गुरुवार, 2 मई 2013

सड़क


भर्र-भर्र करती हुई एक जीप दुकान के सामने रुकी।

'ओ चायवाले, चार कप चाय बनाना,' - कह कर एक आदमी तीन आदमियों के साथ दुकान के आगे पड़ी खाट पर बैठ गया और वे आपस में बनती हुई इस सड़क के बारे में बातचीत करने लगे।

चायवाले ने कोयले के चूल्‍हे पर खौलते पानी को पतीली में डाल कर अंदाज से उसमें चाय, चीनी और दूध मिला दिया और काँपते हाथों से आँखें नीची किए चार कप चाय तिपाई पर रख आया।

'अरे हो हो, क्‍या वाहियात चाय बनाई है इस बुड्ढे ने,' कह कर उस आदमी ने झटके से प्‍याला सहित चाय नीचे लुढ़का दी। शेष तीनों आदमियों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई, लेकिन चाय सुड़कते रहे।

अब जा कर चायवाले ने आँख उठाई और क्रोध से बड़बड़ाते उस आदमी ने भी चायवाले को देखा और आश्‍चर्य से बोल उठा -

'अरे, आप मास्‍टर साहब।'

और मास्‍टर चंद्रभान पांडे ने देखा कि वह आदमी और कोई नहीं, उसके इलाके के एमएलए जंगबहादुर यादव हैं। उनकी आँखें शर्म से झुक गईं और झुकी हुई आँखें पोर-पोर फटी हुई खादी की धोती के बड़े-बड़े सुराखों में उलझ गईं।

यादव जी ने एक ठहाका लगाया - 'अच्‍छा मास्टर जी, आपने अब यह धंधा भी शुरू कर दिया। ठीक है आदमी को कुछ-न-कुछ करते रहना चाहिए। पैसा बड़ी चीज है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो कहिएगा, मास्‍टर जी।' फिर एक ठहाका लगाया और साथ के लोगों ने भी ठहाके का अनुसरण किया। एक ने खुशामद के तौर पर कहा, 'अरे यादव जी, आपकी बदौलत जब इस इलाके में सड़क आ रही है, तो न जाने कितने लोगों का पेट पलेगा।'

यादव जी ने पाँच रुपए का एक नोट निकाला और मास्‍टर साहब की ओर बढ़ा दिया।

'मेरे पास खुले रुपए और पैसे नहीं हैं।' मास्‍टर जी ने कहा।

'अरे तो रखिए न, कौन आपसे पैसे वापस माँग रहा है?'

'नहीं, मैं आपसे वैसे भी पैसे लेने का अधिकारी नहीं हूँ। आपने तो चाय पी ही नहीं।'

'अरे तो चाय के पैसे कौन दे रहा है गुरूजी। इसे गुरु दक्षिणा समझ लीजिए। रख लीजिए, काम आएगा।'

पांडे जी तिलमिला गए। हाथ में पाँच रुपए का नोट पकड़े मर्माहत से रह गए। उनके मन में क्रोध का एक बवंडर उठा। आँखों में हिकारत भर वे यादव जी की ओर बढ़े और पाँच का नोट उनकी ओर फेंक कर चिल्‍लाए - 'यादव जी, ये अपने रुपए लेते जाइए, मैं भीख नहीं माँगता।'

लेकिन यादव जी जीप में बैठ चुके थे। मुस्‍करा कर पांडे जी और उनके द्वारा फेंके गए रुपए को देखा। जीप भर्र-भर्र करके स्‍टार्ट हुई और उसकी धूल भरी हवा में नाचता हुआ नोट थोड़ी दूर जा गिरा।

कुछ देर तक नोट धूल-भरी हवा में छटपटाता रहा और फिर शांत हो गया। पांडे जी उसे देखते रहे, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़े और धूल झाड़ कर नोट उठा लिया। आखिर किया क्‍या जाए।

गोरे बदन, चौड़े माथे, श्‍वेत केशवाले पांडे जी खादी की एक जीण-शीर्ण धोती पहने और उसी का आधा भाग नंगे शरीर पर डाले हुए अपनी झोंपड़ी के आगे पड़ी बेंच पर बैठे-बैठे उदास हो चले थे। उनके चंदन चर्चित ललाट की सिकुड़न भरी रेखाओं में यादव जी की जीप से उड़ी हुई धूप समा गई थी। सोच रहे थे -

यादव उसे अपमानित कर गया। वह पहले ही कहता रहा कि यह काम उससे नहीं होगा। वह ब्राह्मण, पुराना कांग्रेसी, स्‍कूल का शिक्षक। क्‍या बुढ़ौती में छोटी जातियों के लोगों की तरह चाय-पकौड़ी और सुरती बेचना ही उसकी तकदीर में रह गया था। उसने कितना मना किया लेकिन अपनी संतान के आगे किसका वश चलता है। रमेश जिद कर बैठा और कुछ लोगों ने उसकी हाँ-में-हाँ मिला दी।

'पर्र...' पांडे जी उदास हो आए। हाथ लगा कर देखा खादी की धोती चूतड़ पर फिर फट गई थी। धोती क्‍या है। जैसे चीथड़ों का जोड़। खादी उसे बेपर्द करके छोड़ेगी। अब वह क्‍या करे? इसी धोती को वह इधर से उधर और उधर से इधर करके पहनता रहता है। सभी जगह से तो यह फट चुकी है। अब इधर से उधर करने की भी तो जगह नहीं बची। र‍मेश कहता है - 'छोड़िए, खादी-वादी पिताजी। मिल की धोती मजबूत और सस्‍ती होती है। वह इस तरह जगह-बेजगह धोखा नहीं देती।'

वह कब से सुन रहा है रमेश की बात को और सोचता है, ठीक ही तो कहता है रमेश। लेकिन अब क्‍या बदलना? अब तो जिंदगी बीत चली, इस बुढ़ौती में क्‍या नियम भंग करना? ...लेकिन वह कहाँ से खरीदे खादी की धोती। एक मोटी धोती भी तेरह-चौदह रुपए से कम में नहीं आती, फिर उसके साथ कुरता-टोपी, चादर-तौलिया सभी तो लगे हुए हैं। इतने में तो मिल के मोटे कपड़ों के कई कई सेट आ जाएँगे और चलेंगे भी ज्‍यादा। ...फिर भी जी नहीं मानता। जब जीना ही कितने दिन है। ...लेकिन जी के मानने न मानने का ही सवाल तो नहीं है। उसे स्‍कूल से रिटायर हुए पाँच वर्ष हो गए, खेत के नाम पर तीन बीघे खेत - वो भी बाढ़ग्रस्‍त कछार के खेत। छह-सात आदमियों का गुजर- बसर कैसे होगा। महेश तो पढ़-लिख कर परिवार सहित बाहर चला गया नौकरी करने। उसका अपना ही गुजर-बसर मुश्किल से होता है। छोटा लड़का रमेश बहुत ढकेलने पर भी आठवीं पार नहीं कर सका। लिपट गया खेती-बारी में। उसके तीन बच्‍चे हैं, दोनों जून भरपेट खाना तो मिलता नहीं, ये खादी के कपड़े कहाँ से आएँ?

दुकान के सामने की सड़क से लोग आ जा रहे थे। पांडे जी ने झोंपड़ी के पीछे जा कर धोती इधर उधर करने की बहुत कोशिश की लेकिन अब उन्‍हें कोई गुंजाइश नहीं दीखी। उसे क्रोध हो आया कि इस ससुरी धोती को फाड़-फूड़ कर फेंक दे और नंगा हो जाए। ...अरे नंगा तो हो ही गया है। चाय की दुकान खोल कर नंगा हुआ है? हर परिचित आदमी एक व्‍यंग्‍यमयी दृष्टि से उसे देखता है और अजब-अजब सवाल करता है और तिस पर यह यादव का बच्‍चा उसे इतना अपमानित कर गया। उसे इतना क्रोध आया कि इस यादव के बच्‍चे को फिर एक बार बेंच पर खड़ा करके उसके चूतड़ पर बेंत लगाए, लेकिन अब तो वह एमएलए हो गया है, छात्र नहीं रहा। वह अपना क्रोध अपने भीतर ही दबाए सुलगने लगा। लेकिन उसे एक बात से बड़ी राहत मिली कि उसने इस एमएलए के बच्‍चे को स्‍कूल में कई बार बेंच पर खड़ा कर बेंत से पीटा है। अब भी उसके चूतड़ पर बेंत के निशान होंगे। धीरे-धीरे स्‍कूल के दिन उसके सामने सरक आए। तब कौन जानता था कि यह जंगली आगे चल कर जंगबहादुर यादव, एमएलए बन जाएगा। क्‍लास में सबसे बोदा लड़का यही था। इसे हर रोज मार पिटती थी। कई बार तो इसने लड़कों के चाकू, दावात, पेंसिलें चुरा ली थीं और उसने इसे बेंच पर खड़ा करके बहुत पीटा था। एक बार तो इसने गांधी जी की तसवीर दूसरे लड़के की किताब से फाड़ ली थी और उस पर पेशाब कर दिया था। फिर तो उसने इसे स्‍कूल से ही निकाल दिया था। बाद में लोगों के कहने-सुनने पर वापस ले लिया था... अब वह बड़ा नेता बन गया है। पता नहीं, इस देश में कैसे इतने बड़े-बड़े चमत्‍कार हो जाते हैं। ...उसे लगता है कि लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए और वह खादी की फटी धोती पकड़े हुए बैठा है।

शाम को रमेश आया और दोनों आदमी दुकान उठा कर घर ले गए।

'मुझसे यह नहीं होगा, रमेश।' पांडे जी थके-थके से बोले।

'क्‍यों पिताजी?'

'लोग मुझे बहुत छोटी नजर से देख रहे थे आज। मैं लोगों की निगाह नहीं झेल पा रहा था।'

'हाँ पिताजी, भूख से भारी लोगों की निगाहें ही होती हैं न। तो ठीक है, हम लोगों की निगाहें क्‍यों झेलें, भूख ही झेलें।'

बीच में एक चुप्‍पी पसर गई।

'बैठने को तो मैं बैठता, देखता - कौन साला मेरा अपमान करता है, लेकिन फिर खेती-बारी चौपट हो जाएगी।'

पांडे जी कुछ नहीं बोले।

'कुछ मिला, बाबू जी?'

'हाँ, दो रुपए कमाई के और पाँच रुपए गुरु-दक्षिणा के।'

'गुरु-दक्षिणा कैसी?'

पांडे जी ने यादव की कहानी सुना दी।

'अरे तो इसमें इतना आहत होने की कौन-सी बात है, बाबू जी। सौ हम लोगों से खाता है, पाँच दे ही गया तो क्‍या हो गया?'

पांडे जी ने रमेश को मार खाई हुई दृष्टि से देखा। रमेश हँस रहा था।

रात को पांडे जी लेटे तो बड़ी बेचैनी अनुभव कर रहे थे। वे अपने से ही पूछ रहे थे - क्‍यों भाई आदर्शवादी कांग्रेसी, तपे हुए शिक्षक, नशाखोरी के दुश्‍मन। तुम्‍हारी यही परिणति होनी थी। जिन्‍हें तुमने जीवन-भर ज्ञान पिलाया, क्‍या उन्‍हें अब चाय-पकौड़ी खिलाओ-पिलाओगे? जिनके सामने नशे के विरुद्ध बोलते रहे, उन्‍हीं के लिए सुरती तौलोगे? नहीं-नहीं, यह नहीं होगा।

वह कब से सोच रहा था कि काश, इस पिछड़े हुए कछार में एक सड़क आती। लेकिन सारी-की-सारी सरकारें तो सोई हुई हैं इस कछार की ओर से आँख फेर कर। सड़कें तो दुनिया में कितनी हैं लेकिन अपने जवार में सड़क आने का और उस पर यात्रा करने का सुख कुछ और ही होगा। कितना प्‍यारा होगा नदियों-नालों, खंदकों-खाइयों के ऊपर से भागती सड़क का यात्री होने का। कितनी सुविधाएँ बढ़ जाएँगी। लेकिन तब उसने कहाँ सोचा था कि सड़क के आने का कोई और मतलब भी हो सकता है।

और जब कच्‍ची सड़क पक्‍की सड़क बनने लगी तो रमेश ने कहा, 'बाबू जी, कच्‍ची सड़क पक्‍की सड़क बन रही है - यह बहुत अच्‍छा हुआ। अपना एक खेत सड़क के किनारे ही है और उसी के पास बस अड्डा भी बननेवाला है। हम क्‍यों न वहाँ कोई दुकान खोल दें? शुरू में चाय की दुकान खोली जाए और कुछ सुरती की गाँठें वहाँ रख दी जाएँ। रास्‍ता तो चालू है ही, अब सड़क बन रही है, वह और चालू हो जाएगी और बहुत से मजदूर काम पर लगेंगे।'

'अच्‍छा, देखा जाएगा।' टालने की गरज से पांडे जी ने कहा।

'देखा नहीं जाएगा, अभी शायद किसी के दिमाग में यह चीज आई नहीं है, बाद में तो सभी भरभरा कर दुकानें खोल देंगे। हमें सबसे पहले अपनी दुकान जमा लेनी चाहिए।'

एक चुप्‍पी छाई रही।

'इस बुढ़ौती में आपको खेती-बारी के काम करने पड़ते हैं, इससे अच्‍छा होगा कि आप दुकान पर बैठें। आराम से आपके दिन भी कट जाएँगे और चार पैसे की आमदनी भी हो जाएगी।'

'क्‍या कहते हो - अब मैं दुकानदारी करूँगा?' वह तैश में उठा था तो उसकी धोती फट गई थी।

और जब रोज-रोज रमेश के विचार उसके दिमाग से टकराने लगे तो एक दिन दुखी मन से स्‍वीकृति दे दी। बनती हुई सड़क के पासवाले खेत में एक झोंपड़ी पड़ गई, कुछ सुरती के पत्ते तथा चाय के सामान रख दिए गए। वह आज पहली बार दुकान पर बैठा था।

लेकिन नहीं, वह कल दुकान पर नहीं जाएगा। उसका रोम-रोम परिताप से सुलग रहा है, गरीब हुआ तो क्‍या - इस बुढ़ौती में अपनी आबरू बेचेगा। करवट ली तो धोती फिर पर्र से बोल गई। अब नंगा हो कर घर तो रह सकता है लेकिन क्‍या दुकान पर भी जाएगा इसी रूप में?

सुबह हुई तो रमेश दुकान का सामान लिए हाजिर हो गया। पांडे जी अधनंगे लेटे रहे।

'बाबू जी, दुकान नहीं जाइएगा?'

पांडे जी की इच्‍छा तो हुई कि कह दें - नहीं जाऊँगा। लेकिन कह नहीं सके। दर्द-भरी आवाज में बोले, 'नंगा ही जाऊँ क्‍या?'

सामान नीचे रखते हुए रमेश भारी मन से बोला, 'अब क्‍या कहा जाए। कुछ रुपए इकट्ठे हो जाएँ तो आपके लिए खादी की एक धोती ला दूँ। खादी भी कितनी महँगी हो गई।'

पांडे जी ने देखा कि रमेश के बच्‍चे फटे-पुराने नेकर पहने उसके सामने से स्‍कूल चले गए। उन्‍हें एक चोट-सी लगी - क्‍या वह इतनी महँगी खादी की धोती पहन कर बच्‍चों को नंगा रखेगा? आज तक तो उसने यही किया। उसे क्‍यों नहीं मालूम हुआ कि खादी-खादी में भेद होता है। एक खादी उसकी है, एक यादव जी की। यादव ही खादी पहनने का हकदार है क्‍योंकि उसके शरीर पर खादी का विकास हुआ है और वह? वह नहीं, उसके शरीर पर तो खादी फटती ही चली गई है।

रमेश सामान लिए अंदर जा रहा था कि पांडे जी ने पुकारा

'रमेश!'

'हाँ, बाबू जी।'

'तुम्‍हारे पास एक के अलावा कोई साबुत धोती है?'

'हाँ, है बाबू जी।'

'लाना तो बेटे।'

रमेश ने व्‍यथा, आश्‍चर्य और प्रसन्‍नतामिश्रित आँखों से पिता को देखा। पिता ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया था।

                                                                 ---रामदरश मिश्र---

आदमी के बारे में सोचते लोग


यार लोग तीन-तीन पैग गले से नीचे उतार चुके थे। यों शुरू से ही वे चुप बैठे हों, ऐसा नहीं था, लेकिन तब उनकी बातों का केंद्र बोतल में कैद लाल परी थी, सिर्फ लाल परी। उसे पेट में उतार लेने के बाद उन्हें लगा कि पीने-पिलाने को ले कर हुई सारी बातें और बहसें बहुत छोटे और ओछे लोगों जैसी थीं। अब कुछ बातें बड़े और ऊँचे दर्जे के दार्शनिकों जैसी की जानी चाहिए। 
कमरे की एक दीवार पर एक मशहूर शराब-कंपनी का फुल-लेंथ कैलेंडर लटका था, जिसमें छपी मॉडल की मुद्रा उत्तेजक तो थी ही, धर्म का मुखौटा चढ़ा कर घूमनेवाले पंचसितारा सामाजिकों के लिए इतनी अश्लील भी थी कि उसे मुद्दा बना कर अच्छा-खासा बवाल मचाया जा सके। कैलेंडर के सामनेवाली दीवार पर तीन फ्रेम फिक्स्ड थे - नीचे से देखो तो चढ़ते क्रम में और ऊपर से देखो तो उतरते क्रम में सीढ़ीनुमा। सिवा कुछ रंगों के, बुद्धिमान-से-बुद्धिमान आदमी के लिए उनमें से किसी भी फ्रेम के बारे में यह बता पाना असंभव था कि आकृति की दृष्टि से उसमें बना क्या है? और इन दोनों के बीचवाली दीवार पर एक फुल-साइज एलसीडी चस्पाँ था। कोने में रखी मेज पर म्यूजिक-सिस्टम था, बहुत ही धीमे वॉल्यूम में मादक धुन बिखेरता हुआ। ट्यूब्स ऑफ थीं और सीलिंग में जड़े एलईडी बल्बों में से दो को ऑन कर के कमरे को हल्के नीले प्रकाश से भरा हुआ था। सीलिंग फैन नहीं था, एसी था जिसको ऑन रहना ही था। 
'मुझे लगता है...ऽ... कि यह दे...ऽ...श एक बार फिर टूटेगा... आजकल के नेताओं से...ऽ... सँभल नहीं पा रहा है।' संदीप ने बात छेड़ी। 
'सँभल नहीं पा रहा है?' संजू ने चौंक कर कहा, 'अबे...ऽ... देश में नेता ऐसा कोई बचा ही कहाँ है जो देश को सँभालने की चिंता पालता हो? ...साले दल्ले हैं ज्यादातर।' 
राजेश को क्योंकि पढ़ने का बहुत शौक था, इसलिए बोलने को उसके पास बाकी दोस्तों के मुकाबले ज्यादा और व्यापक बातें रहती थीं। उससे रहा नहीं गया। बोला, 'या...ऽ...र, मेरी बात को तुम लिख कर रख लो - जब तक समाजवाद को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक न देश का भला होगा और न दुनिया का।' 
'ऐ...ऽ... ऐसी बात है...ऽ... तो सबसे पहले हमीं... क्यों न उसे अपनाएँ!' गिर-गिर जाती गरदन को कंधे पर टिकाए रखने की कोशिश करते राजीव ने अटक-अटक कर कहा, 'दुनिया के लिए न सही... देश के लिए तो हमारी... कुछ न कुछ जिम्मेदारी... है...ऽ... ही।' 
'यार, मेरा खयाल है...ऽ... कि किसी चीज को...ऽ... जाने-समझे बिना अपना लेना...ऽ... बाल-बराबर भी...ऽ... ठीक नहीं है।' संदीप ने टोका। उसकी गरदन तो काबू में थी लेकिन पलकें साथ नहीं दे रही थीं। किसी तरह उन्हें झपकने से रोकते हुए बोला, 'जब तक समाजवाद के मतलब मेरी समझ में साफ नहीं हो जाते, तब तक कम से कम मैं तो...ऽ...।' 
'मतलब मैं समझाता हूँ तुझे...!' उसके कंधे को थपक कर तेजिंदर ने कहा और चौथा पैग तैयार कर रहे संजू से बोला, 'मेरावाला थोड़ा लाइट ही रखना... बस इतना... ठीक। हाँ, तो समाजवाद उस खूबसूरत दुनिया को देखने का सपना है मेरे बच्चे, जिसमें घोड़ियाँ बकरों के साथ, बकरियाँ ऊँटों के साथ, ऊँटनियाँ कुत्तों के और कुत्तियाँ घोड़ों के साथ यों-यों कर सकेंगी।' अपनी बात के आखिरी शब्दों को कहते हुए उसने दाएँ हाथ की मुट्ठी को मेज के समांतर हवा में चलाया - आगे-पीछे। पैग बना कर संजू ने इस बीच गिलास को उसके आगे सरका दिया था। उसने गिलास उठाया और सिप करते ही कड़वा-सा मुँह बना कर संजू से बोला, 'अभी भी हैवी है यार, थोड़ा पानी और डाल।' पानी डलवा कर उसने एक बार फिर सिप किया। बोला, 'अब ठीक है।' 
समाजवाद की उसकी इस व्याख्या पर राजेश के अलावा सभी हँस पड़े। 
'क्या सही समझाया है...' संदीप हँसते-हँसते बोला, 'मान गए!' 
'आज मैं अपना दिमाग खजूर के पेड़ पर लटका न छोड़ कर साथ बाँध लाया हूँ न, इसलिए।' अपनी पगड़ी पर थपकी दे कर तेजिंदर बोला। इस बात पर एक और ठहाका लगा। राजेश इस बार भी नहीं हँसा। बाहर से झुलसा हुआ आदमी एकबारगी मुस्करा सकता है, लेकिन भीतर से झुलसे हुए आदमी का मुस्कराना मुमकिन नहीं। यों भी, जो लोग अपने आसपास से थोड़ा ज्यादा पढ़ या गुन जाते हैं उनके बीच हजारों में से कोई एक ही ऐसा निकलता है जो अपने आसपास की दुनिया से पटरी बिठाए रखने में यकीन करता है और वैसा करने में कामयाब भी रहता है। 
'जो लोग चाँदी का चम्मच मुँह में ले कर पैदा होते हैं, समाजवाद उनकी समझ में आनेवाला सिद्धांत नहीं है।' सब ठहाका लगा चुके तो झुलसे हुए राजेश ने बोलना शुरू किया, 'जिनके पेट भरे हुए हैं, गरीबी और भुखमरी से जूझने की उनकी बातें वोट बटोरनेवाली राजनीति के अलावा कुछ और सिद्ध हुई हैं आज तक? इस एसी रूम में इंगलिश वाइन डकार कर समाजवाद पर चिंतन चला रहे हैं - वाह! पेट भरा हो तो आदमी को आदमी - आदमी नहीं कुत्ता नजर आता है, साँप-बिच्छू-नाली का कीड़ा नजर आता है। पेट भरने के लिए जब रोटी बेस्वाद लगने लगे और जीभ रह-रह कर डोमिनो के पीजा'ज की ओर लपलपाने लगे तब आदमी के बारे में सोचते हुए हमें डर लगने लगता है...।' मेज पर पेग रखते हुए उसने हिच्च की और नजरें दोस्तों पर गड़ाईं। 
यार लोगों को उससे शायद ऐसे ही किसी वक्तव्य की उम्मीद थी, इसलिए सब-के-सब दम साधे उसका बयान सुनते रहे। जहाँ तक उसका सवाल था - या तो उसका काम तीसरे पैग में ही तमाम हो गया था या फिर चौथा कुछ हैवी हो गया था; क्योंकि जैसे-जैसे वह उसे खत्म करता जा रहा था वैसे-वैसे उसकी आवाज में भारीपन आता जा रहा था। 
'एक तरफ हम हैं... हम, जो अंग्रेजी शराब के इस महँगे ब्रांड का पहला-दूसरा या तीसरा नहीं, चौथा पैग चढ़ा रहे हैं...।' मेज पर रखी वाइन की बोतल को हाथ में उठा कर दिखाता हुआ वह बोला, 'कहाँ तो बाहर चल रही लू से बचने की जुगत में किसी नीम या पीपल के साए में बैठ कर ठर्रे के साथ लोग उँगली से नमक चाट-चाट कर काम चला रहे हैं, और कहाँ हम - जो नमकीन के नाम पर तले हुए मसालेदार काजुओं की प्लेट बीच में रखे हुए इस एसी रूम में बैठे हैं। एक तरफ मेहनत कर-कर के हर तरह से थके और हारे वो लोग हैं जिन्हें शाम को भरपेट भात भी मयस्सर नहीं। वे अगर शराब भी पीते हैं तो पाँच-सात-दस रुपए में काँच का एक छोटा गिलास भर - कच्ची...जिसे पीने के बाद उन्हें इतने गजब का नशा होता है कि गिरने के बाद वे कभी उठ भी पाएँगे या नहीं, वे नहीं जानते... और दूसरी ओर...।' 
'इस आदमी के साथ यार यही खराबी है।' उसकी बात को बीच में ही काट कर तेजिंदर तुनक कर बोला, 'ये बातें कम करता है भाषण ज्यादा झाड़ता है... उतार के रख देता है सारी की सारी...।' कहते-कहते वह राजेश की ओर घूमा और व्यंग्यपूर्वक बोला, 'इस साले पर मसीहा बनने का जुनून सवार है। अबे...ऽ... वाइन के दौर चल रहे है, छत में सितारे जगमगा रहे हैं, सामने अप्सरा पड़ी है...' कैलेंडर की ओर इशारा करते हुए उसने बात को जारी रखा, 'और तू है कि फिलॉसफी झाड़ने को बैठ गया! ओए, तू क्या चाहता है कि भूखे-नंगों को भी मैक्डोवेल मिलने लगे?' 
'तुम लोग इस थ्योरी को समझ ही नहीं पाओगे।' तेजिंदर की ओर ताकते हुए राजेश क्षुब्ध स्वर में बोला, '...और तू तो कभी भी नहीं।' 
'ओए थ्योरी गई तेल लेने...' तेजिंदर आँखों को पूरी खोल कर उस पर गुर्राया,' और मेरी समझ में वो क्यों नहीं आएगी, मैं सरदार हूँ इसलिए?' 
'बात को मजाक में उड़ाने की कोशिश मत कर।' राजेश गंभीरतापूर्वक बोला, 'तू अच्छी तरह जानता है कि मैं सरदार और मोना नहीं मानता... और ना ही ऊँच और नीच!' 
'फिर?' तेजिंदर ने पूर्व अंदाज में ही पूछा। 
'फिर यह... कि तेरा पेट भरा है और भेजा खाली है...।' 
'अभी-अभी तो तू कह रहा था कि तू सरदार और मोना नहीं मानता... और अभी-अभी तू मेरा यानी कि एक सरदार का भेजा खाली बता कर उसका मजाक बना रहा है?' तेजिंदर तड़का। 
उसकी इस बात पर राजेश ने दोनों हाथों में अपना सिर थाम लिया। बोला, 'ओए, कोई इसे चुप रहने को कहो यार। यह अगर इसी तरह बेसिर-पैर की हाँकता रहा तो...।' 'अब - 'बेसिर-पैर' ...देख, तू लगातार मुझे 'सरदार'वाली गालियाँ दे रहा है...' इस बार आवेश के कारण वह कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया, 'देख, दोस्ती दोस्ती की जगह है और इज्जत इज्जत की जगह... अब अगर एक बार भी सरदारोंवाला कमेंट मुँह से निकाला तो ठीक नहीं होगा, बताए देता हूँ...' 
तेजिंदर की इस मुद्रा पर सब-के-सब गंभीर हो गए। अच्छा-खासा ठंडक-भरा माहौल एकदम से इस कदर उबाल खा जाएगा, किसी ने सोचा नहीं था। राजेश हथेलियों में सिर को थामे जस-का-तस बैठा रहा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया... साँस तक लेने की आवाज सुनाई देने लगी! 
कुछेक पल इसी तरह गुजरे। फिर एकदम-से जैसे बम फटा हो - तेजिंदर ने जोर का ठहाका लगाया - हा-हा-हा-हा...ऽ...! 
'इन साले भरे-भेजेवालों की शक्लें देख लो...।' ठहाका लगाते-लगाते ही वह बोला, 'ऐसे बैठे हैं, जैसे मुर्दा फूँकने आए हों मादर...। अबे, मेरे एक छोटे-से मजाक को तुम नहीं समझ सकते तो मुझे किस मुँह से बेअकल बता रहे हो खोतो?' 
'ओ छोड़ ओए।' राजीव लगभग गुस्से में बोला, 'ये भी कोई मजाक था? डरा ही दिया हम सबको...।' 
'ओए डरानेवाली तो कोई हरकत मैंने की ही नहीं!' तेजिंदर बोला। 
'अबे डराने के लिए तुझे अलग से कोई हरकत करने की जरूरत नहीं होती।' राजीव बोला, 'तू सरदार है और तेरा गुस्से में खड़े हो जाना ही हमें डराने के लिए काफी होता है।' 
'और अगर बिना गुस्से के खड़ा हो जाए तो... तब तो नहीं न डरोगे?' तेजिंदर ने तुरंत पूछा। 
'ओए तेरी तो...' उसकी इस बात पर राजीव ने उस पर झपट्टा मारा, लेकिन तेजिंदर खुद को बचा गया। 
'ओए ये हुड़दंगबाजी छोड़ो, काम की बात पर आ जाओ यार।' संजू उन्हें रोकता हुआ बोला, 'इस राजेश की सारी बात मेरी समझ में आ गई। इसके कहने का मतलब ये है कि समाजवाद सिर्फ उसकी समझ में आ सकता है, जिसका पेट भले ही खाली हो, लेकिन दिमाग खाली न हो !' 
'बिल्कुल ठीक।' राजीव बोला। राजेश चुप बैठा रहा, जला-भुना सा। 
'हाँ, उसमें चाहे गोबर ही क्यों न भरा हो।' तेजिंदर ने फिर चुटकी ली। उसकी लगातार की चुटकियों से राजेश इस बार उखड़ ही गया। 
'तुझ हरामजादे के कमरे पर आना और फिर साथ बैठ कर पीना... लानत है मुझ पर!' खाली गिलास को मेज पर पटक कर वह उठ खड़ा हुआ। 
'यह बात तो तू हमारे साथवाली हर मीटिंग में कहता है।' तेजिंदर होठों और आँखों में मुस्कराता उससे बोला, 'आनेवाली मीटिंग में भी तू यही कहेगा।' 
'माँ की... स्साली आनेवाली मीटिंग की... धत्...' क्रोधपूर्वक खड़े हो कर राजेश ने अपनी कुर्सी पीछे को फेंक दी और तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गया। 
उसके निकलते ही तेजिंदर बनावटी तौर पर मुँह लटका कर संजीदा आवाज में संजू से बोला, 'समाजवाद तो उठ कर चला गया... अब हमारा क्या होगा कालिया?' 
उसकी इस हरकत पर बहुत तेज एक और ठहाका उन रईसजादों के कंठ से निकल कर कमरे में गूँज उठा। इतना तेज कि कमरे की एक-एक चीज हिल गई, पारदर्शी साड़ी के एक छोर से नितंबों को ढके उल्टी लेटी अप्सरा भी। 
'एक बात बताऊँ?' संदीप बोला, 'मैंने जानबूझ कर छेड़ी थी देश और नेताओंवाली बात।' 
'वह तो मैं तेरे बात छेड़ते ही समझ गया था।' राजीव बोला। 
'अबे मैं ड्रामे ना करता तो उसे अभी और बोर करना था हमें।' तेजिंदर बोला, 'मैंने भी तो सोच-समझ कर ही माहौल क्रिएट किया उसे भगाने का। ...ला, एक-एक हल्का-सा फाइनल पैग और बना।' 
संजू ने पेग बनाए। सबने फाइनल दौर के अपने-अपने गिलास उठाए, चियर्स किया और गले में उड़ेल गए। उसके बाद उन्होंने अपने-अपने सिर कुर्सियों पर पीछे की ओर टिकाए, टाँगें मेज पर पसारीं और आँखें मूँद कर संगीत की धुन पर पाँवों के पंजे हिलाने शुरू कर दिए - ला...ऽ...ला-ला-ला...ऽ...लालला...ऽ...लालला...ऽ...।

                                                                        ---बलराम अग्रवाल---

अंतिम बातचीत


'ख, मैंने तुम्हारी एक तसवीर बनाई है। इसे देखकर तुम चकित हो जाओगे। इस तसवीर में तुम इतने प्यारे लगते हो कि बस्स! तुम्हारे चेहरे में जो खामियाँ हैं, उन सबको हटा दिया है मैंने इस तसवीर में।'

'क, मैंने भी तुम्हारी एक तसवीर बनाई है और मैं दावे से कहता हूँ, इस तसवीर में तुम जितने खूबसूरत दिखाई देते हो, उतने खूबसूरत, वास्तव में तुम कभी नजर नहीं आए।'

'क्या सचमुच? वाकई तुमने भी मेरी तसवीर बनाई है! लेकिन तुम तो तसवीर बनाना जानते ही नहीं। यह काम तो मेरा है।' - क' ने कहा।

'नहीं, मैंने जो तसवीर बनाई है तुम्हारी, वह कागज पर नहीं, मेरे मन में है।'

'खैर, दिखाओ।'

'नहीं, पहले तुम।'

'ठीक है। यह देखो। लगते हो न हम सबकी तरह।'

'लेकिन मेरी दाढ़ी?'

'दोस्त, यही तो वह चीज है, जिसके कारण तुम अजीब और किसी हद तक क्रूर दिखाई देते हो, इसलिए मैंने इसे हटा दिया।'

'पर मैंने तो तुम्हारे जिस चेहरे की कल्पना की है, उसमें तुम भी दाढ़ी वाले ही हो।' - 'ख' ने खिन्न होकर कहा।

इस बातचीत के बाद 'क' और 'ख' कभी दोस्तों की तरह नहीं मिल सके।

                                                                          ---रघुनंदन त्रिवेदी---

तीसमार खाँ


नगरपालिका बनी तो सरकार ने प्रशासनिक अधिकारी भेजा। अधिकारी युवा था। लंबे बाल रखता था और गजलें गाता था। बोलता कम था। उसकी आँखों का भाव अच्छा नहीं था। जब से यहाँ नगरपालिका बनी है, बस्ती भर के महत्वाकांक्षी लोग वार्ड मेंबर और चेअरमैन बनने के सपने देख रहे हैं। मगर महादेव महाराज सपने से बहुत आगे निकल गए हैं। उन्हें लोग और वे खुद भी चेअरमैन कहते हैं। उनका एक नाम एम.पी. शायर भी है। वे तत्क्षण बना-बना कर गजलें गाते हैं। उनकी पकड़ में जो भी शब्द आ जाए, उसे गा देते हैं।

नगरपालिका के नए प्रशासनिक अधिकारी ने पहले महीने में बस्ती के लोगों से कोई वास्ता नहीं रखा। गंभीरता अख्तियार कर ली। धीरे-धीरे लोगों को उसकी गंभीरता से चिंता होने लगी। ऐसा न हो कि कुछ उल्टा-सीधा करने लगे। आढ़तियों को विशेष चिंता हुई। वजनकसी का बारह लाख रुपया नगरपालिका को इन आढ़तियों से लेना है। नगरपालिका अधिकारी यदि अपनी पर आ जाए तो खड़े-खड़े वसूली कर ले। लिहाजा आढ़तियों ने अधिकारी के आगे-पीछे घूम के ईओसा-ईओसाब करके उसे मिलनसार बनाया। फिर तो दो-चार महीनों में ये हालत हो गई कि बस्ती के बड़े व्यापारी, ठेकेदार और गुंडे ईओसाब के खास दोस्त बन गए। चूँकि ईओसाब का गला अच्छा था और वे गा भी लेते थे इसलिए स्थानीय रसिक और गवैए भी उनके साथ उठने-बैठने लगे। आठ महीने के भीतर-भीतर उच्चस्तरीय संपर्कों का ताना-बाना बहुत मजबूत हो गया।

सेठों के लड़के, ढोरों और मनुष्यों के सरकारी डॉक्टर, खाद्य निगम के अधिकारी, इंटर कॉलेज के युवा अध्यापक, वकील, बैंक मैनेजर, नेता और भूतपूर्व राज परिवार के युवजन, ईओ साहब की मेजोरिटी बन गए यानी सोसायटी की टीम संगठित हो गई। ये लोग पार्टियाँ करने लगे, जिनमें जम के शराब पी जाती, मुर्गा कटता और आधी-आधी रात तक आढ़तियों की बगिया में जलसा चलता। हफ्ते में एक पार्टी हो जाना मामूली बात थी। इन पार्टियों में कभी-कभी थानेदार भी शरीक हो जाता। सहज ही प्रश्न उठता है कि ईओ साहब को धुरी बना कर इतने आकार-प्रकारवाले लोग क्यों इकट्ठा हो गए? बस्ती में ऐसा ग्रुप इससे पहले क्यों नहीं बना? ये प्रश्न कुछ लोगों के मन में उठे ही थे कि उत्तर भी मिलने लगे। तंबाकूवाले सेठ के लड़कों ने सड़कों की मरम्मत का ठेका लिया। नेता कुंदनलाल हरिजन मोहल्ले की गलियों में मुरम डालने का ठेका ले भागे। आढ़तियों की दुकानें सड़क की तरफ पैर पसारने लगीं। मकानों में बाहर की तरफ टट्टियाँ बनने लगीं। वजनकसी का मामला बुरी तरह दब गया। पार्टियाँ और भी खर्चीली होने लगीं। जमीनों और मकानों के जो मामले नगरपालिका में विचाराधीन थे, उन पर ऐसे निर्णय लिए जाने लगे कि बड़े लोगों को संतोष का अनुभव होने लगा। सड़कों और गलियों की मरम्मत के बाद पैदल चलना और भी दूभर हो उठा। दफ्तरों, बैंक, अस्पताल और थाने में मेजोरिटी की तूती बोलने लगी। सरकारी नौकरों को जनता का कोई संकोच नहीं रह गया।

सुखी और संतुष्ट, लोभी और उद्दंड, पाखंडी और हिंसक लोगों की यह मित्र मंडली उस छोटी-सी बस्ती पर छा गई। बाजार और बस स्टैंड पर शाम को ये लोग मँडराते रहते। किसी रपटा होटल में बैठ जाते और हँसी-ठट्ठा, गाना-बजाना और चुटकुलेबाजी करते रहते। कभी ट्रक में भर कर आसपास के देहातों में चले जाते और रात भर बेड़नियों का नाच देखते। कभी शहर चल देते सिनेमा देखने और कभी कोई फड़कती आर्केस्ट्रा पार्टी को बुलवा कर बड़ा ही उत्तेजक कार्यक्रम करवा डालते। उन लोगों में ऐसे शिकारी भी थे, जो बस्ती के दरिद्र कोनों में से स्त्री पदार्थ का शिकार कर लाते और बाँट लेते। मगर रासरंग में वे इतने भी नहीं डूब गए थे कि जेबें भरने का समय न निकाल पाते। वे दिन भर पैसा कमाते। पारस्परिकता के कारण उन्हें आसान रास्तों से भरपूर पैसा मिल जाता। और बस्ती इतनी मुर्दा कि उस मंडली के उन्माद से आक्रांत भी रहती और उसके आगे दाँत भी निपोरती रहती। देश में पाई जानेवाली विभिन्न रूप-रंगोंवाली राजनीतिक पार्टियों की शाखाएँ यद्यपि वहाँ थीं, मगर उनमें ज्यादातर वही लोग थे जो इस मंडली के प्रादुर्भाव से बहुत प्रसन्न हुए थे। कुछ नेतागण मंडली में शामिल भी थे। इसलिए मंडली के कारगुजारियों पर उँगली उठानेवाला कोई न था, एक महादेव महाराज को छोड़ कर। लेकिन उसे पागल करारा जा चुका था। लोग उससे मजाक करते। उसकी बातें बनावटी गंभीरता से सुन कर हँसी में उड़ा देते। उसे उठाईगिरा, बदमाश, नाकारा, नरोलची और इसलिए अविश्वसनीय मानते।

बच्चों से ले कर बूढ़े तक उसे देख कर चंचल हो जाते। कोई उससे कहता - फड़कती गजल सुनाओ, कोई कहता फाग सुनाओ, मन से बना कर सुनाओ, मान लो तुम देश के राष्ट्रपति हो गए हो और जनता को संदेश दे रहे हो, मान लो तुम जज हो गए हो और पिछले सालवाले हरिजन-हत्याकांड पर बीस पेज लंबा फैसला पढ़ रहे हो, मान लो तुम भगवान कृष्ण हो और गोपियों से घिर गए हो और घिर कर उनके अंगों का खुलासा कर रहे हो। मान लो तुम... यानी जिसके मन में जो आता फरमाइश कर डालता और महादेव महाराज फौरन शुरू हो जाते। उसे सब आता था, पक्का गाना, कच्चा गाना, गजल बनाना, फागेगारियाँ बनाना, और सब कुछ फौरन बनाना, भाषण देना, कव्वाली गाना, नाचना। बस्ती में न सिनेमा-थिएटर था न मनोरंजन का कोई और जरिया इसलिए महादेव महाराज पर काफी बोझ आ पड़ा। वह सुबह जो घर से निकलता तो फिर रात एक-दो बजे से पहले न लौटता। बीच में खाना खाने पहुँच गया तो पहुँच गया। घर में सिर्फ माँ थी। पिता मर चुके थे और दो भाई बाहर नौकरियाँ करते थे। पाँच-सात बीघा जमीन थी। उस पर माँ हाड़ तोड़ती और कभी-कभी महादेव भी पसीना बहा आता। आय का यही एक जरिया था। महादेव एक बार में पंद्रह-बीस रोटियाँ खाता था जबकि अनाज की हमेशा कमी बनी रहती थी। इसलिए आए दिन वह अधपेट रह जाता और खूब पानी पीता रहता। फिर भी वह तंदुरुस्त था। उसकी आवाज भारी और तेज थी ठीक पिता की तरह। उसके पिता गायक थे और इलाके भर में संगीत-सभाओं में जाते थे। उनका आलाप आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में गूँजता है। महादेव भी कभी-कभी अपने पिता की तरह आलाप लेता है। मगर गाँजे और बीड़ी के कारण उसकी साँस जवाब दे जाती है।

पिछले चार महीने से महादेव महाराज नगरपालिका का चेअरमैन है। सचमुच का चेअरमैन नहीं। हँसी-मजाक का। एक दिन बस्ती के कुछ खुड़पेंचियों ने महादेव महाराज को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह चेअरमैन है। लोगों ने उसे लोकप्रियता की दुहाइयाँ दीं और एक अच्छे चेअरमैन की आवश्यकता पर जोर दिया। महादेव ने तमक कर स्वीकृति दे दी। वह उठ खड़ा हुआ और हुंकार भर के बोला - 'ठीक है, यदि ऐसा है तो यही सही। मैं हूँ चेअरमैन इस नगरपालिका का। अब सँभल जाओ ईओ साब!'

लोगों ने उसे मालाएँ पहनाईं, ढोलवाले को बुलाया और बस्ती भर में महादेव महाराज को लिए-लिए घूमे। महादेव मालाएँ पहने ढोलवाले के पीछे चला आ रहा है। दुकानदारों और राहगीरों का हाथ जोड-ज़ोड़ कर अभिवादन कर रहा है। उसके चेहरे पर यथोचित गर्व और उत्तरदायित्व की भावना है। उसके पीछे खुड़पेंचियों का झुंड है जो चेअरमैन महादेव की जयजयकार कर रहा है। लोग हँस रहे हैं। बस्ती एक नया तमाशा देख पुलकित हो रही है।

लोगों के लिए भले ही यह मजाक रहा हो मगर महादेव के लिए सच था। वह पूरी गंभीरता से स्वयं को चेअरमैन अनुभव करने लगा। बस्ती भर के लिए पितृत्व की भावना से उसका हृदय भर उठा। वह टूटी-फूटी सड़कों, गिरे-अधगिरे मकानों, मलबों, घूरों और पीड़ित- प्रताड़ित लोगों को चिंता से देखने लगा। अब घर से निकलता तो उसके बाल खूब तेलिया और कायदे से ओंछे हुए होते। उसका फटा और तंग कुरता-पाजामा धुला हुआ होता। वह मंथर और बोझिल चाल से चलता। लोगों से बड़प्पन भरी आत्मीयता से मुस्करा कर नमस्ते करता - दोनों हाथ जोड़ कर।

एक दिन ईओ साब को बाजार में रोक कर बोला, 'मैं कुछ कहता नहीं हूँ इसका यह मतलब नहीं कि आप काला-पीला कुछ भी करते रहें। शेर की माँद में तो शेर भी कायदे से घुसता है, आप तो लगते कहाँ है।'

जो लोग सुन रहे थे सब ठहाका मार कर हँस पड़े। ईओ साब ने हाथ जोड़ लिए, बोले, 'कोई गलती हुई क्या इस सेवक से चेअरमैन साहब।' - कह कर ईओ साब भी हँस पड़े।

महादेव का पारा चढ़ गया। उसने त्योरियाँ चढ़ाईं, आँखें निकालीं और चिल्ला पड़ा, 'मजाक करते हो मुझसे। मैं डेढ़ मिनट में ठंडा कर दूँगा। हरामखोर कहीं के।'

यह बात ईओ साब को अखर गई। वे दो कदम बढ़ कर बोले, 'आप होते कौन हैं मुझसे बकवास करनेवाले।'

'मैं? मैं चेअरमैन हूँ समझे। जनता जनार्दन ने मुझे चेअरमैन बनाया है।' महादेव गरजा।

'बनाया होगा, मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि आज अव्वल दरजे के हरामी हैं।'

'सुन बे ईओ, तू हरामी, तेरा बाप हरामी और सुन तेरी औलाद हरामी और सुन मैं तुझे अभी खड़े-खड़े जिंदा गाड़ दूँगा, साले।'

महादेव महाराज का इतना कहना था कि लगै लगै, लोग जुट पड़े। ईओ साब हालाँकि मना करते रहे। मगर उनके खैरख्वाह न माने। वह शायद पहला मौका था जब महादेव महाराज पिटा हो। वह भौंचक रह गया। उसे मारनेवाले वे ही लोग थे जो उसके पास घंटों बैठे उसका मजाक उड़ाते रहते थे, उससे गाना सुनते रहते थे और उसे अपनी पार्टियों-महफिलों में आमंत्रित करते थे। जो उसे पूरी बस्ती की तरह चेअरमैन कहते और मानते थे। उन्होंने मारा। महादेव को बहुत धक्का लगा। वह नहीं पिटा था, उसके भेष में, उसके शरीर में आखिर बस्ती का चेअरमैन पिटा था। चेअरमैन भूख हड़ताल पर बैठेगा। मन में संकल्प आया और महादेव वहीं सड़क के किनारे पालथी मार कर प्रतिकार की गंभीर मुद्रा में अड़ कर बैठ गया।

ईओ साब अपने साथियों सहित चले गए। और वहाँ अच्छा-खासा ठठ्ठा लग गया। जो सुनता कि महादेव महाराज पिट गया और भूख हड़ताल पर बैठा है, वही तमाशा देखने भागा चला आता। देखते न देखते पूरी सड़क लोगों से भर गई।

महादेव महाराज लोगों को देख कर भाव विह्वल हो गया। आखिर चेअरमैन पिटा है, कोई और नहीं। मैं नहीं पिटा हूँ इन लोगों की भावना पिटी है, ऐसा विचार मन में आते ही महादेव उठ खड़ा हुआ और बिना खँखारे जोर से बोला, 'सज्जनो, आप लोगों ने भावना में पड़ कर मुझे चेअरमैन बनाया। मैं अयोग्य था मगर आप लोगों की भावना की इज्जत करता था, इसलिए मैं चेअरमैन बन गया। जब बन गया तो मुझ पर नगर को अच्छा बनाने का भार आ गया। अब जहाँ देखो वहाँ लूट मची है। जितने सरकारी लोग हैं, उनने सेठों और गुंडों से साँठगाँठ कर ली है और जनता को लूट रहे हैं। आढ़तिए नगरपालिका का पंद्रह लाख रुपए दबाए हैं। अब अगर ये पैसा मिल जाता तो जनता का कितना काम निकलता। और सोचो ये वजनकसी का पैसा, ये बनिए किसानों से तभी ले लेते हैं जब उनसे माल खरीदते हैं। यह जो ईओ यहाँ आया है, बनियों से माहवारी पाता है। इसने जनता जनार्दन के पंद्रह लाख रुपयों का सौदा कर लिया है। सड़कें देखिए, ठेका हो गया, कागजों पे सुधर गईं और देखो तो पहले से ज्यादा बुरी हो गईं। इस ईओ के जमाने में कितने गरीबों के मकान-जमीन सेठों ने दबा लिए हैं, सबको पता है। अस्पताल में बड़ों के लिए सब कुछ है और छोटों के लिए कुछ नहीं। थाने में अलग धंधा चल रहा है। स्कूल में अलग चल रहा है। ईओ ने जो टीम बनाई है वह क्या-क्या कहर ढा रही है इस जनता पर, सब जानते हैं। मैं चेअरमैन हूँ, यह सब देखा नहीं जाता...।'

लोगों ने हो-हो किया फिर भगदड़ मच गई। पुलिस के चार सिपाही भगदड़ से बने रास्ते हो कर महादेव के पास पहुँचे और उसे धकेलते हुए थाने की तरफ ले चले। पीछे-पीछे चलते लोग हो-हो करते, कभी चेअरमैन जिंदाबाद के नारे लगाते और हँस पड़ते।

इस घटना के कुछ ही दिन बाद जनार्दन छुट्टियों में घर गया। बस से उतर कर वह लल्लू होटल में बस्ती के हालचाल पूछने के बाद ही घर जाता है। होटल में लल्लू मक्खियाँ उड़ा रहा था। उसे देखते ही सम्मान से खड़ा हो गया और शिकायती चेहरे से हँसते हुए बोला, 'इस बार इतने दिनों बाद आए भैया।'

जनार्दन ने उसके कंधे पर हाथ रखा और हँस पड़ा - 'और यहाँ के क्या हालचाल रहे।' लल्लू ने ईओ मंडल का बखान किया, फिर चेअरमैन की पिटाई की घटना सुनाई।

'महादेव महाराज थाने में भी पिटा। लेकिन एक बात माननी पड़ेगी, दूसरे दिन से वह ईओ साब के पीछे पड़ गया। रोज कच्चा चिट्ठा खोलता फिरता है। गाना छोड़ दिया है। कहता है अब गाना तभी होगा जब इस कलंक को मिटा दूँगा। चेअरमैन हूँ। पहले बस्ती को सँभालना है, फिर गाना-कव्वाली देखी जाएगी।'

जनार्दन यह सुन कर दुखी हो गया। महादेव महाराज को सार्वजनिक करने का काम जनार्दन ने ही किया था और वह भी औरों की तरह महादेव को मनोरंजन का साधन बनाए हुए था मगर उससे लगाव भी था। महादेव के भीतर कलाकार और एक ईमानदार और सहज मनुष्य का अनुभव उसे था। वह औरों की तरह घृणित नहीं मानता था। और न ही उसे यह डर रहता था कि महादेव कभी पैसा न माँग बैठे। उसे पता था कि वह पैसा कभी माँग ही नहीं सकता। महादेव लोगों से प्यार चाहता था और उसके बदले में वह कुछ भी कहने-करने के लिए तैयार रहता था। वह लोगों के शब्दों के पीछे ताक-झाँक किए बिना ही यह मान बैठता कि वह चेअरमैन है, वह देश का सबसे बड़ा शायर है, तानसेन से बड़ा गायक है, उसके पास करोड़ों रुपया है, एक बहुत बड़े मंत्री की लड़की उससे शादी करने की जिद ढाती है। इसी तरह की ढेर असंभव बातें। महादेव पर जो थोप दिया जाए वह उसी को अपनी निधि, अपनी वास्तविकता मान लेता था। लोग उसे और-और अजूबा बनाते रहने के लिए उस पर कुछ भी पोत देते, फेंक देते, लपेट देते और वह सब कुछ स्वीकार करता जाता। और कैसी विडंबना है कि वह कपोल कल्पित बातों को अपने विश्वास में अंगीकृत करता जाता। उसकी इसी अंधी गंभीरता, इसी बुद्धिहीन भावलीला को देख कर लोगों के पेट में बल पड़ जाते। वे उससे खेलते जाते और विकृत से विकृत नए खेल ईजाद करते जाते। जनार्दन ही ऐसे खेलों का प्रथम संयोजक था। उसने छह माह में महादेव को बस्ती के कोने-कोने में गवा-नचा दिया। रपटों की बैठकों का उसे जरूरी हिस्सा बना दिया। उसे यह विश्वास दिलाया कि वह मामूली आदमी नहीं है और वह कुछ करने के लिए पैदा हुआ है, लोगों को उससे बहुत उम्मीदें हैं। उसी महादेव की पिटाई का सुन कर जनार्दन को बहुत बुरा लगा। उसने खुद को इसके लिए दोषी अनुभव किया और उसका यह विश्वास भी टूट गया कि महादेव से लोग सचमुच प्यार करने लगे हैं। वह पिटता रहा और लोगों ने कुछ नहीं किया। जबकि वह खुद को लोगों की भावना का चेअरमैन मान कर उनके लिए पिट रहा था।

जनार्दन क्षुब्ध हो गया। घर की ओर जाते हुए उसे बस्ती के लोगों को देख कर क्रोध आता रहा। वह किसी जगह नहीं रुका। लोगों से फिर मिलने का कह कर सीधा घर पहुँचा। माँ ने जल्दी ही पानी गरम कर दिया। उसने खूब नहाया। मन कुछ हल्का हुआ। खाने का मन नहीं था मगर माँ की जिद से उसने थोड़ा-सा खाया और माँ से बातें करने लगा। माँ हँस पड़ी। उसकी अन्यमनस्कता का कारण उसे पता था, बोली, 'दीपक के घर जाने का मन है और मन लगा रहे हो यहाँ बातों में। जाओ पहले हो आओ।'

वह सचमुच दीपक से मिलने की बेकरारी में बैठा था। माँ की उदारता से पुलकित हो कर वह उठ खड़ा हुआ। दीपक का घर पास ही था। और चूँकि दोपहर का समय था, इसलिए तय था कि वह फैक्ट्री में नहीं, घर में ही होगा। दीपक के यहाँ हैंडलूम का अच्छा-खासा काम था। हर साल खड्डियाँ बढ़ती ही जाती थीं। उसका पिता और वह स्वयं भी मेहनती था। झगड़ों-झाँसों से दूर वे अपने धंधे में मन लगाए हुए थे। दीपक का एक ही दोस्त था जनार्दन और जनार्दन को भी उस बस्ती में दीपक के अलावा किसी से वैसा नहीं था। हालाँकि दोनों ही बस्ती भर में फैले हुए थे। खूब बड़ा उन लोगों का दायरा था। अभी दो साल से जब से जनार्दन नौकरी पर गया तो दीपक का अपना एक नया दायरा बन गया। वह ईओ मंडल का बड़ा ही सम्मानित सदस्य है। चूँकि वह ईओ से या किसी दूसरे सरकारी आदमी से कोई लाभ नहीं लेता तथा उसका घर बहुत ही सुसंस्कृत और सत्कारी है, इसलिए उसका विशिष्ट बेदाग स्थान उस मंडल में है। सब उसकी इज्जत करते हैं और उसकी बुद्धि का लोहा मानते हैं।

उसे पीने का शौक है। पार्टियों में शामिल हो कर अपनी धाक जमाने का नशा भी उसे है। धंधे के और घर के अंदरूनी दुख के तनाव से वह इसी तरह मुक्त हो सकता था इसलिए न जाने वह कैसे उस मंडल में शामिल हो गया। जनार्दन जब पिछली बार आया था तब दीपक के संबंध ईओ साब से बने ही बने थे और दो-एक पार्टियों में वह अंधाधुंध पी चुका था। जनार्दन ने उसे धिक्कारते हुए कहा था, 'ये लोग इस लायक नहीं हैं कि तुम इनके साथ पियो-खाओ। मेरी समझ में नहीं आता तुम क्यों इन लोगों को इतनी लिफ्ट दे रहे हो। होगा साला ईओ फीओ।'

यही इस बार हुआ। दोस्त से मिलते ही जनार्दन ने महादेव की पिटाई को ले कर ईओ को गाली दी। दीपक ने ईओ का पक्ष लिया। जनार्दन तिलमिला गया। वह बोला, 'दीपक, तुम्हारा पतन शुरू हो गया है।'

'मैं उस टुच्चे महादेव का पक्ष नहीं ले रहा हूँ इसलिए मेरा तो पतन हो गया है और तुम ईओ को गाली दे कर बड़ा ऊँचा काम कर रहे हो। तुम्हें मालूम है महादेव चेअरमैन बना फिरता है और चाहता है ईओ उसके अंडर में काम करें। है न मजाक। ऐसे आदमी को पागलखाने में डाल देना चाहिए। लेकिन जब तक यह नहीं होता वह गली-गली जूते खाएगा ही। चाहे फिर तुम्हें बुरा ही क्यों न लगे।'

दीपक का यह दो टूक लहजा जनार्दन को बहुत बुरा लगा। उसे आश्चर्य हुआ कि ये दीपक के विचार हैं। हालाँकि महादेव से वह हमेशा चिढ़ता रहा मगर ईओ जैसे लोगों का पक्ष लेना उसने हाल में ही शुरू किया होगा। जनार्दन नहीं चाहता था कि शुरुआत कटुता से हो। इसलिए उसने ठंडेपन से एक सवाल पूछा, 'दीपक, क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि सरकारी लोग बस्ती में मुअज्जिसों और गुंडों से संबंध बना कर लोगों को लूटते है। वे बस्ती की ताकत को अपनी ताकत बना लेते हैं। और फिर बस्ती का कचूमर बना देते हैं। इसलिए समझदार लोगों को इनका कवच और हथियार बनने से बचना चाहिए। तुम्हारी इस बारे में क्या राय है?'

जनार्दन की बात सुन कर दीपक मुस्कराया। और उसने उसी गंभीरता से कहा - 'जनार्दन, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। यह तुम्हें पता ही होगा। और यह भी पता होगा, जो जहाँ है वहाँ लूट रहा है। महादेव अपनी माँ को लूट रहा है। वह जमीन तोड़ती है और माँगती है तब महादेव का कुआँ भरता है। दरअसल तुम्हें यह पता नहीं है कि लोग जानवर हैं। एक से दिखनेवाले अलग-अलग किस्म के जानवर। ताकतवर जानवर भोग कर रहे हैं। ताकतवर रहना पड़ेगा। या मर जाना चाहिए। तुम्हारा इस बारे में क्या खयाल है?'

जनार्दन उसकी बात सुन कर तिलमिला गया। यह उसका दोस्त कैसी बातें कर रहा है। क्या यह स्वयं को भी पशु मान चुका होगा। और क्या मुझे भी ऐसा ही मानता होगा। यह जो चारों तरफ हो रहा है, इसे ले कर क्या इसमें जरा भी बेचैनी नहीं होती होगी।

'दीपक, तुमने जो कुछ कहा, यदि यह सही भी है, यदि ताकत जीत रही है और यह जीत मनुष्य को पशुता की तरफ धकेल रही है तो हमारा तुम्हारा क्या फर्ज बनता है, मैं यह पूछ रहा था।'

'अच्छा... जहाँ तक फर्ज का सवाल है मैं यह सोचता हूँ कि यह एक किस्म से खुद को धोखा देनेवाली चीज है। जीतना ताकत की भूख है और जीत कर भोगने में है। ताकत को नहीं रोका जा सकता।'

जनार्दन तमतमा गया - 'कैसे नहीं रोका जा सकता? लेकिन सिर्फ तब जब इस ताकत में नहीं, इसके विरुद्ध एक नई ताकत में खुद को दे दिया जाए।'

'एक बहुत ही अच्छी किताबी बात तुम कह रहे हो।' दीपक ने ताली बजाई और फिर जनार्दन को एक धौल जमाते हुए बोला, 'ये ऊँची बातें रहने दो। अपना दिमाग नहीं चलता। कुछ और सुनाओ।'

मगर जनार्दन खोया रहा। दीपक के तर्क उसे बहुत ही भयानक लग रहे थे। उसे लग रहा था जैसे उसकी कोई बहुत ही पवित्र चीज दुश्मनों की हो कर उसे चिढ़ा रही हो। दीपक यह सब समझ रहा था। आखिर उसने उमड़ते हुए कहा, 'भाड़ में जाएँ ईओ और महादेव और सब। साला अपन क्यों अपना दिमाग खराब करें। तुम यदि ये चाहते हो कि मैं ईओ मंडल में न रहूँ तो नहीं रहूँगा। मगर ये तुम्हारी खामखयाली है कि वहाँ मेरे न रहने से जनता का कोई बड़ा भला हो जाएगा। लेकिन तुम्हें लगता है कि मेरा वहाँ रहना ठीक नहीं है तो हटाओ सालों को, इधर क्या।'

दीपक ने यह बात बड़ी भावना से की थी। जनार्दन खुश हो गया, बोला 'ये तर्क तुम यों ही कर रहे थे न।'

दीपक कुछ देर सोच कर बोला 'हाँ... तर्क मैं यों ही कर रहा था। मगर तुम्हारा ये महादेव को ले कर जो पागलपन है वह मुझे बेतुका लगता है।'

दोनों मित्रों ने हल्के हो कर अभी बातें शुरू की ही थीं कि ईओ साब चौरसिया और ठाकुर के साथ दीपक के यहाँ पहुँच गए। जनार्दन को तीनों ने विशेष सम्मान दे कर प्रसन्नता व्यक्त की कि 'अच्छे मौके पर आए।'

ईओ साब को देखते ही दीपक को याद आ गया कि आज पार्टी है। ईओ साब के लड़के का पहला जन्मदिन है। पार्टी गुप्ता की बगिया में है। दीपक बोला 'आप क्या मुझे याद दिलाने आए है?'

'नहीं, आपको क्या याद दिलाना। पता चला कि जनार्दन भाई आए हैं। सोचा रिक्वेस्ट करता चलूँ।' फिर जनार्दन की तरफ देख कर बोला, 'जनार्दन भाई, दीपक के साथ आप को भी आना है। आप नहीं आए तो मैं समझूँगा आप मुझसे नाराज हैं।'

जनार्दन विचलित-सा हो गया। ईओ से पहले कभी भेंट नहीं हुई थी। यह पहली मुलाकात थी। ईओ की विनम्रता और आत्मीयता उसे बहुत सहज लगी। वह एकदम युवा था। उसके बाल लंबे और कद मझोला था। उसकी आँखों का भाव यद्यपि बुरा था मगर उनमें चंचलता नहीं थी। ईओ चला गया तो जनार्दन की ओर देख कर दीपक हँस पड़ा - अब?

जनार्दन थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, 'अब क्या। तुम जाना मेरा तो सवाल ही नहीं उठता।'

'तो यह तुम्हें उसी से कहना चाहिए था।'

'तुम कह देना।'

'मैं क्यों कह दूँ? अपनी बात खुद बोलनी चाहिए।'

'खुद तो मैं बहुत कुछ बोल सकता हूँ।'

दीपक ने स्थिर हो जनार्दन की आँखों में देखा और बोला, 'जनार्दन तुम अब नहीं बोल सकते। जब वह आया था सिर्फ तभी बोल सकते थे।'

जनार्दन बोला, 'तुम न जाने यार कहाँ की तोप समझते हो उस ईओ को। मैं अपनी में आ जाऊँ तो अभी पता चल जाएगा।'

दीपक चुप रह गया। जनार्दन उत्तेजित और आहत हो कर बकने लगता है। और ऐसा करते समय वह ओछा-सा लगता है, क्षुद्र-सा। दीपक को अच्छा नहीं लगता। इसलिए वह ऐसे मौकों को टाल जाना चाहता है - 'अच्छा ठीक है मत जाना। मैं भी नहीं जाऊँगा,' कह कर दीपक ने जनार्दन का हाथ पकड़ कर उसे उठाया, 'जनार्दन, तुम दो चार दिन के लिए आए हो, अब ये फालतू की बातें अपन छोड़ें। एंजाय करें। तुम्हारे आने को सेलिब्रेट करें।'

इसी बीच दीपक को बुलाने नौकर आ गया। फैक्ट्री में कोई नहीं था। पिताजी बाहर गए थे। दीपक ने जनार्दन को बहुत मनाया कि फैक्ट्री चले मगर वह नहीं माना। उसे बस्ती में घूम-फिर कर और लोगों से मिलने की इच्छा हो रही थी।

जनार्दन बाजार में कहीं इस दुकान में खड़ा हो जाता, कहीं उस चबूतरे पर बैठ जाता। जो उसे देखता वही या तो राम-राम करता या उसके पास रुक जाता। थोड़ी देर बातें करता। बस स्टैंड पर वह इंटर कालेज के मास्टरों के झुंड से मिल कर लल्लू होटल की ओर बढ़ ही रहा था कि महादेव महाराज ने उसे पुकारा - 'जनार्दन भाई।' और आ कर महादेव उससे लिपट गया। उसे अटपटा लग रहा था। क्योंकि इससे पहले महादेव कभी उससे लिपटा-विपटा नहीं था। मगर उसने उसकी पीठ थपथपाई।

'जनार्दन भाई, आपका यह महादेव अब यहाँ का चेअरमैन है।' महादेव ने उचित ही गर्व किया और बोला, 'आपको पता चला होगा कि मैंने गाना छोड़ दिया है। मगर आप आए हैं तो आज गाऊँगा। और ऐसा गाऊँगा कि तानसेन भी घबड़ा जाए।'

दो-चार लोग जो खड़े थे हँस पडे। महादेव को कोई फर्क नहीं पड़ा।

'जनार्दन भाई, आपको सड़क पर चलने में परेशानी हो रही होगी। यह मेरे लिए शर्म की बात है। मैंने कहीं-कहीं कोशिश की है अपने हाथ से ठीक करने की मगर कहाँ तक ठीक करूँ। ये ईओ कागजों में दो बार ठीक करवा चुका है। लेकिन मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।'

जनार्दन उसके साथ लल्लू होटल में बैठ गया। कुछ और लोग भी आ बैठे। महादेव की लनतरानियाँ शुरू हो गईं। उसने चेअरमैन के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के कई किस्से सुनाए। बस्ती के बड़े लोगों के कर्मों का रोजनामचा खोला। ईओ मंडल की गतिविधियों का भीषण दृश्य खींचा और अंत में जनार्दन से बोला, 'जनार्दन भाई, एक लेख लिख दो इस सब पर, छपवा मैं लूँगा। अखबार का टंटा भी करना पड़ेगा।'

जनार्दन ने लिखने का वादा किया। महादेव ने विदा होते समय यह वादा किया कि शाम को यहीं लल्लू होटल में बैठा मिलेगा और जम के गाएगा।

जनार्दन घर जा कर माँ के पास बैठ गया। उसका मन बुरी तरह उलझ चुका था। इसलिए बातों का कोई सिलसिला ही ढंग से नहीं बन पाया। आखिर माँ ने खाट बिछा दी और बोली, 'थोड़ी देर सो लो।'

जनार्दन आँखें भींचे पड़ा रहा। थोड़ी देर झपकी भी ली। उतने में ही अजीब-सा बदमजा सपना आया। सपना तो वह भूल गया। लेकिन सपने के प्रभाव से वह और भी उखड़ गया। सपने को याद करने की कोशिश करता वह पड़ा था, तभी दीपक आ पहुँचा। वह भी खाट पर पसर गया।

जनार्दन ने आँखें खोल कर अपने जागने का संकेत दिया और फिर बंद कर लीं।

माँ ने चाय रख कर दोनों को पुकारा, 'उठो शाम को भी सोया जाता है।' दोनों उठ बैठे और चाय पीने लगे। जनार्दन और दीपक साथ हों और इतनी देर तक चुप रहें, माँ को यह बड़ा ही अटपटा लग रहा था। फिर जनार्दन जब से आया था तभी से उखड़ा-उखड़ा था। बच्चों की बातें और अपने दफ्तर के लतीफे भी उसने नहीं सुनाए थे। दीपक भी अपने स्वभाव के विपरीत चुपचाप-सा था। माँ को आशंका हुई कहीं दोनों लड़ तो नहीं पड़े।

'तुम दोनों में झगड़ा हो गया है क्या?' माँ से न रहा गया तो वह पूछ बैठी।

'हम दोनों में झगड़ा!' जनार्दन बोला, 'हम दोनों में क्यों झगड़ा होने लगा।'

दीपक हँसने लगा, फीकी हँसी। जनार्दन ने उसकी हँसी देखी और समझ गया अब यह चुप रहना चाहेगा।

चाय पी कर वे बाहर निकल गए। बाजार की तरफ थोड़ा चले फिर लौट कर दीपक के घर चले गए। घर के बाहर मैदान में कुर्सियाँ डाल कर बैठ गए। दोनों चुप। आखिर जनार्दन बोला, 'दीपक, तुम्हें मेरी कोई बात बुरी लग गई है।' दीपक के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। जनार्दन उत्तर की प्रतीक्षा में उसे देखे जा रहा था। दीपक देर तक कुछ नहीं बोला। 'दीपक कुछ बोलो या मैं चला जाऊँ।'

दीपक ने जनार्दन की ओर देखा और मुस्करा कर बोला, 'मुझे तुम्हारी कोई बात बुरी नहीं लगी। तुमने ऐसा कहा भी क्या है। बस यूँ ही मन खराब है।'

'फिर भी कोई बात तो होगी जिससे मन खराब हुआ होगा।'

'कोई भी बात नहीं। न जाने क्यों ऐसा लग रहा है जैसे अब मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ। मेरा पतन हो गया है।' कह कर दीपक ने करीब आते लोगों को देखा और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। पाँच-सात लोगों ने आते ही दीपक को उलाहना देना शुरू कर दिया। वे सब नौकरीपेशा लोग थे। दो डाक्टर और तीन मंडी समिति वगैरह के लोग।

'आप यहाँ बैठे हैं और वहाँ आपके बिना गिलास सूखे पड़े है। चलिए फौरन। और जनार्दन भाई आप भी। इनके बिना तो चल ही जाएगा। आपके बिना पार्टी ही नहीं होगी, ईओ साब ने कहा है।'

दीपक और जनार्दन एक-दूसरे को देखने लगे। डाक्टर ने, जिसके बाएँ गाल पर मस्सा था, उत्साह में भर कर कहा, 'चलिए तो आप लोग, देखिए कैसा ऊँचा मामला है। जितनी जिसे पीनी हो पिए।'

दीपक बोला, 'हम लोग नहीं जा सकेंगे।'

पाँचों एक साथ चौंक कर बोले, 'क्या... नहीं जा सकेंगे?' फिर डाक्टर बोला - 'पता है आपको इस पार्टी को ले कर ईओ कितना सेंटीमेंटल है। फील कर जाएगा भाई।'

दीपक बोला, 'बताया न, हम लोग नहीं जा सकेंगे।' जनार्दन भी अब कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'दीपक, तुम जाओ। मेरी तबीयत ठीक होती तो मैं भी चलता। आप लोग इसे ले जाइए।' इतना कह कर जनार्दन तेजी से अपने घर की ओर चल दिया। दीपक उसके पीछे भागा। थोड़ा आगे उसे रोक कर बोला, 'तुम नहीं जाओगे तो मैं भी नहीं जाऊँगा।'

जनार्दन ने दबी लेकिन भीषण आवाज में कहा, 'तुम नहीं गए तो अभी शहर वापस चला जाऊँगा समझे। चुपचाप चले जाओ।'

जनार्दन ने पलट कर देखा और जाते-जाते ताकीद कर गया 'जाओगे नहीं तो ठीक नहीं होगा।'

वे पाँचों कुछ भी न समझ सके कि मामला क्या है। दीपक को साथ ले कर वे चले गए।

जनार्दन घर जा कर एक अलमारी से जूझने लगा। उसमें उसकी किताबें और कागजात रखे थे। उन सब को उसने नीचे पटक दिया और फिर पलट-पलट कर देखने लगा। मगर उसका मन कहीं और ही था। कल जब ईओ पूछेगा कि क्यों नहीं आए तब क्या वह असली कारण बता पाएगा? और यदि नहीं बता पाएगा तो क्या कह कर उसकी आत्मीयता का उत्तर देगा। उसने कैसे अपनत्व से कहा था। और किस तरह उसने लोगों को यह कह कर भेजा कि जनार्दन भाई नहीं पहुँचे तो पार्टी नहीं होगी।

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। सामने ईओ खड़ा था - 'आपको लेने आया हूँ। सभी लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

जनार्दन बिना कुछ बोले बाहर निकल आया। ईओ के साथ यंत्रवत चल पड़ा। चलते-चलते बोला, 'दरअसल मेरी तबीयत ठीक नहीं थी...।'

'वो सब ठीक हो जाएगी वहाँ। आप समझ नहीं सकते कि आपसे मिलने को सब लोग कितने बेकरार हैं। आपके बारे में दीपक बताता रहता है। इसी से सबको आपके साथ बैठने की बड़ी उत्सुकता है।' ईओ बोला।

जनार्दन चलता रहा। बाजार आ गया। और बाजार की अंतिम दुकानें भी आ गईं। फिर बस स्टैंड और लल्लू का होटल। वहाँ पहुँचते ही जनार्दन को याद आया महादेव महाराज प्रतीक्षा कर रहा होगा। और वाकई लल्लू होटल में हजम्मा जुड़ा था। महादेव बाहर खड़ा पानी के कुल्ले कर रहा था। उसने जनार्दन को देखते ही हाथ हिलाया। जनार्दन ने हाथ हिला कर उत्तर दिया और सीधा चलता रहा। महादेव को अजीब लगा। ईओ के साथ चले जा रहे हैं जनार्दन भाई। और अब तो सचमुच चले ही गए। जब तक वे दोनों मुड़ नहीं गए, महादेव महाराज सकते की हालत में उन्हें देखते ही रहे।

जनार्दन अब तेज कदम बढ़ रहा था। वह जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँच कर पी लेना चाहता था। वरना उसका माथा फट जाता।

बगिया में गैस की चार-पाँच लालटेनें पेड़ों पर टँगी थीं। उनके प्रकाश में कई कुर्सियाँ, बेंचें, तखत और खाटें पड़ी थीं। बीच में एक तखत पर ढेर गिलास रखे थे। बड़ी-बड़ी प्लेटों में सलाद भरा पड़ा था। चार बोतलें रखी थीं। एक ओर ईंटों के चूल्हे पर डेग चढ़ी थी। चूल्हे के आसपास तीन-चार पल्लेदार काम में लगे थे। करीब बीस-पच्चीस लोग, जिन्हें ईओ मंडल के नाम से जाना जाता था, कुर्सियों पर बैठे, खाटों पर लेटे यहाँ-वहाँ टहलते उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पहुँचते ही उत्साह का संचार हो गया। ओमी ने बोतल खोली और गिलासों में ढालना शुरू कर दिया। लोगों ने सिगरेटें सुलगा लीं। जनार्दन का एक-एक से परिचय कराया जाने लगा। अधिकांश लोग उसे जानते ही थे। वे उससे मिल कर और उसे पार्टी में पा कर बहुत प्रसन्न हुए। इस बीच गिलास हाथों में आ गए और पीना शुरू हो गया।

जनार्दन को दीपक ने अपने पास बिठा लिया। जनार्दन के दाईं तरफ कुँअर साहब बैठे थे। उन्होंने एक साँस में गिलास खाली कर दिया। जनार्दन ने भी जल्दी ही निबटा कर दूसरी बार ले ली और एकदम पी गया। लोग चुटकलों, गजलों के मूड में आ गए। बेहद गंदे चुटकुले चलने लगे।

जनार्दन कुँअर साहब की और मुखातिब हो कर बोला, 'कुँअर साहब, सुना है आप कांग्रेस आई में हैं।'

कुँअर साहब ने हामी में सिर हिलाया।

'आप जैसे आदमी को जब मैं इस पार्टी में देखता हूँ तो मुझे बहुत दुख होता है। आप जैसे दमदार लोगों को तो किसी क्रांतिकारी पार्टी में होना चाहिए। आखिर राजा साब आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे न।' कुँअर साहब इतने गंभीर वार्तालाप के लिए शायद तैयार न थे। टालते हुए बोले, 'हाँ, मगर अब जो है सो ठीक है।'

'ठीक कैसे है कुँअर साहब। गरीब आदमी की तरफ से आप जैसे लोग नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा।'

दीपक ने हस्तक्षेप किया, 'इस मुद्दे पर अपन बाद में बात करेंगे। पहले उन लोगों की बात सुनो, वे तुमसे कविताएँ सुनना चाहते हैं।'

मस्सेवाला डाक्टर बोला, 'हम लोग महीनों से आपके इंतजार में हैं। सुनाइए।'

फिर सब लोग उसके पीछे ही पड़ गए। जनार्दन को नशा चढ़ गया था इसलिए सारा दृश्य नजर आ रहा था और लोगों की आवाजें धीमी लग रही थीं। उसने गिलास बढ़ा दिया। लोगों ने उत्साह में खूब डाल दी। वह नीट ही पी गया। फिर सिगरेट सुलगा कर बोला, 'अगर आप लोग कविता सुनना चाहते हैं, अपनी तो याद नहीं है। एक बहुत बड़े कवि को सुनाता हूँ।'

लोग उत्सुक हो उसकी ओर देखने लगे। जनार्दन का सिर चकराने लगा। उसे लल्लू होटल दिखा। महादेव महाराज देख कर सकते में उसे देखता। जनार्दन गों गों करते कुछ बोला। लोग हँस पड़े। तो उसने तैश में गरदन झटकी। दीपक ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और बोला, 'सुनाओ जनार्दन।'

जनार्दन बोला 'सुनो -

ओ मेरे आदर्शवादी मन

ओ मेरे सिद्धांतवादी मन

अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया

उदरंभरि बन... '

यहाँ तक आते-आते जनार्दन की जीभ ऐंठ गई। दूसरे ही क्षण उसने उल्टी कर दी। वह कुर्सी पर गिर पड़ा। फिर कुर्सी जमीन पर गिर पड़ी। वह धूल में औंधा पड़ा ओंकने लगा।

                                                                         ---नवीन सागर---

सपनों का सच


बहुत-सी अटकलें, बहुत-सी गप्पें आपने सुनी होंगी, सुनाई होंगी। मैं जो सुना रहा हूँ वह सचमुच गप्प नहीं है। दिक्कत यह है कि मेरे पास ऐसा प्रमाण भी नहीं है कि आपके सामने रख सकूँ कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह एकदम सच है। मैं झूठमूठ प्रमाण जुटा भी लूँ तो आप यकीन कर लेंगे, इसका कम से कम मुझे यकीन नहीं है।

लीजिए, मैं प्रमाण दे रहा हूँ। मैं यानी इस गाथा का लेखक। सीधे-सीधे मैं यह कथा सुना रहा हूँ इसलिए मैं अपने जीवन से ही प्रमाण दूँगा। अप्रैल 1990 में मुझे सोवियत देश की एक संस्था से बुलावा आया। अब वह केवल रूस भर रह गया है। यानी यह सच है कि 1990 में सोवियत संघ था। यह जरूर है कि जब हम लोग उस देश में पहुँचे तो हमने लोगों में नए बदलाव के लिए जबर्दस्त आकर्षण देखा। अब लोग खुल्लमखुल्ला अपने नेताओं की, व्यवस्था और कम्युनिस्टों की आलोचना करने लगे थे। यह सब बहैसियत प्रमाण आपके सामने जुटा रहा हूँ। आप चाहें तो मेरी छुट्टी का रिकार्ड भी पलट सकते हैं कि मैं अपने दफ्तर से उन दिनों छुट्टी पर था।

प्रमाणों का एक प्रकरण अभी शेष है। मेरे साथ कुछ भारतीय लेखक भी गए थे। खैर, जब आप लेखक शब्द पढ़ेंगे तो आप अविश्वास से भर उठेंगे। हमारे दौर में लेखकों ने पाठकों से अपना विश्वास खोया ही है... फिर भी आप जो थोड़े बहुत पाठक बच गए हैं कभी-कभी लेखकों की बचकानी कहानियों पर हँसते होंगे। मैं एक ऐसी पाठिका से मिला था जिसने कहा था, आप सब लेखक लोग झूठे होते हैं। प्रेम ओर समर्पण की ऐसी भावुकता-भरी बातें लिखते हैं कि सही जीवन में वैसा कर पाना न केवल असंभव होता है बल्कि कभी-कभी तो बचकाना और फिजूल लगता है। तो माफ करें अब मैं लेखकों की सूची आपके सामने नहीं रखूँगा।

तो उस कान्फ्रेंस में दुनिया भर से लेखक इकट्ठा हुए थे और क्रीमिया जलडमरूमध्य के सिमफेरोपोल शहर में सम्मेलन का उद्घाटन हुआ था। वहीं मुझे एक ऐसे लेखक का परिचय मिला था जो तब के सोवियत संघ के अस्त्राखान इलाके का रहने वाला था और पेशे से वास्तु कलाकार था। वह हमेशा अपने हाथ में एक लंबी-सी फाइल रखता था और अक्सर चुप्पा-सा किसी दूसरी ही दुनिया में खोया रहता था। पहली बार उसे देखकर लगता था कि आप इस आदमी से कभी भी दुबारा नहीं मिलना चाहेंगे। उसका चेहरा डरावना नहीं था। वह आक्रामक ढंग की बातें भी नहीं करता था। बस, उसकी आँखों में एक अजीब-सी खोजीपने की प्रखरता थी। आप सीधे उससे आँखें मिलाएँ तो एक पल भी टिकाए नहीं रख सकते थे। उससे मेरा परिचय हुआ और बस मैं लेखकों की भीड़ के रेले में इधर-उधर हो गया। मैं अस्त्राखान के उस लेखक को भूल ही जाता कि दूसरे दिन सुबह वह मेरे कमरे के बाहर दस्तक देते-देते मुझे पुकार रहा था।

शिष्टाचार के नाते मैं उसे अपने कमरे में ले आया।

'माफ करना,' वह बोला, 'आपको तकलीफ दी। पर यह बहुत जरूरी भी था। मैं आपको कुछ रहस्यपूर्ण बातें बताना चाहता हूँ।'

'अवश्य,' मैं अचंभे में होते हुए भी सामान्य बनने की कोशिश में था। मैं सोच रहा था कि यह भी उन पागलों में एक होगा जो हर भारतीय को तांत्रिक

और ज्योतिषी मानता है। 'पर यहाँ नहीं...' वह बोला, 'क्या आप कुछ देर के लिए मेरे साथ नदी तट पर घूमना पसंद करेंगे?'

मैं असमंजस में था। अभी मैंने दातौन भी नहीं की थी। और कायदे से मैं तैयार भी नहीं था। 'लेकिन... देखिए न...'

मैं जो बोलना चाहता था जैसे वह भाँप गया।

'ठीक है। आप इतनी देर में तैयार हो लें मैं नाश्ता डिब्बों में बँधवा लाता हूँ। कहीं नदी किनारे ही नाश्ता कर लेंगे।'

वह अपने प्रस्ताव पर अमल करने के लिए उठ खड़ा हुआ। केवल शिष्टाचार के नाते मैं उसे 'ना' नहीं कर सका। अन्यथा आज यानी उस दिन, छुट्टी के दिन मेरे पास इतना अधिक लिखने-पढ़ने का काम था कि मैं सारा दिन अपने आप में ही व्यस्त रहकर बिता सकता था। अभी ये सारी बातें मैं आपको प्रमाण के तौर पर बता रहा हूँ। आप सिमफेरोपोल के उस एकमात्र बड़े होटल के अप्रैल के पहले रविवार के दिन होटल की हिसाब वाली किताब में दो नाश्तों के डिब्बे बंद होने की तसदीक कर सकते हैं। याद रहे उस किताब में हम दोनों के नाम और कमरों के नंबर भी दर्ज हैं।

होटल से बाहर हल्की-सी ठंड का बड़ा जादुई असर हुआ। वह तनाव जो एक फालतू किस्म के आमंत्रण को कुछ ज्यादा ही फालतू मान लेने के अनुमान से पैदा हुआ था, एकदम काफूर हो गया था। होटल के पास ही नदी तट था। और दूर-दूर तक जहाँ तक देखा जा सकता था चेरी के फूल लदे बेहद खूबसूरत पेड़ थे। सचमुच वह एक दिव्य दृश्य था। उसे देखकर हिमालय के बर्फ लदे पहाड़ याद आने लगे थे।

'बिल्कुल परियों की कहानी में पढ़े विवरणों जैसा है यह दृश्य,' वह बोला।

मैंने दृश्य पर मोहित होते हुए अपना सिर हिलाया।

'हुआ यह कि रात में मुझे सपना-सा आया कि नदी तट के सभी पेड़ों पर फूल लद आए हैं।'

हम तट की तरफ एकदम नदी जल की कल-कल सुनते आगे बढ़े जा रहे थे। पानी का झाग सुबह के सूरज की रोशनी में कुछ ज्यादा ही चमक रहा था। पानी में घरों से फेंके गए कागज, खाली डिब्बे और पेड़ों से टूटी टहनियों के छोटे-छोटे गुच्छे बहे जा रहे थे। अनिर्दिष्ट-सी किसी दिशा की ओर...।
'आप कल्पना भी नहीं कर सकेंगे कि मैंने आपको क्यों तकलीफ दी? मैं जो आपको बताना चाहता हूँ उस पर आप यकीन कर लेंगे - मुझे भरोसा नहीं। पर जैसे आप यह छोटी-सी बहती नदी देख रहे हैं - चेरी के ये पेड़ देख रहे हैं - ठीक वैसी ही मेरी बातें हैं। हम आपस में एक दूसरे की बातों पर यकीन तभी करते हैं न कि हमें ऐसे विश्वसनीय आदमी के जरिए मिल रही हैं जिसे हमारा विश्वास प्राप्त है।'

मैं सहमति में सिर हिलाए जा रहा था।

'थोड़ी देर हम कहीं बैठ न लें...' उसने कहा, सड़क के उपर चेरी के पेड़ों के नीचे चबूतरे से बने हुए थे। पर उन पर ज्यादातर जोड़ेनुमा युवक-युवतियाँ बैठे हुए थे और अपने देश में बोलने की आजादी का उपयोग वे एक दूसरे के चुंबन लेते कर रहे थे। थोड़ी ही दूर पर नदी किनारे ही चेरी पेड़ के गिर्द बड़े-बड़े पत्थरों से बना एक चबूतरा था। हम वहीं बैठ गए। उसने अपनी बड़ी फाइल खोलनी शुरू की। उसमें विचित्र से डिजाइनों वाले कागज ठुँसे थे। वह उन्हें एक-एक कर पलट रहा था।

'मैंने अपने 'ड्राइंग्स' सब इसी में रखे हुए हैं। असल में मैं एक ऐसे घर का निर्माण करना चाहता था, जिसमें आदमी नीरोग जी सके।'

उसकी बात समझने के लिए मैं केवल प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई सूत्र हाथ लगे। 'असल में बहुत दिन हुए हमारे घर में मुझे और मेरे भाई को कुछ विचित्र से अनुभवों का सामना करना पड़ा। सही तथ्य यह है कि मेरे भाई के दूसरे लोकों के आदमियों से संबंध स्थापित हो गए।'

'क्या कहा - दूसरे लोक... यानी कि आप भी यकीन रखते हैं कि कहीं कोई अन्य लोक है। इस तरह की, एक जैसी कथाएँ मैंने भी अखबारों के

माध्यम से पढ़ी हैं। पर वे घोर निराश करती हैं। उनमें कोरी गप्प के अलावा शायद कुछ होता ही नहीं।'

'पहले मैं भी ऐसे ही सोचता था।'

'मुझे लगता है साम्यवाद की पकड़ ढीली होने के बाद आपके देशवासी भी इस तरह के अंधविश्वासों के शिकार होने लगे हैं।'

'आप मेरी बात तो सुनें। मेरे छोटे भाई का संपर्क उन लोगों से बीस बरस पूर्व हो गया था। तब दुनिया के अखबारों में विचित्र मानों की ही खबरें छपती थीं।'

'बस,' मैं कहना चाहता था कि बस कहकर मैंने उसे रोक दिया।

'अगर मैं आपकी जगह होता तो मुझमें भी अविश्वास जागता। आप हैरान होंगे, शुरू-शुरू में मेरे छोटे भाई ने जब मुझसे इस तरह की बातों का जिक्र करना शुरू किया तो मुझे लगा उसका दिमाग फिर गया है... कब कैसे उसे यह अनुभव आए - यह तो पुराना किस्सा है, और लंबा भी। मैं तो एक लंबी किताब इन अनुभवों पर बनाने वाला हूँ...।'

मैं चेरी के फूल देखने लगा। मुझे उकताहट ने आ घेरा था। मुझे फूलों के तथ्य अब जैसे मोहित करने में असमर्थ हो गए थे।

'मैं शुरू-शुरू के अपने अनुभव सुनाऊँ।' उसने मुझे चुप देखकर कहा, 'शायद इसमें आपकी दिलचस्पी न हो...'

'नहीं... नहीं... क्या बात कर रहे हैं आप!' मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, 'आप कहिए न?'

'अस्त्राखान भी अजब जगह है। वहाँ ज्यादातर लोग इस्लाम को मानने वाले हैं। मेरी बहन एक बार ईश्वर की प्रार्थना कर रही थी कि उसे कुछ ऐसा अहसास हुआ जैसे कोई लंबे चोगे वाला आदमी आसपास आया हो। अब हालाँकि उसकी शादी हो गई, वह मुझसे कुछ ही बड़ी थी। एक ऐसी राजदार कि मैं सोचता हूँ उसे मेरी हर बात पता है और मैं... मैं उसकी हर बात जानता हूँ।'

'वह अब भी वहीं अस्त्राखान में रहती है?'

'नहीं! मध्य एशिया में उसका पति कहीं काम करता है। बहुत दिनों से मुझे उसकी खबर नहीं मिली।'

'लेकिन आप तो मुझे कुछ बताने वाले थे?'

'हाँ... हाँ,' उसने जैसे कुछ याद करते हुए कहा, 'वही तो बता रहा हूँ। मेरे छोटे भाई ने सहसा एक दिन मुझे बताया कि वह पारलौकिक लोगों के संपर्क में है। सामान्य रूप से जैसा इस अवसर पर कहते हैं वही मैंने भी कहा कि तुम अपना इलाज करवा लो। पर वह इतना दृढ़ था कि उसने मुझे आश्वस्त किया कि एक दिन मुझे सत्य का परिचय करा कर ही रहेगा।'

'तो क्या आपको...'

'वही तो कह रहा हूँ। एक सुबह उसने मुझे उठाया और अपना हाथ मेरे मुँह पर रखकर कुछ भी कहने से वर्जित करते हुए खिड़की की ओर इशारा किया। बस वही क्षण था कि उसके हाथ की गर्मी जैसे मेरे शरीर में प्रवेश कर गई... पर यह जादू-सा भी तो हो सकता था...।'

'क्या महसूस हुआ आपको?'

'मुझे लगा उसके हाथों में बहुत गर्मी है। कुछ ही पल बाद मुझे खिड़की के पर्दे पर कोई आकृति उभरती दिखाई दी...।'

'तमाम वृत्तांतों में, जो भी आपने अखबारों में पढ़े होंगे - यही कुछ कहा जाता है। इसमें कुछ नया नहीं है।'

'शायद आप ठीक ही कहते हों। लेकिन मेरा अनुभव...' उसकी आँखों में विचित्र-सी चमक आ गई।

'मेरा खयाल है, जब भी हम अपनी बातों को पुष्ट करना चाहते हैं तो हम प्रमाणों का सहारा लेते हैं।'

'प्रमाणों का सहारा - आपका मतलब... आखिर आप कहना क्या चाहते हैं?'

'यही कि जिस बात को आप कर रहे हैं मैं उसे वैज्ञानिक गल्पों पर आधारित फिल्मों में देख चुका हूँ।'

वह हँसा। मेरी ओर उसने बेचैनी से देखा।

'देखिए, अब अगर मैं कहूँ कि रात में ही मुझे दूसरे लोक से संकेत मिला है कि मेरे रहस्यों को जानने की यदि किसी में पात्रता है तो वह उस भारतीय में है...'

और 'उस भारतीय' कहते हुए उसने मेरा नाम जोड़ा। एक ऐसी स्थिति थी कि मैं उसमें फँस गया था। हम लोग वहाँ से उठे और नदी तट पर उसके उद्गम की ओर चलने लगे। सिमफेरोपोल एक बेहद खूबसूरत जगह है। नदी किनारे घरों की सुंदरता देखने लायक चीज थी। कहीं-कहीं छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। कहीं सुंदर महिलाएँ अपनी सखियों से बतिया रही थीं। और कहीं-कहीं श्वेत पाखियों के झुंड आसमान में - नीले, सघन नीले आसमान में घूम रहे थे...

'आपको मैं बताना चाहता हूँ कि जब मेरा संपर्क दूसरे लोक के लोगों से हो गया तो उन्होंने मुझे अपना काम करने से बरजा। उन्होंने कहा कि मुझे ऐसा घर नहीं बनाना चाहिए जिसमें नीरोग जीवन हो...'

'कितने लोग मिले आपको... और उनका क्या अधिकार कि वे आपको अपना काम करने से रोकें!'

उसने फाइल में से एक लंबा कागज निकाला जिसमें एक विशाल भवन का नक्शा था। वहाँ अनेक गुंबदों के बीच एक बड़े गुंबद का चित्र था।

'मैंने इसे 'मॉडल' के रूप में भी बनाया था। पर मॉडल के बीचोबीच पिरामिडनुमा एक तिकोनाकार गुंबद उस लोक के लोग उठा ले गए। वे लोग सुदूर आकाश के शून्य में से आते हैं। उनका कहना है कि 'हाड़-मांस' की आकृतियों में बने मनुष्यों को बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं।'

'तो क्या उनके लोक में कष्ट नहीं हैं?'

'कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। एक बार मैंने उनमें से एक आकृति से प्रार्थना की कि वह मुझे अपने लोक का दर्शन करा डाले। उसने कहा, संभव नहीं है यह। फिर भी मैं जिद करता रहा। वह समझिए एक ऐसी आकृति थी जो झिल्ली के पतले परदे से ढकी थी। अंत में वह मेरी बात मान गया, बोला, रात में सपने में तुम हमारी बस्ती देखना, उसके बाद जरूरी हुआ तो तुम्हें अपने लोक में ले जाएँगे।'

'तो क्या वे ले गए?'

'पहले सपने की बात तो सुनिए। उस रात मैंने सपना देखा कि एक पूरा शहर है जहाँ घर हैं पर घरों की दीवारें नहीं हैं, पेड़ हैं पर पेड़ों की जड़ें नहीं हैं, लोग हैं पर लोगों के चेहरों पर दुख नहीं... ऐसी अविश्वसनीय दुनिया देखकर मेरी नींद जल्दी ही उचट गई... यह सपना बराबर अनेक दिनों तक मेरा पीछा करता रहा... पर मैं उसे पूरा नहीं देख पाया... मैंने फिर उस लोक के लोगों से मिलने का प्रयत्न किया और जब मैं मिला तो वे बोले कि तुम सपना पूरा देख ही नहीं रहे हो...'

'उनमें से दो लोग थे जो एक नली जैसे अंतरिक्ष यान में बैठकर आए थे और दो लोग खुद जैसे उभर आए थे...'

'वाह... अवतारी पुरुष थे वे...।' उसे गुस्सा आ गया, 'आप अविश्वास करिए पर तिरस्कार न करिए। मैंने जिद की तो उन्होंने वहीं बैठे-बैठे मुझे अपनी दुनिया दिखाई।' 'कैसे?'

'वही तो मुझे यकीन नहीं हो रहा है। बैठे-बैठे मेरी आँखों के सामने एक हरी-भरी घाटी दिखाई दी। घाटी में वैसे ही मकान थे... वैसे ही लोग... वे लोग बहुत सुखी थे... वे एक दूसरे की सहायता कर रहे थे... एक दूसरे के प्रति आभार व्यक्त कर रहे थे... वे सुखी थे... मैंने उनसे प्रार्थना की... अनुरोध किया कि क्या वे ऐसे लोक का एक टुकड़ा, एक छोटा-सा टुकड़ा हमारी धरती को नहीं दे सकते...'

मैं क्रीमिया जलडमरूमध्य के शहर सिमफेरोपोल को दुबारा देखने लगा था। 'क्या इतना ही खूबसूरत इलाका आपने देखा?'

'वह दृश्य दिव्य था... पर मेरे पास तो असंख्य सूचनाएँ हैं। उस लोक के आदमियों ने बताया कि बस बरस-दो बरस में और भी कहर बरसने वाला है...'
अब मैं क्या कहता। मैं खुद उसके सपने में जैसे शामिल हो गया था। मैं भी देखने लगा कि उस सपनों के देश में लोग सुखी हैं... काश, हम वैसा ही कुछ यहाँ ले आते...

प्रिय पाठक, अस्त्राखान का आदमी झूठ भी बोल सकता है... हम सब सच की दुनिया से झूठ की दुनिया की तलाश में हैं। कितने बरस बीत गए हैं अस्त्राखान के आदमी को मिले हुए... तब से अब तक मैं लगातार वह सपना देख रहा हूँ... मैं सोचता हूँ, यह जीवन उलट होता। जो कुछ इस ओर दिखाई दे रहा है वह सपना होता और जो कुछ उस ओर दिखाई दे रहा है वह सच होता... मैं फिर किसी दिन बताऊँगा, वह कब होगा... और कब उस लोक के लोग अपनी धरती का एक टुकड़ा हमें देंगे... कभी-कभी मुझे खयाल आता है, सपने में सही... सपनों में तो वह टुकड़ा हमें हासिल कराया हुआ है... बस अस्त्राखान के वास्तुकार के उस भवन का इंतजार है। सपनों में ही सही... कुछ दिन हमारी दुनिया के लोग वहाँ रह लें...।

                                                                    ---गंगा प्रसाद विमल---

एक छात्र नेता का रोजनामचा


पिछली रात वह काफी देर तक नुक्‍कड़ वाली चाय की दुकान पर क्रान्ति करता रहा था। करीब दो बजे तक उसने व्‍यवस्‍था बदलने और नई व्‍यवस्‍था जमाने की बातें की थीं। देश से लेकर विश्‍वविद्यालय तक की सारी समस्‍याओं को हल करके जब वह वापस अपने कमरे में लौटा तो काफी सन्‍तुष्‍ट था। लेकिन इस समय वह सन्‍तोष असन्‍तोष में परिवर्तित हो गया था। अभी सिर्फ नौ बजे थे और ऐसे खुशगवार मौसम में जब कि सोने से बेहतर और कोई काम नहीं हो सकता था, उसे उठना पड़ रहा था। उसने अपनी नेतागीरी को कोसा और फिर सोने लगा। लेकिन उसे याद आया कि विश्‍वविद्यालय के चुनाव करीब हैं और इस समय उसका समय से विश्‍वविद्यालय जाना निहायत जरूरी है। चारपाई पर बैठकर वह सिगरेट पीने लगा ताकि उस क्रिया को सम्‍पादित करने में उसे सुविधा हो जिसे शास्‍त्रों में दैनिक क्रिया कहा गया है। हालाँकि वह क्रान्तिकारी होने के कारण किसी भी दैनिक क्रिया में विश्‍वास नहीं रखता और अक्‍सर ये क्रियाएँ साप्‍ताहिक और मासिक किश्‍तों में करता है; फिर भी चुनाव का मौसम होने के कारण आजकल इन्‍हें नियमित करना पड़ रहा है।

चुनाव में चुस्‍ती बहुत सहायक तत्व है और दुर्भाग्‍य से चुस्‍ती इसी तरह आती है। खरामा-खरामा उसने सभी कार्य सम्‍पादित किए और एक बार फिर उसे व्‍यवस्‍था के इस फूहड़पन पर क्रोध आया। उसके जैसे महत्वपूर्ण व्‍यक्ति को, जिसकी आवाज पर कई हजार लड़के एक साथ विश्‍वविद्यालय छोड़कर सड़कों पर आ जाते हैं, चाय के लिए आधा फर्लांग दूर चाय की दुकान तक जाना पड़ता है। कल रात उसके दल की जिला शाखा के अध्‍यक्ष जब व्‍यवस्‍था के खिलाफ अपना आक्रोश व्‍यक्‍त कर रहे थे तो उसे वे हास्‍यापद लग रहे थे। लेकिन अब उसे उनका क्रोध जेनुइन लगने लगा। उन्‍हें शिकायत थी कि इस व्‍यवस्‍था में जब लोगों को छोटी कार का लाइसेन्‍स आसानी से मिल जाता है तो आखिर क्‍या कारण है कि उन्‍हें चीनी का कोटा नहीं मिल पा रहा है? जरूर इसमें व्‍यवस्‍था का ही कोई षड्यंत्र है। उसे लगा कि उसे वक्‍त पर चाय भी व्‍यवस्‍था के षड्यंत्र के कारण ही नहीं मिल पाती। उसने अपना सिर झटका और स्‍वयं को विश्‍वास दिलाया कि शीघ्र ही उसकी पार्टी देश में समाजवादी व्‍यवस्‍था लाने वाली है। समाजवाद आते ही उसकी पार्टी के जिला अध्‍यक्ष को चीनी का कोटा और उसे बिस्‍तर पर आसानी से चाय उपलब्‍ध हो जाया करेगी।

चाय पीकर वह धीरे-धीरे विश्वविद्यालय कैम्‍पस की ओर बढ़ा। कैम्‍पस के पास पहुँचते ही उसकी सारी सुस्‍ती गायब हो गई थी और वह इस समय पूरी तरह चुस्‍त और चौकन्‍ना हो गया था। सामने से कुछ वोट आ रहे थे। उसने कुछ टूथपेस्‍टी विज्ञापन से अपने दाँत निपोर दिए और हें…हें… करते हुए उनके हालचाल पूछने लगा। इसके बाद जो दाँत निपोरने का सिलसिला चला वह उसके क्‍लास रूम पहुँचने तक जारी रहा। रास्‍ते भर उसके चमचे उसके लगातार पान खाने से मैले पीले दाँतों को देखकर आश्‍वस्‍त होते रहे और उसके विरोधी उन्‍हें तोड़ने के बारे में अपनी शुभ राय व्‍यक्‍त करते रहे।

क्‍लास रूम और उसमें कई पीढ़ियों का वैर था। लेकिन चुनाव के कारण इस समय क्‍लास उसे चुम्‍बक की तरह खींच रही थी। वहाँ जाने से उसे दो फायदे थे। एक तो वह अपने विरोधियों के इस प्रचार का खण्‍डन कर सकेगा कि उसका पढ़ाई से कोई विशेष रिश्‍ता नहीं है और दूसरा इससे कुछ जन सम्‍पर्क भी हो सकेगा।

कक्षा में अध्‍यापक महोदय अभी तक नहीं आए थे। वह दाँत निपोरने की अपनी पुरानी प्रक्रिया में फिर से जुट गया। उसने सभी के हालचाल पूछने के बाद अध्‍यापक के परिवार की महिलाओं के बारे में शिष्‍ट ढंग से कुछ विचार उपस्थित छात्रों के समक्ष प्रस्‍तुत किए और फिर दादा किस्‍म के एक छात्र के साथ कुछ कान्‍फीडेंशल बातचीत करने के लिए कमरे से निकल कर गलियारे में चला गया। वे रहस्‍यमय शब्‍दों से फुसफुसाते रहे। तभी अध्‍यापक उधर से गुजरा। उसने अध्‍यापक पर एक बड़ा धार्मिक किस्‍म का रिमार्क कसा। अध्‍यापक ने घबराकर इधर-उधर देखा और फिर न सुनने का दिखावा करता हुआ कक्षा में घुस गया। वे दोनों अब जोर-जोर से बातें कर रहे थे। अध्‍यापक ने अपने दो दशक पुराने नोट्स निकाले और अपनी घबराई हुई मरियल आवाज में उनकी आवाज से प्रतिस्‍पर्धा करने लगा।

कक्षा की तरफ उपेक्षा भरी निगाह फेंकते हुए वह उस दादा छात्र के साथ पोर्टिको से होते हुए लॉन में चला आया। लॉन में उपस्थि‍त कई छात्रों ने उसे घेर लिया। वे एक स्‍वर में उसके सामने अपने-अपने दुखड़े रोने लगे। उसने कइयों को आश्‍वासन के रस से सराबोर किया। कई लोगों को अपने घर बुलाया और कुछ को लेकर रजिस्‍ट्रार ऑफिस की तरफ बढ़ा। जब वह रजिस्‍ट्रार ऑफिस पहुँचा तो उसके पीछे काफी लोगों का हुजूम इकट्ठा हो चुका था। वे सभी एक स्‍वर से बोल रहे थे और वह भी निष्‍काम भाव से मुस्‍कराते हुए उनके ढेर सारे प्रश्‍नों के उत्तर में एकाध सूक्ति वाक्‍य बोलता जा रहा था। रजिस्‍ट्रार ऑफिस में घुसकर उसने क्‍लर्कों पर अपनी आग्‍नेय दृष्टि फेंकी और इस बात पर दु:ख प्रकट किया कि वे उसकी इस दृष्टि से भस्‍म नहीं हुए। क्‍लर्कों से उसने घरेलू किस्‍म के संबंध स्‍थापित किए और उन्‍हें अपने चमचों के काम करने के बारे में कुछ हिदायतें दीं। उन हिदायतों के बाद वाले हिस्‍से ज्‍यादा महत्वपूर्ण थे जिनमें उसने काम न होने की दशा में कुछ विशेष परिणामों के बारे में क्‍लर्कों को आश्‍वस्‍त कराया था। क्‍लर्कों ने इसी हिस्‍से को मन से सुना और काम पर जुट गए।

रजिस्‍ट्रार ऑफिस से निकलने के बाद वह अश्‍वमेधी घोड़े की भाँति दिग्विजय के लिए पूरे विश्‍वविद्यालय कैम्‍पस में घूमता रहा। रास्‍ते भर में उसे तीन तरह के लोग मिले जिन्‍हें अलग-अलग ढंग से उसने निपटाया। पहली किस्‍म के लोग उसके चमचे थे जिन्‍हें उसने अपने चुनाव जुलूसों में आने की हिदायतें दीं और बदले में उन्‍हें प्रवेश, वजीफों या उपस्थिति की कमी के बारे में निश्चिन्‍त रहने की सलाह दी। दूसरी किस्‍म के वे अध्‍ययनशील छात्र थे जो साल में कम-से-कम दो महीने की हड़ताल चाहते थे जिससे वे अपना कोर्स पूरा कर सकें। क्‍योंकि वे जानते थे कि क्‍लास में कोर्स पूरा करके अध्‍यापकगण विश्‍वविद्यालय की प्रतिष्‍ठा को खतरे में नहीं डाल सकते। उसने उन्‍हें आश्‍वासन दिया कि जीत जाने पर वह दो महीने क्‍या पूरे साल भर विश्‍वविद्यालय बन्‍द रख सकता है। इस पर बहुत-से अध्‍ययनशील छात्रों के चेहरे प्रसन्‍नता से खिल गए और बहुत-से गम्‍भीर चिन्‍ता में डूब गए। गम्‍भीर चिन्‍ता वाले छात्रों के सामने उसने अपने मैले दाँत निपोरे जिससे उन्‍हें लगा कि वह मजाक कर रहा था। इसलिए उन्‍हें विश्‍वास हो गया कि उसमें 'सेंस ऑफ ह्यूमर' नामक पदार्थ भी काफी मात्रा में पाया जाता है। तीसरी कोटि में जरा विकट किस्‍म के लोग आते थे। ये उसके विरोधी थे जो उसके दाँत तोड़ने से लेकर अंग-भंग करने तक के कामों के बारे में गम्‍भीरतापूर्वक बातें कर रहे थे। उन्‍होंने उसे जगह-जगह हूट करने की कोशिशें कीं। लेकिन उसने गीता के कुछ श्‍लोक कोर्स में होने के कारण पढ़ रखे थे और इसलिए निष्‍काम भाव से उनके व्‍यंग्‍य बाणों को झेलते हुए अपने काम में लगा रहा।

विश्‍वविद्यालय कैम्‍पस में दिग्विजय करने के बाद वह अध्‍यापक कॉलोनी की ओर दिग्विजय करने निकला। दो-तीन अध्‍यापकों ने पिछले साल उससे पैम्‍फलेट निकलवाए थे और एतदर्थ चुनाव में मदद करने के लिए कहा था। वह कई मकानों में खाली जेब घुसा और भरी-जेब वापस लौटा। इसके बाद उस 'डीन' के मकान की ओर बढ़ा जो अपने मित्रों से उसे खास आदमी घोषित करते थे। डीन साहब विश्‍वविद्यालय जाने की तैयारी कर रहे थे। उसे देखकर रुक गए। उन्‍होंने उसे सलाह दी कि भगवान ने ऐसे शुभ कामों के लिए रात बनाई है सो हमें उसका उपयोग करना चाहिए।

उसने उनकी आस्तिक सलाह उपेक्षा से सुनी और बताया कि रात में करने के लिए और कई महत्वपूर्ण कार्य हैं। और फिर, उसके लिए रात और दिन सभी बराबर हैं क्‍योंकि वह किसी … से डरता नहीं है। डीन साहब ने उसे अपने मित्र की गाड़ी चुनाव प्रचार के लिए उपलब्‍ध करा देने का वादा किया और कुछ धन देकर उसे विदा किया। इस प्रकार उन्‍होंने गुरु-शिष्‍य के मध्‍य संबंध बनाए रखने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

डीन के बँगले से निकलकर वह फिर कैम्‍पस की ओर बढ़ा। सामने से कुछ सुकन्‍याएँ आ रही थीं। उसने उन्‍हें देखकर खींसें निपोरते हुए हाथ जोड़े और बहनजी के सम्‍बोधन से उनकी सेहत और मौसम के बारे में दो-एक सस्‍ती किस्‍म के शेर सुनाए। बहनजी के संबोधन से जो अवसाद उन सुकन्‍याओं के चेहरे पर आ गया था, वह शेर सुनते ही दूर हो गया। वे चहचहाने लगीं और आगे बढ़ गईं।

उसने चुनाव को कोसा, जिसके कारण इन सुकन्‍याओं को किसी मधुर सम्‍बोधन के स्‍थान पर बहनजी नामक शुष्‍क सम्‍बोधन से सम्‍बोधित करना पड़ा। चुनाव के बाद सब ठीक हो जाएगा - वाले अन्‍दाज में उसने अपना सिर झटका और एक बार फिर कैम्‍पस का चक्‍कर लगाने लगा। काफी देर तक उसका जनसम्‍पर्क जारी रहा और थकने के बाद वह वापस अपने निवास स्‍थान की तरफ लौट आया।

घर पर काफी दु:खी छात्र उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसके सामने नाना किस्‍म की समस्‍याएँ रखी गईं। विश्‍वविद्यालय में प्रवेश से लेकर किसी लड़की को प्रेमपत्र देने तक की कई बातों को उसने गम्‍भीरतापूर्वक सुना और राष्‍ट्रीय नेताओं के अन्‍दाज में धीरे-धीरे कई अर्थों वाले वाक्‍य बोले। काफी लोग सन्‍तुष्‍ट होकर चले गए। केवल वे ही लोग रह गए जो उसके काफी अंतरंग थे। उनसे वह बड़ी देर तक बातें करता रहा, जिससे उन्‍हें विश्‍वास हो गया कि आज दिन भर कैम्‍पस में उसका जो रूप दिखाई दिया वह सायास था। उसका असली स्‍वरूप तो वही था जिसे वे लोग वर्षों से पहचानते थे। उनसे उसने चुनाव-प्रचार की बातें कीं, पर्चे और पोस्‍टरों की बातें कीं। साथ ही इस विषय पर भी गम्‍भीरतापूर्वक चिन्‍तन किया गया कि यदि विरोधी उम्‍मीदवार की एक टाँग तोड़ दी जाये तो उसके सौंदर्य पर क्‍या असर पड़ेगा।

इस प्रकार नाना प्रकार के चिन्‍तनों में डूबे हुए और नाना प्रकार के कार्यों को सम्‍पादित करते हुए उसने अपना दिन बिताया। रात होते ही वह नुक्‍कड़वाली चाय की दुकान पर क्रान्ति करने चल दिया। वह जानता था कि बिना क्रान्ति किए इस देश में नेतागीरी पुख्‍ता होने वाली नहीं है। हमारे राष्‍ट्रीय नेता संसद और कॉफी हाउस में क्रान्ति की बातें करते हुए अपने को धन्‍य महसूस करते हैं। उसे संसद या कॉफी हाउस उपलब्‍ध नहीं है। इसलिए वह चाय की दुकान पर ही क्रान्ति करता है। वहाँ उसने घंटों 'वर्तमान व्‍यवस्‍था की बुराइयों और नई व्‍यवस्‍था से राष्‍ट्र को होने वाले लाभ' नामक बहुचर्चित विषय पर भाषण दिया जिसे चाय की दुकान पर काम करने वाले छोकरे और दफ्तरों के कुछ फटेहाल बाबू ऊँघते हुए सुनते रहे।

काफी रात बीत जाने पर वह वहाँ से एक और सार्थक दिन बिताने का सन्‍तोष मन में लिए घर आया और चुपचाप सो गया।

                                                                        ---विभूति नारायण राय---