गुरुवार, 2 मई 2013

सड़क


भर्र-भर्र करती हुई एक जीप दुकान के सामने रुकी।

'ओ चायवाले, चार कप चाय बनाना,' - कह कर एक आदमी तीन आदमियों के साथ दुकान के आगे पड़ी खाट पर बैठ गया और वे आपस में बनती हुई इस सड़क के बारे में बातचीत करने लगे।

चायवाले ने कोयले के चूल्‍हे पर खौलते पानी को पतीली में डाल कर अंदाज से उसमें चाय, चीनी और दूध मिला दिया और काँपते हाथों से आँखें नीची किए चार कप चाय तिपाई पर रख आया।

'अरे हो हो, क्‍या वाहियात चाय बनाई है इस बुड्ढे ने,' कह कर उस आदमी ने झटके से प्‍याला सहित चाय नीचे लुढ़का दी। शेष तीनों आदमियों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई, लेकिन चाय सुड़कते रहे।

अब जा कर चायवाले ने आँख उठाई और क्रोध से बड़बड़ाते उस आदमी ने भी चायवाले को देखा और आश्‍चर्य से बोल उठा -

'अरे, आप मास्‍टर साहब।'

और मास्‍टर चंद्रभान पांडे ने देखा कि वह आदमी और कोई नहीं, उसके इलाके के एमएलए जंगबहादुर यादव हैं। उनकी आँखें शर्म से झुक गईं और झुकी हुई आँखें पोर-पोर फटी हुई खादी की धोती के बड़े-बड़े सुराखों में उलझ गईं।

यादव जी ने एक ठहाका लगाया - 'अच्‍छा मास्टर जी, आपने अब यह धंधा भी शुरू कर दिया। ठीक है आदमी को कुछ-न-कुछ करते रहना चाहिए। पैसा बड़ी चीज है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो कहिएगा, मास्‍टर जी।' फिर एक ठहाका लगाया और साथ के लोगों ने भी ठहाके का अनुसरण किया। एक ने खुशामद के तौर पर कहा, 'अरे यादव जी, आपकी बदौलत जब इस इलाके में सड़क आ रही है, तो न जाने कितने लोगों का पेट पलेगा।'

यादव जी ने पाँच रुपए का एक नोट निकाला और मास्‍टर साहब की ओर बढ़ा दिया।

'मेरे पास खुले रुपए और पैसे नहीं हैं।' मास्‍टर जी ने कहा।

'अरे तो रखिए न, कौन आपसे पैसे वापस माँग रहा है?'

'नहीं, मैं आपसे वैसे भी पैसे लेने का अधिकारी नहीं हूँ। आपने तो चाय पी ही नहीं।'

'अरे तो चाय के पैसे कौन दे रहा है गुरूजी। इसे गुरु दक्षिणा समझ लीजिए। रख लीजिए, काम आएगा।'

पांडे जी तिलमिला गए। हाथ में पाँच रुपए का नोट पकड़े मर्माहत से रह गए। उनके मन में क्रोध का एक बवंडर उठा। आँखों में हिकारत भर वे यादव जी की ओर बढ़े और पाँच का नोट उनकी ओर फेंक कर चिल्‍लाए - 'यादव जी, ये अपने रुपए लेते जाइए, मैं भीख नहीं माँगता।'

लेकिन यादव जी जीप में बैठ चुके थे। मुस्‍करा कर पांडे जी और उनके द्वारा फेंके गए रुपए को देखा। जीप भर्र-भर्र करके स्‍टार्ट हुई और उसकी धूल भरी हवा में नाचता हुआ नोट थोड़ी दूर जा गिरा।

कुछ देर तक नोट धूल-भरी हवा में छटपटाता रहा और फिर शांत हो गया। पांडे जी उसे देखते रहे, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़े और धूल झाड़ कर नोट उठा लिया। आखिर किया क्‍या जाए।

गोरे बदन, चौड़े माथे, श्‍वेत केशवाले पांडे जी खादी की एक जीण-शीर्ण धोती पहने और उसी का आधा भाग नंगे शरीर पर डाले हुए अपनी झोंपड़ी के आगे पड़ी बेंच पर बैठे-बैठे उदास हो चले थे। उनके चंदन चर्चित ललाट की सिकुड़न भरी रेखाओं में यादव जी की जीप से उड़ी हुई धूप समा गई थी। सोच रहे थे -

यादव उसे अपमानित कर गया। वह पहले ही कहता रहा कि यह काम उससे नहीं होगा। वह ब्राह्मण, पुराना कांग्रेसी, स्‍कूल का शिक्षक। क्‍या बुढ़ौती में छोटी जातियों के लोगों की तरह चाय-पकौड़ी और सुरती बेचना ही उसकी तकदीर में रह गया था। उसने कितना मना किया लेकिन अपनी संतान के आगे किसका वश चलता है। रमेश जिद कर बैठा और कुछ लोगों ने उसकी हाँ-में-हाँ मिला दी।

'पर्र...' पांडे जी उदास हो आए। हाथ लगा कर देखा खादी की धोती चूतड़ पर फिर फट गई थी। धोती क्‍या है। जैसे चीथड़ों का जोड़। खादी उसे बेपर्द करके छोड़ेगी। अब वह क्‍या करे? इसी धोती को वह इधर से उधर और उधर से इधर करके पहनता रहता है। सभी जगह से तो यह फट चुकी है। अब इधर से उधर करने की भी तो जगह नहीं बची। र‍मेश कहता है - 'छोड़िए, खादी-वादी पिताजी। मिल की धोती मजबूत और सस्‍ती होती है। वह इस तरह जगह-बेजगह धोखा नहीं देती।'

वह कब से सुन रहा है रमेश की बात को और सोचता है, ठीक ही तो कहता है रमेश। लेकिन अब क्‍या बदलना? अब तो जिंदगी बीत चली, इस बुढ़ौती में क्‍या नियम भंग करना? ...लेकिन वह कहाँ से खरीदे खादी की धोती। एक मोटी धोती भी तेरह-चौदह रुपए से कम में नहीं आती, फिर उसके साथ कुरता-टोपी, चादर-तौलिया सभी तो लगे हुए हैं। इतने में तो मिल के मोटे कपड़ों के कई कई सेट आ जाएँगे और चलेंगे भी ज्‍यादा। ...फिर भी जी नहीं मानता। जब जीना ही कितने दिन है। ...लेकिन जी के मानने न मानने का ही सवाल तो नहीं है। उसे स्‍कूल से रिटायर हुए पाँच वर्ष हो गए, खेत के नाम पर तीन बीघे खेत - वो भी बाढ़ग्रस्‍त कछार के खेत। छह-सात आदमियों का गुजर- बसर कैसे होगा। महेश तो पढ़-लिख कर परिवार सहित बाहर चला गया नौकरी करने। उसका अपना ही गुजर-बसर मुश्किल से होता है। छोटा लड़का रमेश बहुत ढकेलने पर भी आठवीं पार नहीं कर सका। लिपट गया खेती-बारी में। उसके तीन बच्‍चे हैं, दोनों जून भरपेट खाना तो मिलता नहीं, ये खादी के कपड़े कहाँ से आएँ?

दुकान के सामने की सड़क से लोग आ जा रहे थे। पांडे जी ने झोंपड़ी के पीछे जा कर धोती इधर उधर करने की बहुत कोशिश की लेकिन अब उन्‍हें कोई गुंजाइश नहीं दीखी। उसे क्रोध हो आया कि इस ससुरी धोती को फाड़-फूड़ कर फेंक दे और नंगा हो जाए। ...अरे नंगा तो हो ही गया है। चाय की दुकान खोल कर नंगा हुआ है? हर परिचित आदमी एक व्‍यंग्‍यमयी दृष्टि से उसे देखता है और अजब-अजब सवाल करता है और तिस पर यह यादव का बच्‍चा उसे इतना अपमानित कर गया। उसे इतना क्रोध आया कि इस यादव के बच्‍चे को फिर एक बार बेंच पर खड़ा करके उसके चूतड़ पर बेंत लगाए, लेकिन अब तो वह एमएलए हो गया है, छात्र नहीं रहा। वह अपना क्रोध अपने भीतर ही दबाए सुलगने लगा। लेकिन उसे एक बात से बड़ी राहत मिली कि उसने इस एमएलए के बच्‍चे को स्‍कूल में कई बार बेंच पर खड़ा कर बेंत से पीटा है। अब भी उसके चूतड़ पर बेंत के निशान होंगे। धीरे-धीरे स्‍कूल के दिन उसके सामने सरक आए। तब कौन जानता था कि यह जंगली आगे चल कर जंगबहादुर यादव, एमएलए बन जाएगा। क्‍लास में सबसे बोदा लड़का यही था। इसे हर रोज मार पिटती थी। कई बार तो इसने लड़कों के चाकू, दावात, पेंसिलें चुरा ली थीं और उसने इसे बेंच पर खड़ा करके बहुत पीटा था। एक बार तो इसने गांधी जी की तसवीर दूसरे लड़के की किताब से फाड़ ली थी और उस पर पेशाब कर दिया था। फिर तो उसने इसे स्‍कूल से ही निकाल दिया था। बाद में लोगों के कहने-सुनने पर वापस ले लिया था... अब वह बड़ा नेता बन गया है। पता नहीं, इस देश में कैसे इतने बड़े-बड़े चमत्‍कार हो जाते हैं। ...उसे लगता है कि लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए और वह खादी की फटी धोती पकड़े हुए बैठा है।

शाम को रमेश आया और दोनों आदमी दुकान उठा कर घर ले गए।

'मुझसे यह नहीं होगा, रमेश।' पांडे जी थके-थके से बोले।

'क्‍यों पिताजी?'

'लोग मुझे बहुत छोटी नजर से देख रहे थे आज। मैं लोगों की निगाह नहीं झेल पा रहा था।'

'हाँ पिताजी, भूख से भारी लोगों की निगाहें ही होती हैं न। तो ठीक है, हम लोगों की निगाहें क्‍यों झेलें, भूख ही झेलें।'

बीच में एक चुप्‍पी पसर गई।

'बैठने को तो मैं बैठता, देखता - कौन साला मेरा अपमान करता है, लेकिन फिर खेती-बारी चौपट हो जाएगी।'

पांडे जी कुछ नहीं बोले।

'कुछ मिला, बाबू जी?'

'हाँ, दो रुपए कमाई के और पाँच रुपए गुरु-दक्षिणा के।'

'गुरु-दक्षिणा कैसी?'

पांडे जी ने यादव की कहानी सुना दी।

'अरे तो इसमें इतना आहत होने की कौन-सी बात है, बाबू जी। सौ हम लोगों से खाता है, पाँच दे ही गया तो क्‍या हो गया?'

पांडे जी ने रमेश को मार खाई हुई दृष्टि से देखा। रमेश हँस रहा था।

रात को पांडे जी लेटे तो बड़ी बेचैनी अनुभव कर रहे थे। वे अपने से ही पूछ रहे थे - क्‍यों भाई आदर्शवादी कांग्रेसी, तपे हुए शिक्षक, नशाखोरी के दुश्‍मन। तुम्‍हारी यही परिणति होनी थी। जिन्‍हें तुमने जीवन-भर ज्ञान पिलाया, क्‍या उन्‍हें अब चाय-पकौड़ी खिलाओ-पिलाओगे? जिनके सामने नशे के विरुद्ध बोलते रहे, उन्‍हीं के लिए सुरती तौलोगे? नहीं-नहीं, यह नहीं होगा।

वह कब से सोच रहा था कि काश, इस पिछड़े हुए कछार में एक सड़क आती। लेकिन सारी-की-सारी सरकारें तो सोई हुई हैं इस कछार की ओर से आँख फेर कर। सड़कें तो दुनिया में कितनी हैं लेकिन अपने जवार में सड़क आने का और उस पर यात्रा करने का सुख कुछ और ही होगा। कितना प्‍यारा होगा नदियों-नालों, खंदकों-खाइयों के ऊपर से भागती सड़क का यात्री होने का। कितनी सुविधाएँ बढ़ जाएँगी। लेकिन तब उसने कहाँ सोचा था कि सड़क के आने का कोई और मतलब भी हो सकता है।

और जब कच्‍ची सड़क पक्‍की सड़क बनने लगी तो रमेश ने कहा, 'बाबू जी, कच्‍ची सड़क पक्‍की सड़क बन रही है - यह बहुत अच्‍छा हुआ। अपना एक खेत सड़क के किनारे ही है और उसी के पास बस अड्डा भी बननेवाला है। हम क्‍यों न वहाँ कोई दुकान खोल दें? शुरू में चाय की दुकान खोली जाए और कुछ सुरती की गाँठें वहाँ रख दी जाएँ। रास्‍ता तो चालू है ही, अब सड़क बन रही है, वह और चालू हो जाएगी और बहुत से मजदूर काम पर लगेंगे।'

'अच्‍छा, देखा जाएगा।' टालने की गरज से पांडे जी ने कहा।

'देखा नहीं जाएगा, अभी शायद किसी के दिमाग में यह चीज आई नहीं है, बाद में तो सभी भरभरा कर दुकानें खोल देंगे। हमें सबसे पहले अपनी दुकान जमा लेनी चाहिए।'

एक चुप्‍पी छाई रही।

'इस बुढ़ौती में आपको खेती-बारी के काम करने पड़ते हैं, इससे अच्‍छा होगा कि आप दुकान पर बैठें। आराम से आपके दिन भी कट जाएँगे और चार पैसे की आमदनी भी हो जाएगी।'

'क्‍या कहते हो - अब मैं दुकानदारी करूँगा?' वह तैश में उठा था तो उसकी धोती फट गई थी।

और जब रोज-रोज रमेश के विचार उसके दिमाग से टकराने लगे तो एक दिन दुखी मन से स्‍वीकृति दे दी। बनती हुई सड़क के पासवाले खेत में एक झोंपड़ी पड़ गई, कुछ सुरती के पत्ते तथा चाय के सामान रख दिए गए। वह आज पहली बार दुकान पर बैठा था।

लेकिन नहीं, वह कल दुकान पर नहीं जाएगा। उसका रोम-रोम परिताप से सुलग रहा है, गरीब हुआ तो क्‍या - इस बुढ़ौती में अपनी आबरू बेचेगा। करवट ली तो धोती फिर पर्र से बोल गई। अब नंगा हो कर घर तो रह सकता है लेकिन क्‍या दुकान पर भी जाएगा इसी रूप में?

सुबह हुई तो रमेश दुकान का सामान लिए हाजिर हो गया। पांडे जी अधनंगे लेटे रहे।

'बाबू जी, दुकान नहीं जाइएगा?'

पांडे जी की इच्‍छा तो हुई कि कह दें - नहीं जाऊँगा। लेकिन कह नहीं सके। दर्द-भरी आवाज में बोले, 'नंगा ही जाऊँ क्‍या?'

सामान नीचे रखते हुए रमेश भारी मन से बोला, 'अब क्‍या कहा जाए। कुछ रुपए इकट्ठे हो जाएँ तो आपके लिए खादी की एक धोती ला दूँ। खादी भी कितनी महँगी हो गई।'

पांडे जी ने देखा कि रमेश के बच्‍चे फटे-पुराने नेकर पहने उसके सामने से स्‍कूल चले गए। उन्‍हें एक चोट-सी लगी - क्‍या वह इतनी महँगी खादी की धोती पहन कर बच्‍चों को नंगा रखेगा? आज तक तो उसने यही किया। उसे क्‍यों नहीं मालूम हुआ कि खादी-खादी में भेद होता है। एक खादी उसकी है, एक यादव जी की। यादव ही खादी पहनने का हकदार है क्‍योंकि उसके शरीर पर खादी का विकास हुआ है और वह? वह नहीं, उसके शरीर पर तो खादी फटती ही चली गई है।

रमेश सामान लिए अंदर जा रहा था कि पांडे जी ने पुकारा

'रमेश!'

'हाँ, बाबू जी।'

'तुम्‍हारे पास एक के अलावा कोई साबुत धोती है?'

'हाँ, है बाबू जी।'

'लाना तो बेटे।'

रमेश ने व्‍यथा, आश्‍चर्य और प्रसन्‍नतामिश्रित आँखों से पिता को देखा। पिता ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया था।

                                                                 ---रामदरश मिश्र---

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