नगरपालिका बनी तो सरकार ने प्रशासनिक अधिकारी भेजा। अधिकारी युवा था। लंबे बाल रखता था और गजलें गाता था। बोलता कम था। उसकी आँखों का भाव अच्छा नहीं था। जब से यहाँ नगरपालिका बनी है, बस्ती भर के महत्वाकांक्षी लोग वार्ड मेंबर और चेअरमैन बनने के सपने देख रहे हैं। मगर महादेव महाराज सपने से बहुत आगे निकल गए हैं। उन्हें लोग और वे खुद भी चेअरमैन कहते हैं। उनका एक नाम एम.पी. शायर भी है। वे तत्क्षण बना-बना कर गजलें गाते हैं। उनकी पकड़ में जो भी शब्द आ जाए, उसे गा देते हैं।
नगरपालिका के नए प्रशासनिक अधिकारी ने पहले महीने में बस्ती के लोगों से कोई वास्ता नहीं रखा। गंभीरता अख्तियार कर ली। धीरे-धीरे लोगों को उसकी गंभीरता से चिंता होने लगी। ऐसा न हो कि कुछ उल्टा-सीधा करने लगे। आढ़तियों को विशेष चिंता हुई। वजनकसी का बारह लाख रुपया नगरपालिका को इन आढ़तियों से लेना है। नगरपालिका अधिकारी यदि अपनी पर आ जाए तो खड़े-खड़े वसूली कर ले। लिहाजा आढ़तियों ने अधिकारी के आगे-पीछे घूम के ईओसा-ईओसाब करके उसे मिलनसार बनाया। फिर तो दो-चार महीनों में ये हालत हो गई कि बस्ती के बड़े व्यापारी, ठेकेदार और गुंडे ईओसाब के खास दोस्त बन गए। चूँकि ईओसाब का गला अच्छा था और वे गा भी लेते थे इसलिए स्थानीय रसिक और गवैए भी उनके साथ उठने-बैठने लगे। आठ महीने के भीतर-भीतर उच्चस्तरीय संपर्कों का ताना-बाना बहुत मजबूत हो गया।
सेठों के लड़के, ढोरों और मनुष्यों के सरकारी डॉक्टर, खाद्य निगम के अधिकारी, इंटर कॉलेज के युवा अध्यापक, वकील, बैंक मैनेजर, नेता और भूतपूर्व राज परिवार के युवजन, ईओ साहब की मेजोरिटी बन गए यानी सोसायटी की टीम संगठित हो गई। ये लोग पार्टियाँ करने लगे, जिनमें जम के शराब पी जाती, मुर्गा कटता और आधी-आधी रात तक आढ़तियों की बगिया में जलसा चलता। हफ्ते में एक पार्टी हो जाना मामूली बात थी। इन पार्टियों में कभी-कभी थानेदार भी शरीक हो जाता। सहज ही प्रश्न उठता है कि ईओ साहब को धुरी बना कर इतने आकार-प्रकारवाले लोग क्यों इकट्ठा हो गए? बस्ती में ऐसा ग्रुप इससे पहले क्यों नहीं बना? ये प्रश्न कुछ लोगों के मन में उठे ही थे कि उत्तर भी मिलने लगे। तंबाकूवाले सेठ के लड़कों ने सड़कों की मरम्मत का ठेका लिया। नेता कुंदनलाल हरिजन मोहल्ले की गलियों में मुरम डालने का ठेका ले भागे। आढ़तियों की दुकानें सड़क की तरफ पैर पसारने लगीं। मकानों में बाहर की तरफ टट्टियाँ बनने लगीं। वजनकसी का मामला बुरी तरह दब गया। पार्टियाँ और भी खर्चीली होने लगीं। जमीनों और मकानों के जो मामले नगरपालिका में विचाराधीन थे, उन पर ऐसे निर्णय लिए जाने लगे कि बड़े लोगों को संतोष का अनुभव होने लगा। सड़कों और गलियों की मरम्मत के बाद पैदल चलना और भी दूभर हो उठा। दफ्तरों, बैंक, अस्पताल और थाने में मेजोरिटी की तूती बोलने लगी। सरकारी नौकरों को जनता का कोई संकोच नहीं रह गया।
सुखी और संतुष्ट, लोभी और उद्दंड, पाखंडी और हिंसक लोगों की यह मित्र मंडली उस छोटी-सी बस्ती पर छा गई। बाजार और बस स्टैंड पर शाम को ये लोग मँडराते रहते। किसी रपटा होटल में बैठ जाते और हँसी-ठट्ठा, गाना-बजाना और चुटकुलेबाजी करते रहते। कभी ट्रक में भर कर आसपास के देहातों में चले जाते और रात भर बेड़नियों का नाच देखते। कभी शहर चल देते सिनेमा देखने और कभी कोई फड़कती आर्केस्ट्रा पार्टी को बुलवा कर बड़ा ही उत्तेजक कार्यक्रम करवा डालते। उन लोगों में ऐसे शिकारी भी थे, जो बस्ती के दरिद्र कोनों में से स्त्री पदार्थ का शिकार कर लाते और बाँट लेते। मगर रासरंग में वे इतने भी नहीं डूब गए थे कि जेबें भरने का समय न निकाल पाते। वे दिन भर पैसा कमाते। पारस्परिकता के कारण उन्हें आसान रास्तों से भरपूर पैसा मिल जाता। और बस्ती इतनी मुर्दा कि उस मंडली के उन्माद से आक्रांत भी रहती और उसके आगे दाँत भी निपोरती रहती। देश में पाई जानेवाली विभिन्न रूप-रंगोंवाली राजनीतिक पार्टियों की शाखाएँ यद्यपि वहाँ थीं, मगर उनमें ज्यादातर वही लोग थे जो इस मंडली के प्रादुर्भाव से बहुत प्रसन्न हुए थे। कुछ नेतागण मंडली में शामिल भी थे। इसलिए मंडली के कारगुजारियों पर उँगली उठानेवाला कोई न था, एक महादेव महाराज को छोड़ कर। लेकिन उसे पागल करारा जा चुका था। लोग उससे मजाक करते। उसकी बातें बनावटी गंभीरता से सुन कर हँसी में उड़ा देते। उसे उठाईगिरा, बदमाश, नाकारा, नरोलची और इसलिए अविश्वसनीय मानते।
बच्चों से ले कर बूढ़े तक उसे देख कर चंचल हो जाते। कोई उससे कहता - फड़कती गजल सुनाओ, कोई कहता फाग सुनाओ, मन से बना कर सुनाओ, मान लो तुम देश के राष्ट्रपति हो गए हो और जनता को संदेश दे रहे हो, मान लो तुम जज हो गए हो और पिछले सालवाले हरिजन-हत्याकांड पर बीस पेज लंबा फैसला पढ़ रहे हो, मान लो तुम भगवान कृष्ण हो और गोपियों से घिर गए हो और घिर कर उनके अंगों का खुलासा कर रहे हो। मान लो तुम... यानी जिसके मन में जो आता फरमाइश कर डालता और महादेव महाराज फौरन शुरू हो जाते। उसे सब आता था, पक्का गाना, कच्चा गाना, गजल बनाना, फागेगारियाँ बनाना, और सब कुछ फौरन बनाना, भाषण देना, कव्वाली गाना, नाचना। बस्ती में न सिनेमा-थिएटर था न मनोरंजन का कोई और जरिया इसलिए महादेव महाराज पर काफी बोझ आ पड़ा। वह सुबह जो घर से निकलता तो फिर रात एक-दो बजे से पहले न लौटता। बीच में खाना खाने पहुँच गया तो पहुँच गया। घर में सिर्फ माँ थी। पिता मर चुके थे और दो भाई बाहर नौकरियाँ करते थे। पाँच-सात बीघा जमीन थी। उस पर माँ हाड़ तोड़ती और कभी-कभी महादेव भी पसीना बहा आता। आय का यही एक जरिया था। महादेव एक बार में पंद्रह-बीस रोटियाँ खाता था जबकि अनाज की हमेशा कमी बनी रहती थी। इसलिए आए दिन वह अधपेट रह जाता और खूब पानी पीता रहता। फिर भी वह तंदुरुस्त था। उसकी आवाज भारी और तेज थी ठीक पिता की तरह। उसके पिता गायक थे और इलाके भर में संगीत-सभाओं में जाते थे। उनका आलाप आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में गूँजता है। महादेव भी कभी-कभी अपने पिता की तरह आलाप लेता है। मगर गाँजे और बीड़ी के कारण उसकी साँस जवाब दे जाती है।
पिछले चार महीने से महादेव महाराज नगरपालिका का चेअरमैन है। सचमुच का चेअरमैन नहीं। हँसी-मजाक का। एक दिन बस्ती के कुछ खुड़पेंचियों ने महादेव महाराज को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह चेअरमैन है। लोगों ने उसे लोकप्रियता की दुहाइयाँ दीं और एक अच्छे चेअरमैन की आवश्यकता पर जोर दिया। महादेव ने तमक कर स्वीकृति दे दी। वह उठ खड़ा हुआ और हुंकार भर के बोला - 'ठीक है, यदि ऐसा है तो यही सही। मैं हूँ चेअरमैन इस नगरपालिका का। अब सँभल जाओ ईओ साब!'
लोगों ने उसे मालाएँ पहनाईं, ढोलवाले को बुलाया और बस्ती भर में महादेव महाराज को लिए-लिए घूमे। महादेव मालाएँ पहने ढोलवाले के पीछे चला आ रहा है। दुकानदारों और राहगीरों का हाथ जोड-ज़ोड़ कर अभिवादन कर रहा है। उसके चेहरे पर यथोचित गर्व और उत्तरदायित्व की भावना है। उसके पीछे खुड़पेंचियों का झुंड है जो चेअरमैन महादेव की जयजयकार कर रहा है। लोग हँस रहे हैं। बस्ती एक नया तमाशा देख पुलकित हो रही है।
लोगों के लिए भले ही यह मजाक रहा हो मगर महादेव के लिए सच था। वह पूरी गंभीरता से स्वयं को चेअरमैन अनुभव करने लगा। बस्ती भर के लिए पितृत्व की भावना से उसका हृदय भर उठा। वह टूटी-फूटी सड़कों, गिरे-अधगिरे मकानों, मलबों, घूरों और पीड़ित- प्रताड़ित लोगों को चिंता से देखने लगा। अब घर से निकलता तो उसके बाल खूब तेलिया और कायदे से ओंछे हुए होते। उसका फटा और तंग कुरता-पाजामा धुला हुआ होता। वह मंथर और बोझिल चाल से चलता। लोगों से बड़प्पन भरी आत्मीयता से मुस्करा कर नमस्ते करता - दोनों हाथ जोड़ कर।
एक दिन ईओ साब को बाजार में रोक कर बोला, 'मैं कुछ कहता नहीं हूँ इसका यह मतलब नहीं कि आप काला-पीला कुछ भी करते रहें। शेर की माँद में तो शेर भी कायदे से घुसता है, आप तो लगते कहाँ है।'
जो लोग सुन रहे थे सब ठहाका मार कर हँस पड़े। ईओ साब ने हाथ जोड़ लिए, बोले, 'कोई गलती हुई क्या इस सेवक से चेअरमैन साहब।' - कह कर ईओ साब भी हँस पड़े।
महादेव का पारा चढ़ गया। उसने त्योरियाँ चढ़ाईं, आँखें निकालीं और चिल्ला पड़ा, 'मजाक करते हो मुझसे। मैं डेढ़ मिनट में ठंडा कर दूँगा। हरामखोर कहीं के।'
यह बात ईओ साब को अखर गई। वे दो कदम बढ़ कर बोले, 'आप होते कौन हैं मुझसे बकवास करनेवाले।'
'मैं? मैं चेअरमैन हूँ समझे। जनता जनार्दन ने मुझे चेअरमैन बनाया है।' महादेव गरजा।
'बनाया होगा, मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि आज अव्वल दरजे के हरामी हैं।'
'सुन बे ईओ, तू हरामी, तेरा बाप हरामी और सुन तेरी औलाद हरामी और सुन मैं तुझे अभी खड़े-खड़े जिंदा गाड़ दूँगा, साले।'
महादेव महाराज का इतना कहना था कि लगै लगै, लोग जुट पड़े। ईओ साब हालाँकि मना करते रहे। मगर उनके खैरख्वाह न माने। वह शायद पहला मौका था जब महादेव महाराज पिटा हो। वह भौंचक रह गया। उसे मारनेवाले वे ही लोग थे जो उसके पास घंटों बैठे उसका मजाक उड़ाते रहते थे, उससे गाना सुनते रहते थे और उसे अपनी पार्टियों-महफिलों में आमंत्रित करते थे। जो उसे पूरी बस्ती की तरह चेअरमैन कहते और मानते थे। उन्होंने मारा। महादेव को बहुत धक्का लगा। वह नहीं पिटा था, उसके भेष में, उसके शरीर में आखिर बस्ती का चेअरमैन पिटा था। चेअरमैन भूख हड़ताल पर बैठेगा। मन में संकल्प आया और महादेव वहीं सड़क के किनारे पालथी मार कर प्रतिकार की गंभीर मुद्रा में अड़ कर बैठ गया।
ईओ साब अपने साथियों सहित चले गए। और वहाँ अच्छा-खासा ठठ्ठा लग गया। जो सुनता कि महादेव महाराज पिट गया और भूख हड़ताल पर बैठा है, वही तमाशा देखने भागा चला आता। देखते न देखते पूरी सड़क लोगों से भर गई।
महादेव महाराज लोगों को देख कर भाव विह्वल हो गया। आखिर चेअरमैन पिटा है, कोई और नहीं। मैं नहीं पिटा हूँ इन लोगों की भावना पिटी है, ऐसा विचार मन में आते ही महादेव उठ खड़ा हुआ और बिना खँखारे जोर से बोला, 'सज्जनो, आप लोगों ने भावना में पड़ कर मुझे चेअरमैन बनाया। मैं अयोग्य था मगर आप लोगों की भावना की इज्जत करता था, इसलिए मैं चेअरमैन बन गया। जब बन गया तो मुझ पर नगर को अच्छा बनाने का भार आ गया। अब जहाँ देखो वहाँ लूट मची है। जितने सरकारी लोग हैं, उनने सेठों और गुंडों से साँठगाँठ कर ली है और जनता को लूट रहे हैं। आढ़तिए नगरपालिका का पंद्रह लाख रुपए दबाए हैं। अब अगर ये पैसा मिल जाता तो जनता का कितना काम निकलता। और सोचो ये वजनकसी का पैसा, ये बनिए किसानों से तभी ले लेते हैं जब उनसे माल खरीदते हैं। यह जो ईओ यहाँ आया है, बनियों से माहवारी पाता है। इसने जनता जनार्दन के पंद्रह लाख रुपयों का सौदा कर लिया है। सड़कें देखिए, ठेका हो गया, कागजों पे सुधर गईं और देखो तो पहले से ज्यादा बुरी हो गईं। इस ईओ के जमाने में कितने गरीबों के मकान-जमीन सेठों ने दबा लिए हैं, सबको पता है। अस्पताल में बड़ों के लिए सब कुछ है और छोटों के लिए कुछ नहीं। थाने में अलग धंधा चल रहा है। स्कूल में अलग चल रहा है। ईओ ने जो टीम बनाई है वह क्या-क्या कहर ढा रही है इस जनता पर, सब जानते हैं। मैं चेअरमैन हूँ, यह सब देखा नहीं जाता...।'
लोगों ने हो-हो किया फिर भगदड़ मच गई। पुलिस के चार सिपाही भगदड़ से बने रास्ते हो कर महादेव के पास पहुँचे और उसे धकेलते हुए थाने की तरफ ले चले। पीछे-पीछे चलते लोग हो-हो करते, कभी चेअरमैन जिंदाबाद के नारे लगाते और हँस पड़ते।
इस घटना के कुछ ही दिन बाद जनार्दन छुट्टियों में घर गया। बस से उतर कर वह लल्लू होटल में बस्ती के हालचाल पूछने के बाद ही घर जाता है। होटल में लल्लू मक्खियाँ उड़ा रहा था। उसे देखते ही सम्मान से खड़ा हो गया और शिकायती चेहरे से हँसते हुए बोला, 'इस बार इतने दिनों बाद आए भैया।'
जनार्दन ने उसके कंधे पर हाथ रखा और हँस पड़ा - 'और यहाँ के क्या हालचाल रहे।' लल्लू ने ईओ मंडल का बखान किया, फिर चेअरमैन की पिटाई की घटना सुनाई।
'महादेव महाराज थाने में भी पिटा। लेकिन एक बात माननी पड़ेगी, दूसरे दिन से वह ईओ साब के पीछे पड़ गया। रोज कच्चा चिट्ठा खोलता फिरता है। गाना छोड़ दिया है। कहता है अब गाना तभी होगा जब इस कलंक को मिटा दूँगा। चेअरमैन हूँ। पहले बस्ती को सँभालना है, फिर गाना-कव्वाली देखी जाएगी।'
जनार्दन यह सुन कर दुखी हो गया। महादेव महाराज को सार्वजनिक करने का काम जनार्दन ने ही किया था और वह भी औरों की तरह महादेव को मनोरंजन का साधन बनाए हुए था मगर उससे लगाव भी था। महादेव के भीतर कलाकार और एक ईमानदार और सहज मनुष्य का अनुभव उसे था। वह औरों की तरह घृणित नहीं मानता था। और न ही उसे यह डर रहता था कि महादेव कभी पैसा न माँग बैठे। उसे पता था कि वह पैसा कभी माँग ही नहीं सकता। महादेव लोगों से प्यार चाहता था और उसके बदले में वह कुछ भी कहने-करने के लिए तैयार रहता था। वह लोगों के शब्दों के पीछे ताक-झाँक किए बिना ही यह मान बैठता कि वह चेअरमैन है, वह देश का सबसे बड़ा शायर है, तानसेन से बड़ा गायक है, उसके पास करोड़ों रुपया है, एक बहुत बड़े मंत्री की लड़की उससे शादी करने की जिद ढाती है। इसी तरह की ढेर असंभव बातें। महादेव पर जो थोप दिया जाए वह उसी को अपनी निधि, अपनी वास्तविकता मान लेता था। लोग उसे और-और अजूबा बनाते रहने के लिए उस पर कुछ भी पोत देते, फेंक देते, लपेट देते और वह सब कुछ स्वीकार करता जाता। और कैसी विडंबना है कि वह कपोल कल्पित बातों को अपने विश्वास में अंगीकृत करता जाता। उसकी इसी अंधी गंभीरता, इसी बुद्धिहीन भावलीला को देख कर लोगों के पेट में बल पड़ जाते। वे उससे खेलते जाते और विकृत से विकृत नए खेल ईजाद करते जाते। जनार्दन ही ऐसे खेलों का प्रथम संयोजक था। उसने छह माह में महादेव को बस्ती के कोने-कोने में गवा-नचा दिया। रपटों की बैठकों का उसे जरूरी हिस्सा बना दिया। उसे यह विश्वास दिलाया कि वह मामूली आदमी नहीं है और वह कुछ करने के लिए पैदा हुआ है, लोगों को उससे बहुत उम्मीदें हैं। उसी महादेव की पिटाई का सुन कर जनार्दन को बहुत बुरा लगा। उसने खुद को इसके लिए दोषी अनुभव किया और उसका यह विश्वास भी टूट गया कि महादेव से लोग सचमुच प्यार करने लगे हैं। वह पिटता रहा और लोगों ने कुछ नहीं किया। जबकि वह खुद को लोगों की भावना का चेअरमैन मान कर उनके लिए पिट रहा था।
जनार्दन क्षुब्ध हो गया। घर की ओर जाते हुए उसे बस्ती के लोगों को देख कर क्रोध आता रहा। वह किसी जगह नहीं रुका। लोगों से फिर मिलने का कह कर सीधा घर पहुँचा। माँ ने जल्दी ही पानी गरम कर दिया। उसने खूब नहाया। मन कुछ हल्का हुआ। खाने का मन नहीं था मगर माँ की जिद से उसने थोड़ा-सा खाया और माँ से बातें करने लगा। माँ हँस पड़ी। उसकी अन्यमनस्कता का कारण उसे पता था, बोली, 'दीपक के घर जाने का मन है और मन लगा रहे हो यहाँ बातों में। जाओ पहले हो आओ।'
वह सचमुच दीपक से मिलने की बेकरारी में बैठा था। माँ की उदारता से पुलकित हो कर वह उठ खड़ा हुआ। दीपक का घर पास ही था। और चूँकि दोपहर का समय था, इसलिए तय था कि वह फैक्ट्री में नहीं, घर में ही होगा। दीपक के यहाँ हैंडलूम का अच्छा-खासा काम था। हर साल खड्डियाँ बढ़ती ही जाती थीं। उसका पिता और वह स्वयं भी मेहनती था। झगड़ों-झाँसों से दूर वे अपने धंधे में मन लगाए हुए थे। दीपक का एक ही दोस्त था जनार्दन और जनार्दन को भी उस बस्ती में दीपक के अलावा किसी से वैसा नहीं था। हालाँकि दोनों ही बस्ती भर में फैले हुए थे। खूब बड़ा उन लोगों का दायरा था। अभी दो साल से जब से जनार्दन नौकरी पर गया तो दीपक का अपना एक नया दायरा बन गया। वह ईओ मंडल का बड़ा ही सम्मानित सदस्य है। चूँकि वह ईओ से या किसी दूसरे सरकारी आदमी से कोई लाभ नहीं लेता तथा उसका घर बहुत ही सुसंस्कृत और सत्कारी है, इसलिए उसका विशिष्ट बेदाग स्थान उस मंडल में है। सब उसकी इज्जत करते हैं और उसकी बुद्धि का लोहा मानते हैं।
उसे पीने का शौक है। पार्टियों में शामिल हो कर अपनी धाक जमाने का नशा भी उसे है। धंधे के और घर के अंदरूनी दुख के तनाव से वह इसी तरह मुक्त हो सकता था इसलिए न जाने वह कैसे उस मंडल में शामिल हो गया। जनार्दन जब पिछली बार आया था तब दीपक के संबंध ईओ साब से बने ही बने थे और दो-एक पार्टियों में वह अंधाधुंध पी चुका था। जनार्दन ने उसे धिक्कारते हुए कहा था, 'ये लोग इस लायक नहीं हैं कि तुम इनके साथ पियो-खाओ। मेरी समझ में नहीं आता तुम क्यों इन लोगों को इतनी लिफ्ट दे रहे हो। होगा साला ईओ फीओ।'
यही इस बार हुआ। दोस्त से मिलते ही जनार्दन ने महादेव की पिटाई को ले कर ईओ को गाली दी। दीपक ने ईओ का पक्ष लिया। जनार्दन तिलमिला गया। वह बोला, 'दीपक, तुम्हारा पतन शुरू हो गया है।'
'मैं उस टुच्चे महादेव का पक्ष नहीं ले रहा हूँ इसलिए मेरा तो पतन हो गया है और तुम ईओ को गाली दे कर बड़ा ऊँचा काम कर रहे हो। तुम्हें मालूम है महादेव चेअरमैन बना फिरता है और चाहता है ईओ उसके अंडर में काम करें। है न मजाक। ऐसे आदमी को पागलखाने में डाल देना चाहिए। लेकिन जब तक यह नहीं होता वह गली-गली जूते खाएगा ही। चाहे फिर तुम्हें बुरा ही क्यों न लगे।'
दीपक का यह दो टूक लहजा जनार्दन को बहुत बुरा लगा। उसे आश्चर्य हुआ कि ये दीपक के विचार हैं। हालाँकि महादेव से वह हमेशा चिढ़ता रहा मगर ईओ जैसे लोगों का पक्ष लेना उसने हाल में ही शुरू किया होगा। जनार्दन नहीं चाहता था कि शुरुआत कटुता से हो। इसलिए उसने ठंडेपन से एक सवाल पूछा, 'दीपक, क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि सरकारी लोग बस्ती में मुअज्जिसों और गुंडों से संबंध बना कर लोगों को लूटते है। वे बस्ती की ताकत को अपनी ताकत बना लेते हैं। और फिर बस्ती का कचूमर बना देते हैं। इसलिए समझदार लोगों को इनका कवच और हथियार बनने से बचना चाहिए। तुम्हारी इस बारे में क्या राय है?'
जनार्दन की बात सुन कर दीपक मुस्कराया। और उसने उसी गंभीरता से कहा - 'जनार्दन, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। यह तुम्हें पता ही होगा। और यह भी पता होगा, जो जहाँ है वहाँ लूट रहा है। महादेव अपनी माँ को लूट रहा है। वह जमीन तोड़ती है और माँगती है तब महादेव का कुआँ भरता है। दरअसल तुम्हें यह पता नहीं है कि लोग जानवर हैं। एक से दिखनेवाले अलग-अलग किस्म के जानवर। ताकतवर जानवर भोग कर रहे हैं। ताकतवर रहना पड़ेगा। या मर जाना चाहिए। तुम्हारा इस बारे में क्या खयाल है?'
जनार्दन उसकी बात सुन कर तिलमिला गया। यह उसका दोस्त कैसी बातें कर रहा है। क्या यह स्वयं को भी पशु मान चुका होगा। और क्या मुझे भी ऐसा ही मानता होगा। यह जो चारों तरफ हो रहा है, इसे ले कर क्या इसमें जरा भी बेचैनी नहीं होती होगी।
'दीपक, तुमने जो कुछ कहा, यदि यह सही भी है, यदि ताकत जीत रही है और यह जीत मनुष्य को पशुता की तरफ धकेल रही है तो हमारा तुम्हारा क्या फर्ज बनता है, मैं यह पूछ रहा था।'
'अच्छा... जहाँ तक फर्ज का सवाल है मैं यह सोचता हूँ कि यह एक किस्म से खुद को धोखा देनेवाली चीज है। जीतना ताकत की भूख है और जीत कर भोगने में है। ताकत को नहीं रोका जा सकता।'
जनार्दन तमतमा गया - 'कैसे नहीं रोका जा सकता? लेकिन सिर्फ तब जब इस ताकत में नहीं, इसके विरुद्ध एक नई ताकत में खुद को दे दिया जाए।'
'एक बहुत ही अच्छी किताबी बात तुम कह रहे हो।' दीपक ने ताली बजाई और फिर जनार्दन को एक धौल जमाते हुए बोला, 'ये ऊँची बातें रहने दो। अपना दिमाग नहीं चलता। कुछ और सुनाओ।'
मगर जनार्दन खोया रहा। दीपक के तर्क उसे बहुत ही भयानक लग रहे थे। उसे लग रहा था जैसे उसकी कोई बहुत ही पवित्र चीज दुश्मनों की हो कर उसे चिढ़ा रही हो। दीपक यह सब समझ रहा था। आखिर उसने उमड़ते हुए कहा, 'भाड़ में जाएँ ईओ और महादेव और सब। साला अपन क्यों अपना दिमाग खराब करें। तुम यदि ये चाहते हो कि मैं ईओ मंडल में न रहूँ तो नहीं रहूँगा। मगर ये तुम्हारी खामखयाली है कि वहाँ मेरे न रहने से जनता का कोई बड़ा भला हो जाएगा। लेकिन तुम्हें लगता है कि मेरा वहाँ रहना ठीक नहीं है तो हटाओ सालों को, इधर क्या।'
दीपक ने यह बात बड़ी भावना से की थी। जनार्दन खुश हो गया, बोला 'ये तर्क तुम यों ही कर रहे थे न।'
दीपक कुछ देर सोच कर बोला 'हाँ... तर्क मैं यों ही कर रहा था। मगर तुम्हारा ये महादेव को ले कर जो पागलपन है वह मुझे बेतुका लगता है।'
दोनों मित्रों ने हल्के हो कर अभी बातें शुरू की ही थीं कि ईओ साब चौरसिया और ठाकुर के साथ दीपक के यहाँ पहुँच गए। जनार्दन को तीनों ने विशेष सम्मान दे कर प्रसन्नता व्यक्त की कि 'अच्छे मौके पर आए।'
ईओ साब को देखते ही दीपक को याद आ गया कि आज पार्टी है। ईओ साब के लड़के का पहला जन्मदिन है। पार्टी गुप्ता की बगिया में है। दीपक बोला 'आप क्या मुझे याद दिलाने आए है?'
'नहीं, आपको क्या याद दिलाना। पता चला कि जनार्दन भाई आए हैं। सोचा रिक्वेस्ट करता चलूँ।' फिर जनार्दन की तरफ देख कर बोला, 'जनार्दन भाई, दीपक के साथ आप को भी आना है। आप नहीं आए तो मैं समझूँगा आप मुझसे नाराज हैं।'
जनार्दन विचलित-सा हो गया। ईओ से पहले कभी भेंट नहीं हुई थी। यह पहली मुलाकात थी। ईओ की विनम्रता और आत्मीयता उसे बहुत सहज लगी। वह एकदम युवा था। उसके बाल लंबे और कद मझोला था। उसकी आँखों का भाव यद्यपि बुरा था मगर उनमें चंचलता नहीं थी। ईओ चला गया तो जनार्दन की ओर देख कर दीपक हँस पड़ा - अब?
जनार्दन थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, 'अब क्या। तुम जाना मेरा तो सवाल ही नहीं उठता।'
'तो यह तुम्हें उसी से कहना चाहिए था।'
'तुम कह देना।'
'मैं क्यों कह दूँ? अपनी बात खुद बोलनी चाहिए।'
'खुद तो मैं बहुत कुछ बोल सकता हूँ।'
दीपक ने स्थिर हो जनार्दन की आँखों में देखा और बोला, 'जनार्दन तुम अब नहीं बोल सकते। जब वह आया था सिर्फ तभी बोल सकते थे।'
जनार्दन बोला, 'तुम न जाने यार कहाँ की तोप समझते हो उस ईओ को। मैं अपनी में आ जाऊँ तो अभी पता चल जाएगा।'
दीपक चुप रह गया। जनार्दन उत्तेजित और आहत हो कर बकने लगता है। और ऐसा करते समय वह ओछा-सा लगता है, क्षुद्र-सा। दीपक को अच्छा नहीं लगता। इसलिए वह ऐसे मौकों को टाल जाना चाहता है - 'अच्छा ठीक है मत जाना। मैं भी नहीं जाऊँगा,' कह कर दीपक ने जनार्दन का हाथ पकड़ कर उसे उठाया, 'जनार्दन, तुम दो चार दिन के लिए आए हो, अब ये फालतू की बातें अपन छोड़ें। एंजाय करें। तुम्हारे आने को सेलिब्रेट करें।'
इसी बीच दीपक को बुलाने नौकर आ गया। फैक्ट्री में कोई नहीं था। पिताजी बाहर गए थे। दीपक ने जनार्दन को बहुत मनाया कि फैक्ट्री चले मगर वह नहीं माना। उसे बस्ती में घूम-फिर कर और लोगों से मिलने की इच्छा हो रही थी।
जनार्दन बाजार में कहीं इस दुकान में खड़ा हो जाता, कहीं उस चबूतरे पर बैठ जाता। जो उसे देखता वही या तो राम-राम करता या उसके पास रुक जाता। थोड़ी देर बातें करता। बस स्टैंड पर वह इंटर कालेज के मास्टरों के झुंड से मिल कर लल्लू होटल की ओर बढ़ ही रहा था कि महादेव महाराज ने उसे पुकारा - 'जनार्दन भाई।' और आ कर महादेव उससे लिपट गया। उसे अटपटा लग रहा था। क्योंकि इससे पहले महादेव कभी उससे लिपटा-विपटा नहीं था। मगर उसने उसकी पीठ थपथपाई।
'जनार्दन भाई, आपका यह महादेव अब यहाँ का चेअरमैन है।' महादेव ने उचित ही गर्व किया और बोला, 'आपको पता चला होगा कि मैंने गाना छोड़ दिया है। मगर आप आए हैं तो आज गाऊँगा। और ऐसा गाऊँगा कि तानसेन भी घबड़ा जाए।'
दो-चार लोग जो खड़े थे हँस पडे। महादेव को कोई फर्क नहीं पड़ा।
'जनार्दन भाई, आपको सड़क पर चलने में परेशानी हो रही होगी। यह मेरे लिए शर्म की बात है। मैंने कहीं-कहीं कोशिश की है अपने हाथ से ठीक करने की मगर कहाँ तक ठीक करूँ। ये ईओ कागजों में दो बार ठीक करवा चुका है। लेकिन मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।'
जनार्दन उसके साथ लल्लू होटल में बैठ गया। कुछ और लोग भी आ बैठे। महादेव की लनतरानियाँ शुरू हो गईं। उसने चेअरमैन के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के कई किस्से सुनाए। बस्ती के बड़े लोगों के कर्मों का रोजनामचा खोला। ईओ मंडल की गतिविधियों का भीषण दृश्य खींचा और अंत में जनार्दन से बोला, 'जनार्दन भाई, एक लेख लिख दो इस सब पर, छपवा मैं लूँगा। अखबार का टंटा भी करना पड़ेगा।'
जनार्दन ने लिखने का वादा किया। महादेव ने विदा होते समय यह वादा किया कि शाम को यहीं लल्लू होटल में बैठा मिलेगा और जम के गाएगा।
जनार्दन घर जा कर माँ के पास बैठ गया। उसका मन बुरी तरह उलझ चुका था। इसलिए बातों का कोई सिलसिला ही ढंग से नहीं बन पाया। आखिर माँ ने खाट बिछा दी और बोली, 'थोड़ी देर सो लो।'
जनार्दन आँखें भींचे पड़ा रहा। थोड़ी देर झपकी भी ली। उतने में ही अजीब-सा बदमजा सपना आया। सपना तो वह भूल गया। लेकिन सपने के प्रभाव से वह और भी उखड़ गया। सपने को याद करने की कोशिश करता वह पड़ा था, तभी दीपक आ पहुँचा। वह भी खाट पर पसर गया।
जनार्दन ने आँखें खोल कर अपने जागने का संकेत दिया और फिर बंद कर लीं।
माँ ने चाय रख कर दोनों को पुकारा, 'उठो शाम को भी सोया जाता है।' दोनों उठ बैठे और चाय पीने लगे। जनार्दन और दीपक साथ हों और इतनी देर तक चुप रहें, माँ को यह बड़ा ही अटपटा लग रहा था। फिर जनार्दन जब से आया था तभी से उखड़ा-उखड़ा था। बच्चों की बातें और अपने दफ्तर के लतीफे भी उसने नहीं सुनाए थे। दीपक भी अपने स्वभाव के विपरीत चुपचाप-सा था। माँ को आशंका हुई कहीं दोनों लड़ तो नहीं पड़े।
'तुम दोनों में झगड़ा हो गया है क्या?' माँ से न रहा गया तो वह पूछ बैठी।
'हम दोनों में झगड़ा!' जनार्दन बोला, 'हम दोनों में क्यों झगड़ा होने लगा।'
दीपक हँसने लगा, फीकी हँसी। जनार्दन ने उसकी हँसी देखी और समझ गया अब यह चुप रहना चाहेगा।
चाय पी कर वे बाहर निकल गए। बाजार की तरफ थोड़ा चले फिर लौट कर दीपक के घर चले गए। घर के बाहर मैदान में कुर्सियाँ डाल कर बैठ गए। दोनों चुप। आखिर जनार्दन बोला, 'दीपक, तुम्हें मेरी कोई बात बुरी लग गई है।' दीपक के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। जनार्दन उत्तर की प्रतीक्षा में उसे देखे जा रहा था। दीपक देर तक कुछ नहीं बोला। 'दीपक कुछ बोलो या मैं चला जाऊँ।'
दीपक ने जनार्दन की ओर देखा और मुस्करा कर बोला, 'मुझे तुम्हारी कोई बात बुरी नहीं लगी। तुमने ऐसा कहा भी क्या है। बस यूँ ही मन खराब है।'
'फिर भी कोई बात तो होगी जिससे मन खराब हुआ होगा।'
'कोई भी बात नहीं। न जाने क्यों ऐसा लग रहा है जैसे अब मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ। मेरा पतन हो गया है।' कह कर दीपक ने करीब आते लोगों को देखा और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। पाँच-सात लोगों ने आते ही दीपक को उलाहना देना शुरू कर दिया। वे सब नौकरीपेशा लोग थे। दो डाक्टर और तीन मंडी समिति वगैरह के लोग।
'आप यहाँ बैठे हैं और वहाँ आपके बिना गिलास सूखे पड़े है। चलिए फौरन। और जनार्दन भाई आप भी। इनके बिना तो चल ही जाएगा। आपके बिना पार्टी ही नहीं होगी, ईओ साब ने कहा है।'
दीपक और जनार्दन एक-दूसरे को देखने लगे। डाक्टर ने, जिसके बाएँ गाल पर मस्सा था, उत्साह में भर कर कहा, 'चलिए तो आप लोग, देखिए कैसा ऊँचा मामला है। जितनी जिसे पीनी हो पिए।'
दीपक बोला, 'हम लोग नहीं जा सकेंगे।'
पाँचों एक साथ चौंक कर बोले, 'क्या... नहीं जा सकेंगे?' फिर डाक्टर बोला - 'पता है आपको इस पार्टी को ले कर ईओ कितना सेंटीमेंटल है। फील कर जाएगा भाई।'
दीपक बोला, 'बताया न, हम लोग नहीं जा सकेंगे।' जनार्दन भी अब कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'दीपक, तुम जाओ। मेरी तबीयत ठीक होती तो मैं भी चलता। आप लोग इसे ले जाइए।' इतना कह कर जनार्दन तेजी से अपने घर की ओर चल दिया। दीपक उसके पीछे भागा। थोड़ा आगे उसे रोक कर बोला, 'तुम नहीं जाओगे तो मैं भी नहीं जाऊँगा।'
जनार्दन ने दबी लेकिन भीषण आवाज में कहा, 'तुम नहीं गए तो अभी शहर वापस चला जाऊँगा समझे। चुपचाप चले जाओ।'
जनार्दन ने पलट कर देखा और जाते-जाते ताकीद कर गया 'जाओगे नहीं तो ठीक नहीं होगा।'
वे पाँचों कुछ भी न समझ सके कि मामला क्या है। दीपक को साथ ले कर वे चले गए।
जनार्दन घर जा कर एक अलमारी से जूझने लगा। उसमें उसकी किताबें और कागजात रखे थे। उन सब को उसने नीचे पटक दिया और फिर पलट-पलट कर देखने लगा। मगर उसका मन कहीं और ही था। कल जब ईओ पूछेगा कि क्यों नहीं आए तब क्या वह असली कारण बता पाएगा? और यदि नहीं बता पाएगा तो क्या कह कर उसकी आत्मीयता का उत्तर देगा। उसने कैसे अपनत्व से कहा था। और किस तरह उसने लोगों को यह कह कर भेजा कि जनार्दन भाई नहीं पहुँचे तो पार्टी नहीं होगी।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। सामने ईओ खड़ा था - 'आपको लेने आया हूँ। सभी लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
जनार्दन बिना कुछ बोले बाहर निकल आया। ईओ के साथ यंत्रवत चल पड़ा। चलते-चलते बोला, 'दरअसल मेरी तबीयत ठीक नहीं थी...।'
'वो सब ठीक हो जाएगी वहाँ। आप समझ नहीं सकते कि आपसे मिलने को सब लोग कितने बेकरार हैं। आपके बारे में दीपक बताता रहता है। इसी से सबको आपके साथ बैठने की बड़ी उत्सुकता है।' ईओ बोला।
जनार्दन चलता रहा। बाजार आ गया। और बाजार की अंतिम दुकानें भी आ गईं। फिर बस स्टैंड और लल्लू का होटल। वहाँ पहुँचते ही जनार्दन को याद आया महादेव महाराज प्रतीक्षा कर रहा होगा। और वाकई लल्लू होटल में हजम्मा जुड़ा था। महादेव बाहर खड़ा पानी के कुल्ले कर रहा था। उसने जनार्दन को देखते ही हाथ हिलाया। जनार्दन ने हाथ हिला कर उत्तर दिया और सीधा चलता रहा। महादेव को अजीब लगा। ईओ के साथ चले जा रहे हैं जनार्दन भाई। और अब तो सचमुच चले ही गए। जब तक वे दोनों मुड़ नहीं गए, महादेव महाराज सकते की हालत में उन्हें देखते ही रहे।
जनार्दन अब तेज कदम बढ़ रहा था। वह जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँच कर पी लेना चाहता था। वरना उसका माथा फट जाता।
बगिया में गैस की चार-पाँच लालटेनें पेड़ों पर टँगी थीं। उनके प्रकाश में कई कुर्सियाँ, बेंचें, तखत और खाटें पड़ी थीं। बीच में एक तखत पर ढेर गिलास रखे थे। बड़ी-बड़ी प्लेटों में सलाद भरा पड़ा था। चार बोतलें रखी थीं। एक ओर ईंटों के चूल्हे पर डेग चढ़ी थी। चूल्हे के आसपास तीन-चार पल्लेदार काम में लगे थे। करीब बीस-पच्चीस लोग, जिन्हें ईओ मंडल के नाम से जाना जाता था, कुर्सियों पर बैठे, खाटों पर लेटे यहाँ-वहाँ टहलते उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पहुँचते ही उत्साह का संचार हो गया। ओमी ने बोतल खोली और गिलासों में ढालना शुरू कर दिया। लोगों ने सिगरेटें सुलगा लीं। जनार्दन का एक-एक से परिचय कराया जाने लगा। अधिकांश लोग उसे जानते ही थे। वे उससे मिल कर और उसे पार्टी में पा कर बहुत प्रसन्न हुए। इस बीच गिलास हाथों में आ गए और पीना शुरू हो गया।
जनार्दन को दीपक ने अपने पास बिठा लिया। जनार्दन के दाईं तरफ कुँअर साहब बैठे थे। उन्होंने एक साँस में गिलास खाली कर दिया। जनार्दन ने भी जल्दी ही निबटा कर दूसरी बार ले ली और एकदम पी गया। लोग चुटकलों, गजलों के मूड में आ गए। बेहद गंदे चुटकुले चलने लगे।
जनार्दन कुँअर साहब की और मुखातिब हो कर बोला, 'कुँअर साहब, सुना है आप कांग्रेस आई में हैं।'
कुँअर साहब ने हामी में सिर हिलाया।
'आप जैसे आदमी को जब मैं इस पार्टी में देखता हूँ तो मुझे बहुत दुख होता है। आप जैसे दमदार लोगों को तो किसी क्रांतिकारी पार्टी में होना चाहिए। आखिर राजा साब आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे न।' कुँअर साहब इतने गंभीर वार्तालाप के लिए शायद तैयार न थे। टालते हुए बोले, 'हाँ, मगर अब जो है सो ठीक है।'
'ठीक कैसे है कुँअर साहब। गरीब आदमी की तरफ से आप जैसे लोग नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा।'
दीपक ने हस्तक्षेप किया, 'इस मुद्दे पर अपन बाद में बात करेंगे। पहले उन लोगों की बात सुनो, वे तुमसे कविताएँ सुनना चाहते हैं।'
मस्सेवाला डाक्टर बोला, 'हम लोग महीनों से आपके इंतजार में हैं। सुनाइए।'
फिर सब लोग उसके पीछे ही पड़ गए। जनार्दन को नशा चढ़ गया था इसलिए सारा दृश्य नजर आ रहा था और लोगों की आवाजें धीमी लग रही थीं। उसने गिलास बढ़ा दिया। लोगों ने उत्साह में खूब डाल दी। वह नीट ही पी गया। फिर सिगरेट सुलगा कर बोला, 'अगर आप लोग कविता सुनना चाहते हैं, अपनी तो याद नहीं है। एक बहुत बड़े कवि को सुनाता हूँ।'
लोग उत्सुक हो उसकी ओर देखने लगे। जनार्दन का सिर चकराने लगा। उसे लल्लू होटल दिखा। महादेव महाराज देख कर सकते में उसे देखता। जनार्दन गों गों करते कुछ बोला। लोग हँस पड़े। तो उसने तैश में गरदन झटकी। दीपक ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और बोला, 'सुनाओ जनार्दन।'
जनार्दन बोला 'सुनो -
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
उदरंभरि बन... '
यहाँ तक आते-आते जनार्दन की जीभ ऐंठ गई। दूसरे ही क्षण उसने उल्टी कर दी। वह कुर्सी पर गिर पड़ा। फिर कुर्सी जमीन पर गिर पड़ी। वह धूल में औंधा पड़ा ओंकने लगा।
---नवीन सागर---
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें