाँध लेता...
बहुत दिनों के बाद एक शाम अचानक नीलिमा का फोन आया -
'हाय! हाउ आर यू?'
'फाइन। बट यू पीपल हैव कंप्लीटली फॉरगॉटेन मी। नो फोन... नो मेल... नथिंग।'
'नो, नॉट एट आल। हाऊ कैन इट बी। मैंने तो आज फोन भी कर लिया लेकिन आप... खैर, अच्छा लगा कि आप हमें इस लायक समझते है कि हमसे शिकायत कर सकें। पीटर आप से बात करेगा।'
दुआ-सलाम के बाद पीटर ने कहा - 'वी नीड योर हेल्प। एक तो यह कि मुझे एक पार्टटाइम एकाउंटेंट चाहिए, कारण कि फुलटाइम न तो हम अफोर्ड कर सकते हैं और ना ही हमारे पास उतना काम है। आपका कोई दोस्त या परिचित होगा दिल्ली में... प्लीज यू सेंड हिम टू मी। और दूसरी बात यह कि एक एमएनसी में हमें 'फाइनान्स फॉर नॉन-फाइनान्स मैनेजर्स' की ट्रेनिंग का असाइनमेंट मिला है। आइ नो यू आर द बेस्ट मैन टू टीच फाइनान्स विदिन आवर रीच।'
'अकाउंटेंट तो मैं दे दूँगा। रही बात ट्रेनिंग की तो मै सोच कर बताऊँगा।
'सोचना क्या है इसमें? यू विल हैव टू कम। आप पर इतना अधिकार तो है ही हमारा। और हाँ, वी विल ट्राइ आवर बेस्ट टू कांपनसेट फॉर दैट... बाइ द वे, कैन यू लेट मी नो अबाउट योर एक्सपेक्टेशन?'
पीटर और मेरे संबंध दोस्ताना थे। इसमें व्यावसायिकता का नामोनिशान नहीं था। मैं असहज हो गया... 'पीटर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। इन फैक्ट इट विल टेक टाइम टू डेवलप स्टडी मेटीरियल एंड प्रेजेटेशन्स।'
'डोंट वरी, वी हैव एनफ टाइम। इट विल वी समव्हेयर इन नेक्सेट मंथ। सो स्टार्ट योर प्रेपरेशंस एंड आइ विल राइट यू ए मेल अबाउट द शेड्यूल विदिन ए डे ऑर टू।' पीटर ने मुझे कुछ कहने-सुनने का मौका नहीं दिया था। उसने खुद ही प्रस्ताव रखा और खुद ही उसकी स्वीकृति ले ली थी।
अगले ही दिन सीएचआरएसएल के अकाउंट से मेरे नाम एक मेल आया था। अगले महीने के सेकेंड सैटरडे को ट्रेनिंग की तारीख पक्की हो गई थी। उसमें यह भी लिखा गया था कि मैं एसी थ्री की टिकट बुक करा लूँ, जिसका भुगतान सीएचआरएसएल करेगी और इसके अतिरिक्त मुझे पाँच हजार रुपए बतौर टोकन मनी भी दिया जाएगा। गो कि यह रकम मेरी मेहनत और मेधा के हिसाब से उन्हें बहुत कम लग रही थी लेकिन इसे एक शुरुआत भर मानने का आग्रह था और इस बात की उम्मीद जताई गई थी कि आगे और असाइन्मेंट मिलेंगे, यह तो महज एक पाइलट प्रोजेक्ट है। मेल के अंत में नीलिमा का दस्तखत था।
नीलिमा के मेल का बेहद संक्षिप्त जवाब लिखते हुए मेरी उँगलियाँ काँपी थीं 'कहीं यह हमारे रिश्ते के अंत की शुरुआत तो नहीं है?'
दिन में ऑफिस और रात में ट्रेनिंग मेटीरियल और प्रेजेंटेशन की तैयारी, मेरी तो जैसे जान ही निकल गई थी। खैर, मैंने पूरी मेहनत से सब कुछ तैयार किया और पीटर के कहे अनुसार ट्रेनिंग से एक सप्ताह पूर्व उसे मेल कर दिया ताकि वह उसे एक प्रजेंटेबल ले आउट में ढाल कर सारे पार्टिसिपेंट्स के लिए प्रिंट आउट ले सके।
मैं अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार रेलवे स्टेशन से सीधे पीटर के दफ्तर आ गया था। ऑफिस छोटा लेकिन निहायत ही खूबसूरत था। वहाँ की आंतरिक सज्जा में पीटर के जनबोध और नीलिमा की आधुनिकता का एक अद्भुत फ्यूजन था। स्टडी मेटीरियल देख कर तबीयत प्रसन्न हो गई। इसे तैयार करते हुए मैंने इतने आकर्षक आवरण और खूबसूरत प्रिंटिंग, बाइंडिग की कल्पना भी नहीं की थी। मैंने उसे पलटना शुरू किया लेकिन अगले ही पल मेरा मन खट्टा हो गया। कॉपीराइट के आगे 'सीएचआरएसएल' लिखा हुआ था और वहाँ इस बात की सूचना भी छपी थी कि बिना 'सीएचआरएसएल' की लिखित अनुमति के इसका आंशिक या सम्पूर्ण उपयोग अवैध होगा। गो कि इस स्टडी मेटीरियल की मौलिकता का मेरा कोई दावा नहीं था, मैंने भी इसे कई किताबों, जर्नल्स और वेब साइट्स से ही कलेक्ट किया था लेकिन कापीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' मुझे लगातार खटक रहा था। मैंने इसे थूक की तरह गटक लिया। पता नहीं पीटर और नीलिमा ने मेरे चेहरे पर उग आई इस असहजता को पढ़ा या नहीं।
ट्रेनिंग के लिए गुड़गाँव जाना था और मैं पांडव नगर में अपने छोटे भाई के पास ठहरनेवाला था। तय हुआ कि वे दोनों सुबह साढ़े सात बजे अक्षरधाम मंदिर के पासवाले पेट्रोल पंप के अपोजिट, जहाँ समसपुर जागीर बस स्टैंड का बोर्ड लगा हुआ है, मुझे पिक करेंगे।
पीटर के हाथ में एक अतिरिक्त टाई थी जिस पर सीएचआरएसएल का लोगो प्रिंटेड था। वह पूरे रास्ते मुझसे टाई बाँधने को कहता रहा। लेकिन मैंने जैसे टाई न बाँधने की कसम खा रखी थी। मेरी आँखों में अब भी कॉपीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' घूम रहा था, और अब मैं उसे अपने गले से भी नहीं लटकाना चाहता था। पीटर कार्पोरेट कल्चर की दुहाई देता रहा और मैं टाई में असहज होने के बहाने बनाता रहा। हमारी इस बहस को ड्राइविंग सीट पर बैठी नीलिमा ने ही सम पर लाया था - 'पीटर, टाई लगा कर अनकांफर्टेबल होने और फिर परफार्मेंस खराब कर लेने से तो बेहतर है हम टाई के चक्कर में न पड़े। हाँ, अगली बार रजनीश पहले से टाई बाँधने का अभ्यास कर के आएँगे' और पीटर ने अपनी जिद छोड़ दी थी।
पीटर और नीलिमा के कहे अनुसार दुष्यंत के क्रांतिकारी और बशीर बद्र के रूमानी शे'रों की छौंक से मैंने फाइनान्स की नीरसता में भी एक नया रस घोल दिया था। पाइलट प्रोजेक्ट को आशा से ज्यादा सफलता मिली थी। पार्टिसिपेंट्स ने अपने फीड बैक में क्लास की परिकल्पना, प्रस्तुति और ट्रेनिंग मेटीरियल की उपयोगिता को ऐक्सीलेंट रेट किया था।
गुड़गाँव से लौटते हुए पीटर ने मुझे अपनी अंग्रेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद करने का भी प्रस्ताव दिया। वह उन्हें कोटेबल पंच लाइन्स की किताब की शक्ल में छाप कर कार्पोरेट जगत में एक नई शुरुआत करना चाहता था। अनुवाद के प्रस्ताव से मुझे उसकी कहानी 'ग्लोबल विलेज' की याद हो आई जिसमें उसने नई आर्थिक नीति के खतरों के विरुद्ध एक स्वप्नदर्शी प्रतिरोध दर्ज किया था। प्रीप्रेस इंडिया के दिनों में ही मैंने उसका हिंदी अनुवाद किया था जो बाद में 'हंस' में छपी भी थी। मुझे वो तमाम शामें याद आ रही थीं जब हम उस कहानी के अनुवाद के लिए साथ बैठते थे। अपनी कहानी का पैरा-दर-पैरा वह पहले मूल मलयालम में सुनाता था फिर अंग्रेजी में समझाता और तब जा कर मैं उसका हिंदी तर्जुमा करता था। हर शाम के अंत में वह अपनी पसंद की काली चाय पीता और कोई न कोई क्रांति गीत गाता था। तब उसके चेहरे पर संघर्ष की जबर्दस्त आभा चमकती थी। ऐसी ही किसी शाम मैंने पहली बार गोरख पांडे की वह रचना उससे सुनी थी -
'जनता की चले पलटनिया
हिल्ले ले झकझोर दुनिया
हिल्ले ले पहाड़वा रे
हिल्ले नदी-ताल वा
सागर में उठे हिलोर रे...'
...मुझे उसके सपनों की दुनिया बेतरह आकर्षित करती थी। तब वे अनुवाद मैंने अपनी पहल से किए थे, वह तो उन्हें बाहर लाना ही नहीं चाहता था। वही पीटर आज खुद से अपनी कविताओं के अनुवाद की बात कर रहा था। मैं बस हाँ-हूँ करता रहा, कोई अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखा सका।
पुणे पहुँच कर जब मैंने अपना ई मेल चेक किया तो उसमें एक मेल राजकुमार का भी था। राजकुमार मेरे दूर का रिश्तेदार है जिसे मैंने पीटर के पास पार्टटाइम एकाउंटेंट के रूप में भेजा था -
'मैंने पीटर का काम छोड़ दिया है। वह बहुत धूर्त आदमी है। शुरू में तो उसने कहा था कि अभी हमने कंपनी शुरू ही की है और लॉस में है इसलिए आपको कम तनख्वाह दे रहा हूँ, प्राफिट में आते ही तनख्वाह बढ़ा दूँगा। पिछले साल तो एक नंबर में भी प्राफिट हुआ है, फिर भी वह सैलरी नहीं बढ़ा रहा था। बातें तो बड़ी-बड़ी करता है कि आप हमारे इंप्लाई नहीं बिजनेस पार्टनर है और पैसा देने के नाम पर...'
मेल काफी लंबा था मैंने आगे बिना पढ़े ही उसे डिलीट कर दिया।
बहुत दिन हो गए पीटर से कोई बात नहीं हुई है। सुना है कि उसकी कंपनी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। अब तो उसने कई फील्ड में डाइवर्सीफाई कर लिया है... मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई है कि पिछले दिनों उसकी कंपनी ने जनवादी गीतों का एक कैसेट रिलीज किया है... इस कैसेट की चारों तरफ धूम है। आज एक बड़े न्यूज चैनल पर इस म्यूजिक अलबम के गायकों का इंटरव्यू भी आनेवाला है। मैं बहुत उत्साहित हूँ... पीटर के खिलाफ मेरी सारी शिकायतें भीतर ही भीतर घुल रही हैं... इन गायकों का इंटरव्यू अब शुरू ही होनेवाला है... लेकिन यह क्या, उलटी टोपी लगाए हाथ में गिटार लिए ये लड़के क्या गा रहे हैं... बोल तो पहचाने-से हैं लेकिन इसकी धुन मन को एक अजीब-सी कड़वाहट और पागल कर देनेवाले शोर से भर देती है - 'हिल्ले ले... हिल्ले ले... हिल्ले ले झकझोर दुनिया हिल्ले ले हिल्ले ले एशिया रे... हिल्ले अफरीकवा... हिल्ले रे लातिन अमरीकवा... हिल्ले रे...'
अब एंकर उनसे बातचीत कर रहा है - 'आपने जो गाना अभी गया है, इसके बारे में हमारे दर्शकों को कुछ बताएँ...'
'वैसे तो 'हिल्ले ले' अलबम के सारे गीत खास हैं लेकिन यह गीत इसलिए भी विशेष है कि इसमें नए समय की नई रफ्तार मौजूद है। इस गीत से यह पता चलता है कि ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में हमारे इंडिया ने अपने प्रोग्रेस से कैसे पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है...'
मैं अपना माथा ठोंक लेता हूँ... गोरख पांडे ने यदि तब आत्महत्या नहीं की होती तो आज इस इंटरव्यू को सुन कर जरूर कर लेते... एक बार फिर से मेरे भीतर पीटर के खिलाफ आक्रोश उमड़ने लगा है... मैं पूछना चाहता हूँ क्या यही थे वे सपने जिनका मरना सबसे खतरनाक होता है... लेकिन फोन नीलिमा ने उठाया है -
'पीटर अभी बिजी है। हमने 'हिल्ले ले' का जो आडियो अलबम लांच किया था उसे जबर्दस्त सक्सेस मिली है। नाउ वी हैव प्लैंड टू ब्रिंग इट्स विडियो टू। विदिन ए फ्यू मिनट्स वी आर गोइंग टू साइन ए कांट्रैक्ट विद मल्लिका सेहरावत फॉर द सेम। इस मीटिंग के बाद पीटर आप को फोन कर लेगा...'
मुझ में कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं रही, मैं फोन बीच में ही काट देता हूँ।
'हिल्ले ले' के गायकों का इंटरव्यू अब भी जारी है मैं टीवी ऑफ कर देता हूँ। वे सपने जो मैंने कभी पीटर की आँखों में देखे थे मेरा मुँह चिढ़ा रहे हैं...
---राकेश बिहारी---
पीटर जब प्रीप्रेस इंडिया लि. से बाहर आया, उसकी जेब में तीन महीनों की तनख्वाह थी, कंधे पर डीके के आगे न झुकनेवाला सिर था और मन में एक हल्की-सी निराशा कि वह एक बार फिर असफल रहा। पिछली कंपनी में हुई हड़ताल, पैर टूटने के बावजूद बैसाखियों के सहारे दौड़ता उसका उत्साह, अन्याय के खिलाफ धमनियों में दौड़ता आक्रोश और उसके भी पहले छत्तीसगढ़ की जन-जातियों के बीच एक टूटी-सी साइकिल पर मीलों की संघर्ष-यात्रा की स्मृतियाँ और ऐसे ही कई अन्य दृश्य उसकी आँखों में उतर आए थे।
वह आगे बढ़ना चाहता था लेकिन उसके विखंडित स्वप्न जैसे उसके कदमों को पीछे धकेल रहे थे। वह परेशान था, उसकी चाल कभी इतनी मद्धम नहीं हुई, उन दिनों भी नहीं जब अभाव और संघर्ष के बीच उसे कई-कई दिन बीड़ी और काली चाय के सहारे निकालने पड़ते थे। वो सपनों के दिन थे, सपने सिरजने के दिन थे। अँधेरा चाहे लाख गहरा हो, मार्क्स की बूढ़ी आँखों में चमकती जवान रोशनी उसका रास्ता दिखाती थी। लेकिन आज जब दिल्ली जैसे शहर में दो कमरों का अपना फ्लैट है, सरकारी नौकरी करनेवाली बीवी है, पुरानी ही सही लेकिन अपनी गाड़ी है तो फिर उसकी चाल इतनी मद्धम क्यों... तो क्या सिर्फ एक नौकरी छूटने की पीड़ा ने उसे इतना कमजोर बना दिया है... नहीं, उसके सपने मरे नहीं, अब भी जिंदा हैं। वह अपनी लड़ाई जारी रखेगा। इस रास्ते नहीं, किसी और रास्ते सही, उसे उसके सपनों की मंजिल जरूर मिलेगी। उसे किसी कविता की पंक्ति याद हो आई - 'अँधेरा यदि और गहरा हो गया है तो समझो सुबह आने ही वाली है।'
आशा-निराशा और सपनों-संकल्पों की धूपछाँही स्मृतियों से खेलता-जूझता वह दिलशाद गार्डेन जानेवाली बस में अभी बैठा ही था कि उसका मोबाइल बज उठा - 'कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नयना, मेरे नयना मेरे नयना मेरे नयन में छुप के रहना।'
'डोंट वरी, दिस इज नॉट द एंड आफ लाइफ। अ न्यू मार्निंग इज वेटिंग फॉर यू एंड आइ नो, यू विल विन द बैट्ल। और हाँ, आई विल कॉल यू लेट इवनिंग।' उधर नीलिमा थी।
पीटर के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण था। खासकर लड़कियाँ उस तक खिंची चली आती थीं। लेकिन नीलिमा आम लड़कियों से भिन्न थी। पीटर को अच्छा लगता था कि वह उसकी आभा से चौंधियाई कोई गूँगी गुड़िया नहीं थी। वह नए समय की नई लड़की थी... उसके अपने सपने थे और उन सपनों के पक्ष में उसके अपने तर्क। सामाजिक-आर्थिक बदलावों के पर्फ्यूम से महकती नीलिमा पीटर को रोज एक नई बहस के लिए आमंत्रित करती थी। दिलचस्प तो यह था कि हर बहस के बाद दोनों अपने भीतर अपने-अपने तर्कों का दरकना महसूस करते थे, लेकिन अगले दिन वे फिर अपनी उन्हीं जिदों के साथ टकराते थे। नीलिमा कविताएँ लिखने लगी थी और पीटर को अपनी कहानियों के लिए एक नई तरह का पात्र मिल गया था।
मोबाइल जेब में रखते हुए पीटर को यह पता था कि लेट इवनिंग नीलिमा उससे क्या कहनेवाली है... अब तक वह उसके जिन तर्कों को खारिज करता रहा है, पता नहीं क्यों वही उसे अभी भले लग रहे हैं... 'मैनेजमेंट एक साइंस है, एक टूल, एक औजार जो यह बताता है कि अवेलेबल रिसोर्सेस का आप्टिमम यूटिलाइजेशन कैसे हो सकता है... और यही तो सीखना है हमें ताकि दुनिया और बेहतर हो सके।' शब्द-दर-शब्द नीलिमा उसके जेहन में उतरने लगती है - 'जब तक तुम यह तकनीक नहीं सीख लेते, तुम्हारी लड़ाई अधूरी रहेगी। एक तरफ अस्त्र-शस्त्र से लैस पूँजी और दूसरी तरफ निहत्थे तुम ...लड़ाइयाँ सिर्फ विचारों के बल पर नहीं जीती जातीं ...विचारों के साथ अपने विरोधियों की तैयारी का भी ज्ञान होना जरूरी है। मैं तुम्हें मैनेजमेंट ऐज ए साइंस, ऐज ए डिसिप्लीन पढ़ने को कह रही हूँ, ताकि तुम पूँजी की चाल को न सिर्फ समझ सको बल्कि उसके विरुद्ध एक आधुनिक और बराबरी की लड़ाई की स्ट्रेटजी भी तय कर सको...'
उसे लगा नीलिमा ठीक कहती है। वह अब तक इसलिए हारता रहा है कि उसने अपने सीमित संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं किया... कि उसकी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत कम आवश्यक कामों में ज्यादा लगता है। लेट इवनिंग जब नीलिमा ने फोन किया उसे कुछ समझाने-कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पीटर की आवाज में एक नई चमक थी - 'कल हम अमेटी बिजनेस स्कूल चल रहे हैं... एंड वी बोथ विल ज्वाइन एमबीए।' नीलिमा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उसने सोचा यदि नौकरी छोड़ने के बाद ही उसकी बुद्धि खुलनी थी तो उसे बहुत पहले नौकरी छोड़ देनी चाहिए थी।
कामरेड मित्रों के सहयोग से किसी तरह ग्रैजुएशन पास किए पीटर के लिए एमबीए की नई दुनिया किसी जादुई लोक से कम नहीं थी। लेक्चर, असाइनमेंट, प्रजेंटेशन, सर्वे, केस स्टडी जैसी नई चीजें और इन सब में नीलिमा के सहयोग की ऊष्मा... पीटर एक जबर्दस्त परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। यह उन्हीं दिनों की बात है। मैं दफ्तर से पहुँचा ही था कि पीटर का फोन आया।
'आइ वांट टू कम टू यू -'
'आपका घर है, जब जी चाहे आ जाइए।'
'ठीक है, तो आज शाम ही। आप ऑफिस से कब लौट आते हैं?'
'छह बजे तक पहुँच जाता हूँ। आप साढ़े छह बजे के बाद किसी भी समय आ सकते हैं।'
पीटर ने मेरी घड़ी से अपनी घड़ी मिला ली।
शाम को मेरी घड़ी में साढ़े छह बजा और पीटर ने डोर वेल बजाई। क्षण भर को तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया। मैं पहली बार उसे बिना दाढ़ी के देख रहा था। उसने टाई भी बाँध रखी थी। साथ में नीलिमा भी थी। हालाँकि इसमें परेशान होने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन उसका बदला हुलिया रह-रह कर मुझे विचलित कर रहा था।
'बहुत दिनों बाद मेरी याद आई। आप तो बिल्कुल भूल ही गए हैं मुझे। कभी कोई फोन-वोन भी नहीं।'
'यार, एमबीए ने जान ले रखी है और फिर आजकल समर ट्रेनिंग भी चल रही है, बिल्कुल वक्त नहीं मिलता।'
'समर ट्रेनिंग कहाँ कर रहे हैं?'
'आईसीआईसीआई प्रुडेंसियल में। दरअसल इसी क्रम में आज मैं वहाँ के प्रोडक्ट्स की स्टडी कर रहा था और मेरी नजर एक ऐसे प्रोडक्ट पर गई जो आपको बहुत सूट करता है। बस आपकी याद हो आई और मैं नॉस्टालजिक हो गया। सोचा क्यूँ न आप से मिल लूँ और इसी बहाने आपको इस प्रोडक्ट के बारे में भी बता दूँगा।' पीटर बिना मुझे मौका दिए लगातार बोले जा रहा था। 'दरअसल यह पॉलिसी उन लोगों के लिए बेहद फायदेमंद हैं जिनकी छोटी बेटी है। इसमें आपको हर पाँचवें वर्ष आपको इन्श्योर्ड अमाउंट का 25% वापस मिल जाता है। यानी स्कूल में नाम लिखवाने, बोर्ड की परीक्षा देने या फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू करने आदि खर्चों के लिए अलग से चिंता करने की जरूरत नहीं... और फिर पच्चीसवें वर्ष में मैच्योरिटी पर बोनस अलग से यानी कि बेटी की शादी की चिंता से भी आज ही मुक्ति। मुझे तो लगता है हर उस आदमी को जिसकी बेटी दो-एक साल की है, यह पॉलिसी जरूर लेनी चाहिए। कल ही मैंने जयराज को भी इसके बारे में बताया, वह भी लेना चाहता है इसे। और हाँ, सेक्शन 80ब के तहत इनकम टैक्स में भी इस निवेश पर छूट मिलती है।
एक कंप्लीट मार्केटिंग प्रोफेशनल की तरह अपने प्रोडक्ट सेलिंग स्किल का प्रदर्शन करते पीटर का चेहरा मुझे अनचीन्हा लग रहा था। मैं उसके चेहरे में उस पीटर को तलाशने की कोशिश कर रहा था जिसे मैं जानता था। मुझे लगा उसके चेहरे पर फिर से दाढ़ी उग आई है। दाढ़ी, लेकिन बेतरतीब नहीं, करीने से तराशी हुई। प्रीप्रेस इंडिया से लौटते हुए किसी शाम वह हमारे कमरे पर आ गया है। वह चाय में दूध डालने से मना कर रहा है - 'साथी, चाय बिना दूध की बनाना। काली चाय पीते हुए मुँह में पुराने दिनों की मिठास घुल जाती है...' और फिर वह कहानियाँ सुना रहा है उन दिनों की जब वह सीपीआइ एमएल का होलटाइमर हुआ करता था। उसके सपने लगातार उसकी आँखों में तैर रहे हैं... संघर्ष उसके चेहरे का नूर बन गया है और उसकी दाढ़ी का रेशा-रेशा जैसे क्रांति का परचम हुआ जा रहा है... साथी, आपने चाय बिल्कुल वैसी ही बनाई है, बस बीड़ी की कमी है। ऐसी ही चाय और बीड़ी के सहारे हमने कई सर्द रातें बिताई हैं। छत्तीसगढ़ के जंगलों में कई बार सर्द रातों की लंबाई छोटी करने और उसमें एक गर्माहट पैदा करने के लिए हम समवेत स्वर में गीत गाते थे। दरअसल ये गीत हमारी आत्मा में रच-बस गए थे... क्या नहीं था इन गीतों में... संघर्ष की जिजीविषा, जख्म के लिए मरहम और कल के लिए सपने... और पीटर की बुलंद आवाज मेरे कमरे में गूँज रही है- 'ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गाँव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के...
कि तभी नीलिमा की आवाज ने मुझे वर्तमान में ला पटका - 'वी विलीव दिस पॉलिसी इज मेड फॉर यू एंड यू मस्ट टेक इट...' अतीत से वर्तमान में लौटते हुए मैं सकपका-सा गया था, मैंने तो इनकी बात ठीक से सुनी ही नहीं... मैंने किसी तरह खुद को उनसे जोड़ने की कोशिश की - 'इसमें इंश्योरेंस की रकम कितनी है और वह कब मिलेगी?'
कमान फिर से पीटर के हाथ में थी, 'इन फैक्ट जब तक बच्ची आठ साल की नहीं हो जाती इसमें कोई इंश्योरेंस नहीं होता, आप इसे इंश्योरेंस नहीं इनवेस्टमेंट की तरह लीलिए।'
'यदि इस बीच कुछ हुआ तो?' मैंने धीरे से सोफे के हत्थे को छू लिया था।
दोनों चुप रहे। मुझे जैसे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता मिल गया था।
'आप लोग चाय भी तो पीजिए, ठंडी हो जाएगी।' मेरी पत्नी ने पूरी बातचीत में पहली बार कुछ बोला था।
मेरे सवाल ने जैसे उन दोनों के उत्साह पर पानी फेर दिया था। फिर भी पीटर ने नई बात छेड़ी, 'हाऊ ओल्ड योर फादर इज?'
'फिफ्टी प्लस'
'उनकी इनकम?'
'मुझे पूछना होगा।'
'तो आप पूछ कर मुझे फोन कीजिएगा। मैं उनके लिए कोई अच्छी पॉलिसी बताऊँगा। प्रीमियम की रकम थोड़ी ज्यादा होगी लेकिन वह रिस्क कवर करेगा।'
चाय खत्म करते ही दोनों चले गए थे। टैक्स सेविंग, फिर बेटी की पढ़ाई... शादी और अब पिताजी का बीमा... मैं देर तक सोचता रहा पीटर मुझसे मिलने आया था या फिर मुझसे बिजनेस लेने?
पीटर अपने पीछे यादों की पुरानी किताब छोड़ गया था। मैं देर तक उसके पन्ने पलटता रहा, दृश्य मेरी आँखों के आगे बिनते-बिगड़ते रहे, लगातार... एक दृश्य के आगे ठिठका हूँ मैं... मैंने प्रीप्रेस इंडिया छोड़ने का मन बना लिया है। नेहरू प्लेस जा कर कुछ कॉसलटेंट्स को बायोडाटा भी दे आया हूँ। आज मेरा जन्म दिन है। पीटर ने मुझे 'सहमत' का एक खूबसूरत कार्ड दिया है जिस पर पाश की कविता छपी है -
'सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
सपनों का मर जाना...'
कार्ड की दूसरी तरफ की खाली जगह पर पीटर ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में लिखा है - 'साथी, भागो मत, भागना समस्या का समाधान नहीं होता। हमें लड़ना है अपने सपनों के लिए, अपने आनेवाले कल के लिए।' पीटर चाहता था मैं प्रीप्रेस इंडिया में ही रहूँ। हम मिल कर मैनेजमेंट की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाएँ... आखिर हम कितनी नौकरी बदलेंगे, हर जगह कोई नया मैनेजर, नया बॉस अपने मालिक की दलाली करता मिलेगा।
पीटर के दो चेहरे - एक वह जो सपनों की रक्षा के लिए संघर्ष के जज्बे से लबरेज था और एक यह जो आज शाम मिलने के बहाने पॉलिसी बेचना चाहता था बारी-बारी से मेरे दिमाग में आते-जाते रहे। मैं जितना ही उससे बाहर निकलना चाहता उतना ही भीतर धँसता जा रहा था।
रात को लगभग एक बजे मीरा का फोन आया। वह काफी घबराई हुई थी। 'पीटर अभी तक घर नहीं लौटा। उसने कहा था कि आज वह आपके घर जाएगा।'
'हाँ आया था वह शाम को। साथ में नीलिमा भी थी। लेकिन दोनों चले गए थे आठ बजे के आस-पास।'
'पता नहीं क्यों उसका मोबाइल भी ऑफ है।'
'नीलिमा का नंबर ट्राई किया?'
'हाँ, वह भी ऑफ है।'
'मैं अभी पता कर के बताता हूँ।'
दोनों के मोबाइल ऑफ थे। लेकिन लैंड लाइन नीलिमा ने पिक-अप किया।
'पीटर है?'
'हाँ।'
'उससे बात करा दो। वह घर क्यों नहीं गया? मीरा परेशान हो रही है।'
'प्रोजेक्ट बनाते हुए देर हो गई थी। इतनी देर से बस तो मिलती नहीं सो यहीं रह गया।'
'कम से कम फोन तो करना चाहिए था मीरा को। उसे फोन दो प्लीज...'
'अभी थोड़ी ही देर पहले सोया है... मुझे भी नींद आ रही है। इफ यू डोंट माइंड, सुबह में बात करें...?' और नीलिमा ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।
मुझे पीटर पर गुस्सा आ रहा था। वह इतना लापरवाह कैसे हो सकता है, वह भी मीरा के प्रति, जिसके साथ रहने के लिए उसने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी थी। उस दिन ऑफिस से लौटते हुए खुद पीटर ने ही तो सुनाई थी यह कहानी - 'जब मैंने मीरा से शादी की... पार्टी के भीतर हड़कंप मच गया था। एक होलटाइमर पार्टी से बाहर की लड़की से शादी कैसे कर सकता था। उसके लिए जैसे फरमान जारी हो गया था - 'मीरा को भी पार्टी ज्वाइन करनी होगी। यदि वह नहीं समझा सकता मीरा को तो, पार्टी के कामरेड मदद कर सकते हैं इसमें उसकी। लेकिन मीरा को हर हाल में पार्टी में आना होगा।' उसे समझाने-बुझाने के बहाने कामरेड्स अब पीटर के घर आने-जाने लगे थे और उसमें से कइयों की नजर मीरा की सुंदरता पर भी पड़ने लगी थी। पीटर वर्षों से होलटाइमर था। उस जिंदगी की हकीकत उससे ज्यादा कौन जानता... न रहने का ठिकाना... न खाने-पीने की सुध... कई बार जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं होती और फिर मीरा क्या करेगी यह निर्णय लेनेवाला वह कौन होता है। पार्टी के निर्देशों की अवहेलना पीटर को महँगी पड़ने लगी थी। तमाम निष्ठा, लगन और प्रतिबद्धताओं के बावजूद वह उपेक्षाओं, लांछनाओं से घिरने लगा था और उस दिन तो हद ही हो गई जब मीरा को कन्विंस करने आए कुछ कामरेड उससे पीने की जबर्दस्ती करने लगे थे। यही वह दिन था जब न चाहते हुए भी पीटर ने जीवन भर होलटाइमर रहने का अपना निर्णय बदल दिया था और दिल्ली चला आया था मीरा के साथ एक नया जीवन शुरू करने।
पीटर भले ही होलटाइमर न रह गया हो लेकिन दूसरों के आँसू और पसीने में बसा नमक अब भी उसकी आँखों में खारापन घोल देता था। लेकिन आज मीरा के साथ उसकी बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया था। मुझे लगा सब ठीक कहते हैं नीलिमा ने पीटर पर जादू ही कर दिया है।
इस बीच मैंने प्रीप्रेस इंडिया की नौकरी छोड़ दी थी और अपनी नई नौकरी के लिए मुझे पुणे जाना था। उधर पीटर का एमबीए पूरा हो चुका था और वह नीलिमा के साथ मिल कर एक कंपनी शुरू करने की योजना बना रहा था। मेरी नई नौकरी और उनकी नई डिग्री के सेलीब्रेशन की यह संयुक्त शाम थी।
'हमारी कंपनी एक सामान्य प्लेसमेंट एजेंसी नहीं होगी। वी विल प्रोवाइड अ कंप्लीट एच आर सॉल्यूशन टू द कारपोरेट वर्ल्ड। और हाँ, हमारा फोकस ट्रेनिंग पर होगा।'
कारपोरेट ट्रेनिंग की बात सुन कर मुझे प्रीप्रेस इंडिया के जनरल मैनेजर तलवार के ऑफिस में लगे मैनेजमेंट गुरू शिव खेड़ा के एक बहुप्रचारित पोस्टर की याद हो आई जिस पर लिखा था - 'विनर्स डोंट डू डिफरेंट थिंग्स दे डू द थिंग्स डिफरेंटली।' मुझे लगा पीटर के चेहरे पर किसी संभावित विनर की चमक चढ़ गई है।
'लेकिन पीटर, आपको नहीं लगता कि इस तरह आपकी कंपनी उन्हीं लोगों को मजबूत करेगी जिनके खिलाफ आप वर्षों से संघर्ष करते रहे हैं।'
'आई एप्रिसिएट योर कन्सर्नस। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं तलवार और डीके तो कतई नहीं हो सकता। मैंने वर्षों ऐसे बॉस और मैनेजर्स देखे हैं। मैं एक बेहतर और जनतांत्रिक मैनेजर बन कर दिखाऊँगा। मैंने तो सिर्फ माध्यम बदला है, मेरे सपने अब भी वही हैं।'
'विश यू आल द बेस्ट।' मैंने मन ही मन सोचा रातोंरात इस पार से उस पार खड़े हो जाने की अपनी महत्वकांक्षा को भी पीटर उन्हीं सपनों के चमचमाते रैपर में लपेट सकता है। मुझे लगा यह पीटर नहीं उसके अंदर का न्यूली ट्रेंड मार्केटिंग मैनेजर बोल रहा था।
चलते-चलते पीटर ने कहा - 'साथी, जब आपकी जरूरत के दिन आए... आप दिल्ली छोड़ रहे हैं। यही तो समय था जब आपके सीए होने का लाभ हमारी कंपनी को मिलता।'
'दिल्ली ही छोड़ रहा हूँ न, दिल से तो दूर नहीं जा रहा। जब कभी मेरी जरूरत हो, मुझसे निःसंकोच कहिएगा।'
मैं पुणे में रम गया था और इधर पीटर और नीलिमा कंप्लीट हयूमन रिसोर्स सोल्यूशन लि. यानी सीएचआरएसएल के फाउंडिग डायरेक्टर्स बन गए थे। नीलिमा के भाई ने, जो साफ्टवेयर इंजीनियर था और आइबीएम, अमेरिका में नौकरी करता था, न सिर्फ इस नई कंपनी के लिए वेबसाइट डेवलप किया बल्कि नीलिमा को जरूरी पूँजी भी मुहैया कराई। पीटर ने अपना हिस्सा प्राविडेंट फंड में अब तक की संचित राशि से पूरा किया था।
सीएचआरएसएल के शुरुआती दिन बड़े कठिन थे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के डायरेक्टर्स और वाइस-प्रेसिडेंट्स मिलने का समय तो किसी तरह दे देते लेकिन बिजनेस देने के नाम पर पीछे हट जाते थे। शिव खेड़ा और अरिंदम चौधरी जैसे मैनेजमेंट गुरुओं के जमे-जमाए बाजार में पीटर और नीलिमा के लिए घुसना इतना आसान नहीं था। दसवीं कंपनी से लगातार खाली हाथ लौट कर आने के बाद उस शाम पीटर और नीलिमा ने एमबीए में पढ़ाई गई प्रॉब्लम सॉल्यूशन टेकनीक का व्यावहारिक इस्तेमाल किया। रूट कॉज एनालिसिस की और इस नतीजे पर पहुँचे कि अब से क्लाइंट्स से मिलने नीलिमा अकेली जाएगी। मतलब यह कि फ्रंट इंटरफेस नीलिमा और बैक एंड फैसिलीटेटर पीटर। उस दिन पीटर को यह भी समझ में आ गया कि डीके ने कस्टमर केयर डिपार्टमेंट में सिर्फ लड़कियों की भर्ती क्यों की थी। 'राइट मैन टू राइट जॉब' का यह फार्मूला सीएचआरएसएल के लिए चल निकला था। क्लाइंट्स मिलने लगे थे। नीलिमा बिजनेस लाती और पीटर अपनी वक्तृत्व कला से क्लास में समाँ बाँध लेता...
बहुत दिनों के बाद एक शाम अचानक नीलिमा का फोन आया -
'हाय! हाउ आर यू?'
'फाइन। बट यू पीपल हैव कंप्लीटली फॉरगॉटेन मी। नो फोन... नो मेल... नथिंग।'
'नो, नॉट एट आल। हाऊ कैन इट बी। मैंने तो आज फोन भी कर लिया लेकिन आप... खैर, अच्छा लगा कि आप हमें इस लायक समझते है कि हमसे शिकायत कर सकें। पीटर आप से बात करेगा।'
दुआ-सलाम के बाद पीटर ने कहा - 'वी नीड योर हेल्प। एक तो यह कि मुझे एक पार्टटाइम एकाउंटेंट चाहिए, कारण कि फुलटाइम न तो हम अफोर्ड कर सकते हैं और ना ही हमारे पास उतना काम है। आपका कोई दोस्त या परिचित होगा दिल्ली में... प्लीज यू सेंड हिम टू मी। और दूसरी बात यह कि एक एमएनसी में हमें 'फाइनान्स फॉर नॉन-फाइनान्स मैनेजर्स' की ट्रेनिंग का असाइनमेंट मिला है। आइ नो यू आर द बेस्ट मैन टू टीच फाइनान्स विदिन आवर रीच।'
'अकाउंटेंट तो मैं दे दूँगा। रही बात ट्रेनिंग की तो मै सोच कर बताऊँगा।
'सोचना क्या है इसमें? यू विल हैव टू कम। आप पर इतना अधिकार तो है ही हमारा। और हाँ, वी विल ट्राइ आवर बेस्ट टू कांपनसेट फॉर दैट... बाइ द वे, कैन यू लेट मी नो अबाउट योर एक्सपेक्टेशन?'
पीटर और मेरे संबंध दोस्ताना थे। इसमें व्यावसायिकता का नामोनिशान नहीं था। मैं असहज हो गया... 'पीटर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। इन फैक्ट इट विल टेक टाइम टू डेवलप स्टडी मेटीरियल एंड प्रेजेटेशन्स।'
'डोंट वरी, वी हैव एनफ टाइम। इट विल वी समव्हेयर इन नेक्सेट मंथ। सो स्टार्ट योर प्रेपरेशंस एंड आइ विल राइट यू ए मेल अबाउट द शेड्यूल विदिन ए डे ऑर टू।' पीटर ने मुझे कुछ कहने-सुनने का मौका नहीं दिया था। उसने खुद ही प्रस्ताव रखा और खुद ही उसकी स्वीकृति ले ली थी।
अगले ही दिन सीएचआरएसएल के अकाउंट से मेरे नाम एक मेल आया था। अगले महीने के सेकेंड सैटरडे को ट्रेनिंग की तारीख पक्की हो गई थी। उसमें यह भी लिखा गया था कि मैं एसी थ्री की टिकट बुक करा लूँ, जिसका भुगतान सीएचआरएसएल करेगी और इसके अतिरिक्त मुझे पाँच हजार रुपए बतौर टोकन मनी भी दिया जाएगा। गो कि यह रकम मेरी मेहनत और मेधा के हिसाब से उन्हें बहुत कम लग रही थी लेकिन इसे एक शुरुआत भर मानने का आग्रह था और इस बात की उम्मीद जताई गई थी कि आगे और असाइन्मेंट मिलेंगे, यह तो महज एक पाइलट प्रोजेक्ट है। मेल के अंत में नीलिमा का दस्तखत था।
नीलिमा के मेल का बेहद संक्षिप्त जवाब लिखते हुए मेरी उँगलियाँ काँपी थीं 'कहीं यह हमारे रिश्ते के अंत की शुरुआत तो नहीं है?'
दिन में ऑफिस और रात में ट्रेनिंग मेटीरियल और प्रेजेंटेशन की तैयारी, मेरी तो जैसे जान ही निकल गई थी। खैर, मैंने पूरी मेहनत से सब कुछ तैयार किया और पीटर के कहे अनुसार ट्रेनिंग से एक सप्ताह पूर्व उसे मेल कर दिया ताकि वह उसे एक प्रजेंटेबल ले आउट में ढाल कर सारे पार्टिसिपेंट्स के लिए प्रिंट आउट ले सके।
मैं अपने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार रेलवे स्टेशन से सीधे पीटर के दफ्तर आ गया था। ऑफिस छोटा लेकिन निहायत ही खूबसूरत था। वहाँ की आंतरिक सज्जा में पीटर के जनबोध और नीलिमा की आधुनिकता का एक अद्भुत फ्यूजन था। स्टडी मेटीरियल देख कर तबीयत प्रसन्न हो गई। इसे तैयार करते हुए मैंने इतने आकर्षक आवरण और खूबसूरत प्रिंटिंग, बाइंडिग की कल्पना भी नहीं की थी। मैंने उसे पलटना शुरू किया लेकिन अगले ही पल मेरा मन खट्टा हो गया। कॉपीराइट के आगे 'सीएचआरएसएल' लिखा हुआ था और वहाँ इस बात की सूचना भी छपी थी कि बिना 'सीएचआरएसएल' की लिखित अनुमति के इसका आंशिक या सम्पूर्ण उपयोग अवैध होगा। गो कि इस स्टडी मेटीरियल की मौलिकता का मेरा कोई दावा नहीं था, मैंने भी इसे कई किताबों, जर्नल्स और वेब साइट्स से ही कलेक्ट किया था लेकिन कापीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' मुझे लगातार खटक रहा था। मैंने इसे थूक की तरह गटक लिया। पता नहीं पीटर और नीलिमा ने मेरे चेहरे पर उग आई इस असहजता को पढ़ा या नहीं।
ट्रेनिंग के लिए गुड़गाँव जाना था और मैं पांडव नगर में अपने छोटे भाई के पास ठहरनेवाला था। तय हुआ कि वे दोनों सुबह साढ़े सात बजे अक्षरधाम मंदिर के पासवाले पेट्रोल पंप के अपोजिट, जहाँ समसपुर जागीर बस स्टैंड का बोर्ड लगा हुआ है, मुझे पिक करेंगे।
पीटर के हाथ में एक अतिरिक्त टाई थी जिस पर सीएचआरएसएल का लोगो प्रिंटेड था। वह पूरे रास्ते मुझसे टाई बाँधने को कहता रहा। लेकिन मैंने जैसे टाई न बाँधने की कसम खा रखी थी। मेरी आँखों में अब भी कॉपीराइट के आगे लिखा 'सीएचआरएसएल' घूम रहा था, और अब मैं उसे अपने गले से भी नहीं लटकाना चाहता था। पीटर कार्पोरेट कल्चर की दुहाई देता रहा और मैं टाई में असहज होने के बहाने बनाता रहा। हमारी इस बहस को ड्राइविंग सीट पर बैठी नीलिमा ने ही सम पर लाया था - 'पीटर, टाई लगा कर अनकांफर्टेबल होने और फिर परफार्मेंस खराब कर लेने से तो बेहतर है हम टाई के चक्कर में न पड़े। हाँ, अगली बार रजनीश पहले से टाई बाँधने का अभ्यास कर के आएँगे' और पीटर ने अपनी जिद छोड़ दी थी।
पीटर और नीलिमा के कहे अनुसार दुष्यंत के क्रांतिकारी और बशीर बद्र के रूमानी शे'रों की छौंक से मैंने फाइनान्स की नीरसता में भी एक नया रस घोल दिया था। पाइलट प्रोजेक्ट को आशा से ज्यादा सफलता मिली थी। पार्टिसिपेंट्स ने अपने फीड बैक में क्लास की परिकल्पना, प्रस्तुति और ट्रेनिंग मेटीरियल की उपयोगिता को ऐक्सीलेंट रेट किया था।
गुड़गाँव से लौटते हुए पीटर ने मुझे अपनी अंग्रेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद करने का भी प्रस्ताव दिया। वह उन्हें कोटेबल पंच लाइन्स की किताब की शक्ल में छाप कर कार्पोरेट जगत में एक नई शुरुआत करना चाहता था। अनुवाद के प्रस्ताव से मुझे उसकी कहानी 'ग्लोबल विलेज' की याद हो आई जिसमें उसने नई आर्थिक नीति के खतरों के विरुद्ध एक स्वप्नदर्शी प्रतिरोध दर्ज किया था। प्रीप्रेस इंडिया के दिनों में ही मैंने उसका हिंदी अनुवाद किया था जो बाद में 'हंस' में छपी भी थी। मुझे वो तमाम शामें याद आ रही थीं जब हम उस कहानी के अनुवाद के लिए साथ बैठते थे। अपनी कहानी का पैरा-दर-पैरा वह पहले मूल मलयालम में सुनाता था फिर अंग्रेजी में समझाता और तब जा कर मैं उसका हिंदी तर्जुमा करता था। हर शाम के अंत में वह अपनी पसंद की काली चाय पीता और कोई न कोई क्रांति गीत गाता था। तब उसके चेहरे पर संघर्ष की जबर्दस्त आभा चमकती थी। ऐसी ही किसी शाम मैंने पहली बार गोरख पांडे की वह रचना उससे सुनी थी -
'जनता की चले पलटनिया
हिल्ले ले झकझोर दुनिया
हिल्ले ले पहाड़वा रे
हिल्ले नदी-ताल वा
सागर में उठे हिलोर रे...'
...मुझे उसके सपनों की दुनिया बेतरह आकर्षित करती थी। तब वे अनुवाद मैंने अपनी पहल से किए थे, वह तो उन्हें बाहर लाना ही नहीं चाहता था। वही पीटर आज खुद से अपनी कविताओं के अनुवाद की बात कर रहा था। मैं बस हाँ-हूँ करता रहा, कोई अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखा सका।
पुणे पहुँच कर जब मैंने अपना ई मेल चेक किया तो उसमें एक मेल राजकुमार का भी था। राजकुमार मेरे दूर का रिश्तेदार है जिसे मैंने पीटर के पास पार्टटाइम एकाउंटेंट के रूप में भेजा था -
'मैंने पीटर का काम छोड़ दिया है। वह बहुत धूर्त आदमी है। शुरू में तो उसने कहा था कि अभी हमने कंपनी शुरू ही की है और लॉस में है इसलिए आपको कम तनख्वाह दे रहा हूँ, प्राफिट में आते ही तनख्वाह बढ़ा दूँगा। पिछले साल तो एक नंबर में भी प्राफिट हुआ है, फिर भी वह सैलरी नहीं बढ़ा रहा था। बातें तो बड़ी-बड़ी करता है कि आप हमारे इंप्लाई नहीं बिजनेस पार्टनर है और पैसा देने के नाम पर...'
मेल काफी लंबा था मैंने आगे बिना पढ़े ही उसे डिलीट कर दिया।
बहुत दिन हो गए पीटर से कोई बात नहीं हुई है। सुना है कि उसकी कंपनी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। अब तो उसने कई फील्ड में डाइवर्सीफाई कर लिया है... मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई है कि पिछले दिनों उसकी कंपनी ने जनवादी गीतों का एक कैसेट रिलीज किया है... इस कैसेट की चारों तरफ धूम है। आज एक बड़े न्यूज चैनल पर इस म्यूजिक अलबम के गायकों का इंटरव्यू भी आनेवाला है। मैं बहुत उत्साहित हूँ... पीटर के खिलाफ मेरी सारी शिकायतें भीतर ही भीतर घुल रही हैं... इन गायकों का इंटरव्यू अब शुरू ही होनेवाला है... लेकिन यह क्या, उलटी टोपी लगाए हाथ में गिटार लिए ये लड़के क्या गा रहे हैं... बोल तो पहचाने-से हैं लेकिन इसकी धुन मन को एक अजीब-सी कड़वाहट और पागल कर देनेवाले शोर से भर देती है - 'हिल्ले ले... हिल्ले ले... हिल्ले ले झकझोर दुनिया हिल्ले ले हिल्ले ले एशिया रे... हिल्ले अफरीकवा... हिल्ले रे लातिन अमरीकवा... हिल्ले रे...'
अब एंकर उनसे बातचीत कर रहा है - 'आपने जो गाना अभी गया है, इसके बारे में हमारे दर्शकों को कुछ बताएँ...'
'वैसे तो 'हिल्ले ले' अलबम के सारे गीत खास हैं लेकिन यह गीत इसलिए भी विशेष है कि इसमें नए समय की नई रफ्तार मौजूद है। इस गीत से यह पता चलता है कि ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में हमारे इंडिया ने अपने प्रोग्रेस से कैसे पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है...'
मैं अपना माथा ठोंक लेता हूँ... गोरख पांडे ने यदि तब आत्महत्या नहीं की होती तो आज इस इंटरव्यू को सुन कर जरूर कर लेते... एक बार फिर से मेरे भीतर पीटर के खिलाफ आक्रोश उमड़ने लगा है... मैं पूछना चाहता हूँ क्या यही थे वे सपने जिनका मरना सबसे खतरनाक होता है... लेकिन फोन नीलिमा ने उठाया है -
'पीटर अभी बिजी है। हमने 'हिल्ले ले' का जो आडियो अलबम लांच किया था उसे जबर्दस्त सक्सेस मिली है। नाउ वी हैव प्लैंड टू ब्रिंग इट्स विडियो टू। विदिन ए फ्यू मिनट्स वी आर गोइंग टू साइन ए कांट्रैक्ट विद मल्लिका सेहरावत फॉर द सेम। इस मीटिंग के बाद पीटर आप को फोन कर लेगा...'
मुझ में कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं रही, मैं फोन बीच में ही काट देता हूँ।
'हिल्ले ले' के गायकों का इंटरव्यू अब भी जारी है मैं टीवी ऑफ कर देता हूँ। वे सपने जो मैंने कभी पीटर की आँखों में देखे थे मेरा मुँह चिढ़ा रहे हैं...
---राकेश बिहारी---
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